Tuesday, February 21, 2012

एक राजस्‍थानी कविता - मिनख रौ पगफेरौ

मिनख रौ पगफेरौ  


मिनख अर दूजा जीव-जिनावरां रै पगफेरै में
औ ई तौ आदू फरक व्है के
मिनख जिण दिस री सीध लेवै
उण दिस रा रूंखां री रंगत फुर जावै,
पंखेरुआं री बोली नै मिळ जावै नुवां बोल
पगोपग आवती पीढियां री हलगत सूं
सासतै जीवण री आस बंध जावै !

उणरी अगवाणी में पग / सीख लेवै
पंगत पंगत हालणौ / अर दूजा मारका जिनावर
ऊंचा डूंगरां में सोध लेवै ओला -
मोभी मिनख एक मरजाद बांध देवै
            कुदरत रै कळाप री !

रिंधरोही में मारग एक थ्यावस व्है,
जीवां री कळझळ आ धीर बंधावै के
नैड़ौ कठैई मिनख रौ वासौ है
हिबोळा खावतै समदर रै आभै में
एक उडतै पंखेरू रौ कांई व्है
उणनै एक भटक्योड़ै नाविक सूं
          बधीक कुण जांण सकै !

अंधारै में घिरोळा खावती दीठ नै
जद दीख जावै उजास री
एक निमधी आस
संकीजती ऊरमा नै मारग मिळ जावै
अंतस री साध रौ,
 अर आ ई साध
सजीवण कर देवै
आखी स्रष्टी नै !
मिनख अर दूजा जिनावरां रै पगफेरै में
औ ई तौ आदू फरक व्है !
**

मूल राजस्‍थानी कविता का हिन्‍दी अनुवाद -
     इन्‍सान का पगफेरा

इन्‍सान और दूसरे जीव-जानवरों के पगफेरे में
यही तो आदिम फर्क होता है कि
वह जिस दिशा की ओर अपने कदम बढ़ाता है
उस दिशा के दरख्तों की रंगत बदल जाती है,
पक्षियों की बोली को मिल जाते हैं नये बोल
पांव-पांव आती अनथकी पीढियों की हलचल
जूझते जीवन में नयी आस बंधाती है!

उसकी अगवानी में पांव सीख लेते हैं
अपनी पंगत में रहकर चलना और दूसरे हिंसक जीव
ऊंचे पर्वतों में खोज लेते हैं एकाकी निरापद आसरा -
दानिशमंद आगीवान  एक मर्यादा बांध देते हैं
            कुदरत के उलझे क्रिया-कलाप की !

निर्जन जंगल में रास्ता एक तसल्‍ली  देता है -
जीव-पक्षियों का कलरव यह धीरज बंधाता है कि
करीब ही कहीं इन्‍सानी बस्ती है
हिलोरें खाते समंदर के खाली आसमान में
उड़ते पक्षी का होना, क्या मायना रखता है
उसे एक भटके नाविक से बेहतर कौन जानेगा ?

अंधेरे में चक्कर खाती दीठ को
जब दीख जाती है उजास की हल्की-सी उम्मीद
संकोच में दबी ऊर्जा को नया मार्ग मिल जाता है
अंतस के साध्य का,
और यही साध्य सजीवन कर देता है समूची सृष्टि !
इन्‍सान और दूसरे जीव-जानवरों के पगफेरे में
यही तो आदिम फर्क़ होता है !

              ***

Sunday, February 12, 2012

आदमी के हाथ


 इतने वहशी
और बर्बर
कैसे हो उठते हैं आखिर
              आदमी के हाथ
कैसे मार लेते हैं
अपने भीतर का आदमी ?

हाथ -
जो गिरते को सहारा देते हैं,
हाथ -
जो डूबते असहाय को
किनारा देते हैं,
हाथ -
जो सुहागन की मांग में
पूरते हैं सिन्दूर,
हाथ -
जो हजारों की हिफाजत में
अपने को होम देते हैं -

जिनके ईमान पर
टिका हुआ है आसमान
जिनके दीन पर
टिकी हुई है दुनिया,
जिनकी अंगुली को थाम कर
उठ खड़ी होती है
एक पूरी की पूरी कौम,
उस कौमियत की कोख में पलते
माटी की गंध में खिलते
सयाने हाथ -
आखिर कैसे उजाड़ लेते हैं
अपने ही आंगन की शान्ति
                सुख-चैन,
कैसे जख्मी कर लेते हैं
अपनी ही देह को
और फिर रोमांचित होते हैं
अपने ही रिसते घावों से !

यह सभ्यता के
किस भयानक दौर में
आखिर पहुंचते जा रहे हैं हम
जहां आदमी-दर-आदमी की मौत
महज एक सूचना है
सुबह के अखबार की !

 धमाकों से थरथरा उठती है
धरती की कोख -
यह किस तरह की
आत्मघाती आग में
घिरता-झुलसता जा रहा है
                आदमी !

 आदमी के हाथ
जो बंजर में
फूल खिलाते हैं
लहलहाते झूमते फलते
हजारों किस्म के
दिक्कालजीवी पेड़
आदमी के हाथ का
आशीष पाते हैं !

 आज वही खुरपी सम्हाले हाथ
जब बढ़ते हैं आगे
          जड़ों की ओर
पौधों की रूह कांपती है !

 आखिर किस तरह की
हविश और हैवानियत में
मुब्तिला हैं आदमी के हाथ
      क्या वाकई जिन्दा है
      इन हाथों के पीछे आदमी ?