Wednesday, August 21, 2019



कुछ लिक्‍खा जो नितान्‍त अपना होता है 

 *  नंद भारद्वाज 

एक संवेदनशील मनुष्य जिस सामाजिक-सांस्‍कृतिक पर्यावरण में जीता है, उससे उपजने वाले सुख-दुख, मनोवेग, अनुभव, आशंकाएं और संघर्ष मानवीय अभिव्‍यक्ति के कई रूपों में व्यक्त होते हैं - कविता सर्जनात्‍मक अभिव्‍यक्ति का ऐसा ही कला-रूप है, जो एक संवेदनशील रचनाकार के अन्‍त:करण से रूबरू कराता है। जो रचनाकार अपनी काव्य-परंपरा और भाषिक संवेदन के प्रति सचेत रहते हुए मौलिक अभिव्यक्ति के लिए आग्रहशील रहते हैं, वे अपनी कविता का अलग मुहावरा और पहचान तो विकसित करते ही हैं, उस परम्‍परा में कुछ नया और बेहतर जोड़ने का प्रयत्‍न भी करते हैं। विमलेश शर्मा ऐसी ही संवेदनशील कवयित्री हैं, जो अपनी कविताओं के माध्‍यम से उस काव्‍य-परम्‍परा और नवोन्‍मेष के बीच एक बेहतर रिश्‍ता  बनाने के लिए प्रयासरत हैं।    
     कविता जहां मानवीय संवाद का एक विश्‍वसनीय माध्‍यम मानी जाती है, वहीं वह आत्‍मसंवाद या आत्‍माभिव्‍यक्ति का प्रभावशाली रूप भी – एक ऐसा कला-रूप, जिसे अपनाते हुए हर रचनाकार अपने भीतर के मनुष्‍यत्‍व से अंतरंग साक्षात्‍कार करता है। यह उस जैविक संवेदन और विवेक का अपना वरण और विस्‍तार भी है, जो उसे सर्जक की गरिमा प्रदान करता है। विमलेश की इन कविताओं के बीच से गुजरते हुए यह बात विश्‍वास से कही जा सकती है कि उनकी बयानगी की सहज विनम्रता उनके सर्जनात्‍मक प्रयत्‍न को और गहरा एवं आत्‍मीय बनाती  है। अपनी इसी विनम्र काव्‍य-प्रकृति के बूते वे सदियों पुरानी आख्‍यान-परम्‍परा से आती कृष्‍णप्रिया के अपूर्ण प्रेम की पीड़ा और पदचाप को न केवल सुन पाती हैं, बल्कि उन्‍हीं स्‍मृति-गलियारों में उसे अक्‍क महादेवी और मीरां के काव्‍य-संवेदन में और विस्‍तार पाते भी देखती हैं।
     प्रेम और रागात्‍मकता इन कविताओं में केन्‍द्रीय भाव की तरह विन्‍यस्‍त है। इसी भाव-लोक के इर्द-गिर्द रची गई इन कविताओं में प्रेम की अंतरंगता, उल्‍लास, राग-विराग उसकी व्‍यापकता को अभिव्‍यक्‍त करते हुए जब वे यह कहती हैं कि “मैं ॠतु नहीं हूं / पर उसका उल्‍लास सहेज / सदा खिलता रहूंगा तुम्‍हारे लिए” या कि “मैं वह आकाश हूं / जो थामे रहता है / धरा को / तमाम मौसमों में” तो प्रेम की एक विराट परिकल्‍पना आकार लेने लगती है।
        अपनी विनम्रता और सहजता में वे बहुत सरस और सुहाती बातें बेशक कहती हों, किन्‍तु जीवन के कटु यथार्थ से उपजने वाली टीस, कठिन रास्‍तों की कश्‍मकश और मनुष्‍य के असंगत आचरण से होने वाली परेशानियों को भी अपनी बयानगी का हिस्‍सा अवश्‍य बनाती हैं। जीवन-यथार्थ की इसी बेबाक सचाई को लक्षित करते हुए वे कहती हैं – “जीवन को जीना आसान नहीं होता / यहां एक जीवन के भीतर जाने कितने जीवन छिपे होते हैं / बहुत कुछ होते हुए भी / कुछ नहीं होता यहां / बहुत फर्क पड़ते हुए भी / सब ठीक-ठाक रहता यहां। / चलते हुए भी बहुत कुछ ठहरा है यहां / और दिखती गहराई में सब कुछ उथला है यहां ! दुनिया के इस उथलेपन को उन्‍होंने अन्‍यत्र भी उजागर करते हुए मनुष्‍य और व्‍यवस्‍था के आचरण पर गंभीर सवाल उठाए हैं, खासकर स्त्रियों के प्रति होने वाले उस विषम आचरण को लेकर, जहां स्‍त्री आज भी अपने को वंचित और असुरक्षित अनुभव करती है। इस अवस्‍था से उबरने के लिए वे स्‍वयं स्त्रियों का ही आह्वान करते हुए कहती हैं – “तुम जब इस जंगल के बियाबान में उतरोगी / तब बहुत-सी बातें होंगी / जिन्‍हें तुम कह सकती हो / विचित्र, अनहोनी, बकैती या ऊलजलूल / हिम्‍मत रखना, रहना अटल / और अनसुना कर देना उस बतकही को / जो खारिज करती है तुम्‍हारी निष्‍पाप चेतना को।" इतना ही नहीं, इन विषम परिस्थितियों में भी वह सकारात्‍मक संदेश देते हुए इस दुनिया की खूबसूरती को कतई अनदेखा नहीं करती और कहती है – “भरोसा रखना कि / दुनिया फिर भी खूबसूरत है / उसी चमकीले रूपक की तरह / जिसे तुम जन्‍नत कहा करती हो।" लेकिन आज इस ‘जन्‍नत’ की बदहाली हर किसी की आंख में खटक रही है। देश-दुनिया का आमजन जिन कठिन हालात का सामना करते हुए जी रहा है, कोई भी संवेदनशील और सजग कवि इससे अछूता कैसे रह सकता है? विमलेश की कविताओं का यह पक्ष भी उतना ही महत्‍वपूर्ण है, जहां वे सामयिक हालात पर पैनी नजर रखते हुए ‘सन्‍नाटों में दीपते रतजगे’ जैसी प्रभावशाली कविता के माध्‍यम से अपनी चिन्‍ताएं कुछ यों व्‍यक्‍त करती हैं – “एक शोर मचता रहता है रात की निस्‍तब्‍धता चीर / जिसकी चोट कनपटी पर फड़क बन उभरती है / शोर, आहटों, पदचापों के बीच कोई बुदबुदाता है / कि तुम्‍हें यूं नहीं लौटना था / कि तुम्‍हें यहां होना था / कि तुम्‍हें जीने का सलीका सीखना था / कि तुम्‍हें प्रतिरोध करना था / कि तुम्‍हें अपना मान रखना था।" यथार्थवादी तेवर की इस बयानगी में ‘दीपदान’, ‘भोर-बाती’, ‘लौटना महज लौटना नहीं होता’ आदि ऐसी ही उल्‍लेखनीय कविताएं हैं। 
      विमलेश शर्मा के इस संग्रह में सामयिक यथार्थ और पारिवारिक मानवीय संबंधों की गुरु-गरिमा को उजागर करती कुछ ऐसी विलक्षण कविताएं भी हैं, जो अपनी विषयवस्‍तु और बयानगी में गहरा प्रभाव छोड़ने की क्षमता रखती हैं। विशेषत: माता-पिता और सं‍तति के रिश्‍ते को लेकर रची गई दो बेजोड़ कविताएं हैं - ‘मां को जीते हुए’ और पिता-पुत्री के आत्‍मीय रिश्‍ते पर लिखी कविता ‘पिता यूं ही नहीं पिता हो जाते’। मां पर लिखी इस कविता को पढ़ते हुए तो हिन्‍दी के यशस्‍वी कवि चंद्रकान्‍त देवताले की मार्मिक कविता ‘मां पर नहीं लिख सकता कविता’ का अनायास ही स्‍मरण हो आता है, हालांकि विमलेश की इस कविता की भावभूमि और बयानगी देवताले की उस कविता से नितान्‍त भिन्‍न और अनूठी है, खासतौर से एक मां-बेटी के संश्लिष्‍ट   रिश्‍ते को लेकर। इस सघन कविता की एक छोटी-सी बानगी देखें –
“जिसे लिखते हुए क़लम रुआँसी हो जाए / और आखर गीले
जिसे देखते हुए आँखों में पावित्र्य उतर आए
और हाथों में इबादत की मुद्रा / जिसकी छाँव सुकूनबख़्श हो
जिसे पढ़ते हुए कॉर्निया पर पनीली परत चढ़ जाए
बस ऐसी ही तो कुछ होती है माँ!”
और इसी तरह की मार्मिकता को उजागर करती पिता पर लिखी कविता की यह बानगी –
अक्‍सर टूट जाते हैं पिता
जब उनके शहजादे झुलस जाते हैं ताप से
जब उनकी बेटियाँ  /  काँच सी बिखर जाती हैं 
उन क्षणों में वे कोसते हैं उस ईश्वर को
उसके नियम, कानून, कायदों में रद्दोबदल की माँग करते हैं
और अंततः ठुकरा कर उस चौखट को  / स्वयं ईश्वर हो जाते हैं पिता ! 
      और एक अंतिम बात इस संग्रह की कविताओं के बारे में यह भी कि एक सजग कवयित्री के रूप में विमलेश शर्मा अपने लिखे का महत्‍व भी बखूबी जानती हैं, जिसकी ओर संकेत करते हुए उन्‍होंने कहा भी है – “मेरे लौट जाने पर / जब खोजोगे मुझे / कुछ नहीं होगा वहां / होंगे तो बस / संदूकची में करीने से तह किए कुछ शब्‍द / जिन्‍हें यह जानते हुए रख छोड़ा था कि‍ / कुछ लिक्‍खा नितान्‍त अपना होता है !” 

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