Tuesday, October 2, 2012



जनकवी हरीश भादानी के प्रतिनिधि गीत और कविताएं














कोलाहल के आंगन

कोलाहल के आंगन
सन्नाटा रख गई हवा
    दिन ढलते-ढलते...
    कोलाहल के आंगन!

दो छते कंगूरे पर, दूध का कटोरा था
धुंधवाती चिमनी में, उलटा गई हवा
   दिन ढलते-ढलते...
   कोलाहल के आंगन!

घर लौटे लोहे से बतियाते, प्रश्‍नों के कारीगर
आतुरती ड्योढ़ी पर, सांकल जड़ गई हवा
     दिन ढलते-ढलते...
     कोलाहल के आंगन!
कुंदनिया दुनिया से, झीलती हकीकत की
बड़ी-बड़ी आंखों को, अंसुवा गई हवा
     दिन ढलते-ढलते...
     कोलाहल के आंगन!

हरफ सब रसोई में, भीड़ किये ताप रहे
क्षण के क्षण चूल्हे में, अगिया गई हवा
     दिन ढलते-ढलते...
     कोलाहल के आंगन!

रचना है

जिन्हें अपने समय का आज रचना है
अकेली फैलती
आंखें दुखाती चाह को
सूने दुमाले से
सुबह आंजे उतरना है
     जिन्हें अपने समय का आज रचना है

आंगने हंसती हकीकत से
तकाजों का टिफिन लेकर
सवालों को मशीनों के
बियाबां से गुजरना है
     जिन्हें अपने समय का आज रचना है

तगारी भर जमीं
आकाश रखते हाथ को
होकर कलमची
गणित के उपनिषद् की
हर लिखावट को बदलना है
     जिन्हें अपने समय का आज रचना है।


जंगल सुलगाए हैं

आए जब चैराहे आग़ाज कहाए हैं
लम्हात चले जितने परवाज कहाए हैं

हद तोड़ अंधेरे जब, आंखों तक धंस आए
जीने के इरादों ने जंगल सुलगाए हैं

जिनको दी अगुवाई, चढ़ गये कलेजे पर
लोगों ने गरेबां से वे लोग उठाए हैं

बंदूक ने बंद किया, जब जब भी जुबानों को
जज़्बात ने हरफ़ों के सरबाज उठाए हैं

गुम्बद की खिड़की से, आदमी नहीं दिखता
पाताल उलीचे हैं ये शहर बनाए हैं

जब राज चला केवल कुछ खास घरानों का
काग़ज़ के इशारों पर दरबार ढहाए हैं

मेहनत खा, सपने खा, चिमनियां धुआं थूकें
तन पर बीमारी के पैबंद लगाए हैं

दानिशमंदों बोलो, ये दौर अभी कितना
अपने ही धीरज से हर सांय अघाए है

न हरीश करे लेकिन, अब ये तो करेंगे ही
झुलसे हुए लोगों ने अंदाज दिखाए हैं

आए जब चैराहे आगाज कहाए हैं
लम्हात चले जितने परवाज कहाए हैं।




मौसम ने रचते रहने की
      
मौसम ने रचते रहने की
    ऐसी हमें पढ़ाई पाटी

रखी मिली पथरीले आंगन
माटी भरी तगारी
उजली-उजली धूप रसमसा
आंखें सींच मठारी
एक सिरे से एक छोर तक
पोरें लीक बनाई घाटी,
   मौसम ने रचते रहने की
   ऐसी हमें पढ़ाई पाटी।

आस-पास के गीले बूझे
बीचो-बीच बिछाये
सूखी हुई अरणियां उपले
जंगल से चुग लाए
सांसों के चकमक रगड़ाकर
खुले अलाव पकाई घाटी,
    मौसम ने रचते रहने की
    ऐसी हमें पढ़ाई पाटी।

मोड़ ढलानों चैके जाए
आखर मन का चलवा
अपने हाथों से थकने की
कभी न मांडे पड़वा
कोलाहल में इकतारे पर
एक धुन गुंजवाई घाटी
    मौसम ने रचते रहने की
    ऐसी हमें पढ़ाई पाटी।


कल ने बुलाया है

   मैंने नहीं कल ने बुलाया है!

खामोशियों की छतें,
आबनूसी किवाड़े घरों पर
आदमी आदमी में दीवार है -
   तुम्हें छैनियां लेकर बुलाया है
   मैंने नहीं कल ने बुलाया है!

सीटियों से सांस भर कर भागते,
बाज़ार - मिलों दफ्तरों को
रात के मुर्दे,
देखती ठंडी पुतलियां -
आदमी अजनबी आदमी के लिए
   तुम्हें मन खोलकर मिलने बुलाया है,
   मैंने नहीं कल ने बुलाया है!

बल्ब की रोशनी शेड में बंद है
सिर्फ परछाई उतरती है
बड़े फुटपाथ पर,
जि़न्दगी की जि़ल्द के ऐसे
ऐसे सफ़े तो पढ़ लिये,
    तुम्हें अगला सफ़ा पढ़ने बुलाया है,
    मैंने नहीं कल ने बुलाया है!


क्षण-क्षण की छैनी से

क्षण-क्षण की छैनी से
    काटो तो जानूं !

पसर गया है घेर शहर को
भरमों का संगमूसा,
तीखे-तीखे शब्द सम्हाले
जड़ें सुराखो तो जानूं !
   क्षण-क्षण की छैनी से...

फेंक गया है बरफ छतों से
कोई मूरख मौसम
पहले अपने ही आंगन से
आग उठाओ तो जानूं !
   क्षण-क्षण की छैनी से...
चैराहे पर प्रश्‍नचिन्ह-सी
खड़ी भीड़ को
अर्थ भरी आवाज लगाकर
दिशा दिखाओ तो जानूं !
   क्षण-क्षण की छैनी से
   काटो तो जानूं !


ड्योढ़ी रोज शहर फिर आए

     ड्योढ़ी रोज शहर फिर आए...

कुनमुनते तांबे की सुइयां
खुभ-खुभ आंख उघाड़े
रात ठरी मटकी उलटाकर
ठठरी देह पखारे,
बिना नाप के सिये तकाजे
    सारा घर पहनाए
    ड्योढ़ी रोज शहर फिर आए...

सांसों की पंखी झलवाए
रूठी हुई अंगीठी,
मनवा पिघल झरे आटे में
पतली कर दे पीठी
सिसकी सीटी भरे टिफिन में
    बैरागी-सी जाए
    ड्योढ़ी रोज शहर फिर आए...

पहिये पांव उठाए सड़कें
होड़ लगाती भागें
ठंडे दो मालों चढ़ जाने
रखे नसैनी आगे,
दो-राहों चौराहों मिलना
    टकरा कर अलगाए
    ड्योढ़ी रोज शहर फिर आए...

सूरज रख जाए पिंजरे में
जीवट के कारीगर,
रचा घड़ा सब बांध धूप में
ले जाए बाजीगर,
तन के ठेले पर रान की
    थकन उठाकर लाए -
    ड्योढ़ी रोज शहर फिर आए !


रेत में नहाया है मन!

     रेत में नहाया है मन!

आग ऊपर से, आंच नीचे से
वो धुंआए कभी, झलमलाती जगे
वो पिघलती रहे, बुदबुदाती बहे
इन तटों पर कभी, धार के बीच में
     डूब-डूब तिर आया है मन -
     रेत में नहाया है मन!

घास सपनों की, बेल अपनों की
सांस के सूत में सात सुर गूंथकर
भैरवी में कभी, साध केदारा
गूंगी घाटी में, सूने धोरों पर
    एक आसन बिछाया है मन -
    रेत में नहाया है मन!

आंधियां कॉंख में, आसमां आंख में
धूप की पगरखी, तॉंबई अंगरखी
होठ आखर रचे, शोर जैसा मचे
देख हिरनी लजी, साथ चलने सजी
    इस दूर तक निभाया है मन -
    रेत में नहाया है मन!