Wednesday, February 20, 2019


स्‍मृति शेष - 
 
हिन्‍दी आलोचना में नामवरसिंह के होने का अर्थ   
* नन्‍द भारद्वाज  
  
 हिन्‍दी साहित्य की प्रगतिशील परम्परा और समकालीन रचनाशीलता का वस्‍तुपरक विवेचन करने वाले मूर्धन्‍य आलोचक डॉ. नामवरसिंह अब हमारे बीच नहीं रहे। उनके अवसान के साथ ही हिन्‍दी आलोचना का एक शिखर व्‍यक्तित्‍व हमसे सदा के लिए विदा हो गया है, जो निश्‍चय ही एक अपूरणीय क्षति है। साहित्‍य की सैद्धांतिक आलोचना में जहां एक ओर उन्होंने पुराने रसवादी और नव-कलावादी मानदण्डों और मनोवृत्तियों से अनवरत संघर्ष किया, वहीं समकालीन आलोचना में उभरते सरलीकरणों और एकांगीपन का भी खुलकर विरोध किया। एक सहृदय पाठक और प्रबुद्ध रचनाकार के रूप में वे हिन्‍दी के नये रचनाकर्म के प्रति जितने सजग और संवेदनशील रहे हैं, अपने आलोचना-कर्म के प्रति वे उतने ही जवाबदेह।
      लेखक के रूप में नामवरजी की प्रारंभिक पहचान एक कवि के रूप में ही बनी थी - सन् 1940 से 45 के बीच उन्होंने जमकर कविताएं लिखीं और उन कविताओं का एक संग्रह नीम के फूलनाम से प्रकाशन के लिए तैयार भी हुआ, लेकिन किसी कारणवश प्रकाशित नहीं हो सका। इसी दौरान उन्होंने कुछ ललित निबन्ध और आलोचनात्मक लेख लिखने शुरू किये और उस काम में वे इतने रम गये कि जैसे और कुछ करने की फुरसत ही नहीं रह गई। सन् 1951 में उनकी जो पहली किताब प्रकाशित हुई वह थी बक़लम खुद’, जिसमें उनके 17 निबंध संकलित हैं। उसके बाद सन् 1952 से 57 के बीच उनकी छायावाद’,  आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां’, ‘पृथ्वीराज रासो की भाषा’, ‘इतिहास और आलोचनाआदि कई किताबें प्रकाशित होकर सामने आईं। ये सभी कृतियां उस जमाने में और बाद के सालों में हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में सर्वाधिक चर्चित कृतियां मानी गईं। इसी क्रम में सातवें,  आठवें और नौवें दशक में कहानी नयी कहानी’, ‘कविता के नये प्रतिमान’,  दूसरी परम्परा की खोज औरवाद विवाद संवाद जैसी कृतियों के माध्यम से उन्‍होंने समकालीन साहित्य में ऐसी बहस का सूत्रपात किया, जिसकी अनुगूंज साहित्यिक हलकों में दूर तक सुनी गई।
    साहित्य के गंभीर अध्येता और अग्रणी आलोचक के साथ ही नामवरजी की शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में महत्‍वपूर्ण भूमिका रही है। एक शिक्षक के रूप में उन्होंने देश की अनेक बड़ी शिक्षण संस्थाओं जैसे काशी हिन्दू विश्‍वविद्यालय, सागर विश्‍वविद्यालय,  जोधपुर विश्‍व-विद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्‍व-विद्यालय में जहां वर्षों हिन्‍दी भाषा और साहित्य के गंभीर पठन-पाठन में विद्यार्थियों का मार्गदर्शन किया, वहीं साहित्य की शिक्षण-प्रक्रिया और उसके पाठ्यक्रम को अद्यतन रूप देने में निर्णायक भूमिका अदा की है।
    यही नहीं, आजादी के बाद के इन सालों में साहित्‍य–संस्‍कृति के साथ राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली राजनीतिक उथल-पुथल, इस देश के सामाजिक परिवेश और उसमें राष्ट्र-नायकों की भूमिका, आर्थिक विकास की प्रक्रिया, भूमंडलीकरण, उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रसार और जन-संचार की बदलती भूमिका पर भी नामवरजी अपनी संपादकीय टिप्पणियों, लेखों और व्याख्यानों के माध्यम से वैचारिक बहस को बढ़ावा देते रहे हैं – वे उन खतरों से भी बराबर आगाह करते रहे, जो भारत जैसे विकासशील देश और तीसरी दुनिया के देशों के सामने आज भी चुनौती बनकर खड़े हैं।
      साहित्य-परम्परा के पुनर्मूल्यांकन, नयी इतिहास-दृष्टि के निर्माण और समकालीन रचना-कर्म (नयी कविता और नयी कहानी) पर उनके नये विवेचन चर्चित और बहस-तलब रहे ही, उनके व्‍याख्‍यानों और साहित्य-संगोष्ठियों में दिये गये बयानों पर अक्‍सर हिन्दी जगत् में व्यापक प्रतिक्रिया हुई है। हिन्दी में वे अकेले ऐसे आलोचक-वक्ता हैं, जिनके वक्तव्य कई बार लिखे हुए शब्द की अपेक्षा कहीं बड़ी बहस का कारण बने हैं। यह भी एक तथ्य है कि आधुनिक काल में हिन्दी में जो भी महत्‍वपूर्ण रचनाकर्म सामने आया, उस पर नामवर जी की राय सबसे अधिक संजीदा, सामयिक और गौर-तलब मानी गई।
      साहित्य-कला-संस्कृति और जन-संचार पर पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहने वाले लेखकों में सक्रिय सुधीश पचौरी अपने आरंभिक दौर में नामवर सिंह की आलोचना-पद्धति पर विरोध के स्वर में बहुत-कुछ लिखते रहे हैं। उन्‍होंने अपने को उनसे अधिक क्रांतिकारी और सजग लेखक मानते हुए उन पर संशोधनवादी, पलायनवादी और वर्ग-सहयोगवादी होते जाने के आक्षेपों को भी खूब हवा दी, लेकिन अपने इसी मुखर अहंभाव के चलते जब मार्क्सवादी विचार और संगठन से खुद उनकी महत्वाकांक्षाएं टकराने लगीं, तो वे एकाएक उससे भी अलग जा खड़े हुए और पूंजीवादी व्यावसायिक पत्रिकाओं में अपनी टिप्‍पणियों के माध्‍यम से उसी जनवादी सोच और प्रगतिशील परम्परा की जड़ें खोदने में जुट गये।
      कालान्‍तर में प्रगतिशीलता औैर जनवादी सोच को एकांगी, सीमित और समस्याग्रस्त मानने वाले यही सुधीश पचौरी इधर उत्तर आधुनिकतावादी लेखकों के संसर्ग में तर्क-वितर्क और अराजक भाषा के ऐसे-ऐसे खेल सीख गये कि अब साहित्य और संस्कृति की दुनिया उनके लिए एक तरह का वाग्-विलास (डिस्कोर्स) होकर रह गई है, जिसे उन्होंने हिन्दी में विमर्श का पर्याय बनाकर प्रस्तुत किया है। उत्तर-आधुनिकतावाद की पैरवी के जुनून में अपने इन्हीं विमर्शों को वे अब किसी के भी विमर्श बनाकर पेश कर सकते हैं।
         सुधीश पचौरी  ने नामवरसिंह के अड़सठवें जन्म-दिवस पर एक ग्रंथ संपादित किया था ‘नामवर के विमर्श’, जो प्रकारान्तर से उनकी उसी बदली हुई मानसिकता का परिचय देता है। व्यावसायिक वृत्ति वाले लेखक ऐसे अवसरों पर अक्सर अभिनंदन ग्रंथ की आयोजना कर लिया करते हैं, लेकिन सुधीश पचौरी चूंकि उत्‍तर-आधुनिक हो चुके थे, तो यह आयोजन वैसा अनुष्ठान बनने से बच गया। संकलित सामग्री के अपने महत्व के कारण उनके चाहे-अनचाहे यह एक ऐसा संग्रह अवश्‍य बन गया, जो समकालीन हिन्दी-आलोचना की केन्द्रीय चिन्ताओं और नामवरसिंह के अवदान पर गंभीरता से विचार करने का एक अवसर अवश्‍य प्रदान करता है।
      इस ग्रंथ के प्रकाशन से पूर्व भी पहल’, पूर्वग्रह’, ‘दस्तावेज’, ‘कहानी’,  आदि पत्रिकाओं ने नामवर जी पर अलग-थलग अवसरों पर कुछ महत्वपूर्ण सामग्री प्रकाशित की थी, जो पर्याप्‍त चर्चित रही, साथ ही रणधीर सिन्हा, नंदकिशोर नवल और डॉ. रामबक्ष ने अपने आलोचना-ग्रंथों में नामवरजी की आलोचना पद्धति और उनके अवदान पर काफी विस्तार से प्रकाश डाला। इन्हीं आलोचना ग्रंथों और पत्रिकाओं के विशेषांकों की काफी सामग्री यहां पुनः प्रस्तुत की गई, साथ ही पहले और दूसरे खंड में कुछ ऐसे भी आलेख पहली बार प्रकाशित हुए , जो नामवरसिंह के व्यक्तित्व और आलोचना-कर्म के कई अनछुए पक्षों को उजागर करते हैं। इस ग्रंथ के पहले खण्ड में कुछ संस्मरणात्मक आलेख वाकई लाजवाब हैं। लेकिन इसी दूसरे खण्‍ड विमर्श में कुछ नकारात्मक स्वर वाले आलेख भी शामिल किये गये हैं, जिनके चयन का कोई औचित्य स्पष्ट नहीं किया गया, न सम्पादक ने ही इन विवादी स्वर वाले आलेखों से उभरने वाले निष्कर्षों पर अपनी कोई राय-टिप्पणी प्रस्तुत की। वे चाहते तो ऐसी और सामग्री भी जुटा सकते थे, क्योंकि नामवरसिंह से असहमति रखने वाले लेखकों की तादाद भी कुछ छोटी नहीं है। यह भी उल्लेखनीय है कि चौथे खण्ड में स्वयं संपादक सुधीश पचौरी ने नामवरजी से असहमति रखने वाले हिन्दी के दो वरिष्ठ लेखकों अशोक वाजपेयी और राजेन्द्र यादव के साथ काफी विस्तार से की गई एक महत्‍वपूर्ण बातचीत भी इस संग्रह में शामिल की। उस बातचीत में अपने प्रश्‍नों के जरिए स्‍वयं सुधीश पचौरी नामवरजी के विरोध में उन्हें उकसाते हुए बहुत से मसलों पर ले गये। अशोक वाजपेयी यों भी इस साहित्य-समय के सधे हुए खिलाड़ी हैं, इसलिए उन्हें प्रश्‍नों में घेर लेना इतना आसान नहीं होता, लेकिन राजेन्द्र यादव के अन्तर्विरोधी बयानों की हालत तो वाकई देखने लायक है।
      कथा-आलोचना के क्षेत्र में नामवर जी के समीक्षा-कर्म को लेकर हिन्दी कथाकारों का एक वर्ग उनसे काफी अप्रसन्न रहा है - उनके समकालीनों में कमलेश्‍वर, राजेन्द्र यादव और मोहन राकेश तो उनके कट्टर विरोधी थे ही, बाद की पीढ़ी के कथा-लेखकों को भी उनसे कुछ गंभीर शिकायतें रही हैं। नामवर जी की आलोचना-दृष्टि में कुछ बारीक असंगतियां देखने वाले आलोचक डॉ. मैनेजर पांडेय यह मानते हैं कि उन्होंने कहानी समीक्षा के विकास की जो सार्थक शुरूआत की थी, उसमें नवीनता और ताज़गी तो थी, कहानी की तात्विक आलोचना या शास्त्रीय समीक्षा से अलग हटकर वस्तुतात्विक विवेचन, संरचनात्मक विश्‍लेषण और कलात्मक मूल्यांकन का प्रयास भी किया, लेकिन उसमें जिस सहयोगी प्रयास और रचना-आलोचना संवाद की बात कही गई थी, उसका अंत कटु विवाद में ही हुआ।
      साहित्य, संस्कृति और राजनीति के अन्तर्संबंधों पर विचार करते हुए नामवर जी ने लिखा था - ‘‘राजनीतिक परिवर्तन को लक्ष्य में रखते हुए भी एक लेखक के नाते वह अपनी रचनाओं के द्वारा सांस्कृतिक परिवर्तन की दिशा में सक्रिय होता है, क्योंकि सांस्कृतिक परिवर्तन के बिना राजनीतिक परिवर्तन कठिन है।’’ इस पर टिप्पणी करते हुए डॉ. मैनेजर पाण्डेय ने एक सैद्धान्तिक आशंका व्यक्त की थी कि सांस्कृतिक परिवर्तन के बगैर राजनीतिक परिवर्तन को कठिन कहना क्या प्रकारान्तर से बुनियादी बदलाव की प्रक्रिया में ऊपरी ढांचे को आधार से अधिक महत्व देना नहीं है ? पर यही बात जब फ्रेडिरिक एंगेल्स की तरफ से आती है तब शायद पाण्डेय जी को उस पर आशंका नहीं होती।
    नामवर जी की इस आलोचना के पीछे दो कारण तो स्पष्ट नज़र आते हैं। पहला कारण है, नामवरसिंह पर केन्द्रित इस तरह की विवादी चर्चा के बहाने अपने को सम-सामयिक साहित्यिक परिदृश्‍य में प्रासंगिक बनाये रखने का उपक्रम और दूसरा, अपने अनुकूल विमर्शों की आड़ में नामवरजी को उत्तर-आधुनिकतावाद के खाते में खपा लेने की होशियारी। सुधीश पचौरी को डॉ. नामवर सिंह का आलेाचना-कर्म आज भी एक तरह से लीलाओं का दिलचस्प पाठ ही नज़र आता है और उनकी यह स्वीकारोक्ति भी दिलचस्प है कि चूंकि ये मेरे पतन के दिन थे, इसलिए भी एक बड़े पतित से हमदर्दी होने लगी।" (पृष्ठ-15) देखने की बात यह थी कि हिन्दी के व्यापक पाठक समुदाय से यह छोटा पतित अब तक कितनी हमदर्दी बटोर पाया। वैसे सुधीश पचौरी की उत्तर-आधुनिकतावादी सोच से उपजे एक अहम सवाल का उत्तर नामवरजी ने अपने साक्षात्कार में काफी नप़े-तुले शब्दों में दे दिया था, बशर्ते कि सुधीश पचौरी और उत्तर-आधुनिकतावादी इस पर गौर करना पसंद करते। वह सवाल-जवाब कुछ यों था -
सुधीश पचौरी: जिसे आप बोलचाल, संवाद कहते हैं उसे हम डिस्कोर्स या विमर्श समझें और फूकोल्डियन डिस्कोर्स समझें, तो आरोप तो मैं नही कहूंगा, मगर मेरे मन में एक प्रश्‍न पैदा होता है कि जबसे आपने बोलना ज्यादा शुरू किया है, तब से साहित्य में राजनीति का विमर्श तो आप कर ही रहे हैं, लेकिन अब आप एक सत्ता का डिस्कोर्स भी कर रहे हैं। यह जो सत्ता का विमर्श  आप कर रहे हैं तो साहित्य के अनुशासन के हेतु आप कर रहे हैं। आप इसमें जो साहित्य का अनुशासन हो रहा है, वह क्या बन रहा है?
नामवर सिंह: फूको का नाम लिया आपने। ज्ञान मात्र को उसने सत्ता के पर्याय के रूप में देखा है। यद्यपि मैं उस पूरे दर्शन को मानता नहीं हूं। सारे संघर्ष को सत्ता का संघर्ष ही मान लिया जाए तो सत्यनाम की चीज़ तो रह नहीं जाएगी। ये हो जायेगा कि आज जो दमन करने वाले लोग हैं, जिनके हाथ में सत्ता है वो और दलित जो सत्ता में भागीदारी चाहते हैं, इसलिए दोनों समान रूप से दोषी होंगे। इसलिए साहित्य में वह कौन-सी सत्ता है, जिसको लेने के लिए, हथियाने के लिए संघर्ष चल रहा है, मैं नहीं जानता। मैं तो इतना ही जानता हूं, मेरी समझ में एक साहित्यकार के नाते जो सचहै उस सच का यदि गला घोंटा जा रहा हो, दबाया जा रहा हो, परदा डाला जा रहा हो तो हम कोशिश करते हैं कि कम से कम उसकी जितनी रक्षा की जा सके, की जाय। चूंकि मैं आलोचना ही लिखता हूं तो आलोचना में यही मेरा प्रयास होता है। (पृष्ठ-492-493)
      जाहिर था कि फूकोवादी डिस्कोर्स चलाने वालों को यह शालीन और सटीक उत्तर रास नहीं आया और आगे कभी इसकी कोई चर्चा चलाना भी उन्‍होंने कम ही पसन्द किया।  उस आयोजन में इतना जरूर हुआ कि संपादक सुधीश पचौरी अपने पसन्दीदा चयन - अशोक वाजपेयी, राजेन्द्र यादव, गोविन्द द्विवेदी, कृष्णगोपाल वर्मा  और ललित कार्तिकेय की आधी-अधूरी टिप्पणियों के माध्यम से अपने उद्देश्‍य को एक हद तक पूरा कर पाने में कामयाब रहे। उन्होंने इस अर्थ में ईमानदारी अवश्‍य बरती है कि अन्य समकालीनों से बातचीत करने के साथ स्वयं नामवर जी से भी साक्षात्कार आयोजित कर बहुत-सी जरूरी बातों का खुलासा उन्‍हीं से ले लिया, वे स्‍वयं उसे मानें न मानें, ये उनका अपना मामला था। इसी आयोजन के तीसरे खण्ड में प्रस्तुत नामवर जी के चुनिन्दा आलोचनात्मक निबंधों और चौथे खण्ड में उनके विस्तृत साक्षात्कार के बाद सुधीश के संपादकीय में नामवरसिंह के जिस नये पाठ की आवश्‍यकता पर बल दिया गया था, वह बात स्वतः ही अप्रासंगिक हो गई।
      नामवरजी की कई बातों से असहमति रखने के बावजूद मैनेजर पाण्डेय यह अवश्‍य मानते रहे हैं कि उनके सम्पूर्ण आलोचनात्मक चिन्तन और व्यवहार में समकालीन रचनाशील प्रवृत्तियों की गहरी पहचान मिलती है, उसकी उपलब्धियों और कमजोरियों का विश्‍लेषण करते हुए ही समकालीन साहित्य में निहित प्रतिमानों की खोज का प्रयत्न भी संभव हो पाता है। इस अर्थ में डॉ. नामवर सिंह हिन्दी आलोचना के एक ऐसे अनिवार्य संदर्भ के रूप में उभर कर सामने आते हैं, जिन्हें छोड़कर, हिन्दी आलोचना पर शायद ही कोई संवाद संभव हो सके।
      मुझे लगता है, अलग अलग समय पर अलग अलग लोगों द्वारा आलोचक नामवर सिंह पर होते रहने वाले ये आक्रमण अकारण नहीं थे, और न इनके पीछे साहित्यिक मूल्‍यांकन का कोर्इ वस्‍तुपरक आग्रह ही। उनके अब तक के आलोचना-कर्म और आलोचना-प्रक्रिया पर संजीदगी से बात हो, उनके नजरिये और तरीके से सहमति या असहमति हो, इसमें भला किसी को क्‍यों ऐतराज होगा? लेकिन उनकी जीवन-शैली, शैक्षणिक कार्य-क्षेत्र और सार्वजनिक जीवन को लेकर अपने निजी राग-द्वेष रखने वाले लोग जब उनकी आलोचना-दृष्टि और उनकी आलोचनात्‍मक कृतियों पर बात करते हैं और उन पर अपने मनोगत निष्‍कर्ष आरोपित करते हैं, तो एक अलग तरह की अप्रिय बहस सिर उठाने लगती है। ऐसे लोग दरअसल उनके आलोचना-कर्म पर नहीं, अपने ही किन्‍हीं वैयक्तिक राग-द्वेष पर बात करते हुए उसे सिद्धान्‍त या आलोचना का जामा पहनाने का असफल प्रयास कर रहे होते हैं और यहीं आकर यह उत्‍तर-आधुनिकतावादी विमर्श अपनी सारी अर्थवत्‍ता खो देता है, ऐसे लोग समकालीन हिन्‍दी आलोचना में नामवरसिंह के होने का अर्थ प्राय: कम ही स्‍वीकार कर पाते हैं।  
-71/247, मध्‍यम मार्ग
मानसरोवर, जयपुर – 302020
nandbhardwaj@gmail.com