Monday, December 3, 2018


बाजार की संस्‍कृति और आम जीवन                                                   

·        नंद भारद्वाज

     संस्कृति के अलग-अलग पक्षों पर पिछले एक अरसे से बराबर अध्‍ययन-अनुसंधान होता रहा है और उसके निष्कर्ष अक्‍सर चर्चा का विषय बनते रहे हैं, लेकिन कोई भी अध्ययन या अनुसंधान अपने आप में पूर्ण या अंतिम होने का दावा नहीं कर पाता। अधिकांश अनुसंधानकर्त्ता या तो इसकी विविधता पर मुग्ध होते रहे हैं, कुछ चकित हैं, कुछ गहरे चिन्तन में डूबे हैं और कुछ परम चिन्तित ! इस अध्ययन और अनुसंधान की विषयगत चिन्ताओं से दीगर कुछ दुनियादार ऐसे भी हैं, जो इस सांस्कृतिक-उपक्रम का सामयिक लाभ भली-भांति पहचान चुके हैं और उसके जरिये अपना हित साधने-संवारने में पूरी तरह सतर्क और सक्रिय हैं। उन्हें कभी कोई अपराध-बोध या आत्म-चिन्ता नहीं घेरती। वैसे भी पूंजीवादी समाज में कला और संस्कृति की यह दशा होती आई है - वजह शायद यह भी रही कि जब मनुष्य का निजी अस्तित्व और उसकी अस्मिता ही संकट में दिखाई दे, तो कला-संस्कृति की चिन्ता कौन करे? लेकिन एक जागरूक समाज में यह स्थिति ज्यादा दिन तक नहीं चल सकती। अहम सवाल इस स्थिति के सिर्फ अध्ययन-अनुसंधान का नहीं, बल्कि जान-समझ लेने के बाद उसे बदलने का है।
     आज संस्कृति को ऐसे भिन्न अर्थ और रूप में समझने और समझाने की जरूरत है कि अपनी खामियों-खूबियों को पहचानते हुए, हम अपने लिए सही रास्ता चुन सकें। संस्कृति अपने पुरखों के सामूहिक इतिहास, उनकी सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों, उनके आचार-व्यवहार, जीवन-दर्शन, रीति-रिवाज और सामाजिक आचरण सहित अपने मौजूदा जीवन-यथार्थ से अभिन्न रूप से जुड़ी हुई है। वह समाज की विकास-प्रक्रिया के साथ ही विकसित हुई है और उसका स्वरूप निरन्तर बदलता रहा है।
     चिन्ता की बात यह है कि एक ही अंचल में बसने वाले जातीय-समुदाय, एक ही तरह की भाषा, आचार-व्यवहार और सांस्कृतिक प्रक्रियाओं से जुड़े हुए लोगों के बीच आज अलगाव और विभेद की खाइयां गहरी और चौड़ी हो गई हैं - मेल-मिलाप और संघर्ष के उलझे हुए रिश्‍तों का संतुलन आज सिरे से बिगड़ गया लगता है और यह परिस्थिति विशेष रूप से आजादी के बाद के सालों में और भयावह होती गई है। भारतीय समाज की इस दशा में सुधार हमारी सबसे बड़ी प्राथमिकता रही है। आज यह समस्या इतनी विकट हो गई है कि हर प्रयत्न अपर्याप्त साबित होता जा रहा है। ऐसी अवस्था में आज कला और संस्कृति के क्षेत्र में काम करने वाले जन-संचार माध्यमों से किसी बड़े परिवर्तन की आकांक्षा रखते हुए संकोच-सा होने लगा है। यह बात दूसरी है कि इस बदली हुई परिस्थिति में जन-संचार माध्यम ही वे सुलभ साधन रह गये हैं, जिनमें जन-आकांक्षाएं अपना अक्स देखती हैं।
    दरअसल यह विकट परिथिति बीसवीं सदी के उन आखिरी तीस सालों में बनी, जहां  सैटेलाइट और तकनीकि विकास के क्रान्तिकारी उछाल ने दुनिया का आर्थिक परिदृश्‍य बदलकर रख दिया था। इसी दौर में तेजी से बदल़ते समीकरणों को लेकर दुनिया के अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ, समाजशास्त्री और मीडियाकर्मी (साहित्यकारों सहित) लगभग एकमत हैं कि यह वैश्विक पूंजीवाद के विकास की एक अनिवार्य प्रक्रिया है, जिसमें वित्तीय-पूंजी ने अपने उत्पादों और आर्थिक प्रक्रियाओं के चलते जल, जमीन और हवा में एक सिरे से दूसरे सिरे तक कहीं भी पहुंच जाने की खुली छूट हासिल कर ली है। आवारा पूंजी के बल पर बनी यह पहुंच भौतिक और आभासी दोनों रूपों में देखी जा सकती है। यह और बात है कि पूंजी के इस खेल में आज सभी देशों की हैसियत एक जैसी नहीं है। सबके पास पूंजी निवेश की ताकत भी एक सरीखी नहीं है, इसलिए यदि यह कहा जाय कि यह प्रक्रिया अपनी प्रकृति में ही इकतरफा और असमान शर्तों पर आधारित है, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। सीधे शब्दों में यों भी कहा जा सकता है कि यह दुनिया के कुछ तथाकथित विकसितदेशों (अमेरिका, कैनाडा, ब्रिटेन, फ्रांस, चीन, जर्मनी, इटली, रूस और जापान) द्वारा अपनी पूंजी और सामरिक बल पर दुनिया के बाकी देशों के बाजार पर कब्जा जमाने और अपना मुनाफा वसूल करने की खुली छूट का ही दूसरा नाम है, जिसे चाहें तो नव-साम्राज्यवादी या नव-उपनिवेशवादी प्रक्रिया भी कह सकते हैं। मोटै तौर पर इसी को बाजारीकरण या भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के रूप में लिया जा रहा है।
     हमारे देश में आजादी के बाद से अंग्रेजी, हिन्दी और अन्य भाषाओं के जन-संचार माध्यम इस वैश्विक परिदृश्य पर लगातार बल देते रहे हैं और बराबर आगाह करते रहे हैं कि हमारा देश भूमंडलीकरण की इस प्रक्रिया में कहीं पीछे न छूट जाय -  गोया हम भी उन जी-8 की प्रतिस्पर्धा में एक प्रभावशाली प्रतिभागी बने रहें, जबकि हालत यह है कि हमारा बाजार और जीवन-शैली लगातार उनकी गिरफ्त में पहुंचती गई है और देश, विदेशी कर्ज के गर्त में आकंठ डूबता गया है। आठवें दशक के बाद तो हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाएं भी इस वास्तविकता को उजागर करने में शामिल तो जरूर हो गईं, लेकिन उनका नजरिया उन व्‍यावसायिक माध्‍यमों से कतई अलग था । खुद भारतीय लेखक अब आर्थिक, राजनीतिक और समाजशास्त्रीय मसलों पर खुलकर अपनी राय व्यक्त करने लगा थे। और निश्चय ही इससे उनके साहित्यिक-सामाजिक सरोकारों का दायरा और व्यापक हुआ ।
     हिन्दी के वरिष्ठ कथाकार और साहित्यकर्मी डॉ. रमेश उपाध्याय ने भूमंडलीकरण की इसी प्रक्रिया के तहत साहित्य की नयी रचनाशीलता पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों पर एक अच्छे-खासे ग्रंथ की रचना कर डाली है। वे इस बात पर विशेष बल देते रहे हैं कि भूमंडलीकरण को केवल पूंजी के निर्बाध प्रवाह के रूप में ही नहीं, उसे श्रम के भूमंडलीकरण के रूप में भी देखना चाहिए और एक ऐसी ऐतिहासिक दृष्टि से देखना चाहिए कि पूंजीवाद की वैश्विक व्यवस्था के विकल्प के रूप में एक बेहतर वैश्विक व्यवस्था का नक्शा उभरे तथा उसका निर्माण संभव दिखाई दे। उनकी नयी कृति साहित्य और भूमंडलीय यथार्थइस विषय के विभिन्न पहलुओं को विस्तार समझने का अवसर देती है।
     भूमंडलीकरण की इस प्रक्रिया का लक्षित क्षेत्र ऊपरी तौर पर बेशक आर्थिक और राजनीतिक दिखाई देता हो, उससे समूची दुनिया की सामाजिक संरचनाएं और संस्कृतियां गंभीर रूप से प्रभावित हुई हैं। यों भी भूमंडलीकरण संस्कृति को साम्राज्यवाद के वाहक की भूमिका में ही देखता रहा है। संस्कृतिकर्मियों ने भूमंडलीकरण के इन्हीं खतरों और दुष्प्रभावों को गहराई से महसूस करते हुए अपने माध्यमों के जरिये लगातार इनके प्रति सतर्क रहने और संघर्ष करने पर बल दिया है।
     किसी प्रदेश की संस्कृति को बनाने या बिगाड़ने में इलैक्ट्रॉनिक मीडिया या अन्य किसी माध्यम की अपने आप में कोई निर्णायक भूमिका होती हो, ऐसा पहले से मान कर चलने का कोई कारण नहीं है। न ये माध्यम जीवन के बाहरी या अन्दरूनी हालात बदल सकते हैं और न लोगों के जीवन स्तर को ही। जब तक उनकी माली हालत, आर्थिक प्रक्रियाएं और जीवन यापन का तरीका नहीं बदलता, उनके सांस्कृतिक व्यवहार में इलैक्ट्रॉनिक मीडिया या अन्य माध्यम कोई खास असर नहीं रखते। इसके विपरीत जागरूक और संगठित समाज इन माध्यमों का अपनी सामाजिक आवश्‍यकताओं - खास कर संस्कृति के संरक्षण, प्रोत्साहन और शैक्षणिक कार्यों में बेहतर उपयोग अवश्‍य कर सकता है। हो यह रहा है कि इनको विश्‍व-बाजार के व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए खुला छोड़ दिया गया है, कारपोरेट समर्थित राजसत्‍ता ने भी इन्‍हें अनुकूलित कर लिया है और देश का बुद्धिजीवी वर्ग बगैर वास्तविक कारणों की पड़ताल किये इस बात से दुखी है कि इलैक्ट्रॉनिक मीडिया हमारी संस्कृति और दैनंदिन जीवन को दूषित कर रहा है, जबकि विश्‍व-व्यापी व्यापारिक चैनलों की होड़ में आज इलैक्ट्रॉनिक मीडिया का अपना चरित्र आमूल बदल गया है।
    संस्कृति के संरक्षण और उसके विकास के नाम पर आजादी के बाद पर्यटन पर खूब बल दिया गया है और वह भी ग्रामीण पर्यटन पर। ग्रामीणों और सैलानियों को पहली नजर में यह काफी लुभावना लगता है - यानी गांवों की ओर चमचमाती गाड़ियों में आते रंग-बिरंगे सैलानी, उनकी आव-भगत में आंखें बिछाये, अपनी मेहमान-नवाजी के लिए मशहूर भारत के ग्रामवासी, बधावे गाती नव-वधुएं और अपनी पारंपरिक पोशाकों में द्वारपालों की तरह अदब से खड़े ग्रामीण-जन! लेकिन ज्यों ही असलियत पर से पर्दा हटने लगता है याकि चारों ओर बिखरी वास्तविकता को हम उलट-पलट कर देखना आरंभ करते हैं, तो सारी तस्वीर धुंधली, धूसर और टेढ़ी-मेढ़ी दिखाई देने लगती है - कई बार तो विद्रूप और भय उत्पन्न करती-सी भी।
       सैलानी का पहला मकसद होता है अपने आमोद-प्रमोद और तफरीह के लिए नये-नये इलाकों की खोज - उनमें घूमना-फिरना और अपनी एकरस और सुस्त हो रही ज़िन्दगी में नया थ्रिल पैदा करना। ऐसे लोग चाहे देश के किसी अन्य हलके या प्रान्त से आते हों या बाहरी मुल्क से, वे आमतौर पर ऐतिहासिक इमारतों, धार्मिक स्थलों, प्राकृतिक दृष्टि से रमणीक समझे जाने वाले ठिकानों, अपने से भिन्न संस्कृति और लोक-जीवन की बानगी वाले आकर्षक स्थलों, वनों, अभयारण्यों और निर्जन स्थानों की खोज में ही अपनी इस घूमंतू वृत्ति की सार्थकता देखते हैं और ऐसे स्थानों पर आने के बाद उनके मकसद और इरादे भी अक्सर बदल जाते हैं। आंकड़े बताते हैं कि इस तरह आने वाले देशी और विदेशी सैलानियों की संख्या इन बीते पच्चीस-तीस सालों में लगातार बढ़ती रही है।
       दिलचस्प बात यह है कि पर्यटन से जुड़े इन ऐतिहासिक-धार्मिक-प्राकृतिक महत्व के स्थलों से जुड़ा यह उद्यम अब लगातार उनके आस-पास के ग्रामीण इलाकों और वहां के ग्रामीण जीवन को अपनी लालसा में लपेटता जा रहा है। उन ग्रामीणों का खान-पान, पहनावा, उनके तीज-त्यौहार और लोकानुरंजन के उत्सव अपने मूल स्वरूप से हटकर उनके आमोद-प्रमोद का हिस्सा होकर एक तरह के पर्यटक बाजार में तब्दील होते जा रहे हैं। शायद यह उसी का परिणाम है कि आज हर बड़े शहर में ऐसे अनोखे गांव और चौखी-अनोखी ढाणियां विकसित हो गई हैं, जो उन्हें शहर में ही गंवई खुलेपन और अपनापे का आभास देने लगी हैं और ये सैलानियों के आकर्षण का बहुत बड़ा केन्द्र भी बनती जा रही हैं। ग्रामीण इलाकों में बने किले, हवेलियां और रावले, जो देखरेख के अभाव में खंडहर होते जा रहे थे, हेरिटेज होटल्स में तब्दील होकर कमाई का जरिया बन गये हैं।
      पर्यटन एक ऐसा व्यवसाय है जो अपना आधारभूत ढांचा स्वयं अपने दबाव से विकसित करवा लेता है। वह इस बात का इंतजार नहीं करता कि कोई सरकार या बाहरी संस्था आगे बढ़कर उसके लिए बुनियादी सुविधाएं जुटा दे तो वहां पर्यटन की गतिविधियां शुरू की जाएं। अनुभव बताता है कि ऐसे बहुत से स्थल हैं, जहां पर्यटक पहले पहुंचे और सुविधाएं बाद में धीरे-धीरे जुटती चली गईं - ऐसी सुविधाएं जुटाना खुद जुटाने वालों के लिए भी अन्ततः फायदे का सौदा ही साबित होती हैं।
       ग्रामीण क्षेत्रों की ओर बढ़ते इस पर्यटन या पर्यटन की लपेट में आते ग्रामीण जीवन के बीच का रिश्ता उतना सरल और सीधा नहीं होता, जितना ऊपर से दिखाई देता है। पहली बात तो यही कि आजादी के बाद पिछले पच्चीस-तीस सालों में ग्रामीण जीवन में ऊपरी तौर पर बेशक कुछ बदलाव आया हो - जैसे सभी बड़े गांव रेल-सड़क यातायात से जोड़ दिये गये हैं, ग्रामीण विद्युतीकरण की नयी योजनाओं ने, बावजूद अपने अन्दरूनी संकट के, उन गांवों को जमीनी बिजली से जोड़ दिया है, कनेक्शन जोड़ लेने के बाद भी वह रौशनी दे पाए या न दे पाए, वह एक अलग मसला है। पानी की पाइप-लाइनें भी बिछ गई हैं, गांवों में चौखंभी मीनारों पर पानी की बड़ी टंकियां भी खड़ी कर दी गई हैं, उनमें पानी की आपूर्ति हो पाए या न हो पाए, इसकी कोई जवाबदेही निश्चित नहीं है! उपग्रह प्रणाली की बड़ी सफलता के बाद हर गांव में दूर-संचार की सेवाएं पहुंचा दी गई हैं - और यों भी निजी क्षेत्र में हुए फफूंदी-विस्तार के बाद तो अब दूर-संचार सेवाएं किसी सरकारी तंत्र की मोहताज नहीं रह गई हैं। परिवहन और ऑटोमोबाइल के क्षेत्र में आई नई क्रान्ति के कारण दुपहिया और चौपहिया वाहन अब गांवों में आवागमन के आम साधनों की तरह हो गये हैं और रही-सही कसर जन-संचार के नये माध्यमों और कंप्यूटर के विस्तार तथा सूचना क्रान्तिने पूरी कर दी है।
       लेकिन इस ऊपरी तरक्की और विस्तार के बावजूद गांव की वास्तविक दशा में कोई खास बदलाव नहीं आया है, उल्टे अन्दरूनी तौर पर उसकी अपनी आत्मनिर्भर व्यवस्था, कृषि, पुश्तैनी काम-धंधे, ग्रामीणों के बीच का पारस्परिक सद्भाव और अन्याय-अत्याचार के प्रति संवेदनशीलता और कमजोर हो गई है। जातीय विद्वेष, छुआछूत की भावना और सामाजिक न्याय के मसले इस बदले हुए राजनीतिक माहौल में और खराब अवस्था में पहुंच गये हैं। स्त्रियों की दशा पहले भी खराब थी, वह समुचित शिक्षा-सुरक्षा और बढ़ती व्यावसायिकता के दौर में और बदतर अवस्था में पहुंच गई है - गांवों में बलात्कार, अपहरण, दहेज के कारण होने वाली हत्याओं और स्त्रियों के प्रति घरेलू हिंसा की घटनाओं में इन सालों में उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई है। बेशक स्त्री संगठनों में इस बात को लेकर कुछ जागरूकता आई हो, लेकिन उनका कार्यक्षेत्र और असर शहरों और बड़े कस्बों तक ही सीमित है, छोटे गांवों और ढाणियों की स्त्री आज भी अकेली और असुरक्षित है। इस पर्यटन व्यवसाय की गांवों में विकसित हो रही उन भौतिक सुविधाओं और अपने आमोद-प्रमोद में तो जरूर दिलचस्पी है, लेकिन ग्रामीणों की अन्दरूनी हालत और स्त्री की दशा पर विचार करने में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है।
        विचारणीय बात यह है कि इस बाजार की संस्कृति के दौर में हम आम जीवन की बिगड़ती दशा को किस नजरिये से देखें! हालत यह है कि अपनी गरीबी और दीन-दशा के कारण वह वैसे भी सामान्‍य आदमी एक अवांछित की तरह हो गया है। जिस गांव-कस्‍बे या शहर में वह रहता है, वहां अब उसके लिए कोई काम नहीं रह गया है, महानगरों में भी नोटबंदी और जीएसटी की मार से छोटे व्‍यवसाय और काम-धंधे चौपट हैं और रोजगार की संभावनाएं लगभग समाप्‍तप्राय। अभावग्रस्‍त गांवों में बिजली-पानी की सुविधाएं वैसे ही उसकी पहुंच से बाहर हैं। जन-संचार और दूर-संचार के साधनों का उसके लिए कोई खास अर्थ-मतलब नहीं रह गया है शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की हालत पहले से बदतर ही हुई हैं, ऐसे में उनका उपयोग वह कम ही कर पाता है। इन सीमित साधन-सुविधाओं पर जनसंख्या के बढ़ते दबाव और लोगों की दीन-हीन दशा के कारण भारतीय लोकतंत्र और उसका मालिक मतदाता दोनों गहरे संकट के दौर में पहुंच गये हैं। इस संकट के बावजूद राजनीतिक दलों के लिए मतदाता तो वह है ही, इसलिए उसे अनदेखा भी नहीं किया जा सकता - ऐसे में एक ही तरीका बच रहता है कि उसके सामने देश की गरीबी और बढ़ती हुई आबादी का रोना रोया जाय, और वह भी कुछ इस अंदाज में कि इसके लिए वह अपने आपको ही कोसता रहे! उसे बताया जाता है कि देश लगातार तरक्की कर रहा है, लेकिन वे अभागे लोग अपने पिछड़ेपन, अशिक्षा और अपनी काहिली के कारण उस विकास-प्रक्रिया में भाग नहीं ले पा रहे हैं, उन्‍हें जल्द-से-जल्द अपनी इन कमजोरियों पर काबू पाना चाहिए और विकास की (अमूर्त)  मुख्य-धारा में शामिल हो जाना चाहिए। वह जब तक अपनी दुरावस्था पर इस तरह के विवेचन और व्याख्यान सुनता रहेगा, उससे बाहर निकलने के उपाय पर खुद कोई विचार या पहल नहीं करेगा, जो उसी के बूते अपनी इस ओछी राजनीति के बल पर सार्वजनिक जीवन में जिन्दा हैं, तब तक इस विकट परिस्थिति का क्या हल संभव है, कहना आसान नहीं है!
       यहीं हिन्दी के विख्यात कथाकार निर्मल वर्मा का यह विवेचन मुझे याद आता है। वे कहते हैं: ‘‘मानव संसार में जहां भी मनुष्य अपनी भौतिक और आध्यात्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपने से बाहर किसी अन्य सत्ता पर निर्भर करता है, उसे अनिवार्यतः उसका मूल्य चुकाना पड़ता है। वह पूर्णतः अपना स्वामी नहीं रहता, स्वाधीनता का अंश उन सत्ताओं को समर्पित करना पड़ता है, जो धरती पर उसका जीवन संभव बनाती हैं। बदले में ये सत्ताएं उसके लिए पूरा एक नीति-विधान और नियम-संहिता बनाती हैं, जो उसके जीवन के समस्त पक्षों को प्रभावित करती है। ..जिन सामाजिक-राजानीतिक सत्ताओं के बीच मनुष्य रहता है, वहां उसका केवल एक अंश उदघाटित होता है, केवल उतना अंश जो इतिहास द्वारा परिचालित होता है। किन्तु मनुष्य सिर्फ ऐतिहासिक प्राणी नहीं है।.....इतिहास और समाज की सत्ताएं उसे बांधती हैं - कल्पना में वह हर दिये हुए बंधन, कानून, नियम संहिताओं से मुक्त हो जाता है। दो शब्दों में कहें तो वह पहली बार सामाजिक ऐतिहासिक प्राणी होने की बजाय सिर्फ एक मनुष्यहोने की परिकल्पना करता है।’’
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Monday, November 5, 2018


उजाले के उत्‍सव से बदलता रिश्‍ता 

·            नन्द भारद्वाज
       
भारतीय जनमानस का सबसे बड़ा लोक-उत्सव दीपावली सदियों से लोक जीवन में उजाले के उत्सव का ही पर्याय माना गया है। यद्यपि हमारे सभी उत्सव और त्यौहार सदियों पुरानी कृषक संस्कृति की ही उपज रहे हैं और उनसे जुड़े अनुष्ठान भी उसी की ओर संकेत करते हैं, लेकिन महानगरीय सभ्यता में इन उत्सवों का अपना अलग अंदाज भी बनता-बदलता रहा है। उत्सवधर्मिता हमारे स्वभाव का आवयक अंग रही है और उसी के चलते महानगरीय जीवन में इन पारम्परिक उत्सवों को मनाने का तरीका भी उत्तरोत्तर अधिक खर्चीला, प्रदर्शनप्रिय और आडम्बरपूर्ण होता गया है। यह उसी प्रवृत्ति और प्रक्रिया का परिणाम है कि आज दे के प्रायः सभी महानगरों का जनमानस उसी आदत का अभ्यस्त हो गया है। यह उसी प्रवृत्ति का परिणाम है कि दीपावली जैसे उजाले के प्रतीक पर्व के इर्द-गिर्द आडम्बर और अज्ञानता का काला आवरण और गहरा हो गया है, बावजूद इसके कि आज हर महानगर के  बड़े बड़े व्यापारिक प्रतिष्ठान्र, ऐतिहासिक इमारतें, सार्वजनिक स्थल, सड़कें और मुख्य बाजार रंग-बिरंगी रौनियों की चकाचैंध में दमकने लगते हैं और अपने को दूसरों से इक्कीस साबित करने की होड़ में अपने भीतर के अंधेरे को लगातार अनदेखा किये रहते हैं। इन्हीं बढ़ती व्यावसायिक गतिविधियों, व्यापारिक मेलों, सजे-धजे पर्यटन स्थलों, पांचसितारा होटलों और बहुमंजिले मॉल्स ने मिल कर एक ऐसी कार्निवाल कल्चर का निर्माण कर दिया है कि उसके चलते बड़े शहरों के एक वर्ग-विशेष की आक्रामक जीवन-शैली से अपनी संस्कृति और लोक-उत्सव की परम्परा को बचा कर रखना कतई आसान नहीं रह गया है।    
      यह ठीक है कि एक सांस्कृतिक परम्परा और रिवाज से जुड़ा समाज अपनी लोक-मान्यताओं  और परम्परा के अनुसार उसी अन्तःप्रेरणा और उमंग से उन्हें स्वयं मनाता और उनसे आनंदित होता आया है। उत्सव विशेष को मनाने की प्रेरणा, उससे जुड़ी लोक-मान्यता और अनुष्ठान की प्रक्रिया भी कमोबे एक-सी रहती आई है।  अपनी आर्थिक अवस्था और अभिरुचि के अनुरूप उसे मनाने के परिमाण और मात्रा में बेक अन्तर रहा हो, उससे प्राप्त होने वाले पारिवारिक सुख, पारस्परिक सद्भाव और आत्मिक आनन्द में शायद ही कोई अन्तर रहा हो।
     राजस्थान का गुलाबी नगर जयपुर सदा से ही उजाले के उत्सव दीपावली को अपने अलग अंदाज से मनाने के लिए महूर रहा है - यहां के प्रमुख चैराहों और रास्तों पर सजने वाले रौानी के दरवाजों, रंग-बिरंगी रौनियों से सजने वाले बाजारों, ऐतिहासिक इमारतों और जगमगाती चैड़ी सड़कों पर इस उत्सव का जो रूप निखर कर आता है वह अक्सर यह भ्रम पैदा करता है कि अब इस शहर के लोक-जीवन में अंधेरे के लिए कोई स्थान नहीं रह गया है, चहुंओर शान्ति और सुख-समृद्धि का ही बोलबाला है। जबकि पुतैनी शहर की गलियों, कच्ची बस्तियों और शहर की सीमा से शुरू होने वाले देहात की वास्तविकता कुछ और ही कहानी बयान करती है। वहां आज भी अशिक्षा, असमानता, अन्धविवास, बेरोजगारी, गरीबी, जीवन की बुनियादी सुविधाओं का अभाव, आर्थिक शोषण, स्त्रियों के साथ अमानवीय बरताव और इन सभी तरह के अभावों के साये में पनपता अंधेरा इतना गहरा और विकराल है कि इस अवस्था में जीने वाले लोगों ने इसी को अपनी नियति मान लिया है। यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि बड़े शहरों की कार्निवाल कल्चर की चकाचैंध और बाजारों की रंगीनियां तो हमें आकर्षित करती हैं, लेकिन उनके साये में पलते आर्थिक अपराध, बेईमानी, भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, लूट-खसोट, गलाकाट स्पर्धा, भेदभाव आदि पर एक मिनट के लिए भी नजर नहीं टिकती। 
      जीवन की इन कड़वी सच्चाइयों के बावजूद नगरीय और देहाती लोक-जीवन में जितना मान और महत्व इस उत्सव को दिया जाता है, उतना शायद ही किसी अन्य को दिया जाता हो। देहात का तो यह सबसे बड़ा लोक-उत्सव माना जाता है, जिसकी पूरे वर्ष प्रतीक्षा रहती है। दरअसल इसकी तैयारियां दहरे के बाद से ही शुरू हो जाती हैं - घर की साफ-सफाई, रंग-रोगन, उत्सव के लिए आवयक चीजों का इन्तजाम, नये कपड़ों की खरीद, बच्चों के लिए आतिबाजी  आदि कितने ही काम हैं जिन्हें लोग पूरे मन और मनोयोग से करते हैं। देहात में जिनके घर कच्चे होते हैं, वे भी इस अवसर पर अपने घरों को विशेष रूप से सजाते हैं। वे घर की दीवारों को गोबर से लीप कर उन्हें नया रूप देते हैं, उन लीपी हुई दीवारों और आंगन पर सफेदी का आधार बना कर रंगों से नये मांडणे बनाये जाते हैं और घर को सजा कर इस तरह तैयार किया जाता है कि कम-से-कम वह दीपावली को तो नया और तरोताजा दीखे ही। त्यौहार के प्रमुख दिनों में शाम होते ही घर में मिट्टी के दीये जलाए जाते हैं, रात में देवी लक्ष्मी और भगवान गणे की पूजा की जाती है। इस अवसर पर घर में विशेष रूप से नये पकवान तैयार किये जाते हैं और परिवार के सभी सदस्य साथ बैठकर उनका सेवन करते हैं। ऐसी भी लोक-मान्यता है कि उस दिन घर का कोई सदस्य परिवार से दूर न रहे। जो लोग काम-काज के सिलसिले में घर से दूर किसी अन्य जगह पर रहते हैं, उनसे भी यही अपेक्षा की जाती है कि वे दीपावली के अवसर पर अपने घर अवय पहुंच जाएं। इसी तरह की लोक-मान्यताएं कमोबे हर समाज में अपने त्यौहारों को लेकर प्रचलित रही हैं और ये सभी त्यौहार उसी परम्परा का निर्वाह करते हुए पूरे हर्षोल्लास से आज भी मनाये जाते हैं।
    समय बदलने के साथ इन त्यौहारों को मनाने के तौर-तरीकों में बहुत से बदलाव आ रहे हैं। इन बदलावों के पीछे बहुत से कारण हैं और कुछ तो अत्यन्त चिन्ता उपजाने वाले, जिन पर अगर समय रहते ध्यान नहीं दिया जा सका तो इसके दूरगामी परिणाम शायद ही अच्छे हों। लेकिन सारे बदलाव नकारात्मक ही हों, ऐसा नहीं है। हम जानते हैं कि बदलाव की इस प्रक्रिया को रोका नहीं जा सकता और न रोका जाना चाहिए - तकनीकि विकास और जीवन-शैली में आने वाली तब्दीलियों के अनुरूप सामाजिक जीवन में परिवर्तन आना स्वाभाविक है, इससे विकास की प्रक्रिया को गति मिलती है, मनुष्य की जीवन-शैली में परिवर्तन आता है, लेकिन यही परिवर्तन यदि हमारे जीवन-मूल्यों, पारिवारिक रितों और सामाजिक सद्भाव पर विपरीत असर डालने लगे तो यह निचय ही चिन्ता की बात है और इस अर्थ में इस परिवर्तन की दिाा पर नजर रखना जरूरी हो जाता है।
      बढ़ती व्यावसायिकता के चलते एक खतरा इस बात का भी है कि यही परिवर्तन उन त्यौहारों को उनके मूल स्वरूप से इतना दूर ले जाएंगे कि इन्हें मनाने की बुनियादी भावना ही शायद नष्ट हो जाय और बाहरी व्यावसायिक आकर्षणों से जो रूप सामने आएगा उसका हमारी जातीय संस्कृति और लोक-जीवन से शायद कोई रिश्‍ता ही न रह जाय। दरअसल त्यौहार या उत्सव आज व्यावसायिक गतिविधियों के लिए सबसे बड़े आकर्षण का केन्द्र बनते जा रहे हैं - दीपावली, हरा, दुर्गापूजा, होली, ईद, क्रिसमस आज व्यावसायियों के लिए ऐसे लुभावने अवसर हो गये हैं कि हर कोई उसका तत्काल लाभ ले लेना चाहता है। हर शहर और बड़े कस्बे का बाजार इन उत्सवों को व्यावसायिक मेले की शक्ल में ढाल देने पर आमादा है। महानगरों में तो यह और भी बड़ा आकार ग्रहण करता जा रहा है। हर साल महानगर की नई कॉलोनियों में सजने वाले दहरे के मेले में रावण का आकार और कद कुछ और ऊंचा हो जाता है और उसमें आयोजित होने वाली गतिविधियों और आतिबाजी का उत्सव के मूल रूप से कोई लेना-देना नहीं रह जाता। मुंबई के फिल्मी तमाशे की तर्ज पर गुजरात का गरबा और डांडिया रास पाचात्य धुनों पर सवार होकर जयपुर-दिल्ली ही नहीं, इस कार्निवाल कल्चर की मांग पर कहीं भी डाका डाल सकता है। यह कोई नहीं पूछता कि इस अंचल या प्रदे के अपने भी कुछ लोकप्रिय कलारूप होंगे? देशों और प्रदेशों के बीच अपने कलारूपों का सांस्कृतिक विनिमय एक अच्छी और स्वस्थ परम्परा है, लेकिन वह अपनी संस्कृति और कलारूपों की उपेक्षा करके तो नहीं निभेगी।
     क्या यह चिन्ता की बात नहीं है कि आम तौर पर महानगरों में अब दीपावली जैसे पर्व को मनाने में आम नागरिक की भूमिका बहुत गौण होकर रह गई है। अब यह बाजार तय करता है कि आप अपने घर की सजावट किस तरह की रखेंगे, आप किस काट के कपड़े पहनेंगे, क्या खाएंगे और अपनी सहज जीवन-प्रक्रिया को छोड़कर किन आरोपित तौर-तरीकों को अपनाने के लिए बाध्य होंगे। व्यक्ति के विकास, उसके पारिवारिक सुख और पारस्परिक सद्भाव में वैसे भी बाजार की भला क्या दिलचस्पी हो सकती है? चिन्ता की बात यही है कि वैयक्तिक सुख और आत्मिक आनन्द से भी यदि उसे वंचित कर दिया जाए तो उत्सव का उसके निजी जीवन में क्या महत्व रह जाएगा? मुझे तो यह भी लगता है कि यदि इस पर समय रहते बाजार ने भी अपनी भूमिका पर न सोचा और अपने रुख को ठीक न किया तो स्वयं बाजार भी अपने को कितना बचा पाएगा, कहना कठिन है।
     निस्संदेह दीपावली रौनी का सबसे बड़ा लोक-उत्सव है और उस रौशनी के प्रति हर व्यक्ति के मन में आकर्षण भी स्वाभाविक है लेकिन कोई भी व्यक्ति स्वयं को उसके प्रति तत्पर, ऊर्जावान और सृजनशील तभी तक बनाए रख सकता है जब तक वह व्यापक लोकहित के साथ अपना रिश्‍ता ठीक तरह से बनाए रखे औैर रौनी के नाम पर परोसे जाने वाले आडम्बरों और छद्मों से निरन्तर सतर्क रहे। गलियों और बस्तियों में पसरे अंधेरे से भी तभी लड़ा जा सकता है जब नये ज्ञान-विज्ञान और रौनी के अपने साधन हमारे पास हों और उचित समय पर उनके सही उपयोग की समझ भी। परिवर्तन और सृजन की प्रक्रिया में नये विचारों, नयी तकनीक और नये नजरिये की अपनी अहमियत है, लेकिन अपनी सांस्कृतिक परम्परा और लोक-संवेदना से कट कर हम कुछ भी करने का प्रयास करेंगे तो वह कितना ग्राह्य और गुणकारी साबित होगा, इसका फैसला तो एक लोकतांत्रिक समाज में जागरूक लोक ही तय करेगा।
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