Thursday, May 17, 2012

स्‍मृति लेख - गजानन वर्मा का अवदान


स्‍मृति लेख –

गजानन वर्मा :  जाना एक जि‍जीविषा का
·        नंद भारद्वाज  
    
      जिन राजस्‍थानी कवियों की ख्‍याति हमें अपने लेखन के आरंभिक दिनों में सबसे अधिक  आकर्षित करती थी, उनमें मेघराज मुकुल और सत्‍यप्रकाश जोशी के बाद गजानन वर्मा का नाम विशेष रूप से उल्‍लेखनीय है। उनके गीतों से तो मेरा परिचय सन् 1970 से ही था और यह भी जानता था कि वे राजस्‍थानी में मंच के बहुत प्रभावशाली कवि हैं, लेकिन प्रत्‍यक्ष रूप से उन्‍हें सुनने का पहला अवसर तो 1972 में मुंबई में ही मिला था, जहां वे एक कवि-सम्मेलन में भाग लेने आए थे और मैं संयोग से उन दिनों ‘हरावळ’ के संपादन कार्य के सिलसिले में वहीं था। उस कवि-सम्‍मेलन मैं सत्‍यप्रकाश जोशी के साथ एक श्रोता के रूप में ही गया था, जबकि जोशीजी उस कवि-सम्‍मेलन में एक आमंत्रित कवि के रूप में थे। जोशीजी के पास ही बगल में वे बैठै थे और अपनी सुकुमार छवि में वे पूरे कवि लगते थे। संयोजक बीच-बीच में उनकी उपस्थिति को इस तरह से स्‍मरण दिला रहा था कि अगर कोई श्रोता उनको सुने बगैर चला गया तो जाने किस अनिर्वचनीय अवसर से वंचित रह जाएगा। मैं स्‍वयं भी उन्‍हें सुनने को बेहद उत्‍सुक था। सुन रखा था कि वे मंच के बेजोड़ कवि हैं। उस कवि-सम्‍मेलन में राजस्‍थानी के इन दोनों कवियों को बहुत मान-सम्‍मान के साथ सबसे अंत में प्रस्‍तुत किया गया। जोशीजी वरिष्‍ठ थे, इसलिए उनसे बस एक क्रम पहले गजाननजी को काव्‍य-पाठ के लिए आमंत्रित किया गया। उन्‍होंने पहले गीत के रूप में ‘धर कूचां भाई धर मजलां’ से अपने काव्‍य-पाठ की शुरुआत की – क्‍या तो उनकी गुरू-गंभीर सुर की अदायगी थी और क्‍या लोक-संवेदना में पगे उनके गीत। पहली बार मैंने गजानन वर्मा को मंच पर सुना और मुरीद हो गया। मैंने इससे अधिक प्रभावशाली कविता मंच पर पहले नहीं सुनी थी। श्रोता झूम उठे और फिर जो फरमाइशें शुरू हुई, वही उनकी लोकप्रियता का जीता-जागता प्रमाण थीं। 
     कवि-सम्‍मेलन की समाप्ति के बाद जब जोशीजी ने उनसे मेरा परिचय करवाया तो मैं संकोच में था कि इतना बड़ा कवि मुझे भला क्‍या जानता होगा, लेकिन मैं आश्‍चर्यचकित था कि वे उस पहली ही मुलाकात में मुझसे ऐसे मिले जैसे बरसों से जानते हों। वे यह भी जानते थे कि मेरा पैत्रिक गांव बिग्‍गा उनके अपने शहर के करीब ही पड़ता है। फिर देर तक वे मुझसे बतियाते रहे, अगले दिन ‘हरावळ’ के ऑफिस में जोशीजी से मिलने आये, तब भी देर तक अपनी योजनाओं के बारे में बात करते रहे। हां, उन्‍हें अपने बारे में बात करना बहुत अच्‍छा लगता था।  कविता और संगीत को लेकर खूब सारी योजनाएं थीं उनके पास, किसी संगीत कंपनी में उनके गीतों को रिकार्ड करने की योजना थी, जिसको लेकर वे बहुत उत्‍साहित थे। फिल्‍म लाइन के बहुत से गीतकारों से उनके सीधे संबंध थे, जोशीजी बीच-बीच में समझा रहे थे कि वह इन लोगों के चक्‍कर में न पड़े। मैंने उन्‍हें ‘हरावळ’ के लिए रचनात्‍मक सहयोग के लिए कहा तो उन्‍होंने आश्‍वस्‍त किया कि वे जल्‍दी ही कुछ लिखकर भेजेंगे। फिर जब मैं ‘हरावळ’ का प्रकाशन जोधपुर ले आया, तो कुछ अरसे बाद उन्‍होंने जोधपुर के ही मशहूर सरोदवादक दामोदरलाल काबरा पर एक खूबसूरत आलेख मुझे भेजा, जो ‘हरावळ’ में प्रकाशित हुआ। फिर 1975 में जब मैं आकाशवाणी सेवा में आ गया, तब तो कई बार कवि-सम्‍मेलन और स्‍टूडियो रिकार्डिंग के बहाने उनसे बराबर संपर्क बना ही रहा, यही संपर्क दूरदर्शन के कार्यकाल में यथावत रहा। जब भी रतनगढ़ के पास से गुजरना हुआ, गजाननजी और किशोर कल्‍पनाकान्‍त से मिले बगैर तो जैसे उस रास्‍ते से गुजरना संभव ही नहीं था। एक जीवंत कवि और सरस व्‍यक्ति के रूप में गजानन वर्मा की यह आत्‍मीयता मुझे जीवन-पर्यन्‍त निर्बाध मिलती रही।    
गजानन वर्मा से इस वैयक्तिक संपर्क के बावजूद राजस्‍थानी काव्‍य-यात्रा में उनके अवदान को मैं उतने ही वस्‍तुपरक नजरिये से देखता रहा हूं। अपनी आलोचना कृति ‘दौर अर दायरौ’ में उनके ऐतिहासिक योगदान को रेखांकित करते हुए मैंने लिखा था, गजानन वर्मा की कविताओं के तीन संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं – ‘धरती री धुन’, ‘सोनो निपजै रेत में’ और ‘बारहमासा’। उनकी ये कविताएं लोक-जीवन के संघर्ष, उनके राग-रंग और और लोक-संवेदना की गहरी पहचान देती हैं। एक कवि-गीतकार के रूप में उन्‍होंने राजस्‍थान के ग्रामीण परिवेश और पारिवारिक प्रसंगों को लोकगीतों की भावभूमि पर जैसे सरस गीत लिखे, उनमें लोगों को अनूठी ताजगी का अहसास हुआ। उनके गीतों का मिजाज और बुनावट भी आम लोगों के काव्‍य-संस्‍कार से इतनी मेल खाती-सी थी कि वे गीत लोकगीतों की तरह ही उनकी स्‍मृति का हिस्‍सा हो गये। यद्यपि बाद के वर्षों में वह पहले वाली बात नहीं रही, लेकिन उनकी कविताओं के संकलन बराबर आते रहे, राजस्‍थानी भाषा की मान्‍यता को लेकर भी उनके मन में गहरी टीस थी। जब भी मिलते इस मसले पर और राजस्‍थानी के नये रचनाकर्म के प्रति उत्‍साह से बात करते।
        निस्‍संदेह आजादी के बाद देश में काव्‍य-मंच पर राजस्‍थानी कविता को लो‍कप्रिय बनाने में गजानन वर्मा ने जो भूमिका निभाई, उसका सही मूल्‍यांकन होना अभी बकाया है। हमें इस बात का गुमेज है कि 23 मई 1926 को राजस्‍थान के ऐतिहासिक नगर रतनगढ़ में जन्‍मे गजानन वर्मा ने अपनी छह दशक की काव्‍य-यात्रा में 'धरती री धुन', 'सोनो निपजै रेत में', बारहमासा, हळदी कौ रंग-सुरंग, भावानुबंध जैसी अनेक कृतियों के माध्‍यम से राजस्‍थानी कविता को समृद्ध बनाया है। उनके गीत लोक में बेहद लोकप्रिय रहे हैं। कविता के साथ राजस्‍थानी संगीत के साथ भी उनकी गहरी साझेदारी रही और उन्‍होंने डॉ भूपेन हजारिका और सलिल चौधरी जैसे नामी-गिरामी संगीतकारों और फिल्‍मकारों की साझेदारी में राजस्‍थानी फिल्‍म-  निर्माण का भी सपना देखा, उन्‍होंने दो-तीन फिल्‍मों का निर्माण किया भी, लेकिन यह एक बेहद खर्चीला और व्‍यावसायिक माध्‍यम है, जिसे बरतने और नियंत्रि‍त करने में जिस तरह की कला-कुशलता और व्‍यावसायिक समझ अपेक्षित है, वह गजानन वर्मा जैसे कवि-हृदय व्‍यकित के लिए आसान नहीं था, लेकिन उनकी जि‍जीविषा को मैंने बहुत करीब से देखा है,  और यह महसूस किया है कि उनके उस मानस और अनुभव को वैसा अवसर मिल पाता तो निश्‍चय ही उनकी रचनात्‍मक उर्जा के कई नये आयाम खुल सकते थे। पिछले कुछ सालों में वे अक्‍सर अपने कमजोर स्‍वास्‍थ्‍य के कारण उतने सक्रिय भी नहीं रह पाए। वे रतनगढ़ में निवास अवश्‍य करते थे, लेकिन उनका मन पूरे देश के उन ठिकानों में भटकता रहता था, जहां उन्‍होंने अपनी रचनात्‍मकता के सपने बुने थे। कुछ बेहतर करने की जिजीविषा मुझे अक्‍सर उनकी ओर खींच ले जाती थी और उनसे बात करना मन को गहरा सुकून देता था। उनका निधन राजस्‍थानी साहित्‍य की अपूरणीय क्षति है। 
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