Saturday, July 23, 2022

 


बदलती स्‍त्री-छवि और ‘चन्‍ना’ का जुझारू किरदार

* नन्‍द भारद्वाज

कृष्‍णा सोबती अपनी अलग कथा-भाषा और कहन की विलक्षण शैली के लिए विख्‍यात हिन्‍दी की अनूठी कथाकार रही हैं। उन्‍होंने अपना पहला उपन्‍यास ‘चन्‍ना’ सन् 1952 में अंतिम रूप से तैयार कर इलाहाबाद की जानी-मानी प्रकाशन संस्‍था भारती भंडार को सौंप दिया था, लेकिन इस उपन्‍यास की कथा-भाषा को लेकर लेखक और प्रकाशक के बीच उपजी असहमति के कारण यह प्रकाशन-प्रक्रिया तब पूरी नहीं हो सकी और इसका प्रकाशन बरसों तक टलता रहा। जैसा स्‍वयं कृष्‍णा जी ने बताया कि प्रकाशन संस्‍थान ने उसे प्रकाशित करने के दौरान उनकी भाषा में आए कुछ स्‍थानीय शब्‍दों का अपनी समझ से जिस तरह का हिन्‍दीकरण करना चाहा, वह उन्‍हें कतई स्‍वीकार्य नहीं था और उन्‍होंने स्‍वयं उपन्‍यास का प्रकाशन रुकवा दिया। तब तक उपन्‍यास के तीन सौ पृष्‍ठ छप चुके थे और प्रकाशक का यही आग्रह था कि उसे वे किताब के अगले संस्‍करण में उन शब्‍दों‍ को यथावत कर देंगे और मौजूदा संस्‍करण को उन्‍हीं संशोधनों के साथ छपने दिया जाय, लेकिन कृष्‍णाजी इसके लिए राजी नहीं हुईं। उन्‍होंने उन छपे हुए पृष्‍ठों की कीमत प्रकाशक को चुका दी और उपन्‍यास की पांडुलिपि वापस लेकर उसे डिब्‍बे में बंद कर दिया। उसकी आंचलिक कथा-भाषा पंजाबी मिश्रित हिन्‍दी को लेकर लेखक और प्रकाशक के बीच उपजे उस अनसुलझे विवाद के चलते उसका प्रकाशन बीच ही में अटक गया। इसके बाद कृष्‍णा जी अपनी और कृतियों के लेखन में जुट गईं और वर्षों तक यह पांडुलिपि उसी तरह बक्‍से में बंद पड़ी रही। बीच में राजकमल प्रकाशन ने जब उसे यथावत प्रकाशित करने की इच्‍छा जा‍हिर की तो कृष्‍णाजी ने इसे दुबारा देखा भी, लेकिन वे स्‍वयं तय नहीं कर पाईं कि इसे इसी रूप में छपने दिया जाय, बल्कि जब राजकमल ने अधिक आग्रह किया तो इसी कृति की भावभूमि को आधार बनाकर उसी देशकाल, आंचलिक परिवेश और कथा के प्रमुख चरित्रों को लेकर नये सिरे से एक और उपन्‍यास लिखना आरंभ कर दिया, जो ‘ज़िन्‍दगीनामा’ के रूप में सन् 1979 में प्रकाशित हुआ। ‘ज़िन्‍दगीनामा’ के बाद भी उनके कई उपन्‍यास प्रकाशित हुए, लेकिन ‘चन्‍ना’ का प्रकाशन उसी तरह टलता रहा, जिसे याद करते हुए वे यह भी कहती रहीं कि ‘इस पहली कृति का उस समय अप्रकाशित रहना ही ‘ज़िन्‍दगीनामा’ के लेखन का कारण बना।' बरसों बाद उनके जीवन के अंतिम वर्ष (सन् 2019) में उसी शीर्षक से प्रांजल हिन्‍दी में प्रकाशित ‘चन्‍ना’ उपन्‍यास को पढ़ते हुए पहली आशंका तो यही होती है कि क्‍या यह वही ‘चन्‍ना’ उपन्‍यास है, जो कृष्‍णा सोबती ने सन् 1952 में तैयार किया था, और जो बिना किसी हेर-फेर के मौजूदा रूप में प्रकाशित होकर पाठकों के हाथों में पहुंच पाया है !  

     मौजूदा रूप में प्रकाशित ‘चन्‍ना’ की भूमिका में कृष्‍णाजी ने उस पुराने प्रकाशन-प्रसंग को याद करते हुए अपनी कथा-भाषा के संबंध में जो बात बेबाकी से पाठकों के सामने रखी है, उसे वे अपने कुछ साक्षात्‍कारों में भी बयान कर चुकी हैं। यहां इस भूमिका में उन्‍होंने अपनी कथा-भाषा के बारे में कुछ और सटीक बातें भी कही हैं, जो वाकई विचारणीय हैं। वे लिखती हैं – “चन्‍ना’ के संदर्भ में सारे वाद-विवाद की बात सोचते हुए मैं आज भी विश्‍वास करती हूं कि भाषा की जड़ों को हरियानेवाला रसायन, जो उसे ज़िन्‍दा रखता है, उसे सम्‍पन्‍न करता है, वह ‘लोक’ का स्रोत है। भाषाओं के साथ-साथ भाषाएं और बोलियां विकसित होती हैं और आपसी टकराव से समृद्ध होती हैं। और समय में हो रहे परिवर्तनों को भी साधती हैं। अब और तब की हिन्‍दी में बहुत अन्‍तर है। आज की हिन्‍दी ने दूसरी भारतीय भाषाओं और बोलियों से शब्‍द लेने शुरू कर दिये हैं, जिससे उसका कोष समृद्ध हुआ है। हम कृतज्ञ हैं रेणुजी के, जिन्‍होंने देश के खेतिहर संवाद को ‘मैला आंचल’ में प्रस्‍तुत किया और बोलियों की संक्षिप्‍तता को साहित्यिक स्‍वरूप दे दिया। भाषायी माध्‍यम से ही इतिहास का समय लोकमानस की भागीरथी के साथ बहता है। शब्‍द की सत्‍ता सर्वोत्‍तम है। हर शब्‍द का एक जिस्‍म, एक रूह और एक संस्‍कारी पोशाक होती है। इसीलिए लेखक समाज अपनी पंक्तियों को विचार से गूंथता हुआ – सावधान रहता है।"

   ‘चन्‍ना’ के इस प्रकाशन प्रकरण को लेकर दो बातों की पड़ताल जरूरी लगती है, जिसमें  पहली है, मौजूदा रूप में प्रकाशित ‘चन्‍ना‘ की भाषा और दूसरी है ‘चन्‍ना‘ और ‘ज़िन्‍दगीनामा’ के कथानकों और उनकी कथा-भाषा के बीच का अंतर। यद्यपि पृष्‍ठसंख्‍या की दृष्टि से दोनों कृतियों का कलेवर लगभग समान है, लेकिन कथा-भाषा की दृष्टि से दोनों में जमीन-आसमान का अंतर है। नमूने के बतौर दोनों कृतियों के दो आरंभिक अंश लिये जा सकते हैं, जिनका भाषायी स्‍वरूप दोनों में क्रमश: उसी तरह रखा गया है :

“शाहजी शीघ्रता से पौड़ियां चढ़ गए। ऊपर देखा। बेचैन सी ख़ामोशी। दास-दासियों की हल्‍की आवाज़ें। आंगन में रखी बतासों और मिठाइयों की चंगेरें मानो किसी नन्‍ही-सी आवाज़ की प्रतीक्षा में हों। बड़े घर की मालकिन कहीं दिख नहीं रहीं। शाहजी को कुछ घबराहट ही न थी। भगवान भला करे। बंद किवाड़ों से निकलकर एक नन्‍हा–सा, पहला-पहला स्‍वर आंगन में फैल गया। शाहजी विभोर हो उठे। यह मीठी आवाज़। अब उनके घर में किलकारियां बह-बह जाएंगी। दास-दासियों के स्‍वर गूंज उठे – “बधाइयां बधाइयां  बड़ा-बड़ा इकबाल "

    शाहनी अंदर से निकलीं। चेहरे पर घबराहट थी, आंखों में निराशा। हाथ के संकेत से सबको चुप करती हुई घूमीं तो शाहजी का स्‍वर सुनकर ठिठक गईं, “सुनो तो।" चिन्तित-सी बोलीं, “शीला की तबियत कुछ अच्‍छी नहीं, "फिर अनचाहे शब्‍दों को संभालकर कहा, “लड़की है।"

(चन्‍ना, पृष्‍ठ – 9)

और इसके बरक्‍स ‘ज़िन्‍दगीनामा’ की भाषा की यह रंगत देखिये -  

“शरद पुण्‍या की रात।

पिंड के कच्‍चे कोठे चम्‍मचम्‍म चमकने लगे। दमकने लगे। चान्‍ननी ने सजरी लिपाई से खेत-खलिहान रूख-वृख सब उजरा-उजला दिए। कुओं के मिट्ठड़े सुर झलमल-झलमल हियरों को हुलसाने लगे। बेटों-बच्‍चड़ों के साथ घरों को लौटती बलदों की जोड़ियां जी की तृखा-प्‍यास जगाने लगीं। चूल्‍हों से उठती उपलों की कच्‍ची गंध हर कोठे हर चौके को महकाने-लहकाने लगी।

रब्‍बा, ये सोहणे समय मनुक्‍खों के साथ लगे रहें। सजे रहें। चिट्टी दूध चांदनी में तुरकी बुलबुलो की डार पंख फैलाए अपनी लंबी उडारियों पर।"

(ज़िन्‍दगीनामा,  पृष्‍ठ – 17)         

     उक्‍त दोनों उदाहरणों में दोनों कृतियों की भाषा का अंतर अपने-आप में स्‍पष्‍ट है। ‘चन्‍ना‘ की भाषा जहां शुद्ध हिन्‍दी या बोलचाल की हिन्‍दुस्‍तानी रूप लिये है, वहीं ‘ज़िन्‍दगीनामा’ की भाषा पंजाबी मिश्रित आंचलिक बोलचाल हिन्‍दी, जो पूरे उपन्‍यास के पाठ में और भी आंचलिक रूप  ग्रहण करती जाती है, जिस पर टिप्‍पणी करते हुए हिन्‍दी के कई विद्वानों ने इसकी संप्रेषणीयता पर अपनी शंकाएं प्रकट की हैं। ‘चन्‍ना’ के पहले प्रकाशन पर चर्चा करते हुए कृष्‍णा सोबती ने रणवीर रांग्रा के साथ अपनी बातचीत में कहा है कि‍ “भारती भंडार ने लेखक को बिना प्रूफ दिखाए उपन्‍यास छापना शुरू कर दिया। दर्जनों शब्‍द सुधार दिए गए। ‘शाहनी’ को ‘शाहपत्‍नी’, ‘काका’ को ‘लल्‍लू’, ‘रुक्‍ख’ को ‘वृक्ष’, ‘छांह’ को ‘छाया’ -- सारे सुधार इसी तरह के थे।" (लेखक का जनतंत्र, पृ 23) जबकि ‘चन्‍ना’ के मौजूदा पाठ में शाहनी के अलावा अन्‍य शब्‍दों का प्रयोग नगण्‍य है, बल्कि पूरे उपन्‍यास की भाषा इतनी सहज-सरल हिन्‍दी या हिन्‍दुस्‍तानी है कि ऐसी कोई कठिनाई आद्यन्‍त नहीं दिखाई देती। पूरे उपन्‍यास में सुर्खरू, पैरीपोना, सिरवारना, कांग, दारे, जमात, सवारना जैसे कुछेक देशज शब्‍दों के अलावा शायद ही कोई ऐसा देशज शब्‍द हो, जिसके लिए किसी भाषायी शब्‍दकोश या उस हलके के जानकार से मदद लेने की जरूरत पड़े। अब अगर स्‍वयं कृष्‍णा जी ने ही उपन्‍यास के उस पहले प्रारूप की भाषा में अपने स्‍तर पर यह सुधार-संशोधन कर लिया हो, तो इसकी पुष्टि तो वही कर सकती थीं, जो अब असंभव है। इस कृति की भूमिका में भी भाषा या कथा-संरचना को लेकर उन्‍होंने ऐसा कोई उल्‍लेख किया नहीं है, इसके‍ प्रकाशन की दुबारा संभावनाएं बनने पर उस पुराने प्रारूप के प्रति अपने बदले हुए मानस का हवाला देते हुए इतना जरूर कहा है कि‍ “पन्‍ने पढ़कर अहसास जरूर हुआ कि यह नौसिखिया लिखित तो है, मगर इसमें अच्‍छे उपन्‍यास की सभी संभावनाएं हैं।"    

    दूसरी बात, जहां तक ‘चन्‍ना’ और ‘ज़िन्‍गीनामा’ के कथानकों और उनमें आए केन्‍द्रीय चरित्रों की दृष्टि से देखें तो यह बात स्‍पष्‍ट है कि ‘ज़िन्‍दगीनामा’ के प्रमुख चरित्र शाहजी, शाहनी और चाची महरी इन दोनों कृतियों में बेशक अपनी उसी पारिवारिक छवि और शाह हवेली के उसी रहन-रुतबे के साथ प्रस्‍तुत हुए हों, लेकिन उनके आस-पास के बाकी चरित्रों, पारिवारिक माहौल और चौतरफा हालात की दृष्टि से ‘चन्‍ना’ का मूल कथानक उससे एकदम भिन्‍न है। यहां शाह-शाहनी की नातिन चन्‍ना ही कथा का केन्‍द्रीय चरित्र है, जो कृष्‍णा-कथा की बदलती स्‍त्री छवि के एक जुझारू किरदार के रूप में सामने आता है। ‘चन्‍ना’ की पूरी कथा इसी केन्‍द्रीय चरित्र के इर्द-गिर्द घूमती है। दोनों कृतियों की शुरूआत भी एकदम अलग तरीके से होती है। ‘ज़िन्‍दगीनामा’ की शुरुआत जहां इसी शाह हवेली के बच्‍चों की मांग पर हवेली के बड़े-बुजुर्ग लालाजी की जुबानी लोक में किंवदंती की तरह प्रचलित ‘आदि पुरख प्रजापति के अवतार’ और प्रकृति के साथ मानवीय विकास की सृष्टि-कथा से होती है, वहीं ‘चन्‍ना’ की कथा इसी शाह हवेली के भीतर शाह-शाहनी की बेटी शीला की प्रसव-प्रक्रिया से आरंभ होती है। जहां उनकी इकलौती बेटी शीला एक बेटी को जन्‍म देती है और स्‍वयं बहुत नाजुक अवस्‍था में पहुंच जाती है। शाह हवेली के सभी लोग जहां नाती के इंतजार में थे, वहीं बेटी की पहली संतान जब लड़की के रूप में पैदा होती है तो हवेली की स्त्रियां यह तय नहीं कर पाती कि बच्‍ची के होने का जश्‍न मनाया जाए या इसे मौन रहकर नियति के रूप में स्‍वीकार कर लिया जाए। शाहजी को जब यह खबर मिलती है तो कुछ क्षणों की दुविधा के बाद वे हवेली के सेवकों को यही आदेश देते हैं कि “घर में देवी आई है - ‘लड़कों-सी लड़की’, इसका पूरे उत्‍साह से जश्‍न मनाया जाए और सबको मिठाई बांटी जाए। और इस तरह बेटी के जन्‍म का जश्‍न तो जरूर मनाया गया, लेकिन प्रसव के बाद बेटी के नहीं बच पाने की पीड़ा और पश्‍चाताप मां-बाप को बरसों तक सालता रहता है। दिलचस्‍प बात यह कि चाची महरी दोनों ही कृतियों में शाह-शाहनी के लिए हर कठिन परिस्थिति में बड़ा संबल और सहारा बनी रहती है। शाह परिवार में बच्‍चे का जन्‍म, राग-रंग और संतान की परवरिश इन दोनों कथा-कृतियों का एक महत्‍वपूर्ण प्रसंग है, ‘जिन्‍दगीनाम’ में जहां कई साल की मनौतियों के बाद शाहनी के गर्भ से पुत्र का जन्‍म होता है, वहीं ‘चन्‍ना’ की प्रमुख पात्र शाहनी की बेटी शीला की संतान के रूप में जन्‍मी चन्‍ना जैसी चंचल और जुझारू बेटी का बाल्‍यकाल और इसी शाह हवेली में उनकी परवरिश एक अलग तरह की कथा के रूप में सामने आता है।      

     इस उपन्‍यास की सबसे बड़ी उपलब्धि है, इसका केन्‍द्रीय चरित्र चन्‍ना, जिसकी तुलना में  कृष्‍णा सोबती की अन्‍य सारी कहानियों और कथा-कृतियों के मुखर चरित्र अपेक्षाकृत फीके नज़र आते हैं, यहां तक कि ‘मित्रो मरजानी’ की मित्रो या ‘ऐ लड़की’ की बेबाक लड़की भी, जो अपनी जिन्‍दगी के सारे फैसले खुद करती हैं। चन्‍ना अपने जन्‍म से लेकर युवा होने तक जिन विकट और विपरीत परिस्थितियों में संघर्ष करते हुए बड़ी होती है और जिन तनावपूर्ण हालात में संयम और सूझ-बूझ का परिचय देती है, उस रूप में निश्‍चय ही वह एक आत्‍मसजग स्‍त्री चरित्र की मिसाल बनकर सामने आती है। कृष्‍णा जी ने इस जीवंत चरित्र के क्रमिक विकास को जिस यथार्थवादी सोच, समझ और मानवीय संवेदना से रचा है, उससे हमारे समय की स्‍त्री-चेतना और उसके संघर्ष को नयी ऊर्जा और आत्‍मबल मिलता है। ‘चन्‍ना’ के माध्‍यम से उभरती इसी स्‍त्री-छवि के क्रमिक विकास को ठीक से समझने के लिए हमें संक्षेप में इसकी कथा-संरचना और उसके भीतर के निर्णायक कथा-प्रसंगों को ठीक से समझना होगा।

      शाहजी ने स्‍यालकोट के धनी व्‍यापारी लाला दीवानचंद के इकलौते बेटे धर्मपाल के साथ अपनी बेटी शीला को बहुत उमंग साथ ब्‍याहा था और बेटी के साथ उसके वैवाहिक जीवन के आरंभिक दिनों में मदद के लिए शाह परिवार की अनुभवी सदस्‍या चाची महरी को एक संरक्षिका के बतौर उसके साथ भेज दिया था, ताकि बेटी के ससुराल में उसकी सास और कोई अन्‍य स्‍त्री न होने पर उसे असुरक्षा और अकेलेपन का सामना न करना पड़े। शीला से विवाह के बावजूद धर्मपाल को अपनी पत्‍नी से कोई विशेष लगाव नहीं था। वह अधिकतर अपने पिता के व्‍यवसाय में ही व्‍यस्‍त रहता था और इसी सिलसिले में शादी के कुछ अरसे बाद वह कलकत्‍ता और बंबई की यात्रा पर निकल जाता है। बेटे की इस यात्रा के दौरान एक दिन लाला दीवानचंद की तबियत बिगड़ जाती है और उनकी मृत्‍यु हो जाती है। पिता की मृत्‍यु के कारण बेटा धर्मपाल यात्रा से लौट तो जरूर आया, लेकिन अपनी पत्‍नी के प्रति उदासीन ही बना रहा। दरअसल इसी यात्रा के दौरान धर्मपाल को उनकी पूर्व प्रेमिका श्‍यामा से बंबई में फिर से मिल गई थी, जिसने पहले तो  अपने दूसरे प्रेमी अविनाश से विवाह कर लिया, लेकिन वह विवाह सफल न होने पर वह फिर से अकेली हो गई थी। धर्मपाल से मुलाकात होते ही उसका पुराना प्रेम फिर से जाग गया और धर्मपाल उससे वादा कर आया था कि वह जल्‍द लौटेगा और उसे पत्‍नी बनाकर अपने साथ स्‍यालकोट ले जाएगा। पिता की मृत्‍यु के कुछ समय बाद वह फिर से बंबई यात्रा पर गया और श्‍यामा को पत्‍नी बनाकर अपने साथ ले आया।

    धर्मपाल के इस कदम से ग्रामीण संस्‍कारों में पली शीला के हृदय को गहरी ठेस लगी, चाची महरी को भी दामाद का यह बरताव बहुत नागवार गुजरा लेकिन शीला के शान्‍त व्‍यवहार को देखते हुए उसने भी संयम बरता। कुछ अरसे बाद अपने इकलौते भाई की बीमारी के कारण श्‍यामा को बंबई जाना पड़ा। श्‍यामा की गैर-मौजूदगी में शीला के सहज-सरल व्‍यवहार को देखते धर्मपाल को भी अपनी भूल का अहसास हुआ कि उसे ब्‍याहता पत्‍नी के प्रति इतना निष्‍ठुर नहीं होना चाहिए। उसने फिर से शीला की सुध ली और उसे अपने प्‍यार से मना लिया। इन्‍हीं अंतरंग क्षणों में शीला गर्भवती हो गई, लेकिन कुछ अरसे बाद जब श्‍यामा वापस लौट आई तो धर्मपाल फिर उसी के पास पहुंच गया। ऐसे में एक दिन निराश शीला चाची महरी के साथ अपने मायके लौट गई। मायके में शाहजी और शाहनी ने उसका पूरा ध्‍यान रखा और नौ महीने बाद उसने एक बेटी को जन्‍म दिया। इसी प्रसव के बाद अपने कमजोर स्‍वास्‍थ्‍य के चलते शीला की मृत्‍यु हो गई और बच्‍ची के पालन-पोषण की जिम्‍मेदारी हवेली की सेविका सईदा बीबी ने संभाल ली। पत्‍नी की अस्‍वस्‍थता की जानकारी मिलने पर धर्मपाल उसे देखने ससुराल तो जरूर आया, लेकिन उसके पहुंचने से पूर्व ही शीला का निधन हो चुका था। धर्मपाल ने अपनी बेटी के‍ प्रति गहरा लगाव भी व्‍यक्‍त किया, लेकिन शाहनी के अनुरोध पर वह उसे उन्‍हीं की देखरेख में छोड़ गया। बच्‍ची की मां के चनाब प्रेम को ध्‍यान में रखते हुए उसका नाम चन्‍ना रखा गया, जो पांच वर्ष की अवस्‍था तक अपने ननिहाल में ही पलकर बड़ी हुई। फिर यहीं के मदरसे में प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण की, जहां उसे बचपन के साथी मिले। उसे अब तक मां के बारे में कुछ नहीं बताया गया था, लेकिन मदरसे में जब किसी बच्‍चे ने उसे बिन मां की लड़की कहा तो वह विचलित हो गई। उसे यही बताया गया था कि उसकी मां पिता के पास है। चन्‍ना जब अपनी मां से मिलने की जिद करने लगी, तो उसके नाना उसे पिता के घर ले आए और वहां श्‍यामा को ही उसकी मां बताया गया, जिसे उसने सहज भाव से स्‍वीकार कर लिया। श्‍यामा ने भी उसी स्‍नेह से उसे अपना लिया, जिसकी अपनी कोई संतान नहीं थी। अपने मां-पिताजी से मिलने के बाद चन्‍ना ननिहाल लौट आई। उसके कुछ अरसे बाद ही शाहनी की तबियत बिगड़ने लगी और एक दिन उनका निधन हो गया। मां की गोद से वंचित नन्‍हीं चन्‍ना अपनी नानी से भावनात्‍मक रूप से इतनी गहराई से जुड़ चुकी थी कि वह नानी की इस मृत्‍यु को सहज रूप से नहीं ले सकी, बल्कि वह यह मानने को ही तैयार नहीं हुई कि उसकी नानी नहीं रही। पारिवारिक रिश्‍तों के प्रति यह संवेदनशीलता और आत्मिक लगाव आरंभ से ही चन्‍ना के चरित्र की विशेषता रही। घर में नानी की गैरमौजूदगी के कारण वह गुमसुम-सी रहने लगी। ऐसे में उसे सईदा बीबी के साथ पिता के पास स्‍यालकोट भेज दिया गया। धर्मपाल ने वहीं के अच्‍छे स्‍कूल में बेटी का दाखिला करवा दिया। चन्‍ना अब बड़ी हो रही थी और जब उसे नानी के न रहने का अहसास हुआ तो उन्‍हें याद करते हुए वह बिलख पड़ी।

    पिता के पास रहते हुए चन्‍ना की स्‍कूली शिक्षा ठीक तरह से चलती रही। वह किशोरी से युवती होने की अवस्‍था में पहुंच रही थी। उसके मानस-चित्‍त और व्‍यक्तित्‍व में बदलाव आने लगा था। ननिहाल में वह घुड़सवारी पहले ही सीख चुकी थी। समय गुजरने के साथ वह इस सचाई से भी परिचित हो गई कि उसे जन्‍म देनेवाली मां शीला को उसने पैदा होते ही खो दिया था। अपनी जन्‍मदात्री मां के प्रति पिता के व्‍यवहार और सौतेली मां श्‍यामा के रवैये को लेकर उसके मन में टीस भी थी, लेकिन न उसने पिता से ही कोई शिकायत रखी और श्‍यामा से ही।  उसने श्‍यामा को सदा मां का ही मान दिया। श्‍यामा के प्रति यह उदार विवेक उसके व्‍यक्तित्‍व में यथार्थवादी मानवीय दृष्टि के विकास का ही परिणाम था। हाई स्‍कूल की शिक्षा पूरी होने के बाद पिता ने उसे कॉलेज की पढ़ाई के लिए लाहौर भेज दिया गया, जहां अपने सहपाठी छात्र-छात्राओं के बीच उसके व्‍यक्तित्‍व में एक नये तरह का आत्‍मविश्‍वास विकसित हुआ। कॉलेज में अपना पहला साल पूरा कर छुट्टियों में वह घर लौट आई। अगले साल की पढ़ाई के लिए पिता धर्मपाल खुद उसे लाहौर छोड़ने साथ गये। वे चन्‍ना में विकसित होती समझदारी को बहुत करीब से देख रहे थे और कहीं उसकी मां के प्रति अपने बरताव का पछतावा भी उनके मानस में बना रहा, ऐसे में चन्‍ना की मां शीला के पत्र उसे पढ़ने के लिए सौंप दिए ताकि वह अपनी असली मां को ठीक से जान सके। उस वाकये के बाद चन्‍ना की नज़र में पिता की इज्‍़जत और बढ़ गई।

     कुछ अरसा गुजरने के बाद एक दिन चन्‍ना को कुछ ऐसा महसूस हुआ कि उसे तुरन्‍त घर जाना चाहिए और वह उसी शाम गाड़ी में बैठ गई। जब वह सवेरे अपने घर पहुंची तो घर के अहाते में कई गाड़ियां खड़ी थी और बहुत से लोग जमा थे। घर के अंदर जाने पर उसे यह दुखद जानकारी मिली कि पिछली शाम उसके पिता का‍ निधन हो गया था। वह यह सब जानकर स्‍तब्‍ध रह गई। घर में उसकी मां श्‍यामा बेसुध पड़ी थी। परिजनों और घर के सेवकों ने धर्मपाल का अंतिम संस्‍कार संपन्‍न करवाया और श्‍यामा के भाई जगदीश को तार देकर बुला लिया गया। अगली सुबह चन्‍ना के नाना भी आ गये थे। वे श्‍यामा से मिले और उसे तसल्‍ली देते हुए पारिवारिक रस्‍में निभाई और उसे आर्थिक मदद के रूप में कुछ आभूषण और धनराशि भी दी। जाने से पहले वे चन्‍ना से भी मिले और उसके कहने पर सईदा बीबी को भेजने का वास्‍ता देकर वापस अपने गांव लौट गये। इस विकट स्थिति में‍ चन्‍ना ने पूरे धैर्य और समझदारी से घर की जिम्‍मेदारी संभाल ली। श्‍यामा के भाई जगदीश घर में कोई पुरुष न होने की अवस्‍था में खुद सारी व्‍यवस्‍थाएं अपने हाथ में लेने के इच्‍छुक थे, लेकिन जब चन्‍ना ने यह स्‍पष्‍ट कह दिया कि अपने घर की व्‍यवस्‍था वह स्‍वयं संभालेगी। ऐसे में श्‍यामा और जगदीश को जल्‍दी ही यह बात समझ में आ गई कि चन्‍ना ही इस घर की असली वारिस है। कृष्‍णा जी ने इन मार्मिक प्रसंगों के माध्‍यम से चन्‍ना के व्‍यक्तित्‍व को जो सामर्थ्‍य और ठोस आकार दिया है, वह प्रकारान्‍तर से उनके भीतर विकसित होती स्‍वायत्‍त स्‍त्री–छवि का परिचायक है। अपने इसी आत्‍मबोध के चलते पिता की मृत्‍यु के बाद घर और उनके कारोबार पर अपने कब्‍जे की चिन्ता किये बगैर उन्‍हीं  पुराने सेवकों को जिम्‍मेदारी सौंपकर चन्‍ना अपनी कॉलेज की बची हुई पढ़ाई पूरी करने के‍ लिए लाहौर लौट गई। यह है उसके विकसित व्‍यक्तित्‍व की अपनी विशेषता, जिसे कृष्‍णा सोबती ने पूरे मनोयोग से सिरजा है।   

     उधर ननिहाल में शाहनी की मृत्‍यु के बाद शाहजी ने पीछे कोई पुत्र वारिस न होने पर हवेली और जमींदारी की चिन्‍ता करते हुए चचेरे भाई कृपाराम और उसके बेटे भागे को अपनी मदद के लिए बुला लिया, जबकि इन्‍हीं के साथ मनमुटाव और मुकदमेबाजी के कारण लंबे अरसे से उनका कोई संपर्क-संवाद नहीं था। वे इस लायक थे भी नहीं कि उन पर भरोसा किया जा सके। उनके हवेली में आ जाने से मदद या सहारा तो क्‍या होता, उल्‍टे हुआ यह कि इन बाप-बेटों के कारण हवेली में चाची महरी, सईदा बीबी और हवेली के बा‍की सेवकों का चैन से जीना  दूभर हो गया। ऐसे में चाची ने चन्‍ना को पत्र भेजकर इस स्थिति से अवगत जरूर करा दिया। चाची का पत्र पाकर चन्‍ना तुरंत ननिहाल के लिए रवाना हो गई। उसने ननिहाल के करीबी स्‍टेशन से नाना के आसामी से एक घोड़ा लिया और उस पर सवार होकर गांव पहुंच गई। गांव में उसकी पहली मुलाकात अपने आवारा दोस्‍तों से घिरे अपरिचित भागे से ही हुई, जिसने उसका घोड़ा रोकने की कोशिश की, लेकिन ज्‍यों ही चन्‍ना ने उसे यह कहते हुए फटकार लगाई कि लगता है गांव में पहली बार आए हो, वह चन्‍ना के तेवर देखकर सामने से हट गया। चन्‍ना को एक-दो रोज में जब चाची और हवेली की स्त्रियों से भागे के अशोभनीय बरताव की जानकारी मिली तो उसने छोटे नाना कृपाराम को सख्‍ती से समझा दिया कि वे और उनका बेटा हवेली की स्त्रियों से इज्‍जत से पेश आए और किसी को भी हवेली के भीतर जाने की इजाजत नहीं होगी। इस तरह चन्‍ना ने विनम्र किन्‍तु सख्‍त लहजे में सभी को पाबन्‍द कर दिया। उसने भागे को मामू के संबोधन से लज्जित करते हुए अपना हूलिया और बरताव सुधारने की हिदायत भी दे दी, जिसका कोई प्रतिवाद करने की हिम्‍मत भागे नहीं कर सका। यही नहीं, वह नाना के अकेलेपन और उनके कमजोर मन को संबल देने के‍ लिए उनके कारोबार और ज़मीनी मामलों में रुचि लेने लगी और आसामियों से सीधे संवाद करने लगी। इससे कृपाराम और भागे को यह संकेत भी दे दिया कि वे उसके उत्‍तराधिकार को लेकर किसी गलतफहमी में न रहें। उसने चाची और सईदा की सुरक्षा को ध्‍यान में रखते हुए अगले दिन सवेरे लाहौर रवाना होने से पहले नाना को उनके पास सोए बाप-बेटे को सुनाते हुए निस्‍संकोच कह दिया कि “नाना, मामू को अगर यहां बुलाया है तो उसे घर के आदमी की तरह रहने के लिए भी कहें घर का क़ायदा-चलन क्‍या अब कुछ नहीं रहेगा?” यही नहीं, उसने यह भी स्‍पष्‍ट कह दिया – “नाना, मैं सब समझती हूं। जो कभी नहीं समझा, वह भी समझने लगी हूं। आज घर के लिए किसी लड़के की ज़रूरत है, लेकिन नाना, वह लड़का भागा है, यह मानने को जी नहीं चाहता” और इस पर जब नाना ने एतराज करते हुए यह कहा कि वे उनके भाई और भतीजे हैं, उनके बारे वे कुछ नहीं सुनना चाहते, तो चन्‍ना ने शान्‍त स्‍वर में उस पितृसत्‍ता को सीधी चुनौति देते हुए उन्‍हें यह भी स्‍पष्‍ट कह दिया – “आपको नहीं सुननी है, पर मैं  सुनाऊंगी। नाना, उन्‍हें तुम नहीं दीखते उन्‍हें वह भाई नहीं दीखता, जो वर्षों के झगड़े को भूलकर उन्‍हें अपने घर लिवा लाया है। उन्‍हें यह हवेली दीखती है, ज़मीनें दीखती हैं। चाची के पास पड़ा नानी का गहना दीखता है, जिसके लिए कभी-कभी मामू का मन होता है कि बुढ़िया का गला घोंट दे” इस पर शाहजी को पहली बार अपनी गलती का अहसास हुआ और उन्‍होंने चन्‍ना के हाथ पर अपना कांपता हुआ हाथ रखकर इतना ही कहा, “बच्‍ची, यह सब मुझसे मत कहो मैं यह सब जानता हूं।"  इसी अवसर पर चन्‍ना ने कृपाराम और भागे को बुलाकर सख्‍त हिदायत दे दी कि वे हवेली में कायदे से रहें और गांव के लोगों व आसामियों के बीच इज्‍़जत से रहना सीखें। इस तरह कथा में चन्‍ना के सजग और निडर व्‍यक्तित्‍व का जो सहज विकास दिखाया गया है, वह कृष्‍णा सोबती की स्‍त्री के प्रति नयी सोच का ही प्रमाण है।  

    चन्‍ना अपनी कॉलेज की पढ़ाई के आखिरी साल में थी। गांव से लाहौर लौटकर वह वापस उसी में व्‍यस्‍त हो गई। एक दिन चाची के पत्र से चन्‍ना को खबर मिली कि गांव में शाहजी ने फिर नयी ज़मीन खरीदी है, इससे चन्‍ना को तसल्‍ली हुई कि उसके नाना अब फिर से संभलने लगे हैं। शाहजी जमीन खरीदने के बाद उसका मुआयना करने जब अकेले ही अपने घोड़े पर सवार होकर निकल पड़े तो उसी दौरान कुछ अज्ञात लोगों ने उन पर पीछे से हमला कर दिया  और उन पर कुछ ऐसे सख्‍त प्रहार हुए कि उनका प्राणान्‍त हो गया। चन्‍ना को जब यह खबर ‍मिली तो वह नाना के दाह-संस्‍कार से पहले गांव पहुंच गई। उसे नाना के इस तरह मारे जाने का गहरा दुख था, लेकिन वह तत्‍काल नहीं जान सकी कि यह घटना किस तरह से घटित हुई और उसके लिए कौन जिम्‍मेदार है। हालांकि वह जानती थी कि इसके पीछे भागे और उसी के लोगों का हाथ है, लेकिन कोई ठोस सबूत उसके पास नहीं था। नाना की मौत के बाद चन्‍ना सतर्क और सख्‍त हो गई थी। उसने अपनी देखरेख में नाना की मृत्‍यु के बाद उनकी प्रतिष्‍ठा  और पारिवारिक परंपरा के अनुरूप इतना बड़ा आयोजन किया कि आस-पास के सारे गांवों के लोगों ने उसमें भाग लिया, दान-पुण्‍य के लिए कपड़ों के ढेर लग गए, गांव की विधवाओं, दूसरे गांवों में ब्‍याही गांव की लड़कियों और उनके सास-ससुर तक को पोशाकें और रुपयों की सीख दी। उसे नाना की धन-संपत्ति अपने कब्‍जे में लेने का कोई लालच नहीं था, वह मानती थी उस पर इन्‍हीं लोगों का हक है, लेकिन नाना की विरासत को कोई गैरवाजिब तरीके से जबरन हड़पने की कोशिश करे, उसे यह भी कुबूल नहीं था। चन्‍ना के इस हौसले और सूझ-बूझ की गांव और पूरे हलके के लोगों ने भरपूर सराहना की। नाना की हवेली और जमीनों की माकूल व्‍यवस्‍था कर अपनी बची हुई पढ़ाई जारी रखने के लिए चन्‍ना बेशक लाहौर लौट गई, लेकिन नाना के मारे जाने में भागे की भू‍मिका और उन हालात को बखूबी जान चुकी थी। वह इस हकीक़त को भी समझ रही थी कि नाना जैसे भी मरे, अब उसको लेकर जद्दोजहद करने से कुछ हासिल होना मुश्किल है। उसकी पहली कोशिश यही थी कि अपने को सुरक्षित रखते हुए चाची महरी, सईदा बीबी और हवेली के बाकी लोगों की सुरक्षा और नाना की जमीनों पर अपनी पकड़ मजबूत रखे। शाहजी की हवेली और उनकी विरासत को उस विकट परिस्थिति में भी मजबूती से सम्‍हाले रखने में चन्‍ना की निर्णायक भूमिका के माध्‍यम से कृष्‍णा जी ने पितृसत्‍ता के उन तमाम दावों की हवा निकाल दी, जो यह मानती रही है कि‍ जर, जमीन और जोरू पर कब्‍जा रखना तो पुरुषों के बूते की ही बात है।   

     कायदे से तो चन्‍ना की यह कथा यहीं समाप्‍त हो जाती, लेकिन कृष्‍णा जी ने अपने इस केन्‍द्रीय व्‍यक्तित्‍व के एक और महत्‍वपूर्ण पक्ष को उजागर करने की दृष्टि से कथा के ताने-बाने में एक और जरूरी प्रसंग जोड़ा है। और वह प्रसंग है चन्‍ना की अपनी निजी जिन्‍दगी से जुड़ा एक नाजुक मसला, जहां उसे अपने जीवनसाथी का चुनाव करना होता है। अपनी फाइनल की परीक्षा से पहले चन्‍ना श्‍यामा के बुलावे पर एकबार घर लौटती है और उसी शाम उसके पिता के दोस्‍त रामलाल श्‍यामा और चन्‍ना को अपने साथ शिमला चलने का प्रस्‍ताव करते हैं। रामलाल को शिमला से बंबई जाना था, जहां दो दिन बाद उनका डॉक्‍टर बेटा अमेरिका से लौटने वाला था। वे इन तीनों स्त्रियों की शिमला में रुकने की व्‍यवस्‍था कर बंबई चले जाते हैं और दो दिन बाद बेटे कमल को साथ लेकर वहीं लौट आते हैं। अगले कुछ दिन उन्‍हें शिमला में ही रुकना था। इसी दौरान चन्‍ना और कमल के बीच अच्‍छी दोस्‍ती हो जाती है, लेकिन अचानक एक दिन श्‍यामा को एकाएक दिल का दौरा पड़ता है और वे बच नहीं पाती। अपनी मौत से पहले श्‍यामा चन्‍ना का हाथ कमल को थमा जाना चाहती थी, लेकिन चन्‍ना इसके लिए तैयार नहीं थी।

    चन्‍ना की पढ़ाई का यह आखिरी साल था। उसकी परीक्षा अभी बाकी थी, इसलिए उसे  वापस लाहौर जाना था। चन्‍ना और कमल के बीच नजदीकियां जरूर बढ़ गई थीं और वह एक सच्‍चे दोस्‍त के रूप में उसे पसंद भी कर रही थी, लेकिन शादी के बारे में वह तय नहीं कर पाई। कमल ने बहुत आग्रह किया कि वह उसके साथ बंबई चले, लेकिन चन्‍ना का अभी अपने घर और ननिहाल में बने रहना जरूरी था। इस मुलाकात के बाद अगले दिन वह लाहौर चली गई, जहां उसे अपनी फाइनल की परीक्षा देनी थी। चन्‍ना के लाहौर चले जाने के बाद कमल बंबई जाते हुए चन्‍ना से बात करने के लिए एक रात लाहौर रुकता है और उस रात उन दोनों के बीच बहुत खुले मन से बात होती है। चन्‍ना को इस बात का अंदेशा था कि विदेश-प्रवास के दौरान कमल की कोई अच्‍छी दोस्‍त जरूर रही होगी, जिसे वह शायद अपने पारंपरिक सोच वाले मां-बाप के कारण अपने साथ नहीं ला पाया। उसी के बारे में जब चन्‍ना ने बहुत आग्रह किया  तो आखिर कमल ने यह बात कुबूल कर ली कि वह अपनी सहपाठी जूलियन से प्‍यार करता है, लेकिन वह जानता है कि उसके माता-पिता इस रिश्‍ते को कुबूल नहीं करेंगे, इसलिए उससे शादी करने का निर्णय वह नहीं कर सका, जबकि वह अब भी उसका इंतजार कर रही है। चन्‍ना ने उसे यही सलाह दी कि उसे अपनी पसंद और आत्‍मनिर्णय की कद्र करनी चाहिए और जूलियन को अपना लेना चाहिए। कमल के पास इस विवेकसम्‍म्‍त निर्णय को न मानने का कोई कारण नहीं रह जाता और चन्‍ना से विदा लेकर लौट जाता है।  

      चन्‍ना वैसे भी अपने घर और ननिहाल से दूर नहीं जा सकती थी। वह अपनी परीक्षा देकर सईदा बीबी के आग्रह पर सीधी गांव पहुंच गई थी, जहां नाना की जमीनों को कृपाराम और भागे बेचने के मंसूबे बना रहे थे। उन्‍होंने एक जमीन का सौदा तय कर भी लिया था, लेकिन जब चन्‍ना को इसकी जानकारी मिली तो वह खुद घोड़े पर सवार होकर उस जमीन पर पहुंच गई। उसने सौदा करने वाले अपने परिचित रुलदू चाचा को उनकी अग्रिम राशि लौटाकर सौदा रुकवा दिया और यह बात अच्‍छी तरह समझा दी कि भागे के पास उसके नाना की किसी जमीन या संपत्ति का सौदा करने का कोई अधिकार नहीं है। चन्‍ना ने अपनी सूझ-बूझ और हौसले से गांव और हलके के सभी लोगों को यह बात समझा दी कि एक लड़की होने के नाते कोई उसे कमजोर समझने की भूल न करे, वह अपनी विरासत संभालने में पूरी तरह सक्षम है और वह अपने अधिकार जानती है।

      कृष्‍णा सोबती की सद्य प्रकाशित कथा-कृति ‘चन्‍ना‘ की बहुआयामी कथा का यह सार-संक्षेप प्रस्‍तुत करते हुए मेरा मुख्‍य उद्देश्‍य इस तथ्‍य की ओर ध्‍यान आकृष्‍ट करना रहा है कि इस कथा-कृति का प्रारंभिक स्‍वरूप जो भी रहा हो, जो भी इसकी कथा-संवेदना और कथा-भाषा रही हो, कृष्‍णा जी ने इस उपन्‍यास के एक से अधिक प्रारूप तैयार किये हों या न किये हों, मुझे यह जरूर लगता है कि इसके मौजूदा कथानक में, इस कथा के केन्‍द्रीय चरित्र चन्‍ना के जुझारू व्‍यक्तित्‍व की निर्मिति में और इसकी कथा-संरचना में उस मूल रूप को कायम रखते हुए भी कुछ सुधार-निखार कृष्‍णा जी को अवश्‍य करना पड़ा है। इसकी कथानायिका चन्‍ना का चरित्र अपनी जिजीविषा और जुझारूपन में उनके प्रमुख उपन्‍यासों ‘ज़िन्‍दगीनामा’, ‘दिलो दानिश’, ‘समय सरगम’ या ‘ऐ लड़की’ की कथा‍नायिकाओं से पूर्ववर्ती बेशक लगता हो, लेकिन उनकी प्रारभिक कथा-कृतियों की नायिकाओं, विशेष रूप से ‘डार से बिछु‍ड़ी’ की पाशो, ‘मित्रो मरजानी’ की मित्रो, ‘सूरजमुखी अंधेरे के’ की रत्‍ती और ‘तिन पहाड़’ की जया से बहुत आगे का और विकसित चरित्र है, जो अपने जीवन के महत्‍वपूर्ण निर्णय पूरी संजीदगी, विवेक और स्‍वायत्‍त सोच के साथ लेती है। निश्‍चय ही ‘चन्‍ना’ की परिष्‍कृत कथा के माध्‍यम से कृष्‍णा सोबती ने एक बड़े फलक पर अपनी कथा-परिकल्‍पना को प्रस्‍तुत किया है। उनके सामाजिक सरोकार सदा से बहुत व्‍यापक रहे हैं। वे स्‍वतंत्रता, समानता और सामाजिक न्‍याय की सशक्‍त पैरोकार होने के साथ भारतीय समाज की साझा संस्‍कृति की कद्र करने वाली सशक्‍त कथाकार के रूप में अपनी विशिष्‍ट पहचान के साथ सदा मुखर रही हैं। वे धर्म, जाति और साम्‍प्रदायिक भेदभाव से रहित एक बेहतर मानवीय व्‍यवस्‍था की व्‍यापक सोच रखती थीं। एक स्‍त्री कथाकार होते हुए उन्‍होंने कभी अपने को नारीवाद के सांचे तक सीमित नहीं किया और यह बात उनकी तमाम कथा-कृतियों से साबित है, जहां स्‍त्री के मौलिक अधिकारों, व्‍यक्तित्‍व विकास के अवसरों और उसकी मानवीय अस्मिता के लिए स्‍वयं स्‍त्री के अपने संघर्ष और मनोबल की जो निर्णायक भूमिका होती है, उसे कृष्‍णा सोबती ने कथानायिका चन्‍ना के माध्‍यम से बहुत प्रभावशाली ढंग से व्‍यक्‍त किया है – काश, इस उपन्‍यास पहला प्रारूप मूल कथा-कृति के रूप में तभी प्रकाशित हो गया होता तो कृष्‍णा सोबती की आगे की कथा-यात्रा शायद कुछ और ही होती !  

**  

-    71  247, मध्‍यम मार्ग, मानसरोवर, जयपुर – 302020

Emil : nandbhardwaj@gmail.com,  Mob. 9829103455

Friday, February 11, 2022

 


विभाजन की त्रासदी और ‘टूटी हुई जमीन’ 
 • नंद भारद्वाज
सन् 1947 में देश की आजादी के साथ विभाजन की जो त्रासदी घटित हुई, उससे प्रभावित लोगों की बची हुई जिन्दगी और उनकी स्मृतियों में वे घाव बरसों तक उतने ही ताजा और तकलीफदेह बने रहे। दरअसल मनुष्य के दैनंदिन जीवन और उसकी नियति को निर्धारित करने वाले ये कुछ सवाल ऐसे होते हैं, जो ताउम्र उन्हें विकल किये रहते हैं और हर मोड़ पर उनकी दारुण स्मृतियां उन्हें भीतर ही भीतर कुरेदती रहती हैं। जो उनकी अपनी जमीन थी, जिस पर वे अपनी फसलें बोते थे, जहां पीढ़ियों से उनका बसा-बसाया घर था, जीवन-मरण के किस्से और रिश्ते थे, उस परिस्थिति को बिना ठीक से जाने-समझे, बिना उसका सामना किये, उन्हें एकाएक छोड़कर निकल भागने के अलावा क्या और कुछ नहीं किया जा सकता था? क्या राजनीति की बिसात पर उस अनचाहे बंटवारे को मूक दर्शक बने देखते रहना ही उनकी नियति थी?
यही वे विकल कर देने वाले सवाल हैं, जिन्हें कथाकार हरदर्शन सहगल ने अपने उपन्यास ‘टूटी हुई जमीन’ के माध्यम से आजादी के पचासवें साल में एक बार फिर से उठाने की जरूरत महसूस की। अपनी अनेक कहानियों में वे इसी समस्या के विभिन्न पहलुओं पर बरसों से लिखते आए थे, स्वयं उनका परिवार भी इसी हादसे के दौर से गुजरा था और उन तमाम तरह के वाकयात के वे भी कहीं मूक साक्षी अवश्य रहे थे। विडंबना यह रही कि आजादी के पचास वर्ष बाद भी यह देश उन त्रासद स्थितियों से उबर नहीं पायाऔर यह बात एक संवेदनशील लेखक को कहीं गहरे में चिन्ति और आन्दोलित भी करती है। खासतौर से ऐसे माहौल में, जहां साम्प्रदायिक तनाव और विभाजन की वह विनाशकारी मनोवृत्ति आज भी वैसी ही बनी दिखाई देती है, जिसमें देश के कई शहर कस्बे और उनमें रहने वाले मानव समुदाय बंटे हुए नजर आते हैं तो यह बात एक सजग नागरिक के लिए कम चिन्ता की बात नहीं है, इनसे भी बड़ी चिन्तां यह कि आशंकाएं और अविश्वास लोगों की आदत बनते जा रहे हैं।
यह बात ऐतिहासिक तथ्य के रूप में साबित हो चुकी है कि दूसरे महायुद्ध के बाद थके हुए और पस्त साम्राज्यवादी मुल्कों में इतनी शक्ति बची ही नहीं थी कि वे अपने उपनिवेशों में उठ रहे राष्ट्रीय आन्दोलनों का मुकाबला कर अपनी प्रभुता बरकरार रख पाते। ऐसे में उन गुलाम मुल्कों की फिरकापरस्त ताकतों को उकसाकर उनको टुकड़ों बांट देना, उनके बीच वैमनस्य का जहर घोलते रहना और उन्हें बरसों तक आपस में उलझाए रखना, उनकी आजमाई हुई ऐसी दुर्नीति थी, जिसके शिकार वे मुल्क आजाद होकर भी आने वाले वर्षों में आर्थिक रूप से उनके गुलाम ही बने रहें। हिन्दुस्तान पर 190 साल तक राज करने वाले अंग्रेजों को यह बात भली भांति समझ में आ चुकी थी कि दक्षिण एशिया के इतने बड़े भू-भाग पर अपना दबदबा बनाए रखने के लिए इस उपमहाद्वीप की दो बड़ी कौमों हिन्दू और मुसलमानों के बीच तनाव बनाए रखे बगैर अपने राजनैतिक और औपनिवेशिक हितों की पूर्ति असंभव है। यह तनाव उनके चले जाने के बाद भी लंबे अरसे तक बना रहे, इसी के लिए कौम के नाम पर इस मुल्क के दो टुकड़े कर देना एक ऐसा दूरगामी दांव था, जिसकी आंच और असर से दोनों मुल्क आज तक उबर नहीं पाए हैं।
सन् 1947 का भारत विभाजन राष्ट्रीय आन्दोलन से उकताए हुए अंग्रेजों की कुटिल नीति और कुछ सत्ता लोलुप राजनेताओं की सोची बूझी चाल का ही हिस्सा था, जो कौमी हितों की रक्षा के नाम पर अपनी अलग सियासत कायम करने का मनसूबा लेकर अंग्रेजों की इस साजिश में शामिल हुए थे। ऐसे में सिन्ध, पंजाब और कश्मीर में रातों-रात विभाजन के नाम पर खिंच गई सीमा रेखा के आर पार हिन्दु और मुस्लिम बहुल हलकों में पुश्तों से रहने वाले हिन्दु और मुस्लिम परिवारों पर जो कहर का पहाड़ टूटा, उसका बयान करते हुए कलमकारों के हौसले और चेतना सुन्न पड़ गई थी। उस त्रासदी के बरसों बाद भी उस पर लिखना उनके लिए कतई सहज नहीं रहा, जिन्होंने कभी ख्वाब में भी नहीं सोचा था कि अपनी आबरू और जान की खातिर उन्हें अपनी जमीन और बसे-बसाए घरबार सें यों रातों-रात बेदखल होना पड़ेगा। ‘टूटी हुई जमीन’ उसी सिन्ध पंजाब से जान बचाकर निकल आए लाखों परिवारों में से एक किला शेखूपुरा के रेल्वे मुलाजिम बाबू जयदयाल के बिखरे हुए परिवार की त्रासद कहानी पर आधारित एक मार्मिक औपन्यासिक कृति है।
देश का बंटवारा घोषित हो जाने के साथ ही सीमा के दोनों ओर के हिन्दु और मुस्लिम परिवारों को जिस कौमी जुनून का सामना करना पड़ा, वह इतना अप्रत्याशित और रोमांचकारी था कि लोगों के सामने अपनी जान बचाकर निकल भागने के अलावा और कोई रास्ता ही नहीं बचा था। किला शेखूपुरा का यह मध्य वर्गीय हिन्दु परिवार ऐसी ही विकट परिस्थिति में अनेक कष्ट उठाता हुआ लायलपुर, लुधियाना और फिरोजपुर होता हुआ आखिर अंबाला के शरणार्थी शिविर पहुंचा और कुछ दिनों के लिए वहीं टिका रहा। परिवार के मुखिया बाबू जयदयाल चूंकि विभाजन से पहले भी अविभाजित रेल विभाग में टी टी के पद पर कार्यरत थे, इसलिए अंबाला के शरणार्थी शिविर में रहते हुए जब उन्होंने अपने महकमे से संपर्क किया और महकमे से उनकी सेवाएं बहाल करने की गुजारिश की तो आवश्यकक तहकीकात के बाद उन्हें मुरादाबाद रेल्वेे मुख्यालय से उसी विभाग में अपना कार्यभार संभाल लेने का आदेश मिल गया। उन्हें बरेली रेल मुख्यालय में फिर से नियुक्ति मिल गई। इस परिवार में बाबू जयदयाल की पत्नी जमना, तीन बेटे मनोज, कुंदन और हरमिलाप तथा एक ब्याहता बेटी अलका, किसी तरह अपनी जान बचाकर सुरक्षित निकल आए थे। अलका के पति रौशनलाल उसी हलके में फौज के सिपाही थे और विभाजन के बाद फौज में हुए बंटवारे के बतौर वे भी बंबई आ गये। यहां आने के बाद उन्होंने बरेली में कार्यरत अपने सास-ससुर के परिवार को खोज लिया और कुछ अरसे बाद स्वयं बरेली आए और अपनी पत्नी अलका को साथ लेकर बंबई लौट गये।
बाबू जयदयाल के बरेली में अपनी नौकरी में व्यवस्थित हो जाने के बाद उनके बड़े बेटे मनोज को भी वापस उसी रेल महकमें में नियुक्ति मिल गई, जो विभाजन से पहले उसी महकमे में काम करते थे। उसे भी रेल महकमे में वापस ले लिया गया और पहली पोस्टिंग बंबई रेल्वे में ही मिली, इसलिए वह भी बंबई चला गया। बाबू जयदयाल के एक और रेल्वे के साथी थे, बाबू केदारनाथ, जो अंबाला के शरणार्थी शिविर से उनके साथ हो लिये थे, वे भी अपनी बेटी सत्या और बेटे बंसी के साथ बरेली आ गये थे। दोनों परिवार कुछ दिन बरेली में साथ ही रहे, जहां मनोज और सत्याह के बीच प्रणय संबंध बना और आगे चलकर दोनों ने विवाह कर लिया।
कुंदन इस परिवार का सबसे चंचल, जीवंत और संवेदनशील लड़का था। उपन्यास का सारा घटनाक्रम और सोच एक तरह से इसी कुंदन को केन्द्र में रखकर रचा गया है। वही इस उपन्यास का नायक है, जो उम्र के हर मोड़ पर महत्वपूर्ण फैसले लेता रहा है। परिवार के विरोध के बावजूद वह अपनी किशोरावस्था की परिचित लड़की आकाशी से विवाह करने का साहसी फैसला लेता है, जो नाबालिग अवस्था में ही एक दहेज-लोभी परिवार में ब्याह दी गई थी, जहां उसके पति और घरवालों के अत्याचारों का सामना करते हुए जीवन बिता रही थी। परिवार के उसी तनावपूर्ण हालात में उसके पति की हत्या हो गई और इल्जाम आकाशी पर लगा दिया गया। उस पर मुकदमा चला और आखिरकार हत्या को परिस्थितिजन्य मानते हुए अदालत ने उसे दोषमुक्त कर दिया। इस तनावपूर्ण प्रकरण का आकाशी के मानस पर गहरा प्रभाव पड़ा और वह निराशा में डूब गई। आकाशी की इस मनोदशा को बदलने और उसे अपनी सोच में ढालने की कुंदन ने भरपूर कोशिश की। उसे अनेक शहरों में घुमाता हुआ आखिर वह पाकिस्तान की उस जमीन पर जा पहंचा, जो उसकी जन्मंस्थली थी, जिसकी स्मृतियां उसके जीवन का अटूट हिस्सा थीं और वही जमीन आज उसके लिए पराई हो गई थी। अपनी जमीन से बेदखल होने का यही दुख उपन्यास के अन्य पात्रों को भी उम्र भर सालता रहा।
इस उपन्यास के लेखक की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि सारा घटनाक्रम और त्रासद स्थितियां बयान करने के बावजूद कहीं भी वह भावना के अतिरेक में नहीं बहता, सोच के धरातल पर कहीं अपना संतुलन नहीं खोता और न किसी पक्ष की तरफ अनावश्यक झुकाव दिखाता। उसकी नजर में सीमा के दोनों तरफ रहने वाले हिन्दु्ओं और मुसलमानों का दुख एक जैसा है, वह किसी कौम के प्रति अतिरिक्त उत्तेजना का स्वर नहीं अख्तियार करता, बल्कि समस्या की जड़ में छिपे उन कारणों और परिस्थितियों को रेखांकित करने का प्रयत्न करता है, जिनकी वजह से दोनों ओर के लोगों को इस भीषण त्रासदी का सामना करना पड़ा और उससे किसी को कुछ हासिल नहीं हुआ, सिवाय उन सियासतदानों के, जिनके लिए इन्सानी जिन्दगियां महज मोहरा होकर रह जाती हैं।
हरदर्शन सहगल ने इस कृति के रचाव में जिस तरह की औपन्यासिक संरचना और भाषा का उपयोग किया है, उससे उनके सृजन में एक नयी तरह की चमक पैदा हो गई है। भाषा इतनी सहज और बयान के अनुकूल बन पड़ी है कि उसके प्रवाह में अलग अलग अध्यायों का बंटवारा शायद अवरोध ही उत्पन्न करता, इसलिए लेखक ने पूरे कथानक को देशकाल और परिस्थिति की दृष्टि से तीन बड़े खंडों में बांटकर प्रस्तुत किया है, जो इस कृति को नयी अर्थवत्ता प्रदान करते हैं।
हिन्दीृ कथा साहित्य में ‘टूटी हुई जमीन’ विभाजन की ऐतिहासिक त्रासदी पर बरसों तक याद रखा जाने वाला एक ऐसा जीवंत दस्तावेज है, जिसमें समूचा घटनाक्रम और उसके हेतु अपने सभी आवश्यक ब्यौरों के साथ बेहतर ढंग से दर्ज हैं।
***

Sunday, June 13, 2021

 


स्‍मृतिशेष रमेश उपाध्‍याय :  

महामारी के निर्मम समय में एक जीवंत रचनाकार का जाना

·        नन्‍द भारद्वाज

हिन्‍दी के प्रतिष्ठित और सक्रिय कथाकार रमेश उपाध्‍याय अब हमारे बीच नहीं रहे। अपनी जीवन-यात्रा के 79 वें वर्ष में कोरोना जैसी लाइलाज महामारी से जूझते हुए आखिर 23-24  अप्रैल की मध्‍यरात्रि को दिल्‍ली के ओखला ईएसआई हास्पिटल में उन्‍होंने प्राण त्‍याग दिये। निश्‍चय ही उनकी यह असामयिक मृत्‍यु सहज-सामान्‍य नहीं थी और न उनकी जीवनलीला को बचाने वाले प्रयत्‍न ही पर्याप्‍त। जीवन की इस अंतिम लड़ाई के समय उनके निकट संबंधी (साढ़ू) शम्‍सुल रहमान ने जिन शब्‍दों में दर्ज किया है, उसे पढ़-जानकर दिल दहल उठता है। यह बेहद दुखद और दुर्भाग्‍यपूर्ण है कि इस संवेदनहीन व्‍यवस्‍था के कमजोर स्‍वास्‍थ्‍य-तंत्र की शिथिलता और असहयोगपूर्ण रवैये के कारण उनके जीवन को बचाया नहीं जा सका। कोराना जैसी भयावह महामारी के निर्मम दौर में हिन्‍दी के एक जीवंत रचनाकार का इस तरह सही इलाज के अभाव में जाना सदा के लिए मन में एक गहरी टीस छोड़ गया है।  

***

एक आत्‍मीय लेखक मित्र और उससे भी कहीं अधिक बड़े भाई का दर्जा रखने वाले डॉ रमेश उपाध्‍याय से मेरी पहली मुलाकात सन् 1972 के आखिरी दिनों में जोधपुर में हुई थी। यों एक नये कथाकार के रूप में उनकी कहानियां और उपन्‍यास ‘दंडद्वीप’ मैं ‘सारिका’ और ‘धर्मयुग’ में पढ़ चुका था और अपने अभिन्‍न मित्र और राजस्‍थानी के वरिष्‍ठ कवि पारस अरोड़ा के माध्‍यम से यह पता लगा कि वे दोनों जोधपुर की प्रिंटिंग प्रैस में एक कंपोजीटर के रूप में साथ काम कर चुके हैं। उन्‍होंने यह भी बताया कि रमेश लंबे अरसे तक अजमेर के छापाखानों में काम करते रहे है। वे अप्रैल, 1960 में पहली बार कासगंज (उ प्र) से अजमेर आए थे और चार साल तक वहीं टिककर काम किया, वहीं से उनके कहानी लेखन की शुरूआत हुई और उनकी पहली कहानी ‘एक घर की डायरी’ वहीं की प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका ‘लहर’ में प्रकाशित हुई। यहीं काम करते हुए जब उनकी कहानियां राष्‍ट्रीय स्‍तर की पत्रिकाओं ‘सारिका’, ‘धर्मयुग’, साप्‍ताहिक हिन्‍दुस्‍तान’ आदि में लगातार छपने लगी तो एक लेखक के रूप में अपना भाग्‍य आजमाने वे दिल्‍ली पहुंच गये, जहां परिवार के कुछ परिचित लोग पहले से थे। वहां एक स्‍वतंत्र लेखक के साथ ही उन्‍होंने यहां की पत्रिकाओं के संपादकीय विभाग में काम करने के अवसर मिले, जो कि अधिक उत्‍साहवर्द्धक नहीं रहे। एक अच्‍छी उपलब्धि यह जरूर रही कि दिल्‍ली रहते हुए उन्‍होंने पत्राचार पाठ्यक्रम से बी ए की डिग्री जरूर हासिल कर ली। दिल्‍ली प्रैस और यहां की फ्रीलांसिंग में जिन्‍दगी के जो तल्‍ख अनुभव हुए वे लेखक रमेश उपाध्‍याय को एक संजीदा और जीवन के प्रति यथार्थवादी दृष्टिकोण विकसित करने में निश्‍चय ही निर्णायक साबित हुए। फ्रीलांसिंग लेखक के रूप में कार्य करने की संभावनाएं दिल्‍ली की बजाय चूंकि बंबई में बेहतर मानी जाती थी, इसलिए कुछ मित्रों के बुलावे पर वे बंबई पहंच गये। बंबई में उन्‍होंने करीब दो वर्ष तक फ्रीलांसिंग की, इस बीच वे ‘नवनीत’ के संपादकीय विभाग से भी जुड़े, लेकिन वहां की जीवन-शैली रास न आने और अपनी बची हुई पढ़ाई (एम ए) पूरी करने के लिए वे वापस अजमेर आ गये और यहीं एक स्‍वतंत्र लेखक के रूप में काम करते हुए अजमेर के राजकीय महाविद्यालय से हिन्‍दी में एम ए के लिए दाखिला ले लिया। अपने इसी दूसरे अजमेर प्रवास के दौरान सन् 1969 में सुधा जी से उनका विवाह संपन्‍न हुआ और सन् 1970 में प्रथम श्रेणी में एम ए की डिग्री हासिल कर अपने जीविकोपार्जन के लिए दिल्‍ली पहुंच गये, जहां कुछ ही अरसे बाद दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय के वोकेशनल स्‍टडीज कॉलेज में वे हिन्‍दी के प्राध्‍यापक नियुक्‍त होकर सदा के लिए दिल्‍लीवासी हो गये। रमेश जी के लेखन में मेरी अच्‍छी दिलचस्‍पी तो थी ही, पारस जी ने जब एक दिन आपसी बातचीत में उनके इस जीवन-संघर्ष के बारे में इतना-कुछ बताया तो उनमें मेरी दिलचस्‍पी और गहरी हो गई। मैंने पारस जी से आग्रह किया कि हमें किसी बहाने रमेश जी को एकबार जोधपर बुलाना चाहिए। हमने उनके लिए जोधपुर के साहित्यिक मित्रों के बीच एक गोष्‍ठी में रमेश जी को बुलाने का निश्‍चय किया और उन्‍हें निमंत्रण भेज दिया। उन दिनों स्‍वयं प्रकाश भी भीनमाल में थे, जो रमेश और पारस के अच्‍छे मित्र थे, हमने उन्‍हें भी जोधपुर आमंत्रित कर लिया और संयोग से दोनों ने आने की सहमति दे दी। जोधपुर में रमेश उपाध्‍याय और स्‍वयं प्रकाश से इस गोष्‍ठी के बहाने जो मुलाकात हुई और उनके लेखन पर जो चर्चाएं हुईं, उसने हमारे बीच अंतरंग मित्रता का एक ऐसा अटूट रिश्‍ता बना दिया कि वह अगले पचास साल बाद भी वैसा ही जीवंत, ताजा और अनौपचारिक बना रहा।

     रमेश उपाध्‍याय बेशक उम्र में मुझसे आठ साल बड़े थे और वे हिन्‍दी के एक प्रतिष्ठित लेखक थे, लेकिन वे इतने सहज, आत्‍मीय और हर लेखक को समानता के धरातल पर रखकर बात करने वाले व्‍यक्ति थे कि उनसे घंटों बात करने के बावजूद कभी छोटे-बड़े का लिहाज बीच में नहीं आया। रमेश जी के दिल्‍ली प्रवास के दौरान ही जुलाई, 1974 में यूपीएससी में अपने   इंटरव्‍यू के बहाने पहली बार मैं दिल्‍ली गया और उनके आग्रह पर उन्‍हीं के पास ठहरा, जहां सुधा भाभी का वत्‍सल स्‍नेह और नन्‍हीं बल्‍लू कॉमरेड (प्रज्ञा) की अठखेलियां देखने को मिलीं। बहुत शीघ्र ही हमारे बीच की यह दोस्‍ती दो परिवारों की दोस्‍ती में रूपान्‍तरित हो गई। दोनों के बच्‍चे अलग-अलग शहरों में रहते हुए भी सर्दी-गर्मी के अवकाशों और घरेलू आयोजनों में साथ हंसते-खेलते बड़े हुए है। रमेश हिन्‍दी के एकमात्र ऐसे लेखक हैं, जो मेरे वृद्ध माता-पिता और परिवार से मिलने मेरे मूल गांव माडपुरा (बाड़मेर) तक गये और हम एक-दूसरे के हर पारिवारिक आयोजन में व्‍यक्तिश: उपस्थित रहे। हमारी आत्‍मीय मित्रता का यह रिश्‍ता हमारे बीच चार दशक तक चले अनवरत पत्राचार में आज भी सुरक्षित है और यह पत्राचार मुख्‍यत: हमारे समय, समाज और साहित्‍य से जुड़े मसलों पर ही केन्द्रित होने के कारण मुझे आज भी बहुत कुछ जानने समझने का अवसर देता है, कभी संयोग बना और संभव हुआ तो उस पत्राचार को एक स्‍वतंत्र पुस्‍तक के रूप में हिन्‍दी के पाठकों को सुपुर्द करूंगा, जो रमेश उपाध्‍याय के साहित्यिक अवदान को समझने की दृष्टि से निश्‍चय ही महत्‍वपूर्ण है। 

** 

   एक रचनाकार के रूप में डॉ रमेश उपाध्‍याय विगत छह दशकों में साहित्‍य की विभिन्‍न विधाओं क‍हानी, उपन्‍यास, नाटक, कविता, आलोचना, संवाद, अनुवाद, रिपोर्ताज आदि के माध्‍यम से अपने समय-समाज की केन्‍द्रीय चिन्‍ताओं, वास्‍तविकताओं और अन्‍तर्विरोधों पर लगातार अपनी बात कहते रहे हैं। साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादन, साहित्‍य शिक्षण और लेखकों की सांगठनिक गतिविधियों से भी उनका सीधा जुड़ाव रहा है। अपनी इस  आठ दशक की जीवन-यात्रा में अब तक उनके डेढ़ दर्जन से अधिक कहानी संग्रह, चार उपन्‍यास, पांच नाटक, आठ नुक्‍कड़ नाटक, आठ आलोचनात्‍मक कृतियां, अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं की उनके द्वारा अनुदित दस महत्‍वपूर्ण अनुवाद पुस्‍तकें, उनके साक्षात्‍कारों की एक पुस्‍तक ‘बेहतर दुनिया की तलाश में’ तथा समसामयिक विषयों पर तीन दर्जन से अधिक संपादित पुस्‍तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।

   साहित्‍य लेखन की इसी निरन्‍तरता में 2019 में उनकी एक और नयी संवाद कृति आई थी -  'अपनी बात : अपनों के साथ', जो लेखक की जीवन-यात्रा पर केन्द्रित बातचीत के रूप में होते हुए भी उनकी आत्मकथा नहीं है। इससे पूर्व सन् 2013 में आई उनके आत्‍मकथात्‍मक एवं साहित्यिक विमर्शों की पुस्‍तक ‘मेरा मुझमें कुछ नहीं’ की भूमिका में उन्‍होंने कहा भी था कि वे कोई आत्‍मकथा नहीं लिखना चाहते और इसके पीछे उन्‍होंने अपने समय के बड़े चिन्‍तक जिगमुंग बाउमान की इसी धारणा का समर्थन किया था ‘वर्तमान पॉपूलर कल्‍चर ने आत्‍मकथात्‍मक लेखन को एक बाजारू चीज बना दिया है’, जिसने ‘निजी तथा सार्वजनिक के बीच का भेद मिटा दिया है।' इसीलिए उन्‍होंने अपनी कृति को शीर्षक दिया था ‘मेरा मुझमें कुछ नहीं’। रमेश जी के इसी मनोभाव का सम्‍मान करते हुए  उनके अपनों दोनों बेटियों प्रज्ञा-संज्ञा और दामाद राकेशकुमार ने एक विस्‍तृत  संवाद के माध्यम से उनकी जीवन-यात्रा और रचनाकर्म को जानने-समझने के लिए दस बैठकों में एक विस्‍तृत बातचीत का उपक्रम किया था। यह बातचीत वहां से शुरू होती है, जहां से लेखक रमेश उपाध्‍याय का बचपन, उनकी प्रारंभिक शिक्षा, किशोरवय में जीवन निर्वाह के संघर्ष और उनके लेखन बनने की शुरूआत होती है।

      असल में किसी लेखक का अपना जीवन-संघर्ष, रचनाकर्म और समय-समाज में उसकी भूमिका को लेकर जो अनकहा और अनजाना रह जाता है, वह या तो लेखक के आत्‍मबयान के  रूप में सामने आता है या उन ‘अपनों’ के साथ ऐसे व्‍यापक संवाद के माध्‍यम से संभव हो पाता है, जो उस जीवन-यात्रा और जद्दोजहद में अनवरत साझीदार रहे हों। रमेश उपाध्‍याय की जीवन-यात्रा, रचनाकर्म और उनके वैचारिक दृष्टिकोण पर केन्द्रित इस सार्थक संवाद को संभव बनाने में उनकी दोनों विदुषी पुत्रियों प्रज्ञा, संज्ञा और दामाद राकेश कुमार की निश्‍चय ही निर्णायक भूमिका रही है, जो न केवल उनकी जीवन यात्रा के अंतर्साक्षी और सहभागी रहे हैं, बल्कि उनकी रचनाशीलता के मर्म और बयानगी की बारीकियों को बेहतर ढंग से जानते समझते रहे हैं। 

     किसी सक्रिय और सजग रचनाकार की रचनाओं पर बात करना और उनके रचना-कर्म पर कोई मूल्य-निर्णय देना एक जोखिम-भरा काम है, खासतौर से ऐसा रचनाकार जो कहानी जैसी लोकप्रिय और असरदार विधा से जुड़ा हो और यह जानता हो कि वह क्या लिखता है, क्यों लिखता है और किसके लिए लिखता है – हिन्‍दी के जाने-माने कथाकार रमे उपाध्याय ऐसे ही रचनाकारों में आते हैं। वे पांच दशक से भी अधिक समय से कहानियां लिख रहे हैं (उनकी पहली कहानी एक घर की डायरीसन् 1962 में लहरमें प्रकाशित हुई थी) और वे आधुनिक हिन्दी कहानी की सुदीर्घ परम्परा के बीच अपनी एक अलग पहचान बनाए हुए हैं। इन छह दकों की कथा-यात्रा में उन्होंने कहानी के पाठकों को घोंसले’, ‘समतल’, शेष इतिहास’,  ‘कहीं जमीन नहीं’, ‘अर्थतंत्र’, ‘पानी की लकीर’, ‘माटीमिली’, ‘कामधेनु’, प्रौढ़ पाठशाला’, ‘राष्ट्रीय राजमार्ग’, ‘कल्पवृक्ष’, ‘देवीसिंह कौन’, ‘सफाईयां’, लाइलो’, ‘कहां हो प्यारेलाल’, ‘हंसो हिमा हंसो’, ‘एक झरने की मौत’, ‘डेल्टा’ ‘डॉक्यूड्रामा, ‘प्रेम के पाठ’, ‘त्रासदी माई फुट!‘, ‘काठ में कोंपल’  जैसी कितनी ही यादगार और महत्वपूर्ण कहानियां दी हैं,  वहीं ‘चक्रबद्ध’, ‘दण्‍डद्वीप’, ‘स्‍वप्‍नजीवी’ और ‘हरे फूल की खुशबू’ जैसे उपन्‍यासों के माध्‍यम से एक प्रगतिशील यथार्थवादी कथाकार के रूप में हिन्‍दी कथा-साहित्‍य में अपनी अलग पहचान बनाई है। 

            रमेश उपाध्‍याय की कहानियों और कथा-लेखन के नये प्रयोगों पर पिछले छह दशकों में बहुत से लोगों ने कई तरह की टिप्पणियां की हैं। वरिष्‍ठ कथाकार भीष्‍म साहनी ने सन् 1976 में प्रकाशित अपनी पुस्‍तक ‘आधुनिक हिन्‍दी उपन्‍यास’ में मुंशी प्रेमचंद के ‘गोदान’ से लेकर अद्यतन जिन बीस उपन्‍यासों की चर्चा करते हुए, उन पर समीक्षात्‍मक लेख और उपलब्‍ध कथाकारों से उनकी रचना-प्रक्रिया पर आलेख लिखवाए, उनमें रमेश उपाध्‍याय के ‘दण्‍डद्वीप’ को भी एक महत्‍वपूर्ण उपन्‍यास के रूप में शामिल किया गया था। इस उपन्‍यास की रचना-प्रक्रिया पर अपनी बात कहते हुए रमेश उपाध्‍याय ने इस पर आई उन आलोचनात्‍मक प्रतिक्रियाओं की विशेष चर्चा की, जिन्‍हें यह उपन्‍यास कुछ अधूरा-सा लगा था और लेखक से आग्रह किया गया था कि वे इस पर फिर से विचार करें और हो सके तो अगले संस्‍करण में कुछ आवश्‍यक सुधार करें। रमेश जी ने अपने इस लेख में उन प्रतिक्रियाओं के प्रति आभार प्रकट  करते हुए खुले मन से यह बात स्‍वीकार की और यह घोषणा भी की थी कि वे अगले संस्‍करण में कुछ आवश्‍यक सुधार अवश्‍य करेंगे। बरसों बाद सन् 2009 में जब शब्‍दसंधान प्रकाशन से इस उपन्‍यास के पुनर्प्रकाशन की योजना बनी तो रमेश जी ने अपने पूर्व निश्‍चय के अनुसार इसका पुनर्लेखन किया और अब वह संशोधित संस्‍करण प्रकाशित होकर हिन्‍दी पाठकों के हाथों में पहुंच गया है।

     इसी तरह अपने कथा-लेखन पर उठे विवादों पर स्वयं रमेश जी ने सन् 1987 में अपने कहानी संग्रह किसी दे के किसी शहर मेंकी विस्तृत भूमिका में उन तमाम सवालों और शंकाओं का बड़े धैर्य से तार्किक उत्तर दिया है। अपनी कहानियों पर आई सभी तरह की विवादी टिप्पणियों का हवाला देने और उनके प्रति खुले मन से आभार प्रकट करने के बाद कहानी के सम्बन्ध में अपना नजरिया सामने रखते हुए वे लिखते हैं - ‘‘मैं अपनी कहानी के माध्यम से अपने पाठक के साथ (और आलोचक के साथ भी, क्योंकि वह भी एक प्रबुद्ध पाठक ही होता है) जो रिश्‍ता बनाना चाहता हूं, वह समान जरूरतों पर आधारित बराबरी का जनवादी रिश्‍ता है। वह रिश्‍ता कुछ-कुछ इस प्रकार का है कि देखो भाई, मैं जिस समाज में रहता हूं, उसे मैंने इस रूप में देखा  है, और उसके बारे में मेरी समझ यह है। मेरी यह दृष्टि और समझ गलत भी हो सकती है, आगे चलकर बदल भी सकती है, लेकिन फिलहाल मेरी दृष्टि और समझ के मुताबिक सामाजिक यथार्थ यह है और मैं उसका प्रतिबिम्बन अपनी कहानी में इस ढंग से कर रहा हूं कि तुम उसे मेरी कहानी में देखने के बाद अपनी जि़न्दगी में देखो और उस पर गौर करो। गौर इसलिए करो कि मेरा और तुम्हारा सामाजिक यथार्थ एक है, उसको बदल कर बेहतर बनाने का काम मुझे और तुम्हें मिलकर करना है। लेकिन यह मत समझो कि मैं तुम्हारा नेता या पथप्रदर्शक हूं, तुम्हें कोई बना-बनाया रास्ता दिखा दूंगा या सोचने-समझने का काम तुम्हारे लिए मैं कर दूंगा।.......याद रखो कि तुम्हें बहकाने और भटकाने वाली शक्तियां भी समाज में सक्रिय हैं,  और वे इतनी प्रभावशाली भी हैं कि अगर तुम सचेत नहीं रहे तो वे तुम्हें अपने प्रभाव में लेकर बहा ले जा सकती हैं और कहीं-का-कहीं पहुंचा दे सकती हैं। यह काम कला, कविता और कहानी के माध्यम से भी किया जाता है,  इसलिए कहानी को कहानी ही समझो, अपनी जिन्दगी नहीं।’’ और कहानी के बारे में अपनी इसी सोच-समझ को लेकर चलते हुए वे हिन्दी पाठकों को अब तक तेरह कहानी संग्रहों के माध्यम से करीब दो सौ कहानियां सुपुर्द कर चुके हैं।

रमेश उपाध्‍याय के नौंवे कहानी संग्रह कहां हो प्यारेलालकी कहानियों पर अपनी बात कहते हुए मैंने लिखा था कि ‘‘आज उनका लेखन जिस उत्कर्ष पर है, वहां यह कहना तो कठिन है कि उनकी कहानियों की आगे की  क्या दिशा रहेगी, या कि उनके कथा-लेखन की केन्द्रीय चिन्ताओं का आगे क्या स्वरूप बनेगा, लेकिन यह बात निःसंकोच कही जा सकती है कि एक जागरूक रचनाकार के रूप में अपने समय और समाज की चिन्ताओं और समस्याओं पर उनकी पकड़ उत्तरोत्तर गहरी और मजबूत हुई है, रचना उनके लिए अपनी कलात्मक प्रतिभा साबित करने की महत्वाकांक्षा भर नहीं है, बल्कि वे सामाजिक रूपान्तरण के एक ठोस माध्यम के रूप में भी उसे अंगीकार करते रहे हैं। नये प्रयोगों के प्रति भी वे विशेष रूप से आग्रहशील रहे हैं और इन्हीं प्रयोगों के कारण कई बार उन्हें विरोधी आलोचना का भी सामना करना पड़ा है, लेकिन इस आलोचना से अन्ततः उन्हें नई ऊर्जा ही प्राप्त हुई है।’’ अपनी इस टिप्पणी के बावजूद मैं ही क्या, रमेश उपाध्याय की कहानियों के सचेत पाठकों को उनके लेखन की दिशा और उनकी केन्द्रीय चिन्ताओं के स्वरूप को लेकर शायद ही कोई दुविधा रही हो।

     रमेश उपाध्‍याय संयोगवश हिन्‍दी लेखन के ऐसे दौर में सर्वाधिक सक्रिय लेखक के रूप में उपस्थित रहे हैं, जिन्‍होंने अपने समय के साहित्यिक आन्‍दोलनों को जहां अपने रचनात्‍मक लेखन से पुष्‍ट किया, वहीं अपने प्रगतिशील वैचारिक दृष्टिकोण के अनुरूप साहित्यिक मंच बनाकर, पत्रिकाएं निकालकर तथा साहित्‍य संगठनों में अपनी सक्रिय भागीदारी निभाते हुए उन्‍हें सार्थक दिशा देने का प्रयत्‍न भी किया है। अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता और उसूलों पर कायम रहते हुए न केवल उन्‍होंने पुनरुत्‍थानवादी और पूंजीवादी विचारों का डटकर विरोध किया है, बल्कि अपने हमविचार लेखकों की महत्‍वाकांक्षाओं और वैचारिक असहमतियों का भी दृढ़ता से सामना किया है। सातवें दशक में जहां वे हिन्‍दी की लोकप्रिय व्‍यावसायिक पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाले चर्चित लेखक रहे, वहीं आठवें दशक की शुरूआत में वैचारिक मतभेद के चलते उन पूंजीवादी संस्‍थानों की पत्रिकाओं से अलग भी हो गये और उस समय के लघु पत्रिका आन्‍दोलन में अपनी महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाई।

          एक युवा लेखक के रूप में उनके कहानी लेखन की शुरूआत बेशक नई कहानी आन्‍दोलन के दौर में हुई और कुछ अरसे तक वे उससे जुड़े भी रहे, लेकिन जल्‍दी ही उस आन्‍दोलन की सीमाओं को पहचानते हुए वे उससे अलग भी हो गये। सन् 1971 में नई कहानी आन्‍दोलन से अलग जिन युवा लेखकों ने यथार्थवाद के प्रति आग्रह रखते हुए जिस नये ‘समांतर कहानी’ आन्‍दोलन की शुरुआत की, उसमें जितेन्‍द्र भाटिया और इब्राहीम शरीफ के साथ रमेश उपाध्‍याय की प्रमुख भूमिका रही थी। बाद में जब उस आन्‍दोलन को नई कहानी के पैरोकार कमलेश्‍वर ने उसी व्‍यावसायिक घराने की पत्रिका ‘सारिका’ को मुखपत्र बनाकर अपनी महत्‍वाकांक्षा के लिए उसे हथिया लिया, तो उनसे भी वैचारिक असहमति के चलते वे समांतर से अलग हो गये। नई कहानी और समांतर कहानी आन्‍दोलन के साथ जुड़ने के बावजूद वाम विचार और प्रगतिशील साहित्‍य आन्‍दोलन के प्रति उनका रुझान बराबर बना रहा और अंतत: वे उस आन्‍दोलन से और गहरे स्‍तर पर आ जुड़े। उन्‍होंने यह भी बताया कि उसी वामपंथी रुझान के चलते उन्‍हें ‘साप्‍ताहिक हिन्‍दुस्‍तान’ की नौकरी छोड़नी पड़ी। मुंबई से दिल्‍ली आकर पत्रकारिता से जुड़ने के साथ ही उन्‍होंने यहां अपने हमविचार साथियों आनंद प्रकाश, राजीव सक्‍सेना, कर्णसिंह चौहान आदि के साथ जिस जनवादी विचार मंच की शुरुआत की, उसकी आगे चलकर जनवादी लेखक संघ के निर्माण में अहम् भूमिका रही। इस जनवादी मंच की गतिविधियों का विस्‍तार करते हुए देश के अन्‍य भागों और प्रमुख नगरों में भी इस विचार से जुड़े लेखकों की गोष्ठियां, सेमीनार और लेखक शिविर आयोजित हुए, जिनमें रमेश जी और उनके साथियों की प्रमुख भूमिका रही। इन संगोष्ठियों में साहित्‍य में यथार्थवाद, साहित्‍य के सामाजिक सरोकारों और साहित्‍य के इतिहास लेखन पर गंभीर चर्चाएं हुईं।

           यह रमेश उपाध्‍याय ही थे, जिनकी सलाह और सक्रिय भागीदारी से हम राजस्‍थान के लेखकों ने भी जोधपुर में जनवादी लेखक मंच की शुरुआत की और एक राष्‍ट्रीय स्‍तर का सेमीनार आयोजित किया, जिसमें प्रदेश के अनेक महत्‍वपूर्ण लेखकों के साथ‍ स्‍वयं रमेश उपाध्‍याय एक प्रमुख प्रतिभागी और प्रेरक के रूप में उपस्थित रहे। इसी सेमीनार में स्‍वयं प्रकाश, हरीश भादानी, शिवराम आदि अनेक वरिष्‍ठ लेखकों ने भाग लिया। कालांतर में इसी जनवादी मंच के लेखक सन् 1982 में राष्‍ट्रीय स्‍तर पर गठित जनवादी लेखक संघ से जुड़ गये। उसी दौर की गतिविधियों और कश्‍मकश पर रमेश जी ने आयोजनों और बहसों के अपने साहित्यिक संवादों में जो ब्‍यौरे दिये हैं, वे प्रगतिशील और जनवादी साहित्‍य आन्‍दोलन की उस ऐतिहासिक पृष्‍ठभूमि को समझने की दृष्टि से निश्‍चय ही महत्‍वपूर्ण हैं। यही वह दौर था जब वाम, पहल, कथा, भंगिमा, वातायन, कलम, उत्‍तरार्द्ध, क्‍यों, युग परिबोध, प्रतिमान जैसी पत्रिकाओं के माध्‍यम से वाम-जनवादी लेखन का उभार खुलकर सामने आया। यह बात कम महत्‍वपूर्ण नहीं है कि इन लघु पत्रिकाओं से प्रगतिशील सोच वाले तमाम नये पुराने लेखक जुड़कर इस आन्‍दोलन को गति प्रदान कर रहे थे। सन् 1971 के बांदा सम्‍मेलन के बाद से प्रगतिशील लेखक संघ में भी नयी सक्रियता बढ़ी। रमेश जी ने अपनी बातचीत में उस दौर में लेखक संगठनों के साथ इप्‍टा, जन नाट्य मंच जैसे अन्‍य सांस्‍कृतिक संगठनों की गतिविधियों में अपनी और प्र‍गतिशील लेखकों की भूमिका की काफी विस्‍तार से चर्चा की है। 

    रमेश उपाध्‍याय की जीवन यात्रा और साहित्‍य-कर्म के तीन महत्‍वपूर्ण पक्ष हैं – पहला उनका संघर्षपूर्ण बचपन तथा एक संवेदनशील लेखक के रूप में उनकी विकास यात्रा, दूसरा साहित्‍य और समाज के विचारधारात्‍मक संघर्ष में एक लेखक के रूप में उनकी अपनी भागीदारी और तीसरा उनके संपादन में निकली साहित्यिक पत्रिका ‘कथन’ के माध्‍यम से आज के सवालों और भूमंडलीय यथार्थवाद की पृष्‍ठभूमि को समझते-समझाते एक बेहतर दुनिया के सपने को सजीव बनाए रखने की अनवरत जिजीविषा। अपनों के साथ संपन्‍न हुई इन दस बैठकों में इन्‍हीं तीन महत्‍वपूर्ण पक्षों पर उनके विचार इस बातचीत के केन्‍द्र में रहे हैं। इस बातचीत में उन्‍होंने आधुनिकतावाद बनाम यथार्थवाद, अनुभववाद बनाम यथार्थवाद, आलोचनात्‍मक यथार्थवाद बनाम समाजवादी यथार्थवाद तथा भूमंडलीय यथार्थवाद जैसी अवधारणाओं पर खुलकर अपना दृष्टिकोण प्रस्‍तुत किया है। साहित्‍य में यथार्थ और कल्‍पना की सनातन बहस से जुड़े एक सवाल के प्रत्‍युत्‍तर में अतीत के स्‍वर्णिम युग की कल्‍पना के बरक्‍स भविष्‍य के समतामूलक समाज की अवधारणा पर बल देते हुए वे कहते हैं – “अतीत में किसी स्‍वर्णिम युग की कल्‍पना करके मानवजाति को उसकी ओर लौट चलने के लिए प्रेरित करने वालों को लगता है कि मानवता का भविष्‍य अंधकारमय और भयावह है, जबकि इतिहास इस मिथ्‍या धारणा का ख्ंडन करके हमें यह बताता है कि मनुष्‍य उत्‍तरोत्‍तर सामाजिक प्रगति करता हुआ एक समतामूलक न्‍यायपूर्ण समाज-व्‍यवस्‍था की ओर बढ़ रहा है। ये दोनों धारणाएं दरअसल दो भिन्‍न और परस्‍पर विरोधी विचारधाराओं पर आधारित हैं, जिनसे लेखकों की कल्‍पनाएं निर्देशित होती हैं। समाज के ऐतिहासिक विकास की गति और दिशा के अनुकूल विचारधारा और भविष्‍योन्‍मुखी कल्‍पना से प्रगतिशील चिन्‍तन और यथार्थवादी रचना का जन्‍म होता है, जबकि उसके प्रतिकूल विचारधारा और अतीतोन्‍मुखी कल्‍पना से प्रतिगामी चिन्‍तन और गैर-यथार्थवादी रचना का।" इसी बहस के संदर्भ में हिन्‍दी कथा साहित्‍य में आए पॉजिटिव हीरो को काल्‍पनिक कहकर उसका विरोध करने वालों की सोच के मूल में निहित उस मानव-द्रोही साजिश की ओर संकेत करते हुए वे कहते हैं – “यह शीतयुद्ध की राजनीति के अंतर्गत पतनशील बुर्जुआ लेखकों और आलोचकों द्वारा फैलाया गया एक भ्रामक विचार है, जिसके आधार पर साहित्‍य में ‘लघु मानव’ और ‘आम आदमी’ के नारे दिये गये और रचना-प्रक्रिया से कल्‍पना तत्‍व को एकदम खारिज करने की बेतुकी बातों के साथ यथार्थवाद के नाम पर साहित्‍य, चित्रकला और सिनेमा के क्षेत्रों में कई यथार्थवाद विरोधी आन्‍दोलन चलाये गये हैं। वास्‍तव में यथार्थ और कल्‍पना में विरोध पैदा करना उन सृजन-विरोधी और मानव-द्रोही लोगों की साजिश है, जो भविष्‍य के नये समाज से, नये मनुष्‍य से और समाजवाद के अंतर्गत उसके सुखी और सुन्‍दर जीवन की कल्‍पनाओं से मनुष्‍य को वंचित रखना चाहते हैं।" ‘कथन’ की दो पारियों और उनके बीच जनवादी लेखक संघ की दिल्‍ली स्थित राष्‍ट्रीय कार्यकारिणी के कुछ महत्‍वाकांक्षी सदस्‍यों के रमेश उपाध्‍याय के प्रति अपनाए गये अफसोसजनक रवैये के कारण जलेस संगठन के साथ जुड़कर वह जो बेहतर काम कर सकते थे, उसकी संभावनाएं जरूर सीमित हो गईं, लेकिन रमेश उपाध्‍याय ने ‘कथन’ पत्रिका के माध्‍यम से यथार्थवादी साहित्‍य की अवधारणा और भूमंडलीय यथार्थवाद को लेकर जारी वैश्विक बहस को जिस तरह हिन्‍दी अध्‍येताओं के लिए सहज-सुलभ बनाया है, वह अपने आप में संजीदा साहित्‍य कर्म की एक मिसाल है।

     रमेश जी से विस्‍तृत संवाद की उनकी पुस्‍तक ‘अपनी बात अपनों के साथ’ की नौवीं बैठक में प्रश्‍नकर्ताओं ने जिस तरह उनकी संघर्षशील जीवन यात्रा को गीता में वर्णित ‘नित्‍यसन्‍यासी’ की अवधारणा से जोड़ते हुए सवालों की एक श्रृंखला उनके सामने प्रस्‍तुत की, उन प्रश्‍नों के उत्‍तर में रमेश जी के जीवन के वे तमाम अकथ प्रसंग और ब्‍यौरे खुलकर सामने आ गये, जिन हालात में इस रचनाकार ने अपनी रचनाशीलता को आकार दिया है। इसी संघर्ष यात्रा में रमेश जी ने अपने जीवन-अनुभव से अर्जित उस सत्‍य को भी जाना और उसे उजागर किया, जो उनकी आगे की जिन्‍दगी में एक दिशा-निर्देश की तरह कायम रहा। वे कहते हैं – “यथार्थ उतना ही नहीं है, जितना और जैसा आज दिखता है। यथार्थ उसमें निहित संभावना भी है, जिससे भविष्‍य में वह आज से बेहतर बन सकता है।" इसी जीवन-सूत्र को आधार बनाकर वे अपनी यथार्थवाद संबंधी वैज्ञानिक अवधारणा पर आज भी कायम हैं और उसी नजरिये से साहित्‍य और भूमंडलीय यथार्थ से जुड़े आज के सवालों की समग्र व्‍याख्‍या प्रस्‍तावित करते हैं।

अपनी नयी आलोचना कृति ‘मुक्तिबोध का मुक्तिकामी स्‍वप्‍नद्रष्‍टा’ के माध्‍यम से रमेश उपाध्‍याय ने भूमंडलीय यथार्थवाद की अवधारणा से जुड़े उन तमाम सवालों पर गहराई से विचार किया है, जो स्‍वयं उनके जीवन और साहित्‍य-कर्म के केन्‍द्रीय सरोकार बने रहे। अपने इसी दृष्टिकोण को आधार बनाकर उन्‍होंने मुक्तिबोध जैसे कालजयी कवि की कविताओं का ऐसा विशद कथा-पाठ तैयार किया, जो उनके मुक्तिकामी स्‍वप्‍नद्रष्‍टा के संघर्ष को गहरी संगति देता है। एक समर्थ कथाकार के रूप में उन्‍होंने इस अनूठे विवेचन के माध्‍यम से मुक्तिबोध की उन जटिल और संश्लिष्‍ट शिल्‍प वाली कविताओं के भीतर निहित उस काव्‍य-नायक के जीवन-संघर्ष और उस दौर के भूमंडलीय यथार्थ को इन कविताओं में विन्‍यस्‍त कथा-पाठ के माध्‍यम से व्‍याख्‍यायित किया है, उससे मुक्तिबोध की ये कविताएं आम पाठक के लिए सहज बोधगम्‍य हो पाती हैं। रमेश जी ने अपनी इस विवेचन पद्धति के माध्‍यम से मुक्तिबोध की कई लंबी कविताओं और विशेष रूप से ‘अंधेरे में’ कविता का जो कथा-पाठ प्रस्‍तुत किया है, वह वाकई इन कविताओं के केन्‍द्रीय चरित्र (मुक्तिकामी स्‍वप्‍नद्रष्‍टा) के संघर्ष को अपने पूरे आकार और डिटेल्‍स के साथ एक रोचक कहानी की तरह बयान कर देता है और वह भी स्‍वयं कवि के ही शब्‍द-संयोजन और शैली-शिल्‍प को सुरक्षित रखते हुए, ताकि पाठक उसे कवि के मूल पाठ के साथ मिलान करके देख सके। इस बातचीत में मुक्तिबोध की स्‍वप्‍न कथाओं, फैंटेसी शिल्‍प और यूटोपिया की अवधारणा से जुड़े सवालों के साथ ही स्‍वयं रमेश उपाध्‍याय के अपने रचनाकर्म में  सामाजिक परिवर्तन के प्रति जिस आशावादी दृष्टिकोण की अभिव्‍यक्ति हुई है, उसी पर जब  प्रज्ञा और राकेश ने उनके सामने यह शंका रखी कि इस आशावाद का आधार क्‍या है, याकि वह बेहतर व्‍यवस्‍था कब और कैसे कायम होगी, तो रमेश जी अपने उसी विश्‍वास पर कायम रहते हुए यही कहते हैं कि “इसके बारे में कोई भविष्‍यवाणी नहीं की जा सकती, लेकिन कैसे बनेगी, इसका कुछ अनुमान भूमंडलीय यथार्थ के आधार पर लगाया जा सकता है। मेरा अनुमान है कि वह बेहतर व्‍यवस्‍था किसी भूमंडलीय क्रान्ति से बनेगी। अब तक दुनिया में जो क्रान्तियां हुई हैं, उनका आधार राष्‍ट्रीय रहा है, जैस फ्रांस की क्रान्ति, रूस की क्रान्ति, चीन की क्रान्ति। मार्क्‍सवाद ने वैश्विक क्रान्ति का स्‍वप्‍न देखा और उसका आधार राष्‍ट्रीयता को नहीं, अन्‍तर्राष्‍ट्रीयता को बनाया। इसलिए समाजवाद का एक आधार अन्‍तर्राष्‍ट्रीयतावाद रहा। --- पूंजीवादी भूमंडलीकरण ने राष्‍ट्र की अवधारणा को हिला दिया है और अन्‍तर्राष्‍ट्रीयता की जगह भूमंडलीयता के आधार पर वैश्विक पूंजीवाद की जगह वैश्विक समाजवाद की व्‍यवस्‍था को आवश्‍यक और संभव बना दिया है। मेरा खयाल है कि अब जो क्रान्तियां होंगी, वे राष्‍ट्रीय स्‍तर से आगे बढ़कर वैश्विक या भूमंडलीय स्‍तर की होंगी।" ऐसे स्‍वप्‍नदर्शी, प्रगतिशी, जनवादी और लोकतांत्रिक मूल्यों में अटूट आस्था रखने वाले  सजग-सक्रिय रचनाकार का इस कोरोना महाव्‍याधि की चपेट में आकर  अकस्‍मात अपनों के बीच से सदा के लिए उठ जाना, परिवार, मित्रों और साहित्‍य-समाज के लिए ऐसा आघात है, जिसे झेल पाना कतई सहज नहीं है।  

***   

मोबाइल – 9829103455

Email : nandbhardwaj@gmail.com