Wednesday, February 15, 2017



साहित्य का वर्तमान परिदृश्य और मीडिया

‘दैनिक टि्रब्‍यून’ में नियमित स्‍तंभ की लेखिका एवं पत्रकार वन्‍दना सिंह ने पिछले दिनों अपने स्‍तंभ ‘समयमान’ के लिए साहित्‍य के वर्तमान परिदृश्‍य, काव्‍य-कर्म और सोशल मीडिया के विस्‍तार से जुड़े तीन प्रमुख सवाल संवाद के लिए प्रस्‍तावित किये थे – इन्‍हीं सवालों के संदर्भ में दिेये गये मेरे प्रत्‍युत्‍तर के आधार पर वंदना जी ने विगत 15 फरवरी के दैनिक टि्रब्‍यून (रोहतक संस्‍करण) जो विवरण प्रकाशित किया, उन सवालों के पूरे उत्‍तर यहां प्रस्‍तुत कर रहा हूं -  


वंदना सिंह - साहित्य का वर्तमान परिदृश्य आपको कैसा लगता है ?

नंद भारद्वाज – साहित्‍य के वर्तमान परिदृश्‍य को मैं साहित्‍य की व्‍यापक परम्‍परा के विस्‍तार और उसकी निरन्‍तरता  में ही देखता हूं, मुझे इसमें कुछ भी अनपेक्षित, अटपटा या अप्रत्‍याशित नहीं लगता। साहित्‍य की विभिन्‍न विधाओं में अब तक जो कुछ नया रचा गया है, उसी क्रम और निरन्‍तरता में पहले से सक्रिय लेखक और नये रचनाकार अपनी नयी सर्जनात्‍मक अभिव्‍यक्ति के साथ सामने आते रहे हैं। उनके सृजन की अंतर्वस्‍तु और रचना-शिल्‍प में निश्‍चय ही नयापन आया है, लेकिन यह नयापन अपनी परम्‍परा से असंबद्ध या अविच्छिन्‍न नहीं है। जीवन के वस्‍तुगत हालात में परिवर्तन के साथ रचनाकार की जीवन-शैली, सोच और सरोकारों में परिवर्तन आना स्‍वाभाविक है और यह परिवर्तन प्रकारान्‍तर से उनके लेखन में भी अवश्‍य प्रतिबिम्बित हुआ है। शिक्षा के विस्‍तार और वैज्ञानिक चेतना के विकास के साथ पाठक की संवेदना और चेतना में भी गुणात्‍मक परिवर्तन आया है, उसकी भाषिक संवेदना बहुत-कुछ बदल गई है, वह अधिक यथार्थवादी और विवेकशील हुआ है। वह अपने मानव अधिकारों और लोकतांत्रिक चेतना के प्रति सजग भी हुआ है, लेकिन इधर के राजनीतिक परिदृश्‍य में जिस तरह व्‍यावसायिकता का वर्चस्‍व  बढ़ा है, उसकी तुलना में लोक-व्‍यवहार में लोकतांत्रिक मूल्‍यों और नैतिक आग्रहों में गिरावट अवश्‍य आई है -- धर्म, जाति, क्षेत्र, वर्ण, लिंग की अस्मिताओं के नाम पर जिस तरह जोड़-तोड़ की राजनीति का चलन बढ़ा है, इसने नागरिक चेतना में कई तरह के विकार उत्‍पन्‍न कर दिये हैं, भूमंडलीकरण की प्रक्रिया ने बाजार पर जिस तरह अपना शिकंजा कसा है, छोटे उद्यमी, श्रमिक, किसान, कार्मिक और आम उपभोक्‍ता इस विशालकाय तंत्र के सामने असहाय होकर रह गये हैं। आज कारपोरेट जगत तय करता है कि राष्‍ट्रीय विकास की दिशा क्‍या रहेगी – राजनैतिक सत्‍ताएं उसके हाथ की कठपुतली होकर रह गई हैं। ऐसे में आम लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों और जीवन-मूल्‍यों के सामने जो संकट उपस्थित है, उसका साहित्‍य के वर्तमान परिदृश्‍य पर निश्‍चय ही गहरा प्रभाव पड़ा है। नये साहित्‍य-सृजन में एक ओर जहां अमूर्तन की प्रक्रिया और अयथार्थवादी शिल्‍प का चलन फिर से बढ़ा है, वहीं बाजार और मीडिया में प्रदर्शनप्रियता ओर उत्‍सवीकरण को बढ़ावा मिला है। साहित्‍य की सभी विधाओं की अंतर्वस्‍तु और शैली-शिल्‍प में बाजार के दबाव का यह संकट विभिन्‍न स्‍तरों पर देखा जा सकता है। खासतौर से साहित्‍य-लेखन के क्षेत्र में आए इस बदलाव के संबंध में यह बात गौरतलब है कि आज काव्‍य और कथा की लेखन-प्रक्रिया में जीवन के बारीक ब्‍यौरों, घटना-प्रसंगों और उनके बीच तारतम्‍य का अस्‍पष्‍ट होना बहुत साधारण-सी बात रह गई है। कथा में काम आनेवाली किस्‍सागोई अब ज्‍यादा कारगर नहीं मानी जाती। आज के सजग और संवेदनशील कवि-कथाकार के कौशल की परख अपनी विषयवस्‍तु और खासकर कथा में चरित्रों के मनो-जगत को समझने, अन्‍तर्जगत की ऊहापोह को उजागर करने, उनकी जीवन-शैली और सोच के अन्‍तर्विरोधों को जानने, जीवन की विषमताओं से जूझने की सामर्थ्‍य पैदा करने और बाह्य-जगत से अपने रिश्‍तों की पहचान मुकम्‍मल बनाने में ही सार्थक मानी जाती है। उन पारिवारिक और मानवीय रिश्‍तों का उसके मन और आचरण पर आने वाला असर, जीवन में बीते बरसों की कोमल स्‍मृतियां, उदासी और अवसाद के पल, अबूझ सपने, इच्‍छाएं, मन की कामनाएं और इस सारे ताने-बाने को सहेजने-समझने योग्‍य भाषा और नयी अभिव्‍यक्ति की खोज-परख आज कथा-सृजन की निर्णायक बातें हो गई हैं। यहां तक कि नयी तकनीक की दृष्टि से नये बिम्‍बों, प्रतीकों, रूपक कथाओं के अमूर्त विधान में गहरी सैंध इस कथा-सृजन की नयी प्रक्रिया के वे अन्‍दरूनी तत्‍व और सूत्र हैं, जिन पर अधिक चर्चा या विवेचन भले न हुआ हो, लेकिन कथा की अन्‍दरूनी बुनावट को समझने और आज की मानक कहानी तक पहुंचने में यह अन्‍तर्दृष्टि और रियाज बहुत जरूरी है। 
वंदना - इन दिनों कविता की सात-आठ पीढ़ी एक साथ कविता कर्म में लगी हैं। करीब दस हजार कवि कविता लिख रहे हैं। हिंदी कविता के लिए यह स्थिति आपको कैसी लगती है ?


नंद – नये सोशल मीडिया के विस्‍तार ने निश्‍चय ही सार्वजनिक अभिव्‍यक्ति की अपार संभावनाएं उजागर कर दी हैं फेसबुक, ट्विटर, गूगल प्‍लस, ब्‍लॉग्‍स आदि ने हर व्‍यक्ति को यह विकल्‍प उपलब्‍ध करा दिया है और वह अपनी अभिव्‍यक्ति के लिए अब प्रकाशन-प्रसारण के किसी अन्‍य माध्‍यम का मोहताज नहीं रह गया है। साहित्‍य या कला की हरेक विधा से हर व्‍यक्ति का किसी न किसी रूप में संबंध अवश्‍य रहता है, अगर वह किसी कला-रूप को देखता-बरतता है तो उस रूप में अपनी अभिव्‍यक्ति के लिए भी जगह बना लेता है – कविता साहित्‍य का ऐसा रूप है जिससे हर व्‍यक्ति का किसी न किसी रूप में संबंध अवश्‍य रहा है। ऐसे में अगर कविता के क्षेत्र में आज किसी को छह-सात पीढ़ियां सक्रिय दिखाई दे रही हैं तो यह आश्‍चर्य की बात नहीं है और उनकी कविताएं भी इस सोशल मीडिया के जरिए बेरोक-टोक लोगों तक पहुंच रही हैं तो इसे सहज और सकारात्‍मक रूप में ही लिया जाना चाहिये। मैं इसे कविता विधा के लिए किसी खतरे के रूप में नहीं देखता, बल्कि यह अच्‍छा ही है कि लोगों के बीच यह साहित्‍य रूप अपनी पहचान और लोकप्रियता बरकरार रखे हुए है। जहां तक अच्‍छी कविता और उसके दूरगामी प्रभाव का सवाल है, इस प्रक्रिया में अपनी अलग पहचान और अपेक्षित प्रभाव वही कविता बरकरार रख पाएगी, जिसमें गहरी संवेदनात्‍मक अभिव्‍यक्ति होगी, जो अपने काव्‍य-रूप में नवीनता और अछूतापन बनाए रख सकेगी, साथ ही जो अपने को अनुकरण और दोहराव से भी बचाकर रख सकेगी। कवियों या कविताओं के वृहद परिमाण को मैं कविता के लिए किसी खतरे की तरह नहीं देखता। सोशल मीडिया या प्रसारण माध्‍यमों के जरिये जो भी कवि या कविता प्रकाश में आ रही है, उसकी कुछ छंटाई स्‍तरीय साहित्यिक पत्रिकाओं के स्‍तर पर हो जाती है और बाकी स्‍तरीय प्रकाशन संस्‍थानों के माध्‍यम से। क्‍योंकि सही पाठक तक वही कविता पहुंच बना पाती है, जो वाकई संवेदनात्‍मक अभिव्‍यक्ति के स्‍तर पर गहरे मानवीय सरोकारों से समृद्ध होती है।
वंदना - साहित्य के लिए सोशल मीडिया का विस्तार कितना अच्छा या बुरा है और क्यों?  

नंद – सोशल मीडिया के विस्‍तार को मैं सकारात्‍मक कदम ही मानता हूं – इससे सार्वजनिक अभिव्‍यक्ति के नये विकल्‍प खुले हैं। पिछले कुछ सालों में वैश्‍वीकरण के नये दौर में जिस तरह पूंजी बाजार में कारपोरेट घरानों का दखल और वर्चस्‍व बढ़ा है, जन-संचार के अधिकांश माध्‍यमों की स्‍वायत्‍तता और स्‍वतंत्रता दिखावा मात्र रह गई है, उनका संचालन अब परोक्ष रूप से उसी कारपोरेट जगत के हाथों में चला गया है और वे सूचना और मनोरंजन की वही सामग्री परोसते हैं, जो उनके आर्थिक हितों का पोषण करती हो।  विकासशील और तीसरी दुनिया के देशों की लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था और उनकी आर्थिक प्रक्रियाओं पर उनका शिकंजा और मजबूत हो गया है, वे उनके लिए बाजार बनकर रह गये हैं। संचार के क्षेत्र में आई तकनीकि क्रान्ति ने लोक-संचार के पारंपरिक रूपों को मध्‍यवर्ग के बीच अप्रासंगिक और असरहीन कर दिया है -- अखबार, पत्र-पत्रिकाएं, प्रकाशन संस्‍थान और दृश्‍य-श्रव्‍य के तमाम माध्‍यम अब उन्‍हीं का कारोबार है, प्रैस (जन-संचार माध्‍यम) जो कभी लोकतंत्र का चौथा स्‍तंभ माना जाता था, अब उसकी भूमिका बदल चुकी है, और तो और इस व्‍यावसायिक प्रतिस्‍पर्धा के दौर में लोक-प्रसारण माध्‍यमों (आकाशवाणी और दूरदर्शन) की भूमिका न केवल सीमित हो गई है, बल्कि सरकार के उपेक्षापूर्ण रवैये के चलते उनका अस्तित्‍व और साख दोनों संकट में हैं। इस स्थिति में नवसंचार के रूप में विकसित हो रहा सोशल मीडिया निश्‍चय ही जनता के हाथों में एक बेहतर विकल्‍प बनकर सामने आया है, यद्यपि कारपोरेट जगत और पूंजीवादी व्‍यवस्‍था इस माध्‍यम को भी अपने कब्‍जे में रखने के लिए बराबर प्रयत्‍नशील है, लेकिन इसकी प्रकृति और कार्य-प्रणाली के चलते यह इतना आसान नहीं है।
     साहित्‍य और कला-रूपों के लिए भी यह सोशल मीडिया एक कारगर माध्‍यम के रूप में उभर रहा है, सोशल साइट्स, ब्‍लॉग्‍स, बेब-पत्रिकाओं और ऑनलाइन बुक्‍स के जरिये दुनिया भर की भाषाओं का साहित्‍य और कलात्‍मक गतिविधियां लोगों को सहज सुलभ होने लगी हैं, लेखक और कलाकार आज इस मीडिया की अकूत संभावनाओं और क्षमताओं के प्रति सचेत और अभ्‍यस्‍त बेशक न हों, लेकिन आनेवाला समय उन्‍हें इसका अभ्‍यस्‍त अवश्‍य बना लेगा। इससे पत्र-पत्रिकाओं और प्रकाशन संस्‍थानों के वर्चस्‍व पर भी कुछ अंकुश अवश्‍य लगा है। यह अंतर-संजाल सूचना, शिक्षा और मनोरंजन के एक बहुआयामी माध्‍यम के रूप में भी अपना दायरा बढ़ा रहा है, प्रैस और प्रकाशन के प्रचलित माध्‍यम भी अब इंटरनैट (अंतर-संजाल) और सोशल मीडिया की मदद के बिना अपना असर बनाए रखने के प्रति आशंकित रहने लगे हैं, यही कारण है कि आज जीवन-व्‍यवहार में साहित्‍य और कला-रूपों के व्‍यापक प्रसार-प्रचार के लिए सोशल मीडिया के विस्‍तार को मैं एक सकारात्‍मक कदम ही मानता हूं।  
-    नंद भारद्वाज  
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