Monday, October 31, 2011

एक कविता - बरसों बाद

बरसों बाद
                 

बरसों बाद
किसी बदले हुए मौसम की
कोख से आती गंध
और अंतस की गहराई में
बजती     धीमी दस्तक के बुलावों पर
जब भी खोलता हूं
अपने भीतर के दरवाजे
खिड़कियां    रौशनदान -
कोई नहीं होता वहां
             उत्सुक
   अपने ही पीड़ित सन्नाटों के सिवाय,

जाने कब से खड़ा हूं
एक गुजरती हुई उम्र के किनारे
उस अन्तहीन अंधेरे की
            गिरफ्त में गुमसुम !

बरसों बाद
किन्हीं अधूरे पड़े सपनों की
बिखरी चिन्दियों के बीच
इस बेचैन सितारों से भरी रात के
गूंगे आसमान से उतर कर
कभी तो आओगे मेरी मुक्ति के उल्लास -
सहेज लूंगा मैं
तुम्हें अपने बिखरे हुए संसार में !


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