Wednesday, December 4, 2013


अपनी कुछ कविताएं

अपना घर

ईंट-गारे की पक्की चहार-दीवारी
और लौह-द्वार से बन्द
इस कोठी के पिछवाड़े
रहते हुए किराये के कोने में
अक्सर याद आ जाया करता है
रेगिस्तान के गुमनाम हलके में
बरसों पीछे छूट गया वह अपना घर -

घर के खुले अहाते में
बारिश से भीगी रेत को देते हुए
अपना मनचाहा आकार
हम अक्सर बनाया करते थे बचपन में
उस घर के भीतर निरापद अपना घर -
बीच आंगन में खुलते गोल आसरों के द्वार
आयताकार ओरे,  तिकोनी ढलवां साळ
अनाज की कोठी, बुखारी, गायों की गोर
बछड़ों को शीत-ताप और बारिश से
बचाये रखने की पुख्ता ठौर !


न जाने क्यों
अपना घर बनाते हुए
अक्सर भूल जाया करते थे
घर को घेर कर रखने वाली
वह चहार-दीवारी !


हरी दूब का सपना


कितने भाव-विभोर होकर पढ़ाया करते थे
                    मास्टर लज्जाराम -
कितनी आस्था से
डूब जाया करते थे किताबी दृश्‍यों में
एक अनाम सात्विक बोझ के नीचे
दबा रहता था उनका दैनिक संताप
और मासूम इच्छाओं पर हावी रहती थी
एक आदमकद काली परछाई -

ब्लैक-बोर्ड पर अटके रहते थे
कुछ टूटे-फुटे शब्द -
धुंधले पड़ते रंगों के बीच
वे अक्सर याद किया करते थे
एक पूरे आकार का सपना !


बच्चे
मुंह बाए ताकते रहते
उनके अस्फुट शब्दों से
            बनते आकार
और सहम जाया करते थे
गड्ढों में धंसती आंखों से -


आंखें:
जिनमें भरा रहता था
अनूठा भावावेश
छिटक पड़ते थे
अधूरे आश्‍वासन
बरबस कांपते होठों से

और हंसते-हंसते
बेहद उदास हो जाया करते थे
                   अनायास
हर बार अधूरा छूट जाता था
हरी दूब का सपना !


हर बार

हर बार
शब्द होठों पर आकर लौट जाते हैं
कितने निर्जीव और अर्थहीन हो उठते हैं
हमारे आपसी सम्बन्ध,
एक ठण्डा मौन जमने लगता है
हमारी सांसों में
और बेजान-सी लगने लगती हैं
              आंखों की पुतलियां !

कितनी उदास और
अनमनी हो उठती हो तुम एकाएक
कितनी भाव-शून्य अपने एकान्त में,

हमने जब भी आंगन से बात उठाई
चीजों को टकराकर टूटने से
                 रोक नहीं पाए
न तुम अपने खोने का कारण जान सकी
न मैं अपनी नाकामी का आधार !

तुम्हें खुश देखने की ख्वाहिश में
मैं दिन-रात उसी जंगल में जूझता रहा
और तुम घर में ऊबती रही लगातार
गुजरते हुए वक्त के साथ
तुम्हारे सवाल और शिकायतें बढ़ती रहीं
और मैं खोता रहा हर बार
अपने शब्दों की सामर्थ्य में विश्‍वास !

 
खोज ली पृथ्वी

तुम्हारे सपनों में बरसता धारोधार
प्यासी धरती का काला मेघ होता

लौट कर आता
रेतीले टीलों के मंझधार
तुम्हारी जागती इच्छा में सपने आंजता

अब तो चिन्दी चिन्दी बिखर गया है
लौटता उल्लास
और मन्दी पड़ती जा रही है
उस चूड़े की मजीठ
जिसकी रंगत
बरसों खिलती रही
हमारे पोरों में
पर इसी जोम में खटते आखी उम्र
हमने आकाश और पाताल के बीच     
          आखिर खोज ली पृथ्वी !


    मैं जो एक दिन

मैं जो एक दिन
तुम्हारी अधखिली मुस्कान पर रीझा,
अपनों की जीवारी और जान की खातिर
तुम्हारी आंखों में वह उमड़ता आवेग -
मैं रीझा तुम्हारी उजली उड़ान पर
जो बरसों पीछा करती रही -
अपनों के बिखरते संसार का,

तुम्हारी वत्सल छवियों में 
छलकता वह नेह का दरिया
बच्चों की बदलती दुनिया में
तुम्हारे होने का विस्मय
मैं रीझा तुम्हारी भीतरी चमक
            और ऊर्जा के उनवान पर
जैसे कोई चांद पर मोहित होता है -
कोई चाहता है -
नदी की लहरों को
        बांध लेना बाहों में !


तुम्हारा होना


तुम्हारे साथ
बीते समय की स्मृतियों को जीते
कुछ इस तरह बिलमा रहता हूं
                  अपने आप में,
जिस तरह दरख्त अपने पूरे आकार
और अदीठ जड़ों के सहारे
बना रहता है धरती की कोख में ।

जिस तरह
मौसम की पहली बारिश के बाद
बदल जाती है
धरती और आसमान की रंगत
             ऋतुओं के पार
बनी रहती है नमी
तुम्हारी आंख में -
इस घनी आबादी वाले उजाड़ में
ऐसे ही लौट कर आती
तुम्हारी अनगिनत यादें -

अचरज करता हूं
तुम्हारा होना
कितना कुछ जीता है मुझ में
                इस तरह !

 
अपनी पहचान

इस सनातन सृष्टि की
उत्पत्ति से ही जुड़ा है मेरा रक्त-संबंध
अपने आदिम रूप से मुझ तक आती
असंख्य पीढ़ियों का पानी
दौड़ रहा है मेरे ही आकार में

पृथ्वी की अतल गहराइयों में
संचित लावे की तरह
मुझमें सुरक्षित है पुरखों की आदिम ऊर्जा
उसी में साधना है मुझे अपना राग

मेरे ही तो सहोदर हैं
ये दरख्त   ये वनस्पतियां
मेरी आंखों में तैरते हरियाली के बिंब
अनगिनत रंगों में खिलते फूलों के मौसम
अरबों प्रजातियां जीवधारियों की
खोजती हैं मुझमें  अपने होने की पहचान।

*    

आपस का रिश्ता

इतना करार तो बचा ही रहता है
हर वक्त हाथी की देह में
कि अपनी पीठ पर सवार
महावत की मनमानियों को
उसके अंकुश समेत
उतार दे अपनी पीठ से बेलिहाज
और हासिल कर ले अपनी आजादी

सिर्फ अपनी परवरिश का लिहाज
उसके हाथों की मीठी थपकियां
और पेट भर आहार का भरोसा रोक लेता है
उसके इरादों को हर बार

एक अनकही हामी का पुश्‍तैनी रिश्ता
ऐसे ही बना रहता है दोनों के बीच
बरसों-बरस!

*    

मां की याद
                               
बीत गये बरसों के उलझे कोलाहल में
अक्सर उसके बुलावों की याद आती है
याद आता है उसका भीगा हुआ आंचल
जो बादलों की तरह छाया रहता था कड़ी धूप में
रेतीले मार्गों और अधूरी उड़ानों के बीच
अब याद ही तो बची रह गई है उस छांव की
                                                                                                
बचपन के बेतरतीब दिनों में
अक्‍सर पीछा करती थी उसकी आवाज
और आंसुओं में भीगा उसका उदास चेहरा
अपने को बात-बात में कोसते रहने की
उसकी बरसों पुरानी बान
वह बचाए रखती थी हमें
उन बुरे दिनों की अदीठ मार से
कि जमाने की रफ्तार में छूट न जाए साथ
उसकी धुंधली पड़ती दीठ से बाहर

दहलीज के पार
हम नहीं रह पाए उसकी आंख में
गुजारे की तलाश में भटकते रहे यहां से वहां
और बरसों बाद जब कभी पा जाते उसका आंचल
सराबोर रहते थे उसकी छांव में

वह अनाम वत्सल छवि
अक्सर दीखती थी उदास
             बाद के बरसों में,
कहने को जैसे कुछ नहीं था उसके पास
न कोई शिकवा-शिकायत 
न उम्मीद ही बकाया
फकत् देखती भर रहती थी    अपलक
हमारे बेचैन चेहरों पर आते उतरते रंग -
हम कहां तक उलझाते
           उसे अपनी दुश्‍वारियों के संग?



***