Friday, August 12, 2016



'नया ज्ञानोदय' के अगस्‍त 2016 अंक में प्रकाशित लेख -

औरत की आजादी का समाजवादी सपना

* नंद भारद्वाज


      सपने देखना और उन्‍हें अपने जीवन में ढालने
की आकांक्षा रखना, ऐसी मानवीय वृति है, जिस पर
संसार की शायद ही कोई शक्ति रोक या बंदिश लगा सके। उन सपनों को यथार्थ में बदल पाना बेशक कठिन या असंभाव्‍य लगता हो, किन्‍तु उनको साकार करने का जिजीविषा रखने वाले सदा इस बात पर यकीन रखते रहे हैं कि उनकी यह जद्दोजहद एक दिन जरूर कामयाब होगी। मानव सभ्‍यता के इतिहास में औरत की आज़ादी का सपना एक ऐसा ही अधूरा सपना है, जिसे पूरा करने के लिए इस पुरुष-प्रधान समाज में दुनिया भर की जागरूक स्त्रियां और उनकी हिमायती लोकतांत्रिक संगठन पिछले एक अरसे से लगातार संघर्ष करते रहे हैं और उन्‍होंने स्‍त्री के साथ हो रहे अमानवीय बरताव और तमाम नाइन्‍साफियों के बावजूद हार नहीं मानी है।

     एक मिथकीय और ऐतिहासिक हवाले के रूप में यह बात अक्‍सर दोहराई जाती है कि भारतीय समाज में स्त्रियां हमेशा उच्‍च सम्‍मान पाती रही हैं – आर्य सभ्‍यता के पूर्व द्रविड़ों में जो मातृसत्‍ता की व्‍यवस्‍था प्रचलित रही लगभग वही आर्यों में भी विद्यमान थी। जिस जमाने में वेदों की रचना की जा रही थी, स्त्रियों का स्‍थान बहुत ऊंचा था। ऐसा भी माना जाता है कि ॠग्‍वेद के अतिश्रेष्‍ठ श्‍लोक स्त्रियों द्वारा रचे गये थे। उस काल में विवाह बेहद पवित्र कर्म माना जाता था। पति-पत्‍नी दोनों समान रूप से घर के मालिक समझे जाते थे और किसी भी अनुष्‍ठानिक कर्म में दोनों की सहभागिता अनिवार्य मानी जाती थी। आर्य यूरोप और मध्‍य-एशिया से मातृ-सत्‍ता की परंपरा अपने साथ लेकर आए थे। वोल्‍गा के किनारे बसे उन आर्य-कबीलों में प्रचलित मातृ-सत्‍ता उनके भारत आगमन के बाद भी जारी रही, जिसके संदर्भ पं राहुल सांकृत्‍यायन की महान् कृति ‘वोल्‍गा से गंगा’ में बखूबी देखे जा सकते हैं। लेकिन कालान्‍तर में यही आर्य समाज बदलती जीवन-शैली और अपनी नई वर्ण-व्‍यवस्‍था के चलते अधिका रूढ़ होता गया। इस प्रक्रिया में मातृ-सत्‍ता का स्‍थान धीरे-धीरे पितृ-सत्‍ता ने हथिया‍ लिया।    

       औरत की आजादी के मसले पर कार्ल मार्क्‍स के विचारों का हवाला देते हुए अमूमन लोग उनके एक कथन की ओर बराबर ध्‍यान आकर्षित करते हैं कि ‘अगर किसी समाज में पर्यावरण और परिस्थितिकी की हालत जाननी हो तो उस समाज में औरत की स्थिति को देख लेना चाहिये’ और इस तरह उत्‍तर मध्‍ययुगीन और आधुनिक युग के प्रारंभ में स्‍त्री की सामाजिक और प्राकृत स्थिति को इसी दृष्टिकोण से समझने का प्रयास करते हैं। लेकिन यह काम इतना सरल नहीं है। स्‍वयं मार्क्‍स के दृष्टिकोण को समझने के लिए हमें उसकी पृष्‍ठभूमि को ठीक से जान लेना आवश्‍यक है। यानी उनसे सौ साल पहले से चले आ रहे नारी मुक्ति संबंधी विचारों और आन्‍दोलनों की जो लंबी श्रृंखला है, उसमें पितृसत्‍ता, विवाह और परिवार की जकड़बंदी के विरुद्ध समतामूलक प्रेम और यौन जीवन के पक्ष में लड़ी गई लड़ाइयों में नारी कार्यकर्ताओं के अदम्‍य साहस और बलिदानों को सही सही जान लेना जरूरी है।

    यह भी कहा जाता है कि सन् 1779 की फ्रांसीसी राज्‍य क्रान्ति के जमाने में ‘स्‍वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्‍व’ के नारे की वास्‍तविकता नारी-मुक्ति आन्‍दोलन के सामने कोई रहस्‍य नहीं रह गई थी। वह क्रान्ति बेशक एक पुरुषवादी क्रान्ति थी, लेकिन उसमें निहित नारी-मुक्ति की संभावनाओं को पहचानने में क्रान्तिकारी नारियों ने कोई भूल नहीं की। उन्‍हें यह देखकर आश्‍चर्य जरूर हुआ कि उनके आन्‍दोलन का मुखर विरोध पुरुषों ने नहीं, बल्कि तत्‍कालीन समाज की जागरूक कही जाने वाली नारियों ने किया, लेकिन नारी-मुक्ति आन्‍दोलन से जुड़ी सजग नारियां इससे निराश नहीं हुईं। उन्‍होंने अपना आन्‍दोलन न केवल जारी रखा, बल्कि उसे संगठित ढंग करते हुए अपनी राजनैतिक गतिविधियों को और तेज करने का प्रयत्‍न किया - उन्‍होंने महिलाओं के क्रान्तिकारी क्‍लब बनाये, एसेंबली को अपने अधिकारों के पक्ष में प्रतिवेदन दिये और नारी अधिकारों की इस बहस को एक व्‍यापक आन्‍दोलन का रूप देते हुए उसमें फूरिये, साइमन, मिल, दिदेरो, कार्ल मार्क्‍स और फ्रेडरिक एंगेल्‍स जैसे विचारकों को अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाने के लिए प्रेरित किया। 

    नारी-मुक्ति आन्‍दोलन के इस महा-अभियान में मार्क्‍स और एंगेल्‍स के क्रान्तिकारी विचारों से जो बल मिला, वह अभूतपूर्व था। उन्‍होंने सामाजिक व्‍यवस्‍था पर गंभीरता से विचार करते हुए समाज की बुनियादी इकाई परिवार पर अपना ध्‍यान केन्द्रित किया और परिवार, निजी संपत्ति और राज्‍य की उत्‍पत्ति के  बीच बहुआयामी संबंधों को खोज निकाला। मार्क्‍स ने जहां अपनी पुस्‍तक ‘इकॉनोमिक एण्‍ड फिलोसॉफिक मैन्‍युस्क्रिप्‍ट  ऑफ 1844’ में मानव मुक्ति के प्रश्‍न को दार्शनिक रूप से समझने का प्रयास किया वहीं अपनी दूसरी कृति ‘द होली फैमिली’ में पूंजीवादी पुरुष के नारी शोषण संबंधी पाखंड का पर्दाफाश किया। नारी-मुक्ति संबंधी अपनी सोच को और युक्तिसंगत बनाने की दृष्टि से मार्क्‍स ने अपनी पुस्‍तक ‘जर्मन आयडियोलॉजी’ में भौतिक परिस्थितियों के बदलते ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्‍य में औरत की स्थिति का अधिक ठोस अध्‍ययन किया और यह निष्‍कर्ष निकाला कि श्रम के माध्‍यम से किये जाने वाले उत्‍पादन और नवजीवन के उत्‍पादन को मिलाकर ही समग्र मानवीय उत्‍पादन की पहचान की जा सकती है। लेकिन इस बिन्‍दु पर मार्क्‍स ने ‘प्रजनन के सामाजिक संबंधों’ पर बल देने की अपेक्षा ‘उत्‍पादन के सामाजिक संबंधों’ के अध्‍ययन को प्राथमिकता दी। बाद में एंगेल्‍स ने अपनी पुस्‍तक ‘द ऑरिजिन ऑफ फैमिली’ में मार्क्‍स के विचारों की निरंतरता में मनुष्‍य की नृवंशीय प्रगति का गहन अध्‍ययन प्रस्‍तुत किया। इस सब के बावजूद मार्क्‍स और एंगेल्‍स ‘मैन्‍युस्क्रिप्‍ट’ की दार्शनिक सीमाओं को नहीं लांघ  पाये और उनका ‘मानव’ अघोषित रूप से पुरुष तक ही सीमित होकर रह गया, वह ‘स्‍त्री’ नामक ऐतिहासिक संस्‍था की धारणा को उसमें सही तरीके से समाहित नहीं कर सका, यहां तक कि यौनिकता के मनोवैज्ञानिक पहलुओं को विकसित करने की आवश्‍यकता पर सही दृष्टिकोण भी नहीं अपनाया और कुछ बातें भविष्‍य में साम्‍यवादी समाज की उपलब्धि पर छोड़ दी गईं।

    बाद के मार्क्‍सवादी चिन्‍तन की विचार-प्रक्रिया के अंतर्गत समाजवादी क्रान्ति में स्‍त्री-मुक्ति के विशिष्‍ट संदर्भ को अलग से देखने-समझने की आवश्‍यकता पर अपेक्षित ध्‍यान नहीं दिया जा सका, जिसके परिणामस्‍वरूप सीमोन द बोउवार जैसे नारीवादी चिन्‍तक को यह कहना पड़ा कि ‘मार्क्‍सवाद स्‍त्री की जैविक भिन्‍नता के तथ्‍य की उपेक्षा करता है।' यहां तक कि परिवार और व्‍यक्तिगत संपत्ति के रिश्‍ते की बारीक व्‍याख्‍या करने वाले एंगेल्‍स भी यह नहीं समझा सके कि व्‍यक्तिगत संपत्ति की संस्‍था क्‍यों अनवार्य रूप से औरत के शोषण का कारण बनती है। उन्‍होंने श्रम की क्षमता से अलग प्राकृतिक रूप से ही मां बनने को विवश स्‍त्री की एक मौलिक और ठोस असुविधा के महत्‍व को नहीं समझा।

    इस प्रसंग में श्रम के विभाजन और वर्गभेद संबंधी व्‍याख्‍याओं पर सीमोन द बोउवार की यह आपत्ति अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण हो उठती है, जब वे कहती हैं कि ‘औरत जैविक रूप से पुरुष से भिन्‍न है और वर्गभेद का कोई जैविक आधार नहीं होता, क्‍योंकि औरत केवल श्रमिक नहीं होती, वह उत्‍पादन के साथ स्‍वयं प्रजनन का आधार होती है।' एंगेल्‍स ने जहां इस समस्‍या का अमूर्त हल समाजवादी व्‍यवस्‍था में परिवार संस्‍था के अंत के रूप में खोजा तो बेबल जैसे समाजवादियों ने इस समस्‍या का हल यांत्रिक सभ्‍यता के विकास में बताने की चेष्‍टा की।

    संयोग से बीसवीं शताब्‍दी की शुरुआत में रूस में समाजवादी क्रान्ति की सफलता और कई अन्‍य देशों में समाजवादी व्‍यवस्‍था के अनुभव हमारे सामने हैं, जहां औरत की आजादी को लेकर कई तरह के प्रयोग किये जा चुके हैं। सोवियत सत्‍ता कायम होने के बाद रूसी साम्‍यवाद यह मन बना चुका था कि क्रान्ति को न केवल आर्थिक उत्‍पादन के स्‍तर पर प्रभावी होना है, बल्कि उसे उत्‍पादन और प्रजनन दोनों स्‍तरों पर रूपान्‍तरण करना है। उन दिनों सोवियत संघ में औरतों को घरेलू काम-काज से मुक्ति दिलाने का विचार सर्वाधिक लोकप्रिय था। लेनिन की धारणा थी कि घर के काम से हटकर स्त्रियां अपने व्‍यक्तित्‍व और क्षमताओं का बेहतर विकास कर सकेंगी। इसी प्रक्रिया में परिवार और विवाह की संस्‍थाओं को कमजोर करने से लेकर औरत और मर्द के मुक्‍त समागम को प्रोत्‍साहित करने पर पूरा जोर दिया गया। मुक्‍त समागम की इस धारणा को लो‍कप्रिय बनाने के पीछे यह स्‍त्री पुरुष की शारीरिक जरूरतें पूरी करने का उद्देश्‍य कतई नहीं था, बल्कि उसका मूल मकसद था स्‍त्री और पुरुष के बीच समानता के धरातल पर गहरी मित्रता कायम करना और यौन-दमन से मुक्‍त मानव का निर्माण करना। लेनिन के नेतृत्‍व में सोवियत कम्‍युनिस्‍ट पार्टी पूरी तरह से स्‍त्री मुक्ति के इस कार्यभार के प्रति वचनबद्ध थी। आज यांत्रिक सभ्‍यता अपने चरमोत्‍कर्ष पर है, लेकिन दुनिया में नारी मुक्ति का संघर्ष आज भी जारी है, वह आज भी अपने जैविक और सामाजिक अस्तित्‍व के लिए संघर्षरत है। उसकी कामयाबी की मंजिल कहीं दूर-दूर तक नजर नहीं आती। 

      रूस में समाजवादी सत्‍ता कायम होने के साथ ही औरत की आजादी के हक में पहला बड़ा कदम यही उठाया गया कि मजदूर वर्ग में महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार प्रदान किये गये। छोटे बच्‍चों और स्‍त्री कामगारों को ज्‍यादा जरूरतमंद करार दिया गया, गर्भवती स्त्रियों के लिए सुरक्षा के विशिष्‍ट इंतजाम किये गये, पार्टी और मजदूर कौंसिलों में उनकी भागीदारी बढ़ाई गई और कार्यशील महिलाओं की सुरक्षा के लिए ऐसे कानून बनाए गये, जिनके बारे में रूस में तो क्‍या दुनिया के किसी देश में कल्‍पना भी नहीं की जा सकती थी।

    समाजवादी व्‍यवस्‍था में स्त्रियों को राजनैतिक रूप से संगठित करने की दृष्टि से पार्टी ने 1919 में एक विशेष विभाग बनाया, जो ‘जेनोट्डल’ के नाम से मशहूर हुआ। इस विभाग ने स्त्रियों को गृह-युद्ध और अकाल के समय संघर्ष में उतारा और उनके छापामार दस्‍ते गठित किये, जिन्‍होंने आपराधिक तत्‍वों का डटकर मुकाबला किया।

    इस नयी समाजवादी व्‍यवस्‍था में स्‍त्री को एक श्रमिक के रूप में समान अधिकार दिलाने के साथ ही उसके पारिवारिक जीवन को भी कानूनी तौर पर बदलने के भरपूर प्रयत्‍न किये गये। विवाह के लिए नागरिक पंजीकरण को आवश्‍यक करने के साथ ही वैवाहिक संहिता बनाकर पति-पत्‍नी को कानून की दृष्टि से समान अधिकार प्रदान किये गये। वैध और अवैध बच्‍चों का अंतर समाप्‍त किया गया। परिवार में पुरुष की कानूनी सत्‍ता समाप्‍त कर औरत को अपने नाम और नागरिकता के बारे में निर्णय करने की पूरी आजादी प्रदान की गई। तलाक की प्रक्रिया आसान कर दी गई और आपसी सहमति से बने संबंधों को मान्‍यता प्रदान की गई। सन् 1926 में नई परिवार संहिता लागू होने के साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में किसान महिलाओं और गृहणियों को परिवार की संपत्ति का मालिक बना दिया गया, यहां तक कि उनके गृहकार्य का पारिश्रमिक निर्धारित कर उसे कानूनी वैधता प्रदान कर दी गई। 

    इन नयी कार्य-व्‍यवस्‍थाओं से सोवियत स्‍त्री के सामाजिक और आर्थिक जीवन में क्रान्तिकारी बदलाव आया लेकिन उसके निजी और यौन जीवन की समस्‍याएं तब भी जटिल बनी रहीं। प्रयोग के बतौर उनके आवासन की समस्‍या के निदान के लिए जो सामुदायिक कम्‍यून कायम किये गये, उनकी वजह से प्रेम और यौन जीवन में खासी अव्‍यवस्‍था फैल गई। यहां तक कि यौन क्रिया के लिए एकान्‍त की मांग एक गैर-जरूरी सुविधा मानी गई। कानून बनाने और संगठन के स्तर पर प्रयत्‍न करने में कोई कमी नहीं छोड़ी गई और इस तरह सैद्धान्तिक तौर पर परिवार-व्‍यवस्‍था के गौण करने की परिस्थितियां भी तैयार हो गईं, लेकिन व्‍यवहार में पार्टी परिवार का कोई ठोस विकल्‍प तैयार करने में नाकाम रही। बेशक इसमें सोवियत समाज का पिछड़ापन, औद्योगिक विकास की कमी, वैयक्तिक व्‍यवहार में पुरुषों का दोहरा बरताव जैसी कई कठिनाइयां रही हों, लेकिन मूल समस्‍या वही थी कि मार्क्‍सवाद के पास यौन व्‍यवहार से जुड़ी मनोवैज्ञानिक समस्‍याओं के समाधान का कोई ठोस चिन्‍तन उपलब्‍ध नहीं था। कतिपय समाजवादियों द्वारा प्रेम को ‘पूंजीवादी रहस्‍यवाद’ या ‘सुपरस्‍ट्रक्‍चर’ का मसला कहकर टाल देने से यौन जैसे विषयों पर बौद्धिक विचार-विमर्श बहुत कम हो पाया।

     सोवियत क्रान्ति के बाद लागू हुई नयी व्‍यवस्‍था के प्रारंभिक वर्षों में नारी मुक्ति के जिस अभियान को जोर-शोर से आरंभ किया गया, वह बीसवीं शताब्‍दी के तीसरे दशक की समाप्ति तक कुछ शिथिल होने लगा। लेनिन की मृत्‍यु के बाद नयी राजसत्‍ता ने आर्थिक पुनर्निर्माण को प्राथमिकता देनी आरंभ कर दी और मानवीय क्षमता के यौनिकता में बह जाने के प्रति पार्टी चिन्तित हो उठी। ‘जेनोट्डल’ को भंग कर दिये गये साथ ही परिवार की संस्‍था को सरकारी नीति के तहत फिर से स्‍थापित कर दिया गया। परिवार को गौण मानने की चर्चाएं बंद हो गईं। सन् 1936 में गर्भपात को वैध करनेवाला कानून भी वापस ले लिया गया और तीस के दशक में नारी मुक्ति के मकसद से बनाए गये कानूनों को पलट दिया गया। अखबारों में परिवार, प्रजनन और विवाह की प्रशंसा में लेख छपने लगे, सोवियत मातृत्‍व के गुणगान सरकारी नीति बन गये और इस हर चीज को फिर से उत्‍पादकता के साथ जोड़ दिया गया।

   समाजवादी व्‍यवस्‍था में नारी-मुक्ति के इस असफल प्रयोग का असर अन्‍य  समाजवादी देशों पर भी पड़ा और वे औरतों की आजादी के रास्‍ते पर उतने ही चले, जितनी उपयोगिता उन्‍हें समाजवादी आर्थिक रचना के लिए जरूरी लगी। ऐसे में परिवार जैसी पुरातन संस्‍था को इकाई के रूप में फिर से स्‍वीकार करना एक तरह से मानवीय नियति बन गई। इतना कुछ होने के बावजूद नारी-मुक्ति का आन्‍दोलन यहीं खत्‍म नहीं हो गया। नारीवादी चिन्‍तकों ने समाजवादी व्‍यवस्‍था के इस असफल प्रयोग को अपने संघर्ष का महत्‍वपूर्ण सोपान मानते हुए उसकी ऐतिहासिक भूमिका के प्रति आश्‍वस्ति ही प्रकट की। सन् 1949 में फ्रान्‍स की नारीवादी चिन्‍तक सीमोन द बोउवार ने अपनी पुस्‍तक ‘द सैकिण्‍ड सैक्‍स' (प्रभा खेतान द्वारा हिन्‍दी में अनूदित ‘स्‍त्री : उपेक्षिता’) में इसी तथ्‍य की ओर संकेत करते हुए लिखा था – “एक ऐसी दुनिया, जिसमें स्‍त्री पुरुष के अधिकार समान हों, अब हमारे सोच और चिन्‍तन का मुख्‍य विषय है। सोवियत रूस इसका प्रमाण है, जहां स्‍त्री और पुरुष को एक ही तरह का काम करना पड़ता है। यदि स्त्रियां अधिक शक्ति की मांग करने वाले कार्य नहीं कर सकतीं, तो ऐसी स्थिति कई पुरुषों की भी होती है। पुरुषों में भी अलग-अलग शारीरिक तथा मानसिक क्षमताएं होती हैं, जिनके कारण खुली संभावनाओं का चुनाव उनके भी जीवन में सीमित हो जाता है। मैं यहां केवल यह कहना चाहती हूं कि सिर्फ जैविक भिन्‍नता के आधार पर स्‍त्री और पुरुष का दो वर्गों में विभाजन तर्कसंगत नहीं लगता।" (स्‍त्री : उपेक्षिता, पृष्‍ठ 382)  

     स्‍वयं प्रभा खेतान ने इस पुस्‍तक का अनुवाद करते हुए अपनी भूमिका में मार्क्‍सवाद के प्रति सिमोन के दृष्टिकोण को और स्‍पष्‍ट करते हुए लिखा है – “सीमोन की पुस्‍तक में जहां भी मार्क्‍सवाद की रहस्‍यमयता का जिक्र आया है, या उसे स्‍त्री-स्‍वातंत्र्य के आन्‍दोलन से पृथक वर्गीकृत करने की चेष्‍टा की है, वहां उनका उद्देश्‍य यह कदापि नहीं था कि वे मार्क्‍सवादी विचारों एवं शब्‍दों को धुंध-भरा आवरण ठहराएं या मखौल उड़ाएं। मार्क्‍स पर उनकी गहरी श्रद्धा थी।" सीमोन की नजर में उस समय की सामान्‍य स्‍त्री और समाजवाद की जो अपनी सीमाएं थीं, उसी की ओर संकेत करते हुए उन्‍होंने कहा था – “स्‍त्री कहीं झुंड बनाकर नहीं रहती। वह पूरी मानवता का आधा हिस्‍सा होते हुए भी पूरी एक जाति नहीं। गुलाम अपनी गुलामी से परिचित है और काला आदमी अपने रंग से, पर स्‍त्री घरों, अलग-अलग वर्गों एवं भिन्‍न-भिन्‍न जातियों में बिखरी हुई है। उसमें क्रान्ति की चेतना नहीं, क्‍योंकि अपनी स्थिति के लिए वह स्‍वयं जिम्‍मेदार है। वह पुरुष की सह अपराधिनी है। अतएव समाजवाद की स्‍थापना मात्र से स्‍त्री मुक्‍त नहीं हो जाएगी। समाजवाद भी पुरुष की सर्वोपरिता की ही विजय बन जाएगा।"  

    लगभग दो शताब्‍दी तक औपनिवेशिक गुलामी में जीने वाले भारतीय समाज की नारी संगठित रूप से अपनी मुक्ति की वैसी मुहिम का हिस्‍सा भले न रही हो, लेकिन पुनर्जागरण के दौर में यही स्‍त्री-प्रश्‍न मानव-मुक्ति के ज्‍वलंत प्रश्‍न बनकर उभरे। स्‍वाधीनता-आन्‍दोलन के उत्‍तर काल में क्रान्तिकारी आन्‍दोलन की अपनी मजबूती के चलते नारी मुक्ति के जो सीमित प्रयास आरंभ हुए थे, उस आधी-अधूरी आजादी के हासिल ने उन पर एकाएक विराम-सा लगा दिया। तेलंगाना के सशस्‍त्र संघर्ष में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ने वाली नारियां सामुदायिक परिवार का अंग बनने की बजाय फिर से चूल्‍हा-चक्‍की की जिन्‍दगी जीने को विवश हो गईं और राष्‍ट्रीय स्‍तर पर लोकतांत्रिक चेतना के विकास का काम कहीं आधे रास्‍ते में ही बिला गया। लोकतांत्रिक और जनवादी आन्‍दोलन के वरिष्‍ठ नेताओं का वह ऐतिहासिक संकल्‍प भी इतिहास का हिस्‍सा होकर रह गया, जो स्‍त्री को नयी लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था में बराबरी का हक दिलाने के लिए बरसों तक प्रयत्‍नशील रहा, लेकिन उनका वह सपना अधूरा ही रह गया।

     आजाद भारत के संविधान ने बेशक बिना कोई लिंग-भेद किये क्षेत्र, भाषा, धर्म, वर्ण, जाति, पंथ जैसे सीमित दायरों में जीने वाले पुरुष और स्‍त्री को समान लोकतांत्रिक और वैधानिक अधिकार तो जरूर प्रदान कर दिये गये, लेकिन व्‍यवहार में वे (खास तौर से स्त्रियां और आर्थिक रूप से पिछड़े तबके) इन अधिकारों का कितना उपयोग कर पाते हैं, यह अलग विचारणीय विषय है। वैज्ञानिक अनुसंधान और तकनीकि विकास ने व्‍यक्ति की औसत आयु भी बढ़ाई, बाल-मृत्‍यु दर में कमी आना बताया गया, कहा गया कि साक्षरता (और खास कर स्त्रियों की साक्षरता) का आंकड़ा भी बेहतर हुआ है, लेकिन बकौल मृणाल पाण्‍डे “सामान्‍य स्‍त्री का जीवन मात्र ताजा कागजी आंकड़ों की मार्फत उतार-चढ़ाव नहीं पाता, ठोस ऐतिहासिक और राजनैतिक घटनाओं के लंबे साए उस पर लगातार पड़ते रहते हैं।" और इन सायों की काली छाया काफी चिन्‍ताकारी रही है। बीसवीं सदी के अंत तक भारतीय समाज और स्‍त्री जिस दशा में पहुंच गये हैं, उस पर मृणाल पाण्‍डे का यह बेबाक विवेचन बहुत कुछ खुलासा कर देता है। वे कहती हैं – “उन्‍मुक्‍त पूंजीवाद अधिक पूंजी का सृजन भले ही करे, अंत में जाकर वह अमरीका से लेकर एशिया तक में अमीरों को ही अमीर और गरीब को और अधिक गरीब, उपेक्षणीय बनाएगा। धर्म की बेदखली के बाद बीसवीं सदी का कल्‍याणकारी सजाजवाद ही वह इकाई था, जो एक हद तक लोकतंत्र की अंतरात्‍मा की आवाज बनकर अमीरों द्वारा एकाधिकार बटोरने पर अंकुश लगाता था, दो-दो महायुद्धों के बावजूद वही था जो गरीब और हाशिये पर खड़े मनुष्‍यों को शोषण के खिलाफ कानून की छत्रछाया और विशेष रियायतों का सहारा भी मुहैया करा पाया था। पर क्‍या आज राज्‍य अपनी लोकतांत्रिक सत्‍ता क्रमश: खोकर खुद को बाजार की ताकत के बरक्‍स बेहद निस्‍तेज, निस्‍सहाय नहीं महसूस कर रहा है? और उस शून्‍य को भरने हर देश में बेहद काइयां, सतही और प्रतिगामी धार्मिक ताकतें आगे आ रही हैं। वे वस्‍तुत: धर्म की खाल ओढ़े प्रतिगामी राजनैतिक विचारधाराएं ही हैं, जिनके सीमित भौतिक स्‍वार्थ हैं, किसी किस्‍म के गहन दार्शनिक सरोकार नहीं। औरतों के लिए यह भारी खतरा है।" (हंस, जन-फरवरी, 2000, पृष्‍ठ-165) कहना न होगा कि इक्‍कीसवीं सदी के इस बिखरे हुए राजनैतिक  परिदृश्‍य में अपने लोकतांत्रिक और मानवीय अधिकारो के लिए लड़ने वाली स्‍त्री तथा आम जन के लिए यह लड़ाई कतई आसान नहीं है।  

*** 

Sunday, June 26, 2016








आग की ग़रज़
  * नन्‍द भारद्वाज 

नहीं नहीं
आग बुझ नहीं सकती
यों ओटी हुई आग भी अगर
बुझने लगी तो क्या होगा ?!

फूंक मारो -
चूल्हे को और उकेरो,
बहुत बार ऐसा भी हुआ है कि
चिनगियां राख की सलवटों में
अदेखी छूट जाती हैं
और फिर तुम
गांव भर में आग मांगती 
              फिरती हो -
कई बार
मांगी हुई आग
चूल्हे तक पहुचने से पहले ही
                 बुझ जाती है !

अभी कुछ पल पहले
तुम्हें जो दो-एक चिनगियां दिखीं थीं -
               छोड़ क्यों दिया उन्हें ?
उन्हीं को फूस के बीच
जरा ठीक से रखतीं
और फूंक दी होती .......

अक्सर
चूल्हा ओटते
और उकेरते वक्त
तुम कहीं खो जाती हो,
आग जलने से पहले
उसके उपयोग को लेकर
      उदासीन हो जाती हो,
और तुम्हारी उस मारक उदासी का
मेरे पास कोई जवाब नहीं होता !

पारसाल
हमने जाड़े की वो सनसनाती रातें -
जिनमें उल्लुओं तक ने
      खामोशी अख्तियार ली थी -
उसी खलिहान पर
फटी गुदड़ी में लिपटे
आगामी अच्छे दिनों की आस में
बातें करते
    हंसते
    खिलकते गुजार दी थीं !

न दें दोष
हम किसी कुदरत को
लेकिन उससे क्या ?
कोई तो होगा आखिर
हमारी इस बदहाली के गर्भ में !

पड़ौसी रग्घा के सुभाव को
              सभी जानते हैं,
उसके भेजे में अगर जंच जाय
कि हमारी इस हालत के जिम्मेदार
किसी दिल्ली-आगरे-कलकत्ते या
            बंबई में छुपे बैठे हैं -
स्साला गंडासा लेकर
दूरियां पैदल नापने का
           हौसला रखता है !



मैं दिन को दिन
और रात को रात ही कहूंगा
अलबत्ता ये सुबह का वक्त है
और चूल्हा ठण्डा,
कुछ भी पकाने की सोच से पहले
जरूरी है कि चिनगियां बटोरी जायं -
उन्हें फूस-कचरे के बीच रख
               फूंक मारी जाय
आग को जगाया जाय -

यों हाथ झटक देने से
कुछ भी हाथ नहीं लगता,
आग की ग़रज़ तो
            आग ही साजती है !
*** 


Tuesday, May 3, 2016

वरिष्‍ठ कवि गोविन्‍द माथुर के जन्‍मदिन पर -
मनुष्य और समय के बचाव में कविता
·         नंद भारद्वाज

विगत चार दशक से अपने समय और मानवीय सरोकारों से जुड़े कवि गोविन्द माथुर की कविताओं के बीच से गुजरना प्रकारान्तर से एक नये अनुभव-संसार से रूबरू होना है। अपनी विशिष्ट स्थानिकता और सहज-बयानी के कारण उनकी कविताएं अनायास ही हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं। एक मध्यवर्गीय व्यक्ति के जीवन अनुभव, कवि का आत्मीय लहजा और सहज काव्‍य-भाषा उन्हें अपने समकालीन कवियों से थोड़ा अलग भी करती हैं, स्‍वयं अपनी पूर्ववर्ती कविताओं से भी वे हर बार थोड़ा अलग हुए हैं, - जैसे सबके सामने वे अपना मन खोलकर रख देना चाह रहे हों। अपने कठिन समय और आस-पास की देखी-जानी दुनिया की विसंगतियों पर गहरी संवेदनात्मक प्रतिक्रिया उनकी कविताओं की अन्यतम खूबी है, जो उन्हें वृहत्तर मानवीय सरोकारों से जोड़ते हुए उल्लेखनीय बनाती हैं। एक सहज आत्मीय संवाद के रूप में उनका कथ्य और काव्य-कौशल परस्पर घुलमिल गये हैं और यह तय कर पाना कठिन है कि उनका कथ्य महत्वपूर्ण है या कहने का तरीका।  
   गोविन्‍द माथुर बताते हैं कि वे सन् 1972 से कविता के माध्‍यम से अपने को अभिव्‍यक्‍त करते रहे हैं, आरंभ के तीन-चार साल (सन् 1975 तक) सक्रिय रहने के बाद उन्‍होंने सात-आठ साल का छोटा-सा ब्रेक लिया और सन् ’82 के बाद से निरन्‍तर काव्‍य-लेखन से जुड़े रहे हैं। तब से अब तक उनकी कविताओं के पांच संकलन प्रकाशित होकर आ चुके हैं – शेष होते हुए (1982), दीवारों के पार कितनी धूप (1991) उदाहरण के लिए (1998), बची हुई हंसी (2006) और ताजा संग्रह ‘नमक की तरह’ (2014)। इनके अलावा एक काव्‍य-संचयन भी प्रकाशित हुआ है – ‘समय को काटती धार’ (2012) और इस तरह समकालीन काव्‍य-परिदृश्‍य में उनकी प्रभावशाली उपस्थिति बराबर पाठकों का ध्‍यान आकर्षित करती रही है। उनके नये संग्रह ‘नमक की तरह’ की कविताएं प्रकारान्‍तर से उनके उसी काव्‍य-स्‍वर और संवेदना को और गहराती हैं, अपने समय-समाज और मानवीय सरोकारों को लेकर उनकी जो केन्‍द्रीय चिन्‍ताएं पूर्ववर्ती संग्रहों में व्‍यक्‍त होती रही हैं, वे इस संग्रह की कविताओं में कुछ और नयी चिन्‍ताओं के साथ और सघन होती दीखती हैं। हमारे समय की कतिपय गंभीर चिन्‍ताओं की ओर इशारा करती इन कविताओं को लेकर कवि विष्‍णु नागर ने सही कहा है कि “दरअसल आर्थिक अभाव उतना बुरा नहीं है, जितना कि लोगों के बीच की आत्‍मीयता का छीजते चले जाना और उसकी जगह महत्‍वाकांक्षाओं का बढ़ते चले जाना, रिश्‍तों का स्‍वार्थों तक सिमट जाना, अपनों से असहमतों के प्रति असहिष्‍णुता का बढ़ते जाना आदि। --- वे बार-बार कहते हैं कि क्षुद्रताओं से उबरो, लोकतंत्र और बराबरी के मूल्‍यों का सम्‍मान करो, अपने आपको बचाकर रखो।“ गोविन्‍दजी की कविताओं की यही संजीदगी और चिन्‍ताएं लगातार हिन्‍दी पाठकों का ध्‍यान अपनी ओर आकर्षित करती रही हैं। 
   अपनी काव्य-संवेदना, सुरुचि और काव्य-भाषा को सहेजती इन कविताओं में बयान की सादगी और साफगोई नया असर पैदा करती है। किसी अमूर्त व्यंजना या लाक्षणिकता को संजोने का प्रयत्न यहां नहीं दीखता - न भाषा या उक्ति को लेकर कोई ऊहापोह या आडंबर। यही वजह है कि अपनी अनुभूतियों और जीवन की वास्तविकताओं को वे बिना किसी औपचारिकता के बेबाकी से बयान कर पाते हैं -  
          जिन शब्दों में  /  लिखता हूं कविताएं /  उन्हीं शब्दों में
          व्यक्त करता हूं शोक /   खुशी व्यक्त करने के लिए
          अलग शब्द नहीं हैं मेरे पास  /  एक ही चेहरा है
          कठोर और उदास  /  खुशी जिस पर ठहर नहीं पाती
          उत्सव में चला जाता हूं /   यही चेहरा लेकर
                                                (बचे हुए शब्द, पृ. 5)
    मानवीय व्यवहार और आपसी सद्भाव के लिए गहरी चिन्ता और अपने कर्म के प्रति सच्ची निष्ठा के बावजूद यदि किसी रचनाकार को उसके रचनात्मक-कर्म के लिए अपेक्षित स्वीकृति और स्नेह समय पर न मिल पाए तो यह बात उसके मनोबल पर कुछ असर अवश्य डालती है। समय बीतने के साथ जीवन की बहुत-सी स्मृतियां, खारे-खट्टे अनुभव और उदासीनता उसके मन में टीस और कचोट बनकर उभरते हैं। वह जितना चीजों को बचाने और सहेजने का प्रयत्न करता है, उतना ही उनसे दूर जा छिटकता है। गोविन्द माथुर की इन कविताओं में कुछ इसी तरह की वेदना और कचोट गहरी आर्द्रता के साथ व्यक्त होती दिखाई देती है -
1.  जितने थे उतने भी /  नहीं माने गए
अपनों में भी नहीं पहचाने गए
                          (आत्मबोध, पृ. 4)
2.  जो चाहा था जीवन में  / वह नहीं मिला
क्या चाहा था यह स्पष्ट नहीं रहा
जो मिला वह तो नहीं चाहा था
                               (जीवन दर्शन-एक, पृ. 27)

     इस अवसाद में एक गहरी चिन्ता अपनी पसन्द की उन पुरानी वस्तुओं, विचारों और अपनी जीवन शैली के लिए भी निहित है, जिसके प्रति लोगों का नजरिया बहुत-कुछ बदल गया है। वे अक्सर इस बात को लेकर चिन्तित हो उठते हैं कि तेजी से बदलती दुनिया में इन्‍सानियत की भाषा और हंसी धीरे-धीरे लुप्त हो रही है, वे इस भाषा और हंसी को बचा लेना जरूरी समझते हैं - अपनी उन श्वेत-श्याम स्मृतियों की पोटलीके साथ, कि कुछ तो बचे रहने का संतोष वे पा सकें।
     उदासी और अवसाद की इस जमीन पर खड़ा यह कवि दरअसल अपनी कविताओं में जीवन के प्रति गहरे लगाव और मानवीय सरोकारों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को ही व्यक्त करता है। एक कवि के रूप में वे बचाए रखना चाहते है थोड़ी-सी हंसी और वह भाषा जो कठिन समय में मनुष्य का मनोबल बनाए रखे। गोविन्द माथुर की काव्य-प्रकृति और सरोकारों के बारे में हेतु भारद्वाज की यह राय बहुत सटीक लगती है कि ‘‘कविता लिखना उनके लिए न विवशता है न शौक, बल्कि जीवन के प्रति अपने नजरिये को व्यक्त करने का तरीका है, जो जीवन की सारी असंगतियों, विद्रूपताओं, संघर्षों को रेखांकित करता हुआ मनुष्यता को बचाए रखने की बेचैनी को केन्द्र में रखता है।’’
    इसी मानवीय भाव और समय को केन्द्र में रखकर गोविन्द माथुर ने अनेक कविताएं लिखी हैं, जो प्रकारान्तर से मनुष्य और समय के साथ उनके अंतरंग संवाद का साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं। समय से जुड़ी अनगिनत स्मृतियां, दैनंदिन जीवन के अनेक ऐसे अनुभव और प्रसंग हैं, जहां समय की गति और दिशा कवि को चिन्तित और विचलित करती है, उसे जीवन का सतत प्रवाह टूटता-सा दिखाई देता है। कहीं समय अनुकूल न होने का अवसाद है तो कहीं इस बात का पछतावा कि समय का उचित उपयोग नहीं किया जा सका। यही नहीं, उसे समय की प्रकृति और उसके उतार-चढ़ाव का पूरा अहसास रहता है -  
             बहुत सारी चीजें/  समय पर/ समझ में नहीं आतीं
             जब समझ में आती हैं/ समय निकल चुका होता है
                        .....     .....
             एक ही समय में होते हैं /  कितने सारे समय
             एक ही समय सब के लिए    
             एक ही समय नहीं होता
                                           (एक ही समय में, पृ. 17)
    समय को लेकर कवि की मूल चिन्ता यह है कि उसका नियमन करने वाले समाज और सत्ता के सामने मनुष्य असहाय होकर न रह जाय। कोई ताकतवर व्यक्ति, समूह या देश किसी कमजोर व्यक्ति, समुदाय या देश पर अपना आधिपत्य जमाकर उसका शोषण-उत्पीड़न न कर सके। जब वह अपने आस-पास के जीवन पर नजर डाल कर देखता है तो उसे हैरत होती है कि रोजमर्रा की मामूली चीजों के साथ गुजर-बसर करने वाला समय कितना निर्मम और क्रूर होता गया है -  
             आधी सदी के सफर में /   इतने क्रूर नहीं थे
             इतने निरीह भी / नहीं थे लोग
              जितने नजर आ रहे हैं /  पूरी सदी के बाद।
                                          (आधी सदी के सफर में, पृ. 22)
और इसी सदी के आखिर में इस देश की आम जनता ने गुजरात की वह क्रूर त्रासदी भी देखी है, जहां साम्प्रदायिक दंगों ने हमारे राष्ट्रीय जीवन के राग-रंग को तहस-नहस करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। कवि को इस बात का गहरा मलाल है कि जो गुजरात कभी द्वारिका, नरसी भगत, महात्मा गांधी और स्वावलंबी जीवन की प्रतीक साबरमती और अमूल के लिए याद किया जाता है, वही गुजरात अपने ही देशवासियों के भीषण नर-संहार की दर्दनाक तस्वीर भी पेश करता है -  
             गुजरात उसे लुप्त हुई द्वारिका के लिए नहीं
             लुप्त हुई मानवीयता के लिए भी याद रहेगा
             सोमनाथ का मंदिर लूटे जाने के लिए ही नहीं
             मानव संहार के लिए भी याद रहेगा
                                                                    (गुजरात, पृ. 31)
     गुजरात ही क्या, कवि अपने ही शहर के लोगों को जब इधर उधर में बंटा देखता है तो उसे सदियों से बनी साझा विरासत के सपने चूर-चूर होते दिखाई देते हैं। वह जानता है कि यह ऐसा एक दिन में नहीं हुआ। वोट की राजनीति करने वाले दलों ने बरसों से जिस तरह हमारे भाईचारे की साझी विरासत को धर्म और जाति के नाम पर टुकड़ों में बांटा है और जो नफरत और दहशत का माहौल पैदा किया है, उसने देश की एकता और इन्‍सानियत की नींव को हिलाकर रख दिया है -  
             ऐसा एक दिन में नहीं हुआ था/  राख के ढेर में
             वर्षों से दबी आग फिर से सुलगाई गई थी
             अफवाहों से गर्म की गई थी शहर की ठंडी हवा
             राजनीति के तवे पर सेके जा रहे थे वोट
             अतीत के खंडहरों से निकाल कर/  लाई गई थी 
             नफरत भय और दहशत  पैदा की गई थी 
             धर्म  और राष्ट्र के नाम पर
                                             (इधर-उधर के लोग, पृ. 34)
   विनाश की इस प्रक्रिया में बढ़ते बाजारवाद और भूमंडलीकरण ने भी दरअसल आग में घी का काम किया है। विकास की अंधी दौड़ में वह पारंपरिक जीवन-शैली तो नष्ट हुई ही, रोजमर्रा के जीवन में काम आने वाले उपकरण साइकिल, रेडियो, दीवार घड़ी, चप्पल, पोस्टकार्ड या गुड़ की चाय जैसी जीवनोपयोगी चीजें तक चलन से बाहर कर दी गई हैं। उनके हिस्से का अनाज तो गोदामों में बंद है ही, उनकी धूप, हवा और पानी भी अब निरापद नहीं है -
             उन्हें भय लगता है भूखे और गरीब लोगों से
             जिनके हिस्से का अन्न बंद है उनके गोदामों में
                            वे असुरक्षा महसूस करते हैं  /  
              उन असुरक्षित लोगों से
                            जो जीवित हैं धूप, हवा और पानी पर
                                                   (वे ही सिर्फ वे ही, पृ. 41)
   बाजारवाद की इस प्रक्रिया ने हमारी अर्थव्यवस्था, सामाजिक जीवन, संस्कृति और जीवन-मूल्यों के सामने तो चुनौती उत्पन्न की ही, हमारी स्वतंत्रता, अस्मिता और समूचे अस्तित्व के सामने गहरे संकट खड़े कर दिये हैं। इस निर्मम प्रक्रिया का सबसे बुरा असर हमारे समय की स्त्री के जीवन पर पड़ा है। इस बाजार ने आज उसे अपने उत्पादों के साथ नुमाइश की चीज़ बनाकर छोड़ दिया है, जहां वह अपने शरीर के उभारों को प्रदर्शित करती हुई @ बहुत कम कपड़ों में कपड़ों के प्रदर्शन के लिएकैट-वॉक करती दिखाई जाती है। यही नहीं इस महत्वाकांक्षी मध्यवर्गीय समाज में स्त्री और गहरे संकट में घिरी दिखाई देती है। समाज के सारे नीति-नियम जैसे उसी की स्वतंत्रता का हनन करने के पर्याय होकर रह गये हैं। घरेलू हिंसा, उत्पीड़न, बलात्कार, आत्महत्या और भ्रूण-हत्या आज अखबारों की आम खबरें हो गई हैं। इसी परिदृश्य से जुड़ी स्त्री की नींद’, ‘तीन बहनें’, ‘तीन लड़कियां’ ‘जली हुई देहआदि कविताओं के माध्यम से कवि ने पूरी शिद्दत के साथ स्त्री के प्रति होने वाले असंगत बरताव और उसकी मार्मिक पीड़ा को बेलिहाज एक शर्मिन्दा कर देने वाली सचाई के रूप में उजागर किया है -  
             पवित्र अग्नि की  लौ से गुजर कर आई
             स्त्री को  एक दिन लौटा दिया अग्नि को 
             जिस स्त्री ने /   पहचान दी घर को
             उस स्त्री की पहचान नहीं थी 
             जली हुई देह थी /   एक स्त्री की
                                                        (जली हुई देह, पृ. 47)
इसी सामंती ढांचे की दुश्वारियों के बरक्स आज तथाकथित पढ़े-लिखे मध्यवर्गीय समाज में स्त्री की दशा और भी दारुण हो गई है। इस समाज में शादी के बाद पत्नी या बहू की हैसियत घर में काम करने वाले एक घरेलू श्रमिक से बेहतर नहीं है। कुछ इसी तरह के हालात की ओर संकेत करते कवि ने आज के दाम्पत्य का यह दृष्टान्त प्रस्तुत किया है -
             दस बार कहने पर  
                          एक बार गये होंगे पत्नी के साथ बाजार
             सौ बार कहने पर एक बार गये होंगे सिनेमा
             कभी चले भी गए तो   
             दस कदम आगे रहे पत्नी से
             मुड़ मुड़ कर देखते रहे कितनी दूर है
             कंधे से कंधा मिलाकर नहीं चले कभी
                                              (पत्नी के साथ जीवन, पृ. 82)
   यह मध्यवर्गीय मनुष्य आज जिस तरह आधुनिक जीवन-शैली की ओर बढ़ते  महानगरों में रहता है, उनका माहौल बहुत तेजी से बदलता गया है। वहां अब पिछले समय और पुराने तहजीब के लिए कोई जगह नहीं बची है। पिछले पचास सालों से जयपुर जैसे महानगर में रहते हुए कवि ने जो जीवन जिया, देखा और अनुभव किया, उनका अपना आभ्यंतर उसी परम्परा और परिवेश से जुड़ा रहा है। उसी की खट्टी-मीठी स्मृतियां और दृश्यों के कोलाज इन कविताओं में जगह जगह बिखरे मिलते हैं - यहां गलियों में से निकलती कितनी ही गलियां थीं, चैक-चैराहे थे, खुले खिड़की-दरवाजे और जाली-झरोखे थे, एक-दूसरे के घरों में बेरोक आवाजाही थी, प्रेम परिहास के अटूट रिश्ते बनते थे, खिड़कियों के खुलने और बंद होने का संगीत गूंजता था एक-दूसरे के कानों में। इसी भाव-संसार और स्मृतियों को साकार करती कुछ रागात्मक कविताएं सहज ही हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं -
            उस गली का एक एक दर
            एक एक दरीचा पहचानता था मुझे
            खिड़कियों के खुलने बंद होने का संगीत
            आज भी गूंजता है मेरे कानों में
                          (शहर की एक गली, पृ. 72)
    इन स्मृतिपरक कविताओं को रचते हुए कई बार कवि अपने अतीत के ब्यौरों में दूर तक निकल गया है और स्मृतियां कच्चे माल की तरह इस्तेमाल होती गई हैं। किसी भी कविता को रचते हुए जो आत्म-संयम और आन्तरिक अनुशासन अपेक्षित है, उस पर से कवि की पकड़ कुछ ढीली-सी पड़ती दीखने लगती है और उस विस्तार में कविता का प्रभाव शिथिल होने लगता है। यही वह बिन्दु है, जिस पर हमारे समय के बहुत-से कवियों को फिर से विचार करना है, क्योंकि मेरा मानना है कि कविता एक सधे हुए कला-रूप के बतौर ही अपना सघन प्रभाव कायम रख सकती है।
    महानगरों और बड़े कस्बों में रहने वाले मनुष्य की जीवन-शैली और जरूरतों में इधर बहुत तेजी से बदलाव आया है। इन नगरों के विस्तार में बनते नये उप-नगरों, मार्गों, मकानों और नये बाजारों के मायाजाल ने उस पुराने को सिरे से बदल दिया है। पुरानी बस्तियों में भी अब न वो गलियां हैं, न जाने-पहचाने रास्ते, न वैसे घर हैं और न ही घर का वह अन्दरूनी रंग-रूप। वे पुरानी पाठशालाएं, वाचनालय और पुराने सिनमाघर भी अब अपने मूल रूप में नहीं रहे, जिनके साथ हमारी जीवन-शैली का अनलिखा इतिहास और अनेक स्मृतियां जुड़ी रही हैं, जिनके टूटने की आवाज़ ऐसे संवेदनशील कवि को कहीं अपने भीतर सुनाई देती है -
          उस दिन मैं मिर्जा इस्माइल रोड पर  
          अजमेरी गेट से न्यू गेट की ओर जा रहा था    
          मुझे कुछ टूटने की आवाज आई
          आवाज मेरे अन्दर से आई थी    
          पर टूट बाहर रहा था,
          मुझे नहीं मालूम मानप्रकाश टाकीज   
                    कितना पुराना था
          पहली फिल्म कौन-सी लगी थी इसमें  
                                          मानप्रकाश टाकीज, पृ. 93)    
    यह टूटना और बिखरना पिछले एक अरसे से जारी है। यह टूटना उस प्राकृतिक आपदा की तरह है, जिसमें सब-कुछ का नष्ट होना एक नियति की तरह सामने आता है। ऐसे में जो कुछ भी बचाया जा सकता है, लोग उसे बचाने का हर संभव प्रयत्न करते हैं। इस टूटने की प्रक्रिया में कवि की मूल चिन्ता यही है कि जो बचाया जाना आवश्यक है, उसे तो हर हाल में बचाया ही जाना चाहिए। अपनी इसी सोच और मुहावरे का प्रयोग करते हुए कवि गोविन्द माथुर ने जो काव्य-श्रृंखला खड़ी की है, उसके माध्यम से उन्होंने उसी मूल्यवान को बचाने और आदमी के भीतर के अकेलेपन को अपनी जीवंत स्मृतियों और बेहतर सपनों से भरने का संकल्प दोहराया है और यही बात उनकी कविता को प्रासंगिक बनाती है।

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