* नंद भारद्वाज //
सूर्यबाला के व्यंग्य-लेखन की धार
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हिन्दी की जानी-मानी रचनाकार डॉ
सूर्यबाला की केन्द्रीय पहचान एक कथाकार के रूप में ही रही है। कथाकार के रूप में
अब तक उनके आधा दर्जन उपन्यास, एक दर्जन से भी अधिक कहानी संग्रह और कितने ही
चयन-संकलन पाठकों के हाथों में पहुंच चुके हैं। वे पत्र-पत्रिकाओं में भी बराबर
लिखती रहती हैं। कथा-लेखन की इस सुदीर्घ प्रक्रिया में व्यंग्य और व्यंजना को
अरसे तक उन्होंने एक शैली और बयान की तकनीक के रूप में तो अवश्य अपनाया, लेकिन उसे
एक अलग विधा के रूप में अपनाने का उछाव बहुत बाद में उत्पन्न हुआ। उनके उपन्यासों
और कहानियों में मानवीय प्रेम, पीड़ा, अंतर्द्वन्द्व,
अवसाद, करुणा और मानवीय संबंधों की जटिलता शिद्दत के साथ व्यक्त होती रही है,
मानवीय संवेदना की गहन अभिव्यक्ति उनके कथा-लेखन की अनूठी विशेषता मानी जाती है। अपनी
कहानियों में व्यंग्य और व्यंजना के प्रति बढ़ते इस रुझान को लेकर वे स्वयं यह
बात कहती भी हैं – “शुद्ध व्यंग्य लेखों से अलग मेरी कहानियों में भी जहां सिचुएशन्स ने झोली फैलाई, मेरे व्यंग्य ने
अलादीन के चिराग के जिन्न की तरह हुक्म बजाया। ऐसी कहानियों में ‘बाऊजी और बंदर’, ‘एक स्त्री
के कारनामे’, ‘होगी जय पुरुषोत्तम नवीन’, ‘सुनंदा छोकरी की डायरी’, ‘मातम’, ‘मानुषगंध’,
‘गजानन बनाम गणनायक’, ‘दादी और रिमोट’, ‘शहर की सबसे दर्दनाक खबर’ आदि प्रमुख हैं,
जिनमें ‘सपोर्टिंग आर्टिस्ट’ होने के बावजूद कहानी की शक्ति और सौन्दर्य व्यंग्य
के कंधों पर टिका है।" यही नहीं, वे यह भी मानती हैं कि व्यंग्य या व्यंजना
कोई बाहरी या आयातित प्रक्रिया नहीं है, बल्कि रचनाकार की अपनी सहज-स्वाभाविक
प्रक्रिया है, जो उसके जीवन-अनुभव और विषयवस्तु की आंतरिक मांग से उपजती है। इस
प्रक्रिया में व्यंग्य की उपज का हवाला देते हुए वे कहती हैं – “वहां मानवीय
संबंधों, द्वंद्व-द्विधाओं
और विसंगतियों से उपजे प्रतिरोध अवसाद की तलहटी में गहराते जाते हैं। एक भंवर की
तरह मथते हैं और देर तक प्रतीक्षा करते हैं, काफी लंबी, एक तरह से यह उनकी प्रकृति
होती है, लेकिन व्यंग्य का जुनून सीधे सतह पर हलकोरता चोट करता है और फौरन का
फरमान जारी करता है। बेचैनी और तड़फड़ाहट प्राय: हर विधा की रचना
में बराबर होती है, व्यंग्य की प्रतिक्रिया भी दोनों तरफ बराबर होती है, लेकिन
प्रतिक्रिया और प्रतिरोध की प्रकृति में अंतर होता है। एक गहरे अवसाद और अंतर्द्वन्द्वों
के बीच नीड़ का निर्माण करता है, दूसरा त्वरित एक्शन लेता है।"
इस त्वरित
और तात्कालिक प्रतिक्रिया से उपजे व्यंग्य को सूर्यबाला बेशक ‘अचानक की उपज’ या
‘अनायास की उपलब्धि’ कहती हों, लेकिन जीवन की विसंगतियों और विद्रूप से अनवरत
संघर्ष करती उस स्त्री-रचनाकार के लिए अपनी रचनाशीलता को महज संजीदगी और
संवेदनशीलता तक सीमित रख पाना आसान नहीं होता, उसे व्यंग्य–विनोद के लिए रास्ता
निकालना ही होता है, जो उसकी रचनात्मकता और संप्रेषण की नयी संभावनाएं खोजता है।
सूर्यबाला अपनी इन व्यंग्य रचनाओं को बेशक इसी प्रक्रिया और जरूरत की उपज मानती
हों, लेकिन व्यंग्य रचना की इस प्रक्रिया को साधना इतना आसान भी नहीं होता। धूमकेतु
की तरह प्रकट होता आईडिया जिस गति और गहराई से रचना में पसराव लेता है और उसके
कलेवर में समय-समाज की वे तमाम विसंगतियां खुलने लगती हैं, तो उस बयानगी में सहज
परिहास-सी लगने वाली उक्तियां अपनी व्यंजना में और गहरी मार करने लगती हैं। उनसे
गुजरता हुआ पाठक कई बार विस्मित और बेचैन-सा होकर रह जाता है। असल में व्यंग्य
का काम ही है विसंगतियों और मानवीय दुर्बलताओं पर गहरी चोट करना। यह काम किसी
वैचारिक लेख या व्याख्यान के माध्यम से उतना असरकारी नहीं होता, जितना एक कथा
के ताने-बाने में ढलकर आकार लेता है और इस बात को कुबूल करते हुए सूर्यबाला कहती
भी हैं कि ‘मेरे पूरे लेखन में ‘व्यंग्य’ ने बेहद अहम भूमिका निभायी है, विधा के
रूप में भी और शैली के रूप में भी।‘
व्यंग्य
विधा में अब तक सूर्यबाला की आधे दर्जन से अधिक कृतियां सामने आ चुकी हैं, जिनमें
प्रमुख हैं ‘अजगर करे न चाकरी’, ‘धृतराष्ट्र टाइम्स’, ‘देश सेवा के अखाड़े में’, ‘भगवान
ने कहा था’, ‘पत्नी और पुरस्कार’, ‘मेरी प्रिय व्यंग्य रचनाएं’, ‘प्रतिनिधि व्यंग्य
रचनाएं’ और ‘यह व्यंग्य कौ पंथ’। विषय वैविध्य की दृष्टि से इन व्यंग्य
रचनाओं का फलक बहुत बड़ा है। हास्य या व्यंग्य की सबसे बड़ी खूबी या कामयाबी इस
बात में छुपी होती है कि रचनाकार स्वयं अपने व्यक्तित्व और कर्म को कैसे और कितना
व्यंग्य के निशाने पर लेता है - अपनी आदतों, प्रवृत्तियों और दुर्बलताओं पर कितना
परिहास कर पाता है और एक स्त्री रचनाकार के लिए तो यह कर पाना निश्चय ही आसान
नहीं होता, जो पहले से ही इस पुरुष-प्रधान समाज में जगह-जगह बेढब हालात का सामना
कर रही होती है, पग-पग पर जिसे उसकी मर्यादाएं और सीमाएं याद दिलाई जाती हैं। एक
स्त्री या लेखक होने को लेकर कोई और क्या व्यंग्य या परिहास करेगा, जब स्वयं सूर्यबाला
जैसी समर्थ लेखिका ऐसे औचक अवसरों, स्थितियों, महत्वाकांक्षाओं और दुर्बलताओं को
बेपर्द करने पर तुली बैठी हों। वह चाहे पचास या साठ की आयु पार लेखक-लेखिकाओं के मान-सम्मान
का मसला हो, किसी लेखिका (जो एक गृहिणी, पत्नी और अपने बच्चों की मां भी है) के
पुरस्कृत होने की खबर से घर-पड़ौस में बना ऊहापोह का माहौल हो (कि ये क्या हो गया!) या साहित्य में स्त्री-विमर्श और महिला-दिवस जैसे सतही समारोहिक आयोजन,
जहां अमूमन स्त्री को श्रेय-सम्मान देने की बजाय उसका दिखावा अधिक होता है।
एक
लेखिका के रूप में सूर्यबाला जी के वैचारिक सोच और स्वभाव की बड़ी खूबी यह है कि
अपने पारंपरिक सनातन संस्कारों के बावजूद अपने लेखन और संवाद में वे लोकतंत्र और
खुलेपन को पूरा स्पेस देती हैं। मिथकीय मान्यताओं, पारिवारिक रिश्तों और
प्रचलित लोक-विश्वास के प्रति पूरा सम्मान का भाव रखते हुए वे व्यक्ति की
गरिमा, वैज्ञानिक सोच और जीवन में नवाचार की पुरजोर हिमायत करती हैं। उनकी ऐसी व्यंग्य
रचनाओं में ‘भगवान ने कहा था’ और ‘गजानन बनाम गणनायक’ विशेष रूप से उल्लेखनीय
हैं। व्यंग्य जैसी शैली और विधा में इस प्रक्रिया को सीधे-सीधे साध लेना आसान
नहीं होता, वहां न तर्क संभव है और न विवेचन। उन रूढ़ संस्कारों, अन्तर्विरोधी मान्यताओं और जड़ धारणाओं को
जीवन के व्यावहारिक अनुभवों, नाटकीय दृष्टान्तों और मानवीय विवेक पर भरोसा रखते
हुए उनसे उपजने वाली जटिल और विडंबनापूर्ण स्थितियों को धैर्य से उजागर करना लेखक
का प्रमुख लक्ष्य होता है। व्यंग्य निश्चय ही इस प्रक्रिया में प्रभावशाली
भूमिका अदा करता है। सूर्यबाला ने अपनी इन व्यंग्य कथाओं में मानवीय स्वभाव और
सनातन संस्कारों वाले ऐसे अनेक मसलों को बखूबी उजागर किया है।
सम-सामयिक जीवन-स्थितियां और राजनैतिक माहौल व्यंग्य-लेखन के लिए सबसे
उर्वर जमीन मानी जाती है, सूर्यबाला ने इस उर्वर धरा का अपेक्षाकृत कम उपयोग किया
है, पर जहां किया है, वहां जी खोलकर किया है और इससे उनके कथा-लेखन में अलग तरह की
चमक और धार उत्पन्न हुई है। सन् 2015 के मध्य में भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित उनके
नये व्यंग्य-संग्रह ‘यह व्यंग्य कौ पंथ’ की व्यंग्य रचनाएं निश्चय ही अपने
सम-सामयिक सामाजिक-राजनीतिक परिवेश की विसंगतियों पर प्रभावशाली प्रहार करती हैं। इस
उलझे हुए परिदृश्य के बारीक ब्यौरे में हम न भी जाएं, तब भी यह याद दिलाने की
जरूरत शायद ही पड़े कि सन् 2015 तक आते-आते हमारे समय की राजनीति ने देश की
लोकतांत्रिक संरचना, सामाजिक समरसता और देश की अर्थ-व्यवस्था को किस विकट मोड़ पर
लाकर खड़ा कर दिया है। इस संग्रह में ‘सिफर हो गयी राजनीति और सूत उवाच’, ‘अथ
अकर्मण्य–यज्ञ-उपदेशामृत’, ‘जन-आकांक्षा का टाइटिल सांग’, ‘दल-निर्माण की पूर्व
संध्या पर’, ‘यह देश और सोनिया गांधी’ आदि व्यंग्य कथाएं देश की इसी दीन-दशा का
आख्यान बयां करती हैं और इस बयानगी में वे किसी खास राजनीतिक दल के पक्ष या
विपक्ष में नहीं खड़ी दिखतीं, एक लेखक के नाते उनके लिए लोकतंत्र और देशहित
सर्वोपरि है। इसी देशहित का दावा करने वाले कर्णधारों के असली चरित्र और उनके आचरण
की ओर इशारा करते हुए वे लिखती हैं – “कर्णधार क्या करें, उन्हें यही ठीक-ठीक
समझ में नहीं आ रहा था। यूं करने को बहुत कुछ कर चुके थे। चुनाव जीत चुके थे।
जीतने से पहले और बाद में पार्टी बदल चुके थे। सूखा, बाढ़़, दंगों और दुर्घटनाओं
में मरे-खपे लोगों को मुआवजे बांट चुके थे। आतंकवादी गतिविधियों और सीमा पार चली
गोलियों के लिए भी कई बार कह चुके थे कि ये बेहद कायराना हरकतें हैं। पार्टी के
छंटे हुए अपराधी-सरगना के मरने पर उसे राष्ट्र की अपूरणीय क्षति बता चुके थे
(वरना पार्टी वाले जीने नहीं देते)। देश के नाम संदेश भी प्रसारित कर चुके
थे।" (यह व्यंग्य कौ पंथ, पृ 108)
व्यावसायिक
राजनीति के इन कलाबाज-कर्णधारों का अटल विश्वास है कि देश लगातार तरक्की कर रहा
है, उन्होंने जीवन के हर क्षेत्र में विकास की गंगा बहा दी है, लेकिन लोग हैं कि
वे अपनी रोजी-रोटी-कपड़ा-मकान जैसी घिसी-पिटी जरूरतों और आकांक्षाओं से उबर ही नहीं
पा रहे। “कितने पिछड़े लोग, कितने दकियानूसी विचार! न उनकी
आंखों में कोई सपना है, न मन में कोई उमंग। देश कहां का कहां चला गया कि देश में
सब खुशहाल हैं, सारा देश मालामाल है, बर्गर, पिज्जा, थाई मंचूरियन से बाजार अंटा
पड़ा है, शीतल पेयों की सनसनी ताजगी का समंदर ठाठें मार रहा है, लेकिन यह
जन-आकांक्षाओं का चरम अमूल्यन नहीं तो और क्या है कि वह सूखी रोटी और चुल्लू भर
पानी में ही छपकोरियां मारता रह जाए?” तो ये है देश के कर्णधारों की शुतुर्मुगी मानसिकता
और सत्ता पर काबिज रहने की अदम्य लालसा, जिसे सूर्यबाला ने बेलिहाज उन्हीं की आत्म-बयानी
में हूबहू दर्ज कर दिया है। कुछ इसी तरह की रंगत उनकी एक और प्रभावशाली व्यंग्य
रचना ‘सिफर हो गई राजनीति और सूत-उवाच’ में भी देखी जा सकती है, जहां उन्होंने
मिथकीय चरित्र सूतजी और उनके नैमिषारण्य स्थित शौनिक आदि ॠषियों की प्रैस वार्ता
के माध्यम से मौजूदा राजनीति के चरित्र की वास्तविकता को उजागर किया है। इस रचना
में उन्होंने सूतजी की जुबानी देश में तहस-नहस हो चुकी सामाजिक समरसता और आम जनता
की भयावह दशा का खाका कुछ इन शब्दों में खींचा है – “यों कुल मिलाकर स्थिति
सामान्य है और जबरदस्त अलग-अलग झंडों, अलग-अलग तंबुओं के नीचे, संगीनों के साये
में दीन-हीन, निर्दोष और भोले-भाले बच्चे, औरत, मर्द भय से थर-थर कांपते हुए आत्मा
की परमात्मा पर विजय के गीत गा रहे हैं। गीत के बोल अलग-अलग हैं, किन्तु भावार्थ
एक ही है अर्थात् झंडा ऊंचा रहे हमारा, देश भाड़ में जाए सारा?…..” कहना न होगा कि सूर्यबाला जी के व्यंग्य-लेखन का यह मूल स्वर न होते
हुए भी मौजूदा राजनीतिक हालात पर जिस तरह उन्होंने बेबाक और मारक व्यंग्योक्तियां
की हैं, उसमें उनकी रचनाशीलता का एक प्रभावशाली पक्ष उभरकर सामने आता है। उल्लेखनीय
बात यह कि हिन्दी के मौजूदा व्यंग्य लेखन और स्वयं उनकी अपनी कथा-रचनाओं में यह
तेवर प्राय: कम ही देखने को मिलता है।
अंत में
सूर्यबाला के व्यंग्य लेखन के बारे में जाने-माने व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी
की यह फ्लैप टिप्पणी मुझे बेहद सटीक लगती है कि “सूर्यबाला का व्यंग्य उनका
अपना है और इस कदर अपना है कि उस पर महान् पूर्वजों की शैली या कहन की छाया भी
नहीं है। वे अपना कद तथा अपनी छाया स्वयं बनाती हैं, जो उनके व्यंग्य को अपने
पाठक से सीधे जोड़ देती है।"
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नंद भारद्वाज
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