Friday, August 12, 2016



'नया ज्ञानोदय' के अगस्‍त 2016 अंक में प्रकाशित लेख -

औरत की आजादी का समाजवादी सपना

* नंद भारद्वाज


      सपने देखना और उन्‍हें अपने जीवन में ढालने
की आकांक्षा रखना, ऐसी मानवीय वृति है, जिस पर
संसार की शायद ही कोई शक्ति रोक या बंदिश लगा सके। उन सपनों को यथार्थ में बदल पाना बेशक कठिन या असंभाव्‍य लगता हो, किन्‍तु उनको साकार करने का जिजीविषा रखने वाले सदा इस बात पर यकीन रखते रहे हैं कि उनकी यह जद्दोजहद एक दिन जरूर कामयाब होगी। मानव सभ्‍यता के इतिहास में औरत की आज़ादी का सपना एक ऐसा ही अधूरा सपना है, जिसे पूरा करने के लिए इस पुरुष-प्रधान समाज में दुनिया भर की जागरूक स्त्रियां और उनकी हिमायती लोकतांत्रिक संगठन पिछले एक अरसे से लगातार संघर्ष करते रहे हैं और उन्‍होंने स्‍त्री के साथ हो रहे अमानवीय बरताव और तमाम नाइन्‍साफियों के बावजूद हार नहीं मानी है।

     एक मिथकीय और ऐतिहासिक हवाले के रूप में यह बात अक्‍सर दोहराई जाती है कि भारतीय समाज में स्त्रियां हमेशा उच्‍च सम्‍मान पाती रही हैं – आर्य सभ्‍यता के पूर्व द्रविड़ों में जो मातृसत्‍ता की व्‍यवस्‍था प्रचलित रही लगभग वही आर्यों में भी विद्यमान थी। जिस जमाने में वेदों की रचना की जा रही थी, स्त्रियों का स्‍थान बहुत ऊंचा था। ऐसा भी माना जाता है कि ॠग्‍वेद के अतिश्रेष्‍ठ श्‍लोक स्त्रियों द्वारा रचे गये थे। उस काल में विवाह बेहद पवित्र कर्म माना जाता था। पति-पत्‍नी दोनों समान रूप से घर के मालिक समझे जाते थे और किसी भी अनुष्‍ठानिक कर्म में दोनों की सहभागिता अनिवार्य मानी जाती थी। आर्य यूरोप और मध्‍य-एशिया से मातृ-सत्‍ता की परंपरा अपने साथ लेकर आए थे। वोल्‍गा के किनारे बसे उन आर्य-कबीलों में प्रचलित मातृ-सत्‍ता उनके भारत आगमन के बाद भी जारी रही, जिसके संदर्भ पं राहुल सांकृत्‍यायन की महान् कृति ‘वोल्‍गा से गंगा’ में बखूबी देखे जा सकते हैं। लेकिन कालान्‍तर में यही आर्य समाज बदलती जीवन-शैली और अपनी नई वर्ण-व्‍यवस्‍था के चलते अधिका रूढ़ होता गया। इस प्रक्रिया में मातृ-सत्‍ता का स्‍थान धीरे-धीरे पितृ-सत्‍ता ने हथिया‍ लिया।    

       औरत की आजादी के मसले पर कार्ल मार्क्‍स के विचारों का हवाला देते हुए अमूमन लोग उनके एक कथन की ओर बराबर ध्‍यान आकर्षित करते हैं कि ‘अगर किसी समाज में पर्यावरण और परिस्थितिकी की हालत जाननी हो तो उस समाज में औरत की स्थिति को देख लेना चाहिये’ और इस तरह उत्‍तर मध्‍ययुगीन और आधुनिक युग के प्रारंभ में स्‍त्री की सामाजिक और प्राकृत स्थिति को इसी दृष्टिकोण से समझने का प्रयास करते हैं। लेकिन यह काम इतना सरल नहीं है। स्‍वयं मार्क्‍स के दृष्टिकोण को समझने के लिए हमें उसकी पृष्‍ठभूमि को ठीक से जान लेना आवश्‍यक है। यानी उनसे सौ साल पहले से चले आ रहे नारी मुक्ति संबंधी विचारों और आन्‍दोलनों की जो लंबी श्रृंखला है, उसमें पितृसत्‍ता, विवाह और परिवार की जकड़बंदी के विरुद्ध समतामूलक प्रेम और यौन जीवन के पक्ष में लड़ी गई लड़ाइयों में नारी कार्यकर्ताओं के अदम्‍य साहस और बलिदानों को सही सही जान लेना जरूरी है।

    यह भी कहा जाता है कि सन् 1779 की फ्रांसीसी राज्‍य क्रान्ति के जमाने में ‘स्‍वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्‍व’ के नारे की वास्‍तविकता नारी-मुक्ति आन्‍दोलन के सामने कोई रहस्‍य नहीं रह गई थी। वह क्रान्ति बेशक एक पुरुषवादी क्रान्ति थी, लेकिन उसमें निहित नारी-मुक्ति की संभावनाओं को पहचानने में क्रान्तिकारी नारियों ने कोई भूल नहीं की। उन्‍हें यह देखकर आश्‍चर्य जरूर हुआ कि उनके आन्‍दोलन का मुखर विरोध पुरुषों ने नहीं, बल्कि तत्‍कालीन समाज की जागरूक कही जाने वाली नारियों ने किया, लेकिन नारी-मुक्ति आन्‍दोलन से जुड़ी सजग नारियां इससे निराश नहीं हुईं। उन्‍होंने अपना आन्‍दोलन न केवल जारी रखा, बल्कि उसे संगठित ढंग करते हुए अपनी राजनैतिक गतिविधियों को और तेज करने का प्रयत्‍न किया - उन्‍होंने महिलाओं के क्रान्तिकारी क्‍लब बनाये, एसेंबली को अपने अधिकारों के पक्ष में प्रतिवेदन दिये और नारी अधिकारों की इस बहस को एक व्‍यापक आन्‍दोलन का रूप देते हुए उसमें फूरिये, साइमन, मिल, दिदेरो, कार्ल मार्क्‍स और फ्रेडरिक एंगेल्‍स जैसे विचारकों को अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाने के लिए प्रेरित किया। 

    नारी-मुक्ति आन्‍दोलन के इस महा-अभियान में मार्क्‍स और एंगेल्‍स के क्रान्तिकारी विचारों से जो बल मिला, वह अभूतपूर्व था। उन्‍होंने सामाजिक व्‍यवस्‍था पर गंभीरता से विचार करते हुए समाज की बुनियादी इकाई परिवार पर अपना ध्‍यान केन्द्रित किया और परिवार, निजी संपत्ति और राज्‍य की उत्‍पत्ति के  बीच बहुआयामी संबंधों को खोज निकाला। मार्क्‍स ने जहां अपनी पुस्‍तक ‘इकॉनोमिक एण्‍ड फिलोसॉफिक मैन्‍युस्क्रिप्‍ट  ऑफ 1844’ में मानव मुक्ति के प्रश्‍न को दार्शनिक रूप से समझने का प्रयास किया वहीं अपनी दूसरी कृति ‘द होली फैमिली’ में पूंजीवादी पुरुष के नारी शोषण संबंधी पाखंड का पर्दाफाश किया। नारी-मुक्ति संबंधी अपनी सोच को और युक्तिसंगत बनाने की दृष्टि से मार्क्‍स ने अपनी पुस्‍तक ‘जर्मन आयडियोलॉजी’ में भौतिक परिस्थितियों के बदलते ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्‍य में औरत की स्थिति का अधिक ठोस अध्‍ययन किया और यह निष्‍कर्ष निकाला कि श्रम के माध्‍यम से किये जाने वाले उत्‍पादन और नवजीवन के उत्‍पादन को मिलाकर ही समग्र मानवीय उत्‍पादन की पहचान की जा सकती है। लेकिन इस बिन्‍दु पर मार्क्‍स ने ‘प्रजनन के सामाजिक संबंधों’ पर बल देने की अपेक्षा ‘उत्‍पादन के सामाजिक संबंधों’ के अध्‍ययन को प्राथमिकता दी। बाद में एंगेल्‍स ने अपनी पुस्‍तक ‘द ऑरिजिन ऑफ फैमिली’ में मार्क्‍स के विचारों की निरंतरता में मनुष्‍य की नृवंशीय प्रगति का गहन अध्‍ययन प्रस्‍तुत किया। इस सब के बावजूद मार्क्‍स और एंगेल्‍स ‘मैन्‍युस्क्रिप्‍ट’ की दार्शनिक सीमाओं को नहीं लांघ  पाये और उनका ‘मानव’ अघोषित रूप से पुरुष तक ही सीमित होकर रह गया, वह ‘स्‍त्री’ नामक ऐतिहासिक संस्‍था की धारणा को उसमें सही तरीके से समाहित नहीं कर सका, यहां तक कि यौनिकता के मनोवैज्ञानिक पहलुओं को विकसित करने की आवश्‍यकता पर सही दृष्टिकोण भी नहीं अपनाया और कुछ बातें भविष्‍य में साम्‍यवादी समाज की उपलब्धि पर छोड़ दी गईं।

    बाद के मार्क्‍सवादी चिन्‍तन की विचार-प्रक्रिया के अंतर्गत समाजवादी क्रान्ति में स्‍त्री-मुक्ति के विशिष्‍ट संदर्भ को अलग से देखने-समझने की आवश्‍यकता पर अपेक्षित ध्‍यान नहीं दिया जा सका, जिसके परिणामस्‍वरूप सीमोन द बोउवार जैसे नारीवादी चिन्‍तक को यह कहना पड़ा कि ‘मार्क्‍सवाद स्‍त्री की जैविक भिन्‍नता के तथ्‍य की उपेक्षा करता है।' यहां तक कि परिवार और व्‍यक्तिगत संपत्ति के रिश्‍ते की बारीक व्‍याख्‍या करने वाले एंगेल्‍स भी यह नहीं समझा सके कि व्‍यक्तिगत संपत्ति की संस्‍था क्‍यों अनवार्य रूप से औरत के शोषण का कारण बनती है। उन्‍होंने श्रम की क्षमता से अलग प्राकृतिक रूप से ही मां बनने को विवश स्‍त्री की एक मौलिक और ठोस असुविधा के महत्‍व को नहीं समझा।

    इस प्रसंग में श्रम के विभाजन और वर्गभेद संबंधी व्‍याख्‍याओं पर सीमोन द बोउवार की यह आपत्ति अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण हो उठती है, जब वे कहती हैं कि ‘औरत जैविक रूप से पुरुष से भिन्‍न है और वर्गभेद का कोई जैविक आधार नहीं होता, क्‍योंकि औरत केवल श्रमिक नहीं होती, वह उत्‍पादन के साथ स्‍वयं प्रजनन का आधार होती है।' एंगेल्‍स ने जहां इस समस्‍या का अमूर्त हल समाजवादी व्‍यवस्‍था में परिवार संस्‍था के अंत के रूप में खोजा तो बेबल जैसे समाजवादियों ने इस समस्‍या का हल यांत्रिक सभ्‍यता के विकास में बताने की चेष्‍टा की।

    संयोग से बीसवीं शताब्‍दी की शुरुआत में रूस में समाजवादी क्रान्ति की सफलता और कई अन्‍य देशों में समाजवादी व्‍यवस्‍था के अनुभव हमारे सामने हैं, जहां औरत की आजादी को लेकर कई तरह के प्रयोग किये जा चुके हैं। सोवियत सत्‍ता कायम होने के बाद रूसी साम्‍यवाद यह मन बना चुका था कि क्रान्ति को न केवल आर्थिक उत्‍पादन के स्‍तर पर प्रभावी होना है, बल्कि उसे उत्‍पादन और प्रजनन दोनों स्‍तरों पर रूपान्‍तरण करना है। उन दिनों सोवियत संघ में औरतों को घरेलू काम-काज से मुक्ति दिलाने का विचार सर्वाधिक लोकप्रिय था। लेनिन की धारणा थी कि घर के काम से हटकर स्त्रियां अपने व्‍यक्तित्‍व और क्षमताओं का बेहतर विकास कर सकेंगी। इसी प्रक्रिया में परिवार और विवाह की संस्‍थाओं को कमजोर करने से लेकर औरत और मर्द के मुक्‍त समागम को प्रोत्‍साहित करने पर पूरा जोर दिया गया। मुक्‍त समागम की इस धारणा को लो‍कप्रिय बनाने के पीछे यह स्‍त्री पुरुष की शारीरिक जरूरतें पूरी करने का उद्देश्‍य कतई नहीं था, बल्कि उसका मूल मकसद था स्‍त्री और पुरुष के बीच समानता के धरातल पर गहरी मित्रता कायम करना और यौन-दमन से मुक्‍त मानव का निर्माण करना। लेनिन के नेतृत्‍व में सोवियत कम्‍युनिस्‍ट पार्टी पूरी तरह से स्‍त्री मुक्ति के इस कार्यभार के प्रति वचनबद्ध थी। आज यांत्रिक सभ्‍यता अपने चरमोत्‍कर्ष पर है, लेकिन दुनिया में नारी मुक्ति का संघर्ष आज भी जारी है, वह आज भी अपने जैविक और सामाजिक अस्तित्‍व के लिए संघर्षरत है। उसकी कामयाबी की मंजिल कहीं दूर-दूर तक नजर नहीं आती। 

      रूस में समाजवादी सत्‍ता कायम होने के साथ ही औरत की आजादी के हक में पहला बड़ा कदम यही उठाया गया कि मजदूर वर्ग में महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार प्रदान किये गये। छोटे बच्‍चों और स्‍त्री कामगारों को ज्‍यादा जरूरतमंद करार दिया गया, गर्भवती स्त्रियों के लिए सुरक्षा के विशिष्‍ट इंतजाम किये गये, पार्टी और मजदूर कौंसिलों में उनकी भागीदारी बढ़ाई गई और कार्यशील महिलाओं की सुरक्षा के लिए ऐसे कानून बनाए गये, जिनके बारे में रूस में तो क्‍या दुनिया के किसी देश में कल्‍पना भी नहीं की जा सकती थी।

    समाजवादी व्‍यवस्‍था में स्त्रियों को राजनैतिक रूप से संगठित करने की दृष्टि से पार्टी ने 1919 में एक विशेष विभाग बनाया, जो ‘जेनोट्डल’ के नाम से मशहूर हुआ। इस विभाग ने स्त्रियों को गृह-युद्ध और अकाल के समय संघर्ष में उतारा और उनके छापामार दस्‍ते गठित किये, जिन्‍होंने आपराधिक तत्‍वों का डटकर मुकाबला किया।

    इस नयी समाजवादी व्‍यवस्‍था में स्‍त्री को एक श्रमिक के रूप में समान अधिकार दिलाने के साथ ही उसके पारिवारिक जीवन को भी कानूनी तौर पर बदलने के भरपूर प्रयत्‍न किये गये। विवाह के लिए नागरिक पंजीकरण को आवश्‍यक करने के साथ ही वैवाहिक संहिता बनाकर पति-पत्‍नी को कानून की दृष्टि से समान अधिकार प्रदान किये गये। वैध और अवैध बच्‍चों का अंतर समाप्‍त किया गया। परिवार में पुरुष की कानूनी सत्‍ता समाप्‍त कर औरत को अपने नाम और नागरिकता के बारे में निर्णय करने की पूरी आजादी प्रदान की गई। तलाक की प्रक्रिया आसान कर दी गई और आपसी सहमति से बने संबंधों को मान्‍यता प्रदान की गई। सन् 1926 में नई परिवार संहिता लागू होने के साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में किसान महिलाओं और गृहणियों को परिवार की संपत्ति का मालिक बना दिया गया, यहां तक कि उनके गृहकार्य का पारिश्रमिक निर्धारित कर उसे कानूनी वैधता प्रदान कर दी गई। 

    इन नयी कार्य-व्‍यवस्‍थाओं से सोवियत स्‍त्री के सामाजिक और आर्थिक जीवन में क्रान्तिकारी बदलाव आया लेकिन उसके निजी और यौन जीवन की समस्‍याएं तब भी जटिल बनी रहीं। प्रयोग के बतौर उनके आवासन की समस्‍या के निदान के लिए जो सामुदायिक कम्‍यून कायम किये गये, उनकी वजह से प्रेम और यौन जीवन में खासी अव्‍यवस्‍था फैल गई। यहां तक कि यौन क्रिया के लिए एकान्‍त की मांग एक गैर-जरूरी सुविधा मानी गई। कानून बनाने और संगठन के स्तर पर प्रयत्‍न करने में कोई कमी नहीं छोड़ी गई और इस तरह सैद्धान्तिक तौर पर परिवार-व्‍यवस्‍था के गौण करने की परिस्थितियां भी तैयार हो गईं, लेकिन व्‍यवहार में पार्टी परिवार का कोई ठोस विकल्‍प तैयार करने में नाकाम रही। बेशक इसमें सोवियत समाज का पिछड़ापन, औद्योगिक विकास की कमी, वैयक्तिक व्‍यवहार में पुरुषों का दोहरा बरताव जैसी कई कठिनाइयां रही हों, लेकिन मूल समस्‍या वही थी कि मार्क्‍सवाद के पास यौन व्‍यवहार से जुड़ी मनोवैज्ञानिक समस्‍याओं के समाधान का कोई ठोस चिन्‍तन उपलब्‍ध नहीं था। कतिपय समाजवादियों द्वारा प्रेम को ‘पूंजीवादी रहस्‍यवाद’ या ‘सुपरस्‍ट्रक्‍चर’ का मसला कहकर टाल देने से यौन जैसे विषयों पर बौद्धिक विचार-विमर्श बहुत कम हो पाया।

     सोवियत क्रान्ति के बाद लागू हुई नयी व्‍यवस्‍था के प्रारंभिक वर्षों में नारी मुक्ति के जिस अभियान को जोर-शोर से आरंभ किया गया, वह बीसवीं शताब्‍दी के तीसरे दशक की समाप्ति तक कुछ शिथिल होने लगा। लेनिन की मृत्‍यु के बाद नयी राजसत्‍ता ने आर्थिक पुनर्निर्माण को प्राथमिकता देनी आरंभ कर दी और मानवीय क्षमता के यौनिकता में बह जाने के प्रति पार्टी चिन्तित हो उठी। ‘जेनोट्डल’ को भंग कर दिये गये साथ ही परिवार की संस्‍था को सरकारी नीति के तहत फिर से स्‍थापित कर दिया गया। परिवार को गौण मानने की चर्चाएं बंद हो गईं। सन् 1936 में गर्भपात को वैध करनेवाला कानून भी वापस ले लिया गया और तीस के दशक में नारी मुक्ति के मकसद से बनाए गये कानूनों को पलट दिया गया। अखबारों में परिवार, प्रजनन और विवाह की प्रशंसा में लेख छपने लगे, सोवियत मातृत्‍व के गुणगान सरकारी नीति बन गये और इस हर चीज को फिर से उत्‍पादकता के साथ जोड़ दिया गया।

   समाजवादी व्‍यवस्‍था में नारी-मुक्ति के इस असफल प्रयोग का असर अन्‍य  समाजवादी देशों पर भी पड़ा और वे औरतों की आजादी के रास्‍ते पर उतने ही चले, जितनी उपयोगिता उन्‍हें समाजवादी आर्थिक रचना के लिए जरूरी लगी। ऐसे में परिवार जैसी पुरातन संस्‍था को इकाई के रूप में फिर से स्‍वीकार करना एक तरह से मानवीय नियति बन गई। इतना कुछ होने के बावजूद नारी-मुक्ति का आन्‍दोलन यहीं खत्‍म नहीं हो गया। नारीवादी चिन्‍तकों ने समाजवादी व्‍यवस्‍था के इस असफल प्रयोग को अपने संघर्ष का महत्‍वपूर्ण सोपान मानते हुए उसकी ऐतिहासिक भूमिका के प्रति आश्‍वस्ति ही प्रकट की। सन् 1949 में फ्रान्‍स की नारीवादी चिन्‍तक सीमोन द बोउवार ने अपनी पुस्‍तक ‘द सैकिण्‍ड सैक्‍स' (प्रभा खेतान द्वारा हिन्‍दी में अनूदित ‘स्‍त्री : उपेक्षिता’) में इसी तथ्‍य की ओर संकेत करते हुए लिखा था – “एक ऐसी दुनिया, जिसमें स्‍त्री पुरुष के अधिकार समान हों, अब हमारे सोच और चिन्‍तन का मुख्‍य विषय है। सोवियत रूस इसका प्रमाण है, जहां स्‍त्री और पुरुष को एक ही तरह का काम करना पड़ता है। यदि स्त्रियां अधिक शक्ति की मांग करने वाले कार्य नहीं कर सकतीं, तो ऐसी स्थिति कई पुरुषों की भी होती है। पुरुषों में भी अलग-अलग शारीरिक तथा मानसिक क्षमताएं होती हैं, जिनके कारण खुली संभावनाओं का चुनाव उनके भी जीवन में सीमित हो जाता है। मैं यहां केवल यह कहना चाहती हूं कि सिर्फ जैविक भिन्‍नता के आधार पर स्‍त्री और पुरुष का दो वर्गों में विभाजन तर्कसंगत नहीं लगता।" (स्‍त्री : उपेक्षिता, पृष्‍ठ 382)  

     स्‍वयं प्रभा खेतान ने इस पुस्‍तक का अनुवाद करते हुए अपनी भूमिका में मार्क्‍सवाद के प्रति सिमोन के दृष्टिकोण को और स्‍पष्‍ट करते हुए लिखा है – “सीमोन की पुस्‍तक में जहां भी मार्क्‍सवाद की रहस्‍यमयता का जिक्र आया है, या उसे स्‍त्री-स्‍वातंत्र्य के आन्‍दोलन से पृथक वर्गीकृत करने की चेष्‍टा की है, वहां उनका उद्देश्‍य यह कदापि नहीं था कि वे मार्क्‍सवादी विचारों एवं शब्‍दों को धुंध-भरा आवरण ठहराएं या मखौल उड़ाएं। मार्क्‍स पर उनकी गहरी श्रद्धा थी।" सीमोन की नजर में उस समय की सामान्‍य स्‍त्री और समाजवाद की जो अपनी सीमाएं थीं, उसी की ओर संकेत करते हुए उन्‍होंने कहा था – “स्‍त्री कहीं झुंड बनाकर नहीं रहती। वह पूरी मानवता का आधा हिस्‍सा होते हुए भी पूरी एक जाति नहीं। गुलाम अपनी गुलामी से परिचित है और काला आदमी अपने रंग से, पर स्‍त्री घरों, अलग-अलग वर्गों एवं भिन्‍न-भिन्‍न जातियों में बिखरी हुई है। उसमें क्रान्ति की चेतना नहीं, क्‍योंकि अपनी स्थिति के लिए वह स्‍वयं जिम्‍मेदार है। वह पुरुष की सह अपराधिनी है। अतएव समाजवाद की स्‍थापना मात्र से स्‍त्री मुक्‍त नहीं हो जाएगी। समाजवाद भी पुरुष की सर्वोपरिता की ही विजय बन जाएगा।"  

    लगभग दो शताब्‍दी तक औपनिवेशिक गुलामी में जीने वाले भारतीय समाज की नारी संगठित रूप से अपनी मुक्ति की वैसी मुहिम का हिस्‍सा भले न रही हो, लेकिन पुनर्जागरण के दौर में यही स्‍त्री-प्रश्‍न मानव-मुक्ति के ज्‍वलंत प्रश्‍न बनकर उभरे। स्‍वाधीनता-आन्‍दोलन के उत्‍तर काल में क्रान्तिकारी आन्‍दोलन की अपनी मजबूती के चलते नारी मुक्ति के जो सीमित प्रयास आरंभ हुए थे, उस आधी-अधूरी आजादी के हासिल ने उन पर एकाएक विराम-सा लगा दिया। तेलंगाना के सशस्‍त्र संघर्ष में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ने वाली नारियां सामुदायिक परिवार का अंग बनने की बजाय फिर से चूल्‍हा-चक्‍की की जिन्‍दगी जीने को विवश हो गईं और राष्‍ट्रीय स्‍तर पर लोकतांत्रिक चेतना के विकास का काम कहीं आधे रास्‍ते में ही बिला गया। लोकतांत्रिक और जनवादी आन्‍दोलन के वरिष्‍ठ नेताओं का वह ऐतिहासिक संकल्‍प भी इतिहास का हिस्‍सा होकर रह गया, जो स्‍त्री को नयी लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था में बराबरी का हक दिलाने के लिए बरसों तक प्रयत्‍नशील रहा, लेकिन उनका वह सपना अधूरा ही रह गया।

     आजाद भारत के संविधान ने बेशक बिना कोई लिंग-भेद किये क्षेत्र, भाषा, धर्म, वर्ण, जाति, पंथ जैसे सीमित दायरों में जीने वाले पुरुष और स्‍त्री को समान लोकतांत्रिक और वैधानिक अधिकार तो जरूर प्रदान कर दिये गये, लेकिन व्‍यवहार में वे (खास तौर से स्त्रियां और आर्थिक रूप से पिछड़े तबके) इन अधिकारों का कितना उपयोग कर पाते हैं, यह अलग विचारणीय विषय है। वैज्ञानिक अनुसंधान और तकनीकि विकास ने व्‍यक्ति की औसत आयु भी बढ़ाई, बाल-मृत्‍यु दर में कमी आना बताया गया, कहा गया कि साक्षरता (और खास कर स्त्रियों की साक्षरता) का आंकड़ा भी बेहतर हुआ है, लेकिन बकौल मृणाल पाण्‍डे “सामान्‍य स्‍त्री का जीवन मात्र ताजा कागजी आंकड़ों की मार्फत उतार-चढ़ाव नहीं पाता, ठोस ऐतिहासिक और राजनैतिक घटनाओं के लंबे साए उस पर लगातार पड़ते रहते हैं।" और इन सायों की काली छाया काफी चिन्‍ताकारी रही है। बीसवीं सदी के अंत तक भारतीय समाज और स्‍त्री जिस दशा में पहुंच गये हैं, उस पर मृणाल पाण्‍डे का यह बेबाक विवेचन बहुत कुछ खुलासा कर देता है। वे कहती हैं – “उन्‍मुक्‍त पूंजीवाद अधिक पूंजी का सृजन भले ही करे, अंत में जाकर वह अमरीका से लेकर एशिया तक में अमीरों को ही अमीर और गरीब को और अधिक गरीब, उपेक्षणीय बनाएगा। धर्म की बेदखली के बाद बीसवीं सदी का कल्‍याणकारी सजाजवाद ही वह इकाई था, जो एक हद तक लोकतंत्र की अंतरात्‍मा की आवाज बनकर अमीरों द्वारा एकाधिकार बटोरने पर अंकुश लगाता था, दो-दो महायुद्धों के बावजूद वही था जो गरीब और हाशिये पर खड़े मनुष्‍यों को शोषण के खिलाफ कानून की छत्रछाया और विशेष रियायतों का सहारा भी मुहैया करा पाया था। पर क्‍या आज राज्‍य अपनी लोकतांत्रिक सत्‍ता क्रमश: खोकर खुद को बाजार की ताकत के बरक्‍स बेहद निस्‍तेज, निस्‍सहाय नहीं महसूस कर रहा है? और उस शून्‍य को भरने हर देश में बेहद काइयां, सतही और प्रतिगामी धार्मिक ताकतें आगे आ रही हैं। वे वस्‍तुत: धर्म की खाल ओढ़े प्रतिगामी राजनैतिक विचारधाराएं ही हैं, जिनके सीमित भौतिक स्‍वार्थ हैं, किसी किस्‍म के गहन दार्शनिक सरोकार नहीं। औरतों के लिए यह भारी खतरा है।" (हंस, जन-फरवरी, 2000, पृष्‍ठ-165) कहना न होगा कि इक्‍कीसवीं सदी के इस बिखरे हुए राजनैतिक  परिदृश्‍य में अपने लोकतांत्रिक और मानवीय अधिकारो के लिए लड़ने वाली स्‍त्री तथा आम जन के लिए यह लड़ाई कतई आसान नहीं है।  

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