Sunday, August 13, 2017




कहानी -     


अकाल मृत्यु
·         नंद भारद्वाज

‘भाभी का देहान्‍त... जल्‍द घर पहुंचें...’  उन चंद शब्‍दों ने एकाएक पांवों के नीचे से जैसे जमीन ही खींच ली थी... टेलीग्राम के उस छोटे-से कागज को दो-तीन बार उलट-पलट कर पढ़ लेने के बाद भी उसमें दर्ज सूचना को मान लेने को मन कतई तैयार नहीं था। इस मैसेज के साथ न किसी भेजने वाले का नाम था और न ही पता-ठिकाना...। ...एक बार फिर से अपना नाम और पता जांच लिया कि कहीं किसी और व्यक्ति का तार तो नहीं आ गया गलती से, लेकिन मजमून की शुरुआत में ही मेरा नाम और मकान का पता साफ-साफ लिखा था यानी तार आया तो मेरे नाम से ही है। तार की लिखावट के बारे में तो कहा ही जाता है कि ‘लिखे मूषा और पढ़े खुदा...’ बहुत-बार लिखनेवाले की अपनी मनोदशा पर भी बहुत-कुछ निर्भर करता है... कई बार संदेश ऐसी लिखावट में आता है कि उस लिखे को सही-सही उघाड़ने के लिए किसी ऐसे तजुर्बेकार  शख्स को तलाश करना पड़ता है, जो हर तरह की लिखावट को सही-सही पढ़ लेने का अच्छी सलाहियत रखता हो। कई बार अगर लिखने वाला बहुत थका-मांदा हुआ या इस तरह के एकरस काम से ऊबा हुआ हो तो अक्सर ऐसे वक्त में लिखे जाने वाले मजमूनों की लिखावट अजीब हो ही जाती है, ...अब इसकी शिकायत करें भी करें तो किससे... और कौन सुने ?   
    एक बार फिर से उस जगह का नाम खोजने की कोशिश की, जहां से तार आया था। मेरे नाम-पते की ऊपरी लाइन में ही दो दिन पहले की तारीख और डाकघर की अपनी गुप्त भाषा में जगह के नाम पर दो कमजोर से हर्फ उभर रहे थे - कवा....जिससे यह अनुमान तो हो गया  कि तार आया मेरे गांव के पास वाले रेल्वे-स्टेशन से ही था, जहां उस पूरे इलाके का एक अकेला  डाकघर है और वहीं से तार भेजने या तलब करने की ऐसी सुविधा मौजूद है। इतनी-सी बात जेहन में ठहरते ही मेरा सारा ध्यान तार के तर्जुमे पर टिक गया - ‘‘भाभी का देहान्‍त, जल्द घर आएं..’’ लेकिन इन शब्दों से यह समझ पाना तो वाकई मुश्किल था कि आखिर कौन-सी भाभी के बारे में यह दुखदाई खबर दी गई है। भेजनेवाले का नाम न होने से दुविधा और बढ़ गई। अगर ये तार छोटे भाई गोपाल ने भिजवाया है तो उसके लिए तो मेरी पत्नी और बड़े भाई की पत्नी दोनों भाभी ही हुईं, यों आस-पास के चाचा-ताऊओं के घरों की बहुएं भी रिश्‍ते में उतनी ही नजदीक लगती हैं। ...रह-रहकर एक ही दुश्चिन्ता आकर घेरती रही कि कहीं गीता के बारे में तो नहीं...? ?
    मेरी  पत्नी गीता इन दिनों गर्भ के पूरे दिनों में थी। जब पिछली बार गांव जाकर आया था तब वह सात महीने पूरे कर चुकी थी और उसका यह पहला जापा होने के कारण हरवक्त मेरी सांस चढ़ी रहती थी कि कहीं कोई अनिष्ट न हो जाए...। जो भी हो, बात थी बेहद चिन्ताजनक और हृदय-विदारक...। मन में अजीब तरह आशंकाएं उठ रही थीं। दिलो-दिमाग में लगातार व्याकुलता बढ़ती जा रही थी और पांवों में अजीब-सी कंपकंपी। 
    मुंबई से रात-भर की रेल-यात्रा पूरी कर ठीक एक महीने बाद आज की अल-सुबह अपने शहर पहुंचा था। ऑटो से उस किराये के कमरे पहुंचकर ताला खोला और हाथ का सामान कमरे में रखकर सोचा कि पहले बाहर डाक का डिब्बा देख लूं, जो दरवाजे के पास ही दीवार में टंगा था। लकड़ी के उस डिब्‍बे में महीने भर की डाक जमा थी – कुछ चिट्ठियां और कुछ अखबार-पत्रिकाएं...। डिब्‍बे का ढक्‍कन खोलकर डाक हाथ में लिये जब वापस कमरे में आया तो पहली नजर उन चिट्ठियों के बीच एक तार पर ही पड़ी, जो ऊपर रखा था। यों भी बाकी डाक तो बाद में तसल्‍ली से देखी जा सकती है,  तार तो तुरन्त ही पढ़ लेना होता है। फोल्‍ड किये हुए तार को जब खोलकर मजमून पढ़ा तो दिल और दिमाग को एक धक्का-सा लगा।... वही शब्‍द बार-बार दिमाग में चक्कर काट रहे थे - भाभी का स्वर्गवास...-- पर कैसे? क्यों? मौत की कोई वजह भी तो होगी?  
     ऐसे किसी अनिष्ट की आशंका तो कहीं नजदीक-दूर भी नहीं दीख रही थी। अलबत्‍ता गीता के बारे में इतना जरूर जानता था कि उसके जी में आराम नहीं था,  कुछ कमजोर भी हो गई थी... ऊपर से गर्भ के पूरे दिनों थी वह...। इसके बावजूद मैं तो बल्कि किसी खुशखबरी के इंतजार में ही था -- पिछली बार जब गांव आया था, तब कितनी कमजोर नजर आ रही थी वह। उसके प्रति इस तरह चिन्ता करते देख भाभी ने ही हंसते हुए कहा था - ये भी कोई चिन्ता करने की बात है, लाल जी! आप तो पढ़े-लिखे हैं, लुगाई जब पहली बार पेट से होती है तो कुछ सोराई-दोराई तो होती ही है,  ...पर सब ठीक तरह से हो जाता है। आपको तो अच्छी-खासी बख्शीश देनी होगी मुझे...फिर परिहास करते हुए बोलीं, ‘लगता है, बच्चे के बाप बनने की उतावली कुछ ज्यादा ही है आपको.... थोड़ा धीरज रखिये, सब्र का फल मीठा ही होता है... कहते हुए वह कितनी खिलखिला उठी थीं और अपनी तरह से कितनी खूबसूरत तसल्ली दिला दी। फिर भी गांव से लौटने के बाद सप्ताह भर तक मेरा मन बराबर उद्विग्न रहा। सप्ताह भर बाद गीता के पत्र से ही कुछ तसल्ली मिल पाई कि वह बिल्कुल ठीक है। पत्र मिलने के अगले ही दिन महीने भर के लिए मेरा मुंबई जाने का काम निकल आया, अपने मालिक के साथ। उन्हें कंपनी के लिए कुछ नये इंतजामात करने थे। घर के हालात को देखते हुए कहीं दूर जाने मेरी इच्छा बिल्कुल नहीं थी और मैंने मालिक को बताया भी कि गांव में मेरी पत्नी गर्भ के पूरे दिनों में है, इसलिए वे मेरी जगह किसी और को ले जाएं, लेकिन उन्होंने तो मुझे ही ले जाना तय कर रखा था - तीन दिन पहले ही टिकट-रिजर्वेशन मेरे नाम से हो चुका था, इसलिए जाना तय था। हम उसी रात रवाना हो गये थे। मुंबई में कहां रहना है, इसका कुछ पता-ठिकाना नहीं था, सो घर को खबर भी क्या करता। सोचा, जल्दी ही लौटकर गांव हो आऊंगा। लेकिन पूरा एक महीना मुंबई में लग गया। इस दौरान घर के समाचारों को लेकर मुझे हरवक्त चिन्ता बनी रही, लेकिन समाचार जानने का और कोई जरिया ही नहीं था। आज जब दौरा पूरा कर वापस लौटा हूं तो यह बेहद चिन्ताजनक खबर मिली है...! 
    गीता का खयाल आते ही मुझे एक दूसरी तरह का अपराधबोध आ घेरता है। वैवाहिक जीवन के इन तीन सालों में अपनी पढ़ाई पूरी कर लेने के बाद इतनी गुंजाइ कभी बनी ही नहीं कि मैं उसे शहर लाकर अपने साथ रख पाता। पहली बात तो यह कि प्राईवेट कंपनी की इस मामूली-सी नौकरी में यह संभव ही नहीं था कि एक ठीक-ठाक-सा मकान किराए पर ले लूं और उसमें परिवार को आराम से रख सकूं। उससे भी बड़ी चिन्ता इस बात की कि ये नौकरी भी आखिर कितने दिन की - जितने दिन मालिक राजी है, चल रही है, जिस दिन वह काम में कसर निकालने पर आ जाएगा, कोई दूसरा काम भी ढूंढ़ना पड़ सकता है। इन अनिश्चित हालात की सब से अधिक तकलीफ परिवार को ही उठानी पड़ती है। गांव में पीछे अपना बना-बनाया घर है, खेती-बाड़ी का काम है किसी पर कोई निर्भरता नहीं। कम-से-कम इतनी तसल्ली तो है कि वह घर में निरापद रहेगी - अपनी मेहनत के बूते दो-जून रोटी की कमी तो नहीं होगी। 
     खड़े-खड़े ही मैंने कमरे की हरेक चीज पर एक उड़ती-सी निगाह डाली - सारी चीजें अपनी जगह वैसे ही निर्जीव-सी पड़ी थी, जैसी महीने भर पहले छोड़ गया था। कमरे में ताजा हवा के लिए मैंने पलंग के साथ वाली दीवार पर बनी खिड़की के पल्ले खोल लिये - सवेरे के चढ़ते सूरज के उजास में कमरे के आंगन और आलमारी के खानों में बिछे कागजों और दीवार पर टंगे कलैंडर में जैसे हरकत-सी आ गई। लेकिन सामान पर चढ़ी धूल की परतें देखकर मन में थकान और गहरा गई। मैंने पलंग के सिरहाने रखे बिस्तर को फैलाकर चद्दर को साफ किया और कुछ क्षणों के लिए लेट गया। आंखें बंद जरूर कर लीं, पर नींद कहां? 
     अपने आप को इतना बेबस और असहाय शायद ही कभी महसूस किया हो। जीना इतना सारहीन लगने लगा था कि कुछ करने की इच्छा ही नहीं हो रही थी। सोए-सोए अनायास जब लगा कि आंखों की पुतलियां और कनपटी गीली हो गई है तो उठकर बैठ गया और दोनों हथेलियों से आंखों से झर आए आंसुओं को हौले-से पौंछ लिया। एक पुराना वाकया याद हो आया - घर में एक बार किसी छोटी-सी बात पर ऐसे ही जब मेरी आंखों में आंसू आ गए, तो भाभी ने हंसते हुए कहा था, ‘वाह लाल जी, आप तो बहुत पढ़े-लिखे मर्द हैं, कभी मर्द भी इस तरह रोया करते हैं?’ और मैंने तुरन्त आंखें पौंछ ली थी। आज फिर जब आंसू निकल आए, तो भाभी का वह प्यारा-सा उलाहना याद आ गया।
    खिड़की से बाहर की ओर देखा तो लगा कि धूप काफी तेज निकल आई थी। मैंने बाथरूम में जाकर मुंह-हाथ धोए और तौलिये से मुंह पौंछकर रसोई की सुध ली, जो महीने भर से बंद पड़ी थी। खाने-पीने का ताजा सामान तो लाना ही था, लेकिन खाना बनाने की बिल्कुल इच्छा  नहीं थी। सोचा, बाहर ही कुछ खा आऊं। मैंने कमरा बंद किया और पास ही के बाजार की ओर निकल आया। एक रेस्तरां में पहले एक प्याली चाय पी और कुछ हल्का नाश्‍ता लिया। फिर पास ही की दुकान से बाकी घरेलू सामान लेकर वापस लौट आया। गांव तो अब रात की गाड़ी से ही जाना संभव था और उससे पहले कंपनी के ऑफिस जाकर छुट्टी का बंदोबस्त भी करना था। मैं नहा-धोकर दस बजे ऑफिस पहुंच गया। जब मैनेजर और मालिक को घर के समाचार बताए और तार दिखाया तो उन्होंने भी अपनी ओर से हमदर्दी जताई। छुट्टी भी आराम से मिल गई, बल्कि कुछ जरूरी आर्थिक मदद भी जुटाई। ऑफिस में अपना जरूरी काम निपटाकर शाम को पांच बजे से कुछ पहले ही मैं वहां से निकल आया। सवेरे इतना समय मिला ही नहीं था कि महीने भर से सूने पड़े कमरे को ठीक-ठाक कर पाता, इसलिए लौटकर सबसे पहले कमरे की  सफाई में जुट गया और घंटा भर उसी में लगा रहा। 
    रात को रेल-यात्रा में यों भी ठीक से सो नहीं पाया था, फिर लौटते ही जिस तरह का दुखदाई  समाचार मिला उससे दिन भर तनाव बना रहा। मन तो उद्विग्न था ही, शरीर भी थकान अनुभव करने लगा था। कमरे की सफाई करते-करते धूल-मिट्टी के कारण वैसे ही आंखें भारी हो रही थीं। सोचा, थोड़ा सो लूं तो शरीर कुछ हल्का हो जाए। बिस्तर पर सीधा होते ही आंख लग गई और जब वापस खुली तब तक कमरे में अच्छा-खासा अंधेरा घिर आया था। उठकर बत्ती जलाने के लिए स्विच ऑन किया पर बत्ती नहीं जली, दो-तीन बार स्विच ऊपर-नीचे करके देख लिया, लेकिन नतीजा वही। शायद बल्ब फ्यूज था। याद आया कि आलमारी में मोमबत्ती रखी है, इसलिए आलमारी खोलकर उसे निकाल लाया। माचिस अमूमन स्टोव के पास ही रखने की आदत है, अंधेरे में थोड़ा-सा आंखों पर जोर देकर देखा तो वह स्टोव के पास ही मिल गई। तीली जलाकर मोमबत्ती जलाई और उसे आटे के पीपे पर ठहरा दिया। कमरे में मरियल-सा पीला उजास पसर गया। बाल्टी लेकर बाथरूम की ओर गया और वहां का स्विच ऑन किया तो संयोग से वहां का बल्ब जल गया। सोचा थोड़ा नहा लूं तो शरीर हल्का हो जाएगा।
     स्नान करने से वाकई जी में कुछ शान्ति-सी मिली। नहाने के बाद बाथरूम का बल्ब निकालकर कमरे में लगा लिया, जिससे कमरे में रोशनी का फौरी इंतजाम हो गया। हाथ की घड़ी में टाइम देखा - नौ बज रहे थे यानी गांव जाने वाली गाड़ी में अभी सवा-डेढ़ घंटा बाकी था। भूख वैसे भी कुछ खास थी नहीं। यही सोचकर कि अगर कुछ खाने की इच्छा होगी तो स्टेशन पर ही देख लूंगा, खाना बनाने का विचार छोड़ दिया। कुछ देर यों ही मेज पर रखी चिट्ठियां उलट-पलट कर देखता रहा, घर की और कोई चिट्ठी नहीं थी। 
   एक छोटे बैग में पहनने के दो जोड़ी कपड़े, तौलिया और दैनिक उपयोग का छोटा-मोटा सामान डालकर मैं तैयार हो गया। रवाना होने से पहले एकबार जेब का पर्स सम्हाला रेल किराये के अलावा हाथ-खर्च के लिए दो सौ रुपये और कुछ रेजगारी थी, जो यात्रा के लिए काफी थी। ऑफिस से आकस्मिक मदद के रूप में जो राशि मिली थी, उसे अलग से बैग की अंदरूनी जेब में सुरक्षित रख लिया था। एकबारगी कमरे का मुआयना करने के बाद बैग कंधे पर लटकाकर बत्ती बुझाई और दरवाजे के ताला लगाकर सड़क पर आ गया। मेरे रहने के ठिकाने से स्टेशन ज्यादा दूर नहीं था, दस-पन्द्रह मिनट में पैदल आराम से पहुंचा जा सकता था, सामान भी कुछ खास नहीं था, इसलिए पैदल निकल जाना ही बेहतर समझा।
     सड़क पर वाहनों और लोगों का आव-जाव जारी था। फुटपाथ पर सामने से एक युगल को आते हुए देखा तो मुझे भी गीता की याद आ गई। घर में एक वही तो है, जिसे अपने मन की बात कह सकता हूं - मेरे सुख-दुख की सच्ची साझीदार। पिछले कुछ वर्षों से ईश्‍वर में आस्था भले कम हो गई हो, लेकिन आज अनजाने ही मनो-मन ईश्‍वर से प्रार्थना करने लगा था कि वह मेरी गीता को हर हाल में सही-सलामत रक्खे।
    ईश्‍वर को स्मरण करते हुए और लोगों के बीच से अपना रास्ता बनाते हुए कोई पन्द्रह मिनट की पैदल यात्रा के बाद मैं स्टेशन पहुंच गया था। मुसाफिर खाने में स्थित टिकट-खिड़की पर जाकर अपनी टिकट ली और प्लेट-फॉर्म पर खड़ी गाड़ी के एक खाली-से डिब्बे में जाकर बैठ गया। गाड़ी रवाना होने में अभी आधा घंटा बाकी था। डिब्बे के पास से गुजर रहे खोंमचेवाले से दो समोसे और चटनी लेकर रख लिये थे, सोचा जब भूख लगेगी तो खा लूंगा। मैं डिब्बे में खिड़की से अपनी सीट पर बैठै प्लेट-फॉर्म पर घूमते लोगों को बेमतलब देखता रहा। विचारों और आशंकाओं में कुछ इस तरह डूबा रहा कि कब गाड़ी रवाना हो गई, पता ही नहीं चला। उसी तार-संदेश से मन में उठती शंकाओं को लेकर विचार करता रहा - आखिर क्या हुआ होगा?... जब मैं घर पहुंचूंगा तो क्या हालत होगी?... मुंह-अंधेरे साढ़े चार बजे घरवालों को जगाना और फिर उनका इतने सवेरे सूरज उगने से पहले विलाप करना... मेरी क्या स्थिति होगी? ...क्या मैं यह सब सहन  कर पाऊंगा? यही कुछ सोचते-विचारते डिब्बे की खिड़की से बाहर देखा तो खयाल आया कि गाड़ी भगत की कोठी पार कर गई है और अब उसने पूरी रफ्तार पकड़ ली है। आधे घंटे बाद जब मैंने डिब्बे में अपने चारों ओर नजर दौड़ाई तो आस-पास के कुछ मुसाफिर नींद में डूबे सो रहे थे तो कुछ आपसी बातचीत में मशगूल। हल्की-सी खाने की तलब हो रही थी, सो पास रखे दोनों समोसे चटनी में मिलाकर खा लिये।   
     लूनी, समदड़ी, बालोतरा और बायतू होती हुई बाड़मेर जाने वाली डाक गाड़ी बस इन्हीं बड़े स्टेशनों पर रुकती हुई कोई चार सवा-चार बजे मेरे गंतव्य कवास पहुंचती है। चिन्ता-फिक्र के कारण मेरी नींद पहले ही उड़ चुकी थी। बीच में पन्द्रह-बीस मिनट के लिए एक-दो बार झपकी आई भी तो स्टेशन पर लोगों के चढ़ने-उतरने की चहल-पहल में नींद उचटती रही। ये सारे स्टेन एक-एक कर मेरी खुली आंखों के सामने से गुजर गये। कवास के करीब पहुंचते हुए गाड़ी की रफ्तार जब कुछ धीमी पड़ी तो मैंने बगल में रखा अपना बैग कंधे पर लटका लिया और अपनी सीट से उठ खड़ा हुआ। दरवाजे पर पहुंचकर कलाई घड़ी देखी तो उसमें चार बजकर दस मिनट हो चुके थे। प्लेटफॉर्म पर गाड़ी के रुकते ही डिब्बे की हत्थी छोड़कर मैं नीचे उतर गया।  उतरकर अभी दो-चार कदम चला ही था कि ठंडी हवा का एक झौंका मेरे भीतर से होकर गुजर गया। गर्म कपड़ा कुछ पहना ही नहीं था सो कंपकंपी-सी छूट गई। अभी सूरज उगने में ढाई-तीन घंटे की देरी थी। आसमान में अंधेरी एकादशी का पौना चांद पश्चिम की ओर काफी नीचे झुक आया था। 
     गांव की ओर कदम बढ़ाने शुरू किये ही थे कि भाभी और गीता के भीगे हुए चेहरे मेरी चेतना में तैर गये। इनमें से किसी भी चेहरे का विलुप्त होना मेरे भीतर इतना खालीपन पैदा कर देगा कि उसे शायद ही झेल पाऊं। स्टेशन और गांव के बीच दो किलोमीटर का वह सुनसान फासला था मुझे अक्‍सर अकेले पैदल ही पार करना होता है। हालात और हकीकत का सामना करने की हिम्मत डूबती जा रही थी और शायद इसीलिए बीस-पच्चीस मिनट का रास्ता पार करने में आज कुछ ज्यादा ही वक्त लग रहा था। ज्यों-ज्यों गांव नजदीक आ रहा था, कलेजे की धड़कन बढ़ती जा रही थी। जब गांव में घर पहुंचकर घर के अहाते में दाखिल हुआ तो एकबारगी भीतर की सांस भीतर और बाहर की बाहर ही रह गई। अहाते में प्रवेश करते ही बाएं हाथ की तरफ बनी खुली बैठक की ओर नजर डाली तो अंदर अंधेरे में दो-तीन लोगों की सोए होने की सांस बज रही थी - कौन हो सकते हैं अंदर, इतना जानने की फुरसत कहां थी? मैं बिना उस तरफ ध्यान दिये, सीधा घर के आंगन की ओर बढ़ गया।
    गांव में घर के चारों ओर कंटीली बाड़ से बने गोल घेरे के बीचो-बीच एक बड़े-से खुले आंगन और उसके चारों ओर तीन झोंपड़े, दो ओरे और एक बुखारी वाले इस घर में हमारा परिवार पिछली तीन पीढि़यों से रहता आया है। झोंपड़े और ओरे जहां घर का सामान रखने, अपना घरेलू काम करने और दिन-रात रहने-सोने के काम आते हैं, वहीं बुखारी अनाज और खाने-पीने का सामान रखने के काम आती है। गोबर की गोल दीवारों पर मजबूत लकडि़यों को परस्पर छतरीनुमा आकार में गूंथ-बांधकर उन पर पुआल की छत डालकर बनाए गये झोंपड़े सर्दी में जहां गरमास देते हैं, वहीं गर्मी के दिनों में ये उतने ही ठंडे रहते हैं। हालांकि भरपूर गर्मी के दिनों में कोई इन झोंपड़ों-ओरों के अंदर नहीं सोता। सब लोग खुले आंगन में ही सोते हैं। 
    अभी मौसम में थोड़ी ठंडी खुनक है, इसलिए घर की स्त्रियां और बच्चे इस वक्त इन्हीं झोंपड़ों में गहरी नींद में सो रहे थे, पर कौन किस झौंपड़े या ओरे में है, यह अनुमान कर पाना कठिन था। मैं कुछ क्षण अनमना-सा इन्हीं आसरों की ओर देखते हुए आंगन के बीच खड़ा विचार करता रहा कि क्या किया जाए - मां या बहन को आवाज दी जाए... भाभी और गीता के बारे में तो सोचने की ही हिम्मत नहीं पड़ रही थी। मां अमूमन अकेली रसोई में ही सोती है, मुझे इस वक्त वही ठीक लग रहा था कि पहले उसी को उठाया जाए... घर की बहुएं और बहन मीरां अपनी किशोरी बेटी और भाई की दो छोटी बच्चियों के साथ बाकी झोंपड़ों और ओरों में सो रही होंगी, उन्हें इस वक्त जगाना यों भी ठीक नहीं होगा। हालांकि मां को जगाने का नतीजा भी यही होगा कि वह उठते ही विलाप शुरू कर देगी और फिर बाकी लोग भी जाग जाएंगे। मैं शायद यह भी न जान पाऊं कि मौत आखिर हुई किसकी है, ...कहीं ऐसा न हो कि खुद ही रोने बैठ जाऊं। मैंने रसोई वाले आसरे के भीतर से आती सांसों की आवाज की ओर ध्यान दिया, मुझे एकाएक लगा कि उसमें सोयी दो स्त्रियों में से कोई एक जग गई है, उस स्त्री स्वर की हल्की खांसी और टसकने की आवाज से मैंने तुरन्त पहचान लिया कि यह आवाज गीता के अलावा और किसी की नहीं हो सकती।
    घर में जिस तरह की उदासी और गमगीनी का वातावरण था, उससे यह संकेत तो पहले ही मिल गये थे कि मौत इसी घर में हुई है, अब यह भी स्पष्ट हो गया कि मौत बड़े भाई की पत्नी यानी मेरी भाभी की ही हुई है! इस बेरहम सच को मैंने कुबूल तो कर लिया, लेकिन मन की उलझन और दोहरी हो गई। कई सवाल कुलबुलाने लगे - कैसे हो गई मौत? न बीमार सुना, न घर में ही कोई अनहोनी जैसी बात सुनी, भाई खुद कितना खयाल रखते थे भाभी का? हां अगर कोई अचानक दुर्घटना हो गई हो तो अलग बात है, लेकिन क्या?
    मैं एकबारगी उत्तर दिशा वाले ओरे की दीवार के सहारे खड़ी खाट को वहीं आंगन के एक कोने में सीधी कर उस पर बैठ गया और सोचने लगा। उसी सोचने की प्रक्रिया में अनायास मेरे गले से भी खांसी की आवाज निकल आई, जिसे शायद हाल ही में जागी गीता ने सुन लिया था, शायद लकड़ी के दरवाजे की पट्टियों के बीच से सवेरे के उजास में देख भी लिया हो, लेकिन उसने रसोई का दरवाजा खोलने की बजाय उसी के पास सोई मां को दो-तीन आवाजें दीं।
   रसोईघर का दरवाजा खोलने के साथ ही मां मुझे आंगन में खाट पर बैठा देखकर वहीं रसोई के भीतर ही दरवाजे के पास बैठकर विलाप करने लग गई। मैं चुपचाप खाट से उठकर उसके करीब जाकर बैठ गया। ...तय नहीं कर पा रहा था कि उसे क्या कहकर तसल्ली दूं।  
    मां भाभी का नाम ले-लेकर लगातार दबे सुर में रोए जा रही थी और गीता उसे शान्त रहने के लिए बराबर आग्रह कर रही थी। गीता की आवाज भी काफी आर्द्र थी - मां को शान्त रहने के लिए कहते हुए उसका अपना गला भी भर आया, इसके बावजूद वह अपने भावावेग पर नियंत्रण बनाए हुए थी। मैं गुमसुम रसोई के दरवाजे के बाहर छज्जे के नीचे दरवाजे की चैखट से पीठ टिकाए शोक में डूबा बैठा रहा।
   चांद कभी का डूब चुका था और सूर्योदय से पहले का हल्का उजास आकामें आर-पार पसर गया था। पर झोंपड़ों के भीतर और छज्जों के नीचे अब भी हल्का अंधेरा कायम था। उस धुंधले उजास में आंगन के कोनों और छज्जों के नीचे रखी चीजों पर अजीब सी मनहूसियत छाई थी। मैंने यों ही अपनी आंखों पर अंगुलियां फेरीं तो जानकर हैरानी हुई कि मेरी आंखें बिल्कुल सूखी थी। बस, भीतर कहीं गहरा दर्द था, जो शरीर के रोम-रोम में पसर गया था और आंखों की कोरों में जमे तनाव के कारण सिर में खासा भारीपन लग रहा था। 
    आखिर मां कुछ शान्त हुई। उसने रुआंसी आवाज में दो-तीन बार मुझे झोंपड़े के अंदर आ जाने को कहा, लेकिन मैं बिना कुछ बोले उसी तरह गुमसुम बैठा रहा। इस बीच मेरी बड़ी बहन मीरां जागकर मां के पास आ गई थी और बाहर बैठक में सोए लोगों के बीच से बड़ा भाई प्रभु भी जागकर आंगन में आ गया था। उसने एक नजर मुझे देखा, लेकिन बोला कुछ नहीं। हम दोनों के पास कहने को जैसे कुछ था भी नहीं। वह उदास था, कई दिनों की बढ़ी हुई खिचड़ी दाढ़ी के कारण चेहरे की रंगत अजीब-सी हो गई थी, चाल में भी एक अलग तरह की थकावट भर गई  थी। आंगन में आने के बावजूद वह हमारी ओर नहीं आया। परींढे से पानी का लोटा भरकर वह चुपचाप वापस लौट गया। 
     प्रभु के ओझल हो जाने के बाद भी मेरा ध्यान उसी पर अटका रहा। उसकी दशा और विवशता के बारे में सोचते हुए अचानक मेरी आंखों से आंसू निकल आए। मुझे इस बात की गहरी पीड़ा और ग्लानि-सी हो रही थी कि घर में इतनी बड़ी घटना हो गई और मैं इस सब से पूरी तरह अनजान बना रहा। सभी ने कितनी जरूरत महसूस की होगी  उस दौरान, पर मुझ तक संदेश पहुंचाने का कोई जरिया ही नही रहा होगा  इनके पास। भाई और घर के लिए मेरा दुनिया भर का ज्ञान और जानकारियां सब अकारथ हो गईं, जिनके बूते मैं इन आकस्मिक हादसों से सतर्क रहने या ईश्‍वर जैसी अदृश्‍य शक्ति के भरोसे निष्क्रिय बैठै रहने के प्रति घर के लोगों को सजग रहने की अक्‍सर सलाह देता रहा हूं।
    कुछ ही पलों में प्रभु बैठक में पानी का लोटा देकर वापस आंगन में लौट आया था। करीब आने पर मैंने उठकर भाई के चरण-स्पर्श किये और वापस अपनी जगह बैठ गया। वह भी सुखी  रहोका छोटा-सा आशीष देकर मेरे करीब बैठ गया। प्रभु के इस तरह पास आकर बैठने से मां और मीरां फिर से विलाप करने लगी थीं। बहन मीरां विधवा है, बस अपना कहने के नाम पर उसकी दस साल की एक बेटी है, पति की मृत्यु के बाद से मां और पिताजी ने उसे वापस उसकी ससुराल नहीं भेजा। परिवार में गमी के ऐसे मौकौ पर उसका दर्द और दोहरा हो जाता है। गीता धीमे रुआंसे स्वर में मां और मीरां को शान्त रहने का आग्रह करती रही, उसके कहने पर मां तो चुप हो गई, लेकिन मीरां का दर्दभरा विलाप अब भी जारी था। मैं गुमसुम-सा बैठा बहन की अव्यक्त पीड़ा को अंदर-ही-अंदर सोखता रहा।
    अपना चित्त शान्त होने के बाद मां ने गीता को चूल्हा सुलगाने के लिए कहा था। मीरां का विलाप अब कुछ कम हो गया था, पर वह हौले-हौले सिसक रही थी। गीता नै चूल्हा सुलगा लिया था, जिसकी वजह से रसोई के इस झोंपड़े में हल्का प्रका हो गया था। यों सूरज बेशक न उगा हो, लेकिन बाहर आंगन में अच्छा-खासा उजाला हो गया था। मां के आवाज देने पर मैं भी उठकर झोंपड़े के अंदर जाकर मां के पास ही आंगन में बिछी चटाई पर बैठ गया। भाई प्रभु अब भी बाहर बैठे रहे।  
     मां देर तक भाभी को याद करते हुए उसके एकाएक गुजर जाने पर अफसोस जाहिर करती रही और मैं चूल्हे में जलती लकडि़यों पर अपनी नजर गड़ाए चुपचाप सुनता रहा। बहन छोटी चरी लेकर बकरी का दूध निकालने चली गई और गीता चूल्हे पर चाय का पानी चढ़ाकर चाय-पत्ती और चीनी डालने की तैयारी में थी। इसी बीच मां के कहने पर प्रभु भी झोंपड़े के अंदर आ गया था। वह झोंपेड़े के बीच के खंभे का सहारा लेकर बैठ गया था। वह भी बिना कुछ बोले चूल्हे की जलती आग पर नजर टिकाए देख रहा। कुछ क्षण के लिए सभी की सांसें जैसे थम-सी गई थीं। मैंने बाहर आंगन की ओर देखा, जहां अब काफी उजाला था, लेकिन आज यह उजाला और दिनों से अलग और अनसुहाता-सा लग रहा था। मैंने तुरन्त उस ओर से नजर फेर ली। बहन मीरां इस बीच दूध लेकर वापस लौट आई थी। मेरा ध्यान फिर से प्रभु की ओर गया, जो अब भी गुमसुम-सा बैठा था।  
    मीरां ने चाय की प्याली मेरी ओर बढ़ाई, जिसे मैंने उसकी ओर देखते हुए थाम लिया। मां अब भी भाभी की बीमारी, उसे दिये जाने वाले उपचार और बीच-बीच में अपने ईश्‍वर को याद किये जा रही थी। मीरां ने एक लोटे में कुछ चाय और चार खाली प्याले भाई को पकड़ा दिये थे, जिन्हें लेकर वह फिर बैठक की ओर निकल गया था। मैंने चाय का एक घूंट लेते हुए मां से सवाल किया, ‘‘आखिर हुआ क्या था?’’
    मां ने जो कुछ बताया, उसका सार यही था कि भाभी को कुछ अरसा पहले बुखार आया था, जो सारे घरेलू उपचार के बाद भी टूट नहीं रहा था, वैद्यजी की दवाई और उपचार का भी कोई असर नहीं हुआ। प्रभु को पास के कस्‍बे उत्तरलाई भेजकर कंपनी अस्पताल के कंपाउंडर खैराज को भी दिखाया, उसने कुछ अंग्रेजी दवाइयां भी लाकर दी, लेकिन उसकी हालत तो बिगड़ती चली गई, कोई सुधार हुआ ही नहीं। और सारे ब्यौरे के बाद मां के ये आखिरी शब्द थे - ‘‘रामजी, उणरै भाग में इत्‍तौ ई दांणो-पांणी घाल्‍यौ, लालू ... ने उसके हिस्से में इतना ही दाना-पानी डाला था, लालू। नेकाळै री मांदगी सूं तौ ईस्‍वर ई बंचावै भलांई, दूजौ तौ किणरै स्‍सारै... इत्‍ता ई दिनां रौ जीवणौ लिख्‍योड़ौ हो उणरी किस्‍मत में...”(रामजी ने उसके भाग्‍य में इतना ही दाना-पानी डाला था, निकाले’ (टायफाइड) की बीमारी से तो भगवान ही बचाए तो भले बचे। शायद इतने ही दिनों का जीना लिखा था उसकी किस्मत में... ”) और इतना कहते हुए उसका गला भर आया था। 
    ईश्‍वर को इस तरह बार-बार बेवजह हवाले में लाना और सारी जिम्मेदारी उसी पर डालकर अलग जा खड़े होना, मुझे कभी रास नहीं आता, मैं जल्दी ही इससे उकता जाता हूं। जानता हूं कि ऐसे मौकौ पर ऐतराज करने से शायद ही कोई अंतर पड़े, पर परिवार के किसी सदस्य की ऐसी अकाल मृत्यु पर इस तरह के बहाने बार बार दोहराना कचोट पैदा करते हैं। भाभी की बीमारी के प्रसंग में मां का इस तरह ईश्‍वर की आड़ लेना मुझे कुछ नागवार-सा लग रहा था और मैं झुंझलाकर बोल पड़ा - ‘‘अरे ईश्‍वर की बात छोड़ो मां, ये बताओ न कि जब घर में भाभी की तबियत नहीं संभल रही थी, तो उसे उपचार के लिए कहीं ले क्यों नहीं गये? उसकी दवाई-पानी को लेकर कुछ किया क्‍यों नहीं...?’’ 
       ‘‘कियौ क्‍यूं कोनी, बेटा!... जे कोई रौ अंजळ-पांणी ई नीं ब्ंच्‍यौ हुवै, जीवण रा दिन ई पूरा व्‍हेग्‍या व्‍है तौ कोई कांई कर सकै भला...?” (किया क्‍यों नहीं बेटे, पर अगर किसी का अंजल-पानी ही न बचा हो, जीने के दिन ही पूरे हो गये हों, तो कोई क्या कर सकता है? ...और फिर अपनी सफाई देते हुए जोड़ा कि उन्‍से जो हो सका, सब कुछ तो किया ही - कंपाउंडर खैराज घर आकर बराबर देखते रहे, दवा भी देते रहे,  खुद उसने भगवान रामदेवजी पूरी मनौती की, उनके देवरे में हरवक्त घी के दिये की ज्योति जलाए रखी, स्वामी सोमगिरी जी से झाड़-फूंक दिलवाई, इस तरह की बीमारी के जानकार सयानों को घर बुलाकर दिखाया, तोलियासर भैरूंजी की जात भी बोल दी, लेकिन... और इसी तरह के जाने कितने ब्‍यौरे देती रही...  
         ‘‘पण किणी अस्‍पताळ में ले जाय नै डॉक्‍टर सूं इलाज नीं करवायौ... कांई खैराज आ सलाह कोनी दीवी कै मरीज नै बडै अस्‍पताळ ले जाय नै दिखाणौ चाहीजै?” (“लेकिन किसी अस्पताल में ले जाकर डॉक्टर से इलाज नहीं करवाया... क्या खैराज ने ये सलाह नहीं दी कि मरीज को शहर के बड़े अस्पताल ले जाकर दिखाना चाहिये?’’) मैंने झुंझलाते हुए मां से पूछा।    
        ‘‘अबै सलाह देवण में तौ किणरौ कांई लागै बेटा, वौ ई तौ डाक्‍टर री बतायोड़ी दवाई देवै हौ नीं। वैदराज जी री गोळ्यां ई चालै ही, खुद खैराज सूयां ई लगाई, अर सेवट जद नीं ताबै आई तौ लारै जावतौ कैवण लाग्‍यौ के बडै अस्‍पताळ ले जावौ...” (“अब सलाह देने में तो किसी का क्या जाता है, बेटा! वो भी तो डॉक्टर की बताई दवाई ही दे रहा था न! वैद्यराज जी की गोलियां भी चल ही रही थीं, खुद खैराज ने अपने हाथ से सुइयां दीं, आखिर जब तकलीफ नहीं पकड़ में आई तब जाते-जाते बोला कि इसे बाड़मेर लेजाकर बड़े अस्पताल में दिखाओ...।’’
         ‘‘ तो फिर ले क्यों नहीं गये अस्पताल....?’’
         ‘‘...अब तू ही बता, जिकां नै बड़े अस्पताल ले जावै,  वां मांय सूं कित्‍ता-क वापस सही-सलामत घरां आवै - किसने री लुगाई नै लेग्‍या हा, जिणी दो दिन पछै लाश ही पाछी आई, सेठ निहालचंद तो पईसांवाळौ आसामी है, उणरै जवान बेटै रै इलाज में कांई कमी रैवणी ही अर कित्‍ती-सी उमर ही लाई री, फेरूं ई वौ बंच्‍यौ तौ कोनी... चौखाराम री बैन नै बाड़मेर लेग्‍या हा, आ सागण ई तकलीफ ही, फेर वा क्‍यूं मरी...?” बोलते-बोलते मां का स्वर रोष से कांपने लगा था। कुछ क्षण चुप रहकर फिर निश्‍वास छोड़ते हुए बोली, ‘‘जिणरै जीवण में राम जी इत्‍ता ई  दिन घाल्‍या व्‍है,  उणनै जीवायां राखणौ किणी मिनख रै बस री बात नीं व्‍है...।"    
     मां से मिली इस जानकारी के बाद उससे और कुछ जानने को बाकी नहीं बचा था। मैं उसी तरह चिन्ता में डूबा चूल्हे में बुझती आग और अंगारों पर घिरती राख की परतों को देखता रहा। चूल्हे के पास चुपचाप बैठी गीता शायद इन दिनों अपने गर्भ के पूरे दिनों में थी, उससे नजर मिली तो वह एक हल्की-सी फीकी मुस्कान के साथ शान्त भाव से मेरे मुंह की ओर देखती रही।
     भाभी की अकाल मृत्यु और मां की अपनी सफाइयों-मजबूरियों पर मन-ही-मन विचार करता रहा, लेकिन इस बेतुकी सोच से जल्दी जी उचट गया कि सब रामजी के जिलाए जीते हैं। यह बात कहते हुए खुद मां के ही स्वर में एक तरह का अविश्‍वास और रूखापन साफ झलक रहा था। लग रहा था कि मां सच को छिपाने और खुद की झेंप मिटाने के लिए ईश्‍वर की आड़ ले रही है। अन्यथा यही वह मां है, जो कई बार राम के नाम पर की जाने वाली हमारी बहानेबाजी पर गुस्सा करते हुए कहा करती थी - काम तो हाथ सूं करियां व्‍है लाडेसर, जिग्‍यां  पकड़ नै बैठण वाळां नै तौ भगवान ई नीं जीमावै!
     इस दौरान प्रभु बैठक में चाय पिलाकर वापस लौट आये थे और इस बार वे रसोई के अंदर न आकर बाहर उसके छज्जे के नीचे थांभली का सहारा लेकर बैठ गये थे। वे मां के साथ मेरी जो बात हो रही थी, उसे सिर नीचा किये सुन रहे थे।
     मां की बात पूरी होते-होते अनायास मेरे मुंह से यह बात निकल ही गई - ‘‘तो इसका मतलब तो यही हुआ कि सब लोग बैठे इंतजार करते रहे कि भगवान आकर भाभी को ठीक कर देंगे? मुझे हैरानी है मां कि सारे घरवालों की अक्ल पर एक साथ पानी कैसे फिर गया? असल में...’’ मैं कुछ और कड़वी बात कहने वाला था, लेकिन बीच ही में मां  की सिसकियों और विलाप ने रोक लिया। प्रभु का चेहरा कुछ सख्त पड़ता-सा लगा। बहन मीरां को भी मेरी बात शायद अच्छी नहीं लगी, वह उदास-सी मेरी ओर देखने लगी थी। गीता ने हल्के-से गर्दन हिलाकर यही संकेत दिया कि मैं इस पर अब अधिक कुछ न कहूं। मुझे अपनी बात बीच में ही छोड़ देनी पड़ी, यों भी अब किसी को कुछ कहना या उलाहना देना अकारथ था। कुछ और आगे सोचता हूं तो आर्थिक रूप से टूटे घर की हालत अपनी लाचारगी खुद बयान करती दीखती है। इसके बावजूद जाने क्यों किसी बात को बेमतलब ओढ़े रहना या असलियत से बचने के लिए बहाने तलाश करना, मुझे हमेशा असंगत और असहनीय लगता रहा है। ऐसे अवसरों पर अमूमन मुझे एक झुंझलाहट आ घेरती है और मैं अपने पर काबू नहीं रख पाता। 
             सवेरे का ठंडा पहर होते हुए भी इसी अनसोचे आगत की अमूर्त चिन्ता में आज घर के वातावरण में एक अजीब-सा तनाव भर गया था और मां का विलाप उसे और बोझिल बनाए दे रहा था। प्रभु एक हल्की-सी खांसी छोड़ते हुए उठ खड़ा हुआ और बिना कुछ कहे आंगन से बाहर निकल गया। बहन मीरां चूल्हे के आगे की बेवनी में चिमटे से राख को उलटते-पलटते एक अंतहीन अंधेरा अपने भीतर छुपाए गुमसुम बैठी थी। मैं खुद भी कुछ न कर पानेकी अकथ बेचारगी में अपराध-बोध से घिरा, मन की पीड़ा को कलेजे में दबाए देर तक चुपचाप बैठा रहा।
     बाहर सूरज ने चौतरफ अपनी किरणें पसार ली थीं। चूल्हे में अधबुझे-से अंगारों का गरमास अब भी बरकरार था। गीता ने मुझसे नजर मिलाते हुए अपने गर्भ में पलते गुमेज पर एक दृष्टि डाली और चूल्हे को फिर से सचेत करने की तजवीज में अंगारों को पर दो सूखे कंडे रख दिये। चूल्हे पर दूध की हांडी चढ़ाते हुए उसने फूंकनी से अंगारों में फूंक दी तो रोशनी की एक तीखी चमक के साथ आग की लपटें हांडी के पैंदे को गरमाने लगी। मुझे रह-रह कर भाभी की जुझारू छवि याद आती रही, जो कभी गीता की ही तरह इसी चूल्हे को सचेत बनाए रखने में जुटी रहती  थी - उसका जिजीविषा से भरा मुस्कुराता चेहरा मेरी स्मृति में उभरता और अगले ही क्षण फिर धुंधला पड़ जाता। यह बात किसी फांस की तरह कलेजे में धंसी थी कि मुश्किल की उस घड़ी में भाभी अेकले अपनी जि़न्दगी के लिए जूझती रही और परिवार के लोग उसे अबार लेने का कोई कारगर जतन नहीं कर सके और  न मैं ही उस मौके पर मौजूद रह सका, इसका मलाल मुझे आज भी कम नहीं।     
(मूल राजस्‍थानी से स्‍वयं कथाकार द्वारा अनुदित)  
-    नंद भारद्वाज