Sunday, December 27, 2015


दूसरी औरत
 ·       नंद भारद्वाज


      सब कुछ अचानक ही हो गया था जैसे। सगाई और ब्याह के बीच का फासला इतना कम रहा कि उसे और कुछ सोचने-बूझने का अवसर ही नहीं मिला। कपड़े की गुड़िया के समान उसे यहां से वहां ऐसे कर दिया गया जैसे उसका अपना कोई वजूद हो ही नहीं। जो करना था, उन्‍हीं को करना था। अलबत्ता गांव की बड़ी-बूढ़ियों के स्वर में आती नयी हमदर्दी से उसे कुछ आशंका तो अवश्‍य हुई कि हो न हो कोई नयी बात जरूर है, लेकिन यही सोचकर तसल्‍ली कर ली कि ऐसी हमदर्दी तो बिना मां की बेटी के लिए अक्‍सर हुआ ही करती है उसने ज्यादा तवज्जो नहीं दी। शुरू से यही तो समझती आई थी कि मां-बाप और बड़े-बुजुर्ग जो करते हैं, औलाद का भला सोचकर ही तो करते हैं।
    वह घड़ी आ ही गई आखिर। उसे घर-परिवार के रीत-कायदे के मुताबिक सजा-संवार कर ब्याह की वेदी पर लाकर बिठा दिया गया। चंवरी की मद्धिम लौ के उजास में एक बारगी इच्छा तो जरूर हुई कि वह अपने होने वाले खाविंद को नज़र भर देख तो ले, लेकिन दुल्हन के गोटे-किनारीदार पहनावे और मोटे घूंघट के पार कुछ भी देख पाना असंभव था। फिर वह बैठा भी कुछ इस तरह से था कि चेहरे की हल्‍की-सी झांई भर दिख रही थी। रौशनी के नाम पर फकत दो लालटेनें थीं, जो आजू-बाजू की दीवारों पर टंगी थीं। चंवरी में रखी समिधा से उठता धुआं सीधा उसी की ओर आ रहा था और ऐसी घुटन हो रही थी कि और कोई मौका होता तो वह उठकर भाग गई होती। ताईजी की हिदायत के चलते वह चंवरी में काठ की मूरत बनी बैठी रही। एकाध बार खांसने और गला साफ करने ज़रूरत महसूस हुई, लेकिन उसने जतन से सांस को अन्दर ही दबा लिया। पंडितजी ने हथलेवे के बतौर पहली बार जब पास बैठे अनजान शख्स के हाथ में उसका कोमल हाथ दिया तो वह एक ठंडे और खुरदुरे स्पर्श से सिहर-सी उठी। गनीमत थी कि उनकी हथेलियों के बीच मेंहदी का एक छोटा-सा लौंदा रख दिया गया था और उस हाथ-बंधन को दूसरे वस्त्र से ढंक दिया गया था। फेरों की पूरी रस्म के दौरान वह अपने-आप को उसी खुरदुरे और ठंडे बंधन में बंधा हुआ महसूस करती रही।
        पूरे अनुष्ठान में चंवरी की वेदी से आग की लपटें और धुंआ उठता रहा और पंडितजी एक खास पूजा-पाठी लहजे में मंत्रोच्चार करते जाने उसे क्‍या-क्‍या करने को कहते रहे। बीच-बीच में उसे कुछ दोहराने को भी कहा जाता, लेकिन उसकी भागीदारी नगण्य-सी ही रही - कुछ तो संकोच के कारण और कुछ शायद अपनी ओर आते उस धुएं के कारण। उसकी पीठ के ऐन-पीछे गांव-घर की औरतें गीत गाती रहीं। उसकी दो-तीन हमउम्र सहेलियां, जो उसके पास ही बैठी थीं,  विचित्र-से अंदाज में हंस भी रही थीं। उनकी फुसफुसाहट से इतना तो ज़रूर लगा कि उनकी हंसी का निशाना वही उसका होने वाला पति है शायद, पर इससे आगे वह कोई खास मतलब नहीं निकाल पाई। वेदी की दूसरी तरफ ताई और तायाजी गठजोड़ा बांधे बैठे थे। उन्हें इस जगह बैठा देखकर एक बार फिर उसे अपनी मां के न होने का गहरा दुःख हुआ वे अगर जिन्दा होतीं तो आज वे और उसके पिता ही इस जगह बैठे होते। ताई-ताया के कारण ही शायद लड़कियां ज्यादा खुलकर बात नहीं कर पा रही थीं। एकाध बार तायाजी ने उन्हें डांट भी दिया था। पूजा, अनुष्ठान, फेरों, सेवरों, गऊदान और गीतों के बीच कब उसके नसीब का निपटारा हो गया, उसे कुछ भी सुध नहीं रही।
     चंवरी का काम जल्दी ही सुलट गया। ड्योढ़ी पर गठजोड़ा खुलने के बाद वह गीत गाती औरतों के साथ वापस घर के आंगन में आ गई, लेकिन जल्दी ही उसे आंगन से हटाकर फिर उसी अंधेरी कोठरी में लाकर बिठा दिया गया, जहां डेढ़ घंटा पहले उसे दुल्हन के रूप में सजाया गया था। 
     वह आंगन पर बिछी चटाई पर बैठ गई। दीवार के छोटे-से ताखे में दीया अब भी जल रहा था। उसकी छोटी भाभी ने पानी का लोटा लाकर पास रख दिया और फिर मनुहार करके पिला भी दिया। घर में यह भाभी ही ऐसी औरत थी, जो सही मायने में उससे लगाव रखती थी। बाहर आंगन में चहल-पहल बढ गई थी -- लोग जल्दी-जल्दी आ-जा रहे थे। शायद बारात को खाना खिलाने की तैयारी हो रही थी। भाभी उसे पानी पिलाकर वापस लौट गई थी और वह फिर कुछ क्षणों के लिए अकेली रह गई थी। चंवरी के धुएं और घूंघट के कारण उसे जो घुटन हो रही थी, उसी के कारण सिर में हल्का-हल्‍का दर्द-सा महसूस करने लगी थी वह। आराम करने के लिए चटाई पर ही लेट गई थी और थकान के कारण कुछ ही क्षणों में उसकी आंख लग गई।
    उस कच्ची नींद में वह किसी सपने के बीच थी शायद।  किसी तालाब के गहरे जल में उतरती हुई - अकेली। डूबने को ही थी कि जैसे किसी ने आकर उसे पकड़ लिया था और आवाज देते हुए अपनी ओर खींच रहा था। उमस और असमंजस के कारण वह पसीने से भीग गई थी। हड़बड़ाकर उठते हुए अनायास ही उसके मुंह से निकल गया - अरे कौन?... पकड़ो मुझे, मैं डूब जांगी! फिर जैसे अंधेरे में ही चिर-परिचित स्‍पर्श को पहचानते हुए बोली ओह कौन भाभी! और  वह सीधी होकर बैठ गई।
      -‘क्या हुआ गीता बाई,  नींद में अभी से सपने आने लगे?कहते हुए वह हंस पड़ी।
      -‘बस भाभी, यों ही थोड़ी आंख लग गई थी। उसने छोटा-सा उत्तर दिया।
      -‘अच्छा, चलो उठो,  खाना खा लें! सब लोग इंतजार कर रहे हैं।
     वह बिना कोई सवाल किये, उठकर भाभी के साथ बाहर खुले में आ गई। आंगन में गांव की औरतें चार-चार, पांच-पांच के समूह में थालियों पर बैठी खाना खा रही थीं। उन्हीं के बीच एक थाली पर उसकी चचेरी बहनें और भाभियां हाथ बांधे बैठी थी। वे उसी की ओर देख रही थीं। लगा, आज पहली बार कोई उसके लिए इंतजार कर रहा है। वह उनके पास आकर खाली जगह पर बैठ गई। उसे यह देखकर आश्‍चर्य हुआ कि आज तो उसके लिए आसन भी अलग तरह से बिछाया गया था। उसे वाकई भूख लग आई थी। उसके कौर मुंह में लेते ही बाकी औरतें खाने में व्‍यस्‍त हो गई। खाते हुए वह फिर अपने आप में खो गई।
       आधी रात को जब सारा घर शान्त था।  भाभियां और सहेलियां उसे धकेलते हुए पास ही ताऊजी के घर ले आईं थीं, जहां नये बन रहे आसरे (झोंपड़े) में एक पलंग बिछा था, जिस पर नया गद्दा, चद्दर और दो तकिये लगे थे। यह इंतजाम उसके लिए नया था।  तकिया लगाकर सोने की आदत उसे कभी नहीं रही। आसरा भी नया बना था और दरवाजे पर किवाड़ अभी लगे नहीं थे। ऊपर छत के नाम पर लकड़ियों को आपस में जोड़-बांध कर छाजन के लिए आधार तैयार कर लिया गया था, जिनके बीच से चांद की पीली रौशनी छनकर भीतर आ रही थी।  इससे आसरे में थोड़ा उजाला था और ऊपर से खुला होने के कारण हवा भी अच्छी आ रही थी। उन्‍हीं औरतों के दबाव में वह संकोच-सा करती उस सूने बिछावन के पास आकर खड़ी हो गई। जो सहेलियां उसे यहां तक लेकर आई थी,  उसकी भाभी को छोड़कर बाकी सब लौट गई थीं।
      भाभी ने आग्रह करके उसे बिछौने पर बिठा दिया और खुद कुछ क्षण उसी के पास बैठ गई। वे आपस में कुछ बात शुरू करतीं, उससे पहले ही उन्हें आंगन में प्रवेश करती औरतों का हंसी-ठट्ठा फिर सुनाई दे गया और अगले ही क्षण एक पुरुष आकृति दरवाजे पर प्रकट हो गई। वे दोनों पलंग से उठकर खड़ी हो गई थीं। भाभी ने हल्के-से उसका हाथ दबाते हुए विदा ली और दबे पांव वह भी आसरे से बाहर निकल गई। वह फिर शर्म और आशंका में डूबी अपने आप में सिमटकर रह गई थी। उसके मन और माहौल में एक सन्नाटा-सा पसर गया था। वह उसके पास से गुजरा तो नये कपड़ों की महक उसकी सांसों में भर गई। वह बिना कुछ बोले पलंग के पायताने की ओर जाकर बैठ गया। उसे अब जाकर अहसास हुआ कि आज उस घर में उनके अलावा कोई नहीं है। सब शादी वाले घर में थे। जो औरतें अभी-अभी उन्हें अकेला छोड़कर गई थीं, बाहर गली में अब भी उनके हंसी-ठट्ठे की आवाज दूर जाती सुनाई दे रही थी। कुछ क्षण चुपचाप बैठे रहने के बाद उसने जेब से एक बीड़ी निकाल कर सुलगाई। जलती हुई तीली की रौशनी में एक अधेड़ पुरुष का चेहरा हल्‍का-सा आलोकित हुआ और अगले ही क्षण अंधेरे में आकृति भर रह गया था। उसने फिर एक कश खींचा और पीला उजास फिर उसके चेहरे पर फैल गया। इस बार चेहरे की ओर देखने का उत्साह उसमें नहीं रह गया था। धुएं का एक गुब्बार अनायास ही उसके मुंह से निकला और उसकी ओर बढ़ गया। शायद हवा का रुख उसी की ओर रहा कि धुएं के कारण वह खांसी में उलझकर रह गई।
      -‘क्या हुआ?’ कहते हुए उसने बीड़ी बुझाकर एक ओर फैंक दी और खड़े होकर उसकी बांह थामते हुए उसे पलंग पर बैठने का आग्रह किया - आओ, बैठ जाओ!उसके आग्रह का मान रखते हुए वह पलंग पर सिमटी-सी बैठ गई। उसकी पीठ सहलाते हुए उसी ने बातचीत की शुरूआत की - कैसी हो,  ठीक तो हो ना?’
      इस अजनबी-से लगते पुरुष से अपने को मुक्त रखने का प्रयत्न करते हुए उसने इतना ही कहा - जी मैं ठीक हूं।और वह सिरहाने की तरफ उससे थोड़ी और दूर खिसक कर बैठ गई थी।
       -‘लो!  कहते हुए फिर उसने अपना हाथ आगे बढ़ाया, जिसमें कुछ सुपारी, इलायची और गोलियां थीं शायद। उसने सकुचाते हुए एक सुपारी उठाकर अपनी मुट्ठी में रख ली, लेकिन खाई नहीं। वह अपने भीतर उससे बात करने का कोई उत्साह नहीं महसूस कर पा रही थी। वह उसकी बगल में हौले-से लेट गया और उसके नर्म हाथ को अपनी खुरदुरी अंगुलियों के पोरों से सहलाने लगा। उसे फिर एक बार उस खुरदुरेपन से सिहरन-सी होने लगी, लेकिन उसने अपना हाथ छुड़ाने का कोई प्रयत्न नहीं किया। धीरे-धीरे वह उस स्पर्श से सहज होने का प्रयत्न करने लगी, लेकिन अभी अपनेपन का भाव कहीं आस-पास भी नहीं दीख रहा था। उसके संकेत पर वह भी उसकी बगल में लेट ज़रूर गई थी, लेकिन नितान्त असहज-सी। बातचीत और हाव-भाव से वह उसे भला लगने लगा, लेकिन उसे यह देखकर अचरज हुआ कि उसमें युवकोचित उत्साह, उत्तेजना या उतावलेपन का कोई भाव नहीं था। उसके बोलने के अन्दाज में भी एक खास तरह की प्रौढ़ता थी। वह देर रात तक अपने घर और खानदान के बारे में उसे बताता रहा। शायद अपनी निजी ज़िन्दगी के बारे में कुछ और भी बातें बताना चाह रहा था, लेकिन उन बातों में उसकी जैसे कोई दिलचस्पी ही नहीं रह गई थी। बेमन से सुनते-सुनते कब उसकी आंख लग गई, उसे पता ही नहीं चला।  
      देर रात में देह पर बढ़ते दबाव के चलते जब उसकी आंख खुली तो उसने अपने आपको पहली बार एक पुरुष की बाहों में अवश पाया - अपनी अनावृत्त अक्षत देह में प्रवेश के लिए छटपटाता एक ऐसा पुरुष, जिसे उसके अन्तस ने अभी अपना माना ही नहीं था। मन की थकान और कच्ची नींद ने चंवरी और फेरों के ताजा प्रसंग को भी एकबारगी भुला-सा दिया था। उस बलात् प्रयत्‍न में उसके मुंह से हल्‍की चीख-सी निकल पड़ी, लेकिन अगले ही क्षण उसने प्यार से डांटते हुए अपनी हथेली उसके मुंह पर रख दी। एक मांसल दबाव उसके भीतर उतर चुका था और वह अवश थी। स्वयं किसी अनहोनी की आशंका में सहमी-सी। आखिर वही हुआ, जो उसने चाहा। एक अनजान-सी पीड़ा और असहजता में वह चुपचाप दांत भींचे सहती रही। थोड़ी ही देर में सब-कुछ शान्त हो गया। उस रात वह फिर नहीं सो पाई।  
     भोर के उजाले में जब पहली बार उसने गौर से अपने पति के चेहरे की ओर देखा तो उसका कलेजा मुंह को हो आया। कोई चालीस के आस-पास की अधेड़ अवस्था को पार करता नरसाराम अब उसका पति नामजद हो चुका था। नींद में उसकी मुखाकृति और भी बिगड़ गई थी। सिर पर बिखरे हुए अधपके-से उड़ते बाल, बीड़ी और तम्बाखू के सेवन से काले पड़ते होंठ और पक्का गेहुंआ रंग। हाथों-पांवों की नसें उभरी हुई और खुरदुरी हथेलियां। पति के रूप में मिली इस मानवीय आकृति को देखकर वह घबरा गई और एकाएक पलंग से उठ खड़ी हुई। उसे चक्कर-सा आने लगा। वह आसरे के बीच लगे खंभे का सहारा लिये न जाने कितनी देर उस सोये हुए पुरुष को फटी आंखों से देखती रही,  तभी उसे बाहर आंगन में किसी के कदमों की आहट सुनाई दी। वह सम्हलकर भारी मन से दरवाजे से बाहर आई तो सामने अपनी भाभी को खड़ा पाया। भाभी को देखकर वह अपने मन पर काबू नहीं रख पाई और उसके कंधे से लगकर सुबक पड़ी।
    गीता की सिसकियों और भाभी के सांत्वना भरे शब्‍दों से शायद अन्दर सोए नरसाराम की नींद खुल गई थी। वह खंखार कर उठा और कपड़े-जूते पहनकर आसरे से बाहर आ गया। वह बगैर उनसे नजर मिलाए, झेंपता हुआ-सा दोनों के पास से गुजर गया। उसके घर से बाहर चले जाने के बाद गीता सुबकती हुई फिर उसी आसरे में घुस गई और खंभा पकड़कर फफक पड़ी। न वह खुलकर रो ही पा रही थी और न अपने को सम्हाल ही। उसकी हालत और रुलाई देखकर उसकी भाभी की आंखे भी भर आईं, उसने भर्राए हुए गले से गीता को सांत्वना देने की कोशिश की, लेकिन सब व्यर्थ। उन दोनों की उम्र में विशेष अंतर नहीं था और वह गीता के दर्द को अच्‍छी तरह समझ पा रही थी। वह स्वयं मन से इस शादी के पक्ष में नहीं थी, लेकिन अपने ससुर और ताऊ-ससुर की इच्छा के आगे विवश थी। अपने पति और गीता के भाई दुर्गा से भी उसने कहा,  लेकिन बड़ों के सामने वे भी अपने को असहाय पा रहे थे।  
            गीता के जन्‍म के डेढ़ बरस बाद ही उसकी मां एक साधारण-सी बीमारी की चपेट में आकर चल बसी थी। कमजोर तो वह पहले से ही थी, गीता को जन्‍म देने के बाद और कमजोर हो गई थी। पास के गांव के वैद्य को दिखाने पर उसने बताया कि खून की कमी है, थोड़ा खाना-पीना सुधारो। गीता के बापू जीयाराम ने बच्चों के हिस्से की खुराक काटकर भी पत्नी को बचाने की कोशिश की, लेकिन आखिर वह नहीं बच सकी। एक दिन रात को तेज बुखार आया और दूसरे दिन सवेरा होते-होते उसने प्राण त्याग दिये।

      **

            गीता अपनी मां की सातवीं संतान थी। एक भाई और एक बहिन तो बचपन में ही गुजर गये थे। बाकी तीन भाई और बहन हीरां उससे बड़े थे। सबसे बड़ा गोमा बहुत बरस पहले घर से अलग हो गया था। उसका ब्याह होने के समय गीता तीन बरस की बच्ची थी। मंझला भाई रूपा बाप के साथ खेत में होड़-तोड़ मेहनत करता था, लेकिन अकाल के आगे दोनों बाप-बेटे बेबस थे। रूपे से छोटा दुर्गा संयोग से पास ही के कस्बे में जंगलात महकमें में चौकीदार हो गया था। उसकी वजह से अकाल बरस में घर की थोड़ी-बहुत मदद हो जाती थी। हीरां दुर्गा से दो साल छोटी थी और अभी तीन बरस पहले ही जीयाराम ने जमाने के अच्छे आसार देखकर दोनों भाई-बहनों के एक हफ्ते के अन्तराल में साथ ही ब्याह मांड दिये थे। इस बार उसने बहू और दामाद दोनों अपनी बराबरी के ही ढूंढे़, ताकि पहले वाले रिश्‍तों की तरह पछताना न पड़े। संयोग से छोटी बहू तो उसे मन-रुचती ही मिली लेकिन बेटी की तरफ से वह निश्चिन्त नहीं हो पाया। दामाद यों दसवीं तक पढ़ा-लिखा युवक था,  लेकिन बेकारी और बुरी संगत ने उसे चिड़चिड़ा बना दिया था। कई बार आवेश में वह हीरां पर हाथ भी उठा देता। हीरां भी कई बार उससे तंग आकर बाप के घर लौट आती है, जहां मंझली भाभी के तेज सुभाव के कारण घर में आये-दिन कोहराम मचा रहता है। गीता और उसकी छोटी भाभी के साथ भी मंझली का बरताव कुछ खास अच्छा नहीं है।
            अकाल और अभाव में यों ही आदमी का चित्त और विवेक अपने ठिकाने नहीं रहता,  इसलिए जीयाराम को इन पिछले दो बरसों में एक ही चिन्ता खाए जा रही थी कि किसी तरह गीता के हाथ पीले हो जाएं। बेटी अगले घर पहुंचे तो वह भी सुखी रहे और उसके जी का संताप भी कुछ कम हो। बेटों में संपत न होगी तो अपना-अपना घर बसा कर अलग रहेंगे।
            गया बरस जमाने के लिहाज से कुछ ठीक गुजरा तो जीयाराम को लगा कि यही अच्छा मौका है। पता नहीं आगे क्या हो,  इसलिए उसने चारों तरफ अपनी रिश्‍तेदारियों में बेटी के लिए वर ढूंढ़ने का काम शुरू कर दिया। गीता भी अब उन्नीस बरस की पूरी जवान युवती हो गई थी। यों भी कद-काठी के हिसाब से उसने अच्छी सेहत पाई थी। जीयाराम बेटी का ब्याह तो ज़रूर करना चाहता था, लेकिन साधन उसके पास नहीं के बराबर थे, इसलिए वह ऐसे घर और वर की तलाश में था, जहां ज्यादा लेन-देन की मांग न हो। वह दो-वक्त बरात और सम्बन्धियों को भर-पेट खाना खिला देगा और हंसी-खुशी बेटी को विदा कर देगा, इसी सोच के साथ उसने बेटी का रिश्‍ता तय करने का मानस बना रखा था, लेकिन यह काम इतना आसान नहीं था।
            एक दिन जीयाराम के बड़े भाई रावतराम के ससुराल वालों की तरफ से घर-बैठे एक रिश्‍ता आया। खुद रावतराम उनके साथ रिश्‍ते की बात लेकर आए थे। इस रिश्‍ते की खास बात यह थी कि लड़के वाले अपनी स्वेच्छा से लड़की के बाप को पांच हजार तक की रकम सामने देने को तैयार थे। इस प्रस्ताव से जीयाराम के मन में आशंका हुई कि शायद लड़के में कोई कमी-खोट है। उसके जोर देकर पूछने पर रावतराम ने बताया कि लड़का दूज-वर है, उसकी पहली पत्नी दो बरस पहले ही चल बसी थी। उससे दो बच्चियां भी हैं, लेकिन उम्र कोई ज्यादा नहीं है, यही कोई बत्तीस-पैंतीस के आस-पास है और बत्तीस की उम्र कोई खास बड़ी नहीं होती। जीयाराम ने लड़के को देखने की इच्छा जाहिर की तो रावतराम को अच्छा नहीं लगा। उसने चिढ़ते हुए कहा कि लड़का उसका अच्छी तरह देखा-भाला है, फिर भी अगर उस पर भरोसा न हो तो जब मर्जी हो लड़के को देख आए। जीयाराम को बड़े भाई पर अभरोसा करने वाली बात ठीक नहीं लगी, सो उसने ज्‍यादा हुज्जत नहीं की और हां भर दी। रकम लेने-लिवाने की बात को उसने यह कहकर टाल दिया कि वे उसका उपयोग लड़की के गहनों-कपड़ों में कर लें। बात पक्की होने पर लड़के वालों ने ब्याह के लिए दो महीने बाद की तारीख तय कर दी। जीयाराम थोड़ी और आगे की तारीख चाहता था, ताकि ठीक से इंतजाम कर सके, लेकिन वह सारी जिम्मेदारी रावतराम ने अपने सिर ओढ़ ली और वह भी यह बड़प्पन दरसाते हुए कि इस बिन-मां की बेटी का ब्याह तो एक तरह से वही करना चाहेंगे।
        और इस तरह गीता की शादी की बात पक्‍की हो ही गई।
        ’
            आखिर बाप के घर से विदाई का क्षण भी आ गया। सूरज अब पश्चिम की तरफ ढलने लगा था। सुबह से अब तक के सारे रस्मो-रिवाज में वह एक यंत्र की तरह अंदर से बाहर लाई, ले-जाती रही। न कोई उछाव न कोई पछतावा। वह सारा आगा-पीछा देख चुकी थी। पसंद-नापसंद के सारे सवाल खत्म हो चुके थे। सुबह जब देवताओं की पूजा के लिए उसे पति के साथ बिठाया गया, तब उसने झीने घूंघट की ओट से उसे फिर से देखा था। वह उदास था। वैसे दूल्हे के कपड़ों में अब उतना बुरा भी नहीं लगा था उसे। उसे अपने सुबह के व्‍यवहार पर थोड़ा अफसोस भी हुआ। दोपहर में कुछ देर के लिए वह सो ली थी, इससे अब जी भी हल्का हो गया था।
            विदाई के निमित्त जब गांव की औरतों ने सीखगानी आरंभ की तो अनायास ही उसके अंदर की रुलाई फूट पड़ी। जिस विदाई गीत को वह स्वयं पहले अपनी सहेलियों के साथ उमंग से गाया करती थी, उसके बोलों में छिपी वेदना को आज पहली बार उसने स्वयं महसूस किया था:

                        ‘‘आंबा पाका ए आंबली
                        ए इतरो बाबल कैरो लाड, छोडर बाई सिध चाली।
                        ए आयौ सगां रौ सूवटो, वौ तौ लेग्यो टोळी मांय सूं टाळ
                        कोयल बाई, सिध चाली !

            औरतों के समवेत स्वर और उसकी वेदनापूर्ण रुलाई ने एक अजीब कारूणिक माहौल बना दिया था। आस-पड़ोस की औरतें और उसकी सहेलियां इस रुलाई का मर्म जान गयी थी। सभी की आंखें नम थी। जब बेटी बाप के सामने पहुंची, तो बूढ़ा जीयाराम फफक पड़ा। भीतर के अपराध-बोध के कारण उसकी जीभ जैसे तालू से चिपक गई थी। पास खड़े लोगों ने किसी तरह समझा-बुझा कर बाप-बेटी को अलग किया। यही हाल भाइयों और छोटी भाभी का था। नरसाराम इस सारे वाकये के दौरान पछतावे और आत्म-ग्लानि से भीतर-ही-भीतर अपने को कोसता रहा - उसे क्या जरूरत थी एक ऐसी अबोध लड़की के जीवन से खेलने की, जो उसकी अपनी लड़की से बमुश्किल कोई दो-चार साल बड़ी होगी। वह तो शुरू से ही इस विवाह के पक्ष में नहीं था, लेकिन मां-बाप की ज़िद के आगे आखिर उसे हार माननी पड़ी। वह उनका एक ही बेटा था। उसकी पहली पत्नी अभी दो साल पहले ही हैजे की बीमारी से चल बसी थी। दो लड़कियां हैं, बड़ी करीब तेरह साल की है और उससे छोटी आठ साल की। इनके बीच में और बाद में एक-एक लड़की और हुई थी, लेकिन वे भी चल बसीं। लड़का न होने का अफसोस उसके मां-बाप को तो था ही,  कहीं भीतर उसे भी था। बस उसी एक मात्र चाह ने उसे इस दूसरी शादी के लिए हां भरवा ली। लेकिन अब उसे लग रहा था कि शायद यह ठीक नहीं हुआ।
      **
            शाम ढलने तक बारात उसके अपने गांव बरवाला लौट आई थी। चार ऊंट गाड़ियों पर दोपहर के बाद ठंडे पहर का सफर कितनी जल्दी कट गया, किसी को पता ही नहीं चला। बारात घर के दरवाजे पर पहुंचते ही आंगन में चहल-पहल मच गई। ढोल बजने लगा। औरतों ने बधावा गाते हुए बेटे और बहू को घर के अंदर लिया। अगवानी की रस्म पूरी होने के बाद दूल्हा-दुल्हन का गठजोड़ा खोल दिया गया और बहू को गांव की लड़कियां ओरे (कच्चा कमरा) के अंदर ले गई। ओरा काफी बड़ा था और अंदर तीन तरफ के ताखों में दिये जला रखे थे। दरवाजे से दाहिनी तरफ वाली दीवार पर एक हाथ का छापा और रंग-बिरंगे मांडणे बने हुए थे,  उसी के पास रखे हुए बाजोट पर लालटेन जल रही थी।

            औरतें और लड़कियां नई बहू का मुंह देखने को उतावली में थी, लेकिन गीता ने घूंघट कसकर पकड़ रखा था। तभी दो औरतें उसके पास आईं। ये दोनों उसी के गांव की बेटियां थीं - पारो और तुलसी। पारो उसके दूर के रिश्‍ते की बहन थी। उन्होंने बाकी औरतों और लड़कियों को थोड़ी देर के लिए गीता के पास से यह कह कर हटा दिया कि नई बहू को थोड़ा आराम करने दो। मुंह दिखाई की रस्म सुबह पूरी होगी। हालांकि छोटी लड़कियों के लिए ऐसी कोई बंदिश नहीं होती, लेकिन पारो के तेज सुभाव से सभी परिचित थीं,  इसलिए वे हट गयीं। सिर्फ एक छोटी आठ साल की बच्ची दरवाजे के पास डरी-डरी-सी खड़ी रही। पारो ने उसे आवाज़ देकर अपने पास बुला लिया - अरे अठै आव पन्ना,  देख कुण आया है, री!
            तुलसी ने उसे ऐसा करने से रोकना चाहा, लेकिन तब तक बच्ची पारो के पास आ चुकी थी। गीता पहले ही उसे अपने झीने घूंघट के भीतर से देख चुकी थी। नये कपड़ों में सजी मासूम-सी बच्ची।  लेकिन वह समझ नहीं पाई कि वह बच्ची कौन है? पारो आगे कुछ बोलती,  इससे पहले ही तुलसी ने उसे रोक दिया और बच्ची को बाहर खेलने के लिए कहकर भेज दिया। फिर वे देर तक गीता से गांव और घर के समाचार पूछती रही। बाहर आंगन में औरतों के गीत बदस्तूर जारी थे।
            पारो थोड़ी वाचाल थी। उसने तुलसी के मना करने के बावजूद गीता को बातों ही बातों में बता दिया था कि वह छोटी बच्ची उसके पति की दूसरी संतान है। एक तेरह साल की बच्ची और है, जिसे अभी ननिहाल भेज दिया गया है।
            इस रहस्योद्घाटन ने फिर एक बार गीता के मन को जैसे हिला कर रख दिया था। वह कल रात से उम्र का जैसे एक बड़ा फासला तय करने में लगी हुई थी। बच्चियों की सूचना ने फिर जैसे उस फासले को और लंबा कर दिया था। वह देर तक फटी-फटी आखों से पारो और तुलसी के मुंह की ओर देखती रही और देखते-ही-देखते उसकी आंखों से आंसू बह निकले। तुलसी ने दबी जुबान में पारो को बुरा-भला कहा और गीता को सांत्वना देने में लग गई - ‘‘ऐसा जी छोटा करने की कोई बात नहीं है गीता, पारो को तो यों ही लगाने-बुझाने की आदत है। तेरे सास-ससुर बहुत भले लोग हैं। देवर जी भी बहुत धीमे सुभाव के आदमी हैं। तुझे यहां किसी बात की तकलीफ नहीं होगी। तू तो इस घर में राज करेगी, पगली! तुझे किस बात की चिन्ता है, और फिर हम जो हैं तेरे पास।’’
            पारो को भी अब अपनी बात पर अफसोस हो रहा था। वह भी कुछ इसी तरह समझाती रही, लेकिन वे दोनों यह नहीं समझ पाई कि यह छोटी-सी लड़की किस तरह उम्र के इस अजीब फासले को एक ही रात में पार करने के लिए खुद से जूझ रही है। उसके लिए यह बात गौण थी कि सास-ससुर का घर कैसा है। पति जैसा है, वह पहले ही देख चुकी है।
            ससुराल की चहल-पहल, गाजे-बाजे और बधावे के गीत अब उसके लिए बेमानी थे। पारो और तुलसी कब उसके पास से उठकर चली गई, उसे कोई सुध ही नहीं रही। उसने यह महसूस किया कि अब वह उन्नीस बरस की वही गीता नहीं थी, जो कल तक अपने पीहर की गलियों में बेरोक घूमा करती थी और न ही कोई इस घर में आई नई नवेली दुल्हन। उसे तो दरअसल अपनी ज़िन्दगी ठीक चौदह बरस आगे से शुरू करनी थी, जहां उसके पति की पहली पत्नी ने अपने पारिवारिक जीवन को विराम दिया था।
            नई बहू की अगवानी और मेहमानों की खातिर के बाद पिछली रात की ही भांति आज फिर इस नये घर के सजीले ओरे में जब उसे पति की सेज तक पहुंचाया गया,  तब तक वह एक दूसरी औरत में तब्‍दील हो चुकी थी। दीये की मद्धिम रौशनी में वह अंदर आकर पलंग पर बैठ जरूर गई थी, लेकिन उसका मन अब भी अशान्‍त था। कुछ ही क्षणों में उसे बाहर से पति की धीमी आवाज़ सुनाई दी। वह अपनी भाभी से बोल रहे थे, ‘नहीं भाभी, मैं बाहर ही ठीक हूं। बेकार जिद़ मत करो, उसे बुरा लगेगा।
            -‘कैसी अजीब बात करते हैं देवर जी, शादी की पहली रात को भी कोई अपनी पत्नी से अलग रहता है भला। मैं कुछ नहीं सुनूंगी, आप जाइये अन्‍दर।
            -‘ओ हो, मगर......
            -‘अब अगर-मगर कुछ नहीं। कमाल करते हैं आप, बिचारी वह लड़की..... अच्छा अब मैं जा रही हूं। और आप भी अंदर जाकर आराम करिये।
            नरसाराम भारी मन से अंदर आ गया था। ज्यों ही पास आया, वह उठकर खड़ी हो गयी। नरसाराम को लगा कि शायद वह बाहर चली जाएगी। लेकिन उसने सोच लिया था कि अगर वह जाना चाहेगी, तो उसे वह रोकेगा नहीं। वह कुछ क्षण यों ही असमंजस में पलंग के पास खड़ा रहा, फिर बैठ गया। वह उसी तरह अपनी जगह खड़ी थी।
            -‘‘क्या बात है, बैठोगी नहीं?’’ उसने अनायास ही पूछ लिया था, लेकिन एक गहरा अपराध-बोध जैसे अब भी उसके मन को घेरे था। खुद जैसे अपने आप को माफ नहीं कर पा रहा था। सुहागरात की अगली सुबह की सिसकियां जैसे अभी तक उसके कानों में गूंज रही थी। वह उसी तरह अपने-आप में डूबी खड़ी थी - शान्त और गुमसुम। उसे मनाने के लिए वह और कुछ बोलता, उससे पहले ही वह धीमे-से उसकी ओर बढ़ी और पास आकर खड़ी हो गई। उसे लगा, वह कुछ कहना चाहती है,  इसलिए वह भी उत्सुकता से उसकी ओर देखने लगा। वह धीरे-से इतना ही कह पाई ‘’आपको बड़ी बेटी को ननिहाल नहीं भेजना चाहिए था, हो सके तो कल ही उसे वापस बुला लीजिये।’’  इतना कहते हुए उसका गला भर आया और वह फिर जैसे अपने आप में ही डूब गई।

            नरसाराम को जैसे अपने कानों पर विश्‍वास नहीं हो पा रहा था। उस हल्की रौशनी में वह कुछ क्षण तक अवाक् उस ऊंचे कद वाली स्‍त्री की ओर देखता रहा और फिर एकाएक उसे अपनी बाहों में बांध लिया। देर रात तक वह उसकी गोद में अपना सिर दिये अंदर ही अंदर सुबकता रहा और वह उसे बच्चे की तरह सहलाती रही।


***


Sunday, November 1, 2015

स्‍मृति-शेष : पारस अरोड़ा की कविताएं -
अनुवादक - नंद भारद्वाज 

आग की पहचान 

आग सिर्फ वही तो नहीं होती
जो नजर आती है  
दिपदिपाती हुई अग्नि
जो दिखती नहीं  
लेकिन रेत पर बिछ जाती है
धर दें अनजाने तो सिक जाते हैं पांव।


आग के उपयोग से पहले  
उसकी पहचान जरूरी है
कार्य-सिद्धि के लिए वह  
पूरी है कि अधूरी
यह जानना बेहद जरूरी।

समय आने पर आग  
उपार्जित करनी पड़ती है
न मिले तो यहां-वहां से लानी पड़ती है 
बर्फ के पहाड़ के नीचे  
दबकर मरने से पहले
आग अर्जित कर 
बर्फ को पिघलाना पड़ता है।

जहां नजर आती है आंख में ललाई
नस-नस चेहरे पर तनी हुई 
बंधी हुई मुट्ठियां  
फनफनाते नथुने
और श्वास-गति बढ़ी हुई -
समझ लीजिए, उस जगह आग सुलग चुकी है।

कहते हैं कि राग से आग उपजती थी
शब्दों से प्रकट होती 
अग्नि को देखा है 
झेली है 
बरसों से पोषित आग
दबी हुई यह आग  
बाहर लानी है तुम्हें
जहां आग लग गई  
बुझानी है तुम्हें
बुझ गई तो सोच लो  
फिर से लगानी है तुम्हें
जान लो कि आग की पहचान पानी है तुम्हें।

कितनी अजीब बात है
लोग हथेली पर हीरै की तरह आग धर
उसका सौदा कर लेते हैं
आग को  
लाग की तरह काम लेकर 
अपना समय काटने के लिए
पीढियों की गर्मी को  
गिरवी धर देते हैं। 

मरते-खसते रहने के बावजूद
न मिले तुम्हें अगर 
कहीं कोई चिनगारी दबी हुई -
कैसे वह पैदा होती है?
सोच-समझकर वह समझ
     समझानी है तुम्हें।

पर सबसे पहले  
आग से तुम्हें
अपनी परख-पहचान जरूर पा जानी है। 

लाओ दो माचिस

लो यह माचिस और सुनो
    कि तुम इसका कुछ नहीं करोगे 
सिवाय इसके  
कि अपनी बीड़ी सुलगा लो 
तीली फूंक देकर वापस बुझा दो
और डिबिया मुझे वापस कर दोगे।

लो यह माचिस
पर याद रखना  
कि इससे तुम्हें
   चूल्हा सुलगाना है  
रोटियां बनानी हैं
कारज सार डिबिया मुझे वापस कर देनी है।

यह लो, इससे तुम स्टोव सुलगाकर 
दो चाय बना सकते हो  
घर-जरूरत की खातिर 
दो-चार तीलियां रख भी सकते हो
पर डिबिया वापस देनी है मुझे, यह याद रखना है।

अंधेरा हो गया है, दिया-बत्ती कर लो
दो-चार तीलियां ही बची हों  
तो डिबिया तुम्हीं रख लेना 
अब तो तुम भी जानते हो -
     तुम्हें इसका क्या करना है 
मुझे जाना है
और नई माचिस का सरंजाम करना है। 

हां, लाओ, दो माचिस !
मैं विश्‍वास दिलाता हूं
   कि मैं इसका कुछ नहीं करूंगा और।
बीड़ी सुलगाकर दो कस खींचूंगा
एक आप ही खींच लेना 
फिर सोचेंगे  
हमें इसका क्या करना है
आपकी डिबिया आपको वापस दूंगा।

लाओ, दो माचिस
पहले चूल्हा सुलगा लूं 
दो टिक्कड़ बनाकर सेक लूं 
एक आप खा लेना  
एक मैं खा लूंगा
फिर अपन ठीक तरह से सोचेंगे
कि अब हमें 
क्या कैसे करना है।

मैं करूंगा और आप देखोगे 
तीली का उपयोग अकारथ नहीं होगा
दो कप चाय बनाकर पी लें
फिर सोचें 
कि क्या होना चाहिए 
समस्याओं का समाधान
माचिस से इस समय तो इतना ही काम।

ठीक है कि जेब में इस वक्त
पैसे नहीं हैं  
माचिस मेरे पास भी मिल जाती 
बात अभी की है  
और बात दीया-बत्ती की है
उजाला होने पर सब-कुछ दीखेगा साफ-साफ।

आपकी इस माचिस में तो
चार तीलियां हैं 
मुझे तो फकत एक की जरूरत है
तीन तीलियों सहित
आपकी माचिस आपको वापस कर दूंगा।

लाओ, दो माचिस
मैं विश्‍वास दिलाता हूं 
    कि मैं इसका कुछ नहीं करूंगा और।

मेरी मैं जानूं

अचानक   
थोथी हो गई
पांव तले की जमीन
पांव घुटनों तक  
धंस गये जमीन में
आस-पास खड़े  
लोगों को पुकारा,
आश्‍चर्य कि वे सारे
माटी की पुतलियों में तब्दील हो
माटी में धंस गये  
शायद
किसी का अभिशाप फल गया उन्हें -
लाखों के लोग  
कौड़ियों के हो गये।

मैं धरती के कांधे पर हाथ रख 
आ गया बाहर  
अब वे 
गले तक धंसे हुए लोग  
बुला रहे हैं मुझे।

मेरे दो हाथों में से
एक मेरा है  
दूसरा सौंप रहा हूं उन्हें
यह जानते हुए  
कि बाहर आकर वे 
यही हाथ  
काटने लगेंगे 
पर उनकी वे जानें 
मेरी मैं जानूं ! 


          ***
पारस अरोड़ा  : सन् 1937 में रक्षाबंधन के दिन अजमेर में जन्‍म। मूल गांव पीपाड़सिटी जिला-जोधपुर के वाशिन्‍दे। बरसों जोधपुर वि वि में कंपोजीटरी के साथ राजस्‍थानी में काव्‍य-लेखन और  राजस्‍थानी की चर्चित पत्रिकाओं जांणकारी, अपरंच इत्‍यादि का संपादन-प्रकाशन किया। कई बरसों तक राजस्‍थानी मासिक माणक में संपादन सहयोग।
प्रकाशन  : झळ, जुड़ाव और काळजै में कलम लागी आग री (तीनों काव्‍य संग्रह), खुलती गांठां, राजस्‍थानी उपन्‍यास का प्रकाशन।
सम्‍मान  : विष्‍णुहरि डालमिया पुरस्‍कार और राजस्‍थान भाषा साहित्‍य एवं संस्‍कृति अकादमी से  विशिष्‍ट साहित्‍यकार सम्‍मान।
पता : अ-360, सरस्‍वतीनगर, बासनी, जोधपुर 342005