Saturday, July 23, 2022

 


बदलती स्‍त्री-छवि और ‘चन्‍ना’ का जुझारू किरदार

* नन्‍द भारद्वाज

कृष्‍णा सोबती अपनी अलग कथा-भाषा और कहन की विलक्षण शैली के लिए विख्‍यात हिन्‍दी की अनूठी कथाकार रही हैं। उन्‍होंने अपना पहला उपन्‍यास ‘चन्‍ना’ सन् 1952 में अंतिम रूप से तैयार कर इलाहाबाद की जानी-मानी प्रकाशन संस्‍था भारती भंडार को सौंप दिया था, लेकिन इस उपन्‍यास की कथा-भाषा को लेकर लेखक और प्रकाशक के बीच उपजी असहमति के कारण यह प्रकाशन-प्रक्रिया तब पूरी नहीं हो सकी और इसका प्रकाशन बरसों तक टलता रहा। जैसा स्‍वयं कृष्‍णा जी ने बताया कि प्रकाशन संस्‍थान ने उसे प्रकाशित करने के दौरान उनकी भाषा में आए कुछ स्‍थानीय शब्‍दों का अपनी समझ से जिस तरह का हिन्‍दीकरण करना चाहा, वह उन्‍हें कतई स्‍वीकार्य नहीं था और उन्‍होंने स्‍वयं उपन्‍यास का प्रकाशन रुकवा दिया। तब तक उपन्‍यास के तीन सौ पृष्‍ठ छप चुके थे और प्रकाशक का यही आग्रह था कि उसे वे किताब के अगले संस्‍करण में उन शब्‍दों‍ को यथावत कर देंगे और मौजूदा संस्‍करण को उन्‍हीं संशोधनों के साथ छपने दिया जाय, लेकिन कृष्‍णाजी इसके लिए राजी नहीं हुईं। उन्‍होंने उन छपे हुए पृष्‍ठों की कीमत प्रकाशक को चुका दी और उपन्‍यास की पांडुलिपि वापस लेकर उसे डिब्‍बे में बंद कर दिया। उसकी आंचलिक कथा-भाषा पंजाबी मिश्रित हिन्‍दी को लेकर लेखक और प्रकाशक के बीच उपजे उस अनसुलझे विवाद के चलते उसका प्रकाशन बीच ही में अटक गया। इसके बाद कृष्‍णा जी अपनी और कृतियों के लेखन में जुट गईं और वर्षों तक यह पांडुलिपि उसी तरह बक्‍से में बंद पड़ी रही। बीच में राजकमल प्रकाशन ने जब उसे यथावत प्रकाशित करने की इच्‍छा जा‍हिर की तो कृष्‍णाजी ने इसे दुबारा देखा भी, लेकिन वे स्‍वयं तय नहीं कर पाईं कि इसे इसी रूप में छपने दिया जाय, बल्कि जब राजकमल ने अधिक आग्रह किया तो इसी कृति की भावभूमि को आधार बनाकर उसी देशकाल, आंचलिक परिवेश और कथा के प्रमुख चरित्रों को लेकर नये सिरे से एक और उपन्‍यास लिखना आरंभ कर दिया, जो ‘ज़िन्‍दगीनामा’ के रूप में सन् 1979 में प्रकाशित हुआ। ‘ज़िन्‍दगीनामा’ के बाद भी उनके कई उपन्‍यास प्रकाशित हुए, लेकिन ‘चन्‍ना’ का प्रकाशन उसी तरह टलता रहा, जिसे याद करते हुए वे यह भी कहती रहीं कि ‘इस पहली कृति का उस समय अप्रकाशित रहना ही ‘ज़िन्‍दगीनामा’ के लेखन का कारण बना।' बरसों बाद उनके जीवन के अंतिम वर्ष (सन् 2019) में उसी शीर्षक से प्रांजल हिन्‍दी में प्रकाशित ‘चन्‍ना’ उपन्‍यास को पढ़ते हुए पहली आशंका तो यही होती है कि क्‍या यह वही ‘चन्‍ना’ उपन्‍यास है, जो कृष्‍णा सोबती ने सन् 1952 में तैयार किया था, और जो बिना किसी हेर-फेर के मौजूदा रूप में प्रकाशित होकर पाठकों के हाथों में पहुंच पाया है !  

     मौजूदा रूप में प्रकाशित ‘चन्‍ना’ की भूमिका में कृष्‍णाजी ने उस पुराने प्रकाशन-प्रसंग को याद करते हुए अपनी कथा-भाषा के संबंध में जो बात बेबाकी से पाठकों के सामने रखी है, उसे वे अपने कुछ साक्षात्‍कारों में भी बयान कर चुकी हैं। यहां इस भूमिका में उन्‍होंने अपनी कथा-भाषा के बारे में कुछ और सटीक बातें भी कही हैं, जो वाकई विचारणीय हैं। वे लिखती हैं – “चन्‍ना’ के संदर्भ में सारे वाद-विवाद की बात सोचते हुए मैं आज भी विश्‍वास करती हूं कि भाषा की जड़ों को हरियानेवाला रसायन, जो उसे ज़िन्‍दा रखता है, उसे सम्‍पन्‍न करता है, वह ‘लोक’ का स्रोत है। भाषाओं के साथ-साथ भाषाएं और बोलियां विकसित होती हैं और आपसी टकराव से समृद्ध होती हैं। और समय में हो रहे परिवर्तनों को भी साधती हैं। अब और तब की हिन्‍दी में बहुत अन्‍तर है। आज की हिन्‍दी ने दूसरी भारतीय भाषाओं और बोलियों से शब्‍द लेने शुरू कर दिये हैं, जिससे उसका कोष समृद्ध हुआ है। हम कृतज्ञ हैं रेणुजी के, जिन्‍होंने देश के खेतिहर संवाद को ‘मैला आंचल’ में प्रस्‍तुत किया और बोलियों की संक्षिप्‍तता को साहित्यिक स्‍वरूप दे दिया। भाषायी माध्‍यम से ही इतिहास का समय लोकमानस की भागीरथी के साथ बहता है। शब्‍द की सत्‍ता सर्वोत्‍तम है। हर शब्‍द का एक जिस्‍म, एक रूह और एक संस्‍कारी पोशाक होती है। इसीलिए लेखक समाज अपनी पंक्तियों को विचार से गूंथता हुआ – सावधान रहता है।"

   ‘चन्‍ना’ के इस प्रकाशन प्रकरण को लेकर दो बातों की पड़ताल जरूरी लगती है, जिसमें  पहली है, मौजूदा रूप में प्रकाशित ‘चन्‍ना‘ की भाषा और दूसरी है ‘चन्‍ना‘ और ‘ज़िन्‍दगीनामा’ के कथानकों और उनकी कथा-भाषा के बीच का अंतर। यद्यपि पृष्‍ठसंख्‍या की दृष्टि से दोनों कृतियों का कलेवर लगभग समान है, लेकिन कथा-भाषा की दृष्टि से दोनों में जमीन-आसमान का अंतर है। नमूने के बतौर दोनों कृतियों के दो आरंभिक अंश लिये जा सकते हैं, जिनका भाषायी स्‍वरूप दोनों में क्रमश: उसी तरह रखा गया है :

“शाहजी शीघ्रता से पौड़ियां चढ़ गए। ऊपर देखा। बेचैन सी ख़ामोशी। दास-दासियों की हल्‍की आवाज़ें। आंगन में रखी बतासों और मिठाइयों की चंगेरें मानो किसी नन्‍ही-सी आवाज़ की प्रतीक्षा में हों। बड़े घर की मालकिन कहीं दिख नहीं रहीं। शाहजी को कुछ घबराहट ही न थी। भगवान भला करे। बंद किवाड़ों से निकलकर एक नन्‍हा–सा, पहला-पहला स्‍वर आंगन में फैल गया। शाहजी विभोर हो उठे। यह मीठी आवाज़। अब उनके घर में किलकारियां बह-बह जाएंगी। दास-दासियों के स्‍वर गूंज उठे – “बधाइयां बधाइयां  बड़ा-बड़ा इकबाल "

    शाहनी अंदर से निकलीं। चेहरे पर घबराहट थी, आंखों में निराशा। हाथ के संकेत से सबको चुप करती हुई घूमीं तो शाहजी का स्‍वर सुनकर ठिठक गईं, “सुनो तो।" चिन्तित-सी बोलीं, “शीला की तबियत कुछ अच्‍छी नहीं, "फिर अनचाहे शब्‍दों को संभालकर कहा, “लड़की है।"

(चन्‍ना, पृष्‍ठ – 9)

और इसके बरक्‍स ‘ज़िन्‍दगीनामा’ की भाषा की यह रंगत देखिये -  

“शरद पुण्‍या की रात।

पिंड के कच्‍चे कोठे चम्‍मचम्‍म चमकने लगे। दमकने लगे। चान्‍ननी ने सजरी लिपाई से खेत-खलिहान रूख-वृख सब उजरा-उजला दिए। कुओं के मिट्ठड़े सुर झलमल-झलमल हियरों को हुलसाने लगे। बेटों-बच्‍चड़ों के साथ घरों को लौटती बलदों की जोड़ियां जी की तृखा-प्‍यास जगाने लगीं। चूल्‍हों से उठती उपलों की कच्‍ची गंध हर कोठे हर चौके को महकाने-लहकाने लगी।

रब्‍बा, ये सोहणे समय मनुक्‍खों के साथ लगे रहें। सजे रहें। चिट्टी दूध चांदनी में तुरकी बुलबुलो की डार पंख फैलाए अपनी लंबी उडारियों पर।"

(ज़िन्‍दगीनामा,  पृष्‍ठ – 17)         

     उक्‍त दोनों उदाहरणों में दोनों कृतियों की भाषा का अंतर अपने-आप में स्‍पष्‍ट है। ‘चन्‍ना‘ की भाषा जहां शुद्ध हिन्‍दी या बोलचाल की हिन्‍दुस्‍तानी रूप लिये है, वहीं ‘ज़िन्‍दगीनामा’ की भाषा पंजाबी मिश्रित आंचलिक बोलचाल हिन्‍दी, जो पूरे उपन्‍यास के पाठ में और भी आंचलिक रूप  ग्रहण करती जाती है, जिस पर टिप्‍पणी करते हुए हिन्‍दी के कई विद्वानों ने इसकी संप्रेषणीयता पर अपनी शंकाएं प्रकट की हैं। ‘चन्‍ना’ के पहले प्रकाशन पर चर्चा करते हुए कृष्‍णा सोबती ने रणवीर रांग्रा के साथ अपनी बातचीत में कहा है कि‍ “भारती भंडार ने लेखक को बिना प्रूफ दिखाए उपन्‍यास छापना शुरू कर दिया। दर्जनों शब्‍द सुधार दिए गए। ‘शाहनी’ को ‘शाहपत्‍नी’, ‘काका’ को ‘लल्‍लू’, ‘रुक्‍ख’ को ‘वृक्ष’, ‘छांह’ को ‘छाया’ -- सारे सुधार इसी तरह के थे।" (लेखक का जनतंत्र, पृ 23) जबकि ‘चन्‍ना’ के मौजूदा पाठ में शाहनी के अलावा अन्‍य शब्‍दों का प्रयोग नगण्‍य है, बल्कि पूरे उपन्‍यास की भाषा इतनी सहज-सरल हिन्‍दी या हिन्‍दुस्‍तानी है कि ऐसी कोई कठिनाई आद्यन्‍त नहीं दिखाई देती। पूरे उपन्‍यास में सुर्खरू, पैरीपोना, सिरवारना, कांग, दारे, जमात, सवारना जैसे कुछेक देशज शब्‍दों के अलावा शायद ही कोई ऐसा देशज शब्‍द हो, जिसके लिए किसी भाषायी शब्‍दकोश या उस हलके के जानकार से मदद लेने की जरूरत पड़े। अब अगर स्‍वयं कृष्‍णा जी ने ही उपन्‍यास के उस पहले प्रारूप की भाषा में अपने स्‍तर पर यह सुधार-संशोधन कर लिया हो, तो इसकी पुष्टि तो वही कर सकती थीं, जो अब असंभव है। इस कृति की भूमिका में भी भाषा या कथा-संरचना को लेकर उन्‍होंने ऐसा कोई उल्‍लेख किया नहीं है, इसके‍ प्रकाशन की दुबारा संभावनाएं बनने पर उस पुराने प्रारूप के प्रति अपने बदले हुए मानस का हवाला देते हुए इतना जरूर कहा है कि‍ “पन्‍ने पढ़कर अहसास जरूर हुआ कि यह नौसिखिया लिखित तो है, मगर इसमें अच्‍छे उपन्‍यास की सभी संभावनाएं हैं।"    

    दूसरी बात, जहां तक ‘चन्‍ना’ और ‘ज़िन्‍गीनामा’ के कथानकों और उनमें आए केन्‍द्रीय चरित्रों की दृष्टि से देखें तो यह बात स्‍पष्‍ट है कि ‘ज़िन्‍दगीनामा’ के प्रमुख चरित्र शाहजी, शाहनी और चाची महरी इन दोनों कृतियों में बेशक अपनी उसी पारिवारिक छवि और शाह हवेली के उसी रहन-रुतबे के साथ प्रस्‍तुत हुए हों, लेकिन उनके आस-पास के बाकी चरित्रों, पारिवारिक माहौल और चौतरफा हालात की दृष्टि से ‘चन्‍ना’ का मूल कथानक उससे एकदम भिन्‍न है। यहां शाह-शाहनी की नातिन चन्‍ना ही कथा का केन्‍द्रीय चरित्र है, जो कृष्‍णा-कथा की बदलती स्‍त्री छवि के एक जुझारू किरदार के रूप में सामने आता है। ‘चन्‍ना’ की पूरी कथा इसी केन्‍द्रीय चरित्र के इर्द-गिर्द घूमती है। दोनों कृतियों की शुरूआत भी एकदम अलग तरीके से होती है। ‘ज़िन्‍दगीनामा’ की शुरुआत जहां इसी शाह हवेली के बच्‍चों की मांग पर हवेली के बड़े-बुजुर्ग लालाजी की जुबानी लोक में किंवदंती की तरह प्रचलित ‘आदि पुरख प्रजापति के अवतार’ और प्रकृति के साथ मानवीय विकास की सृष्टि-कथा से होती है, वहीं ‘चन्‍ना’ की कथा इसी शाह हवेली के भीतर शाह-शाहनी की बेटी शीला की प्रसव-प्रक्रिया से आरंभ होती है। जहां उनकी इकलौती बेटी शीला एक बेटी को जन्‍म देती है और स्‍वयं बहुत नाजुक अवस्‍था में पहुंच जाती है। शाह हवेली के सभी लोग जहां नाती के इंतजार में थे, वहीं बेटी की पहली संतान जब लड़की के रूप में पैदा होती है तो हवेली की स्त्रियां यह तय नहीं कर पाती कि बच्‍ची के होने का जश्‍न मनाया जाए या इसे मौन रहकर नियति के रूप में स्‍वीकार कर लिया जाए। शाहजी को जब यह खबर मिलती है तो कुछ क्षणों की दुविधा के बाद वे हवेली के सेवकों को यही आदेश देते हैं कि “घर में देवी आई है - ‘लड़कों-सी लड़की’, इसका पूरे उत्‍साह से जश्‍न मनाया जाए और सबको मिठाई बांटी जाए। और इस तरह बेटी के जन्‍म का जश्‍न तो जरूर मनाया गया, लेकिन प्रसव के बाद बेटी के नहीं बच पाने की पीड़ा और पश्‍चाताप मां-बाप को बरसों तक सालता रहता है। दिलचस्‍प बात यह कि चाची महरी दोनों ही कृतियों में शाह-शाहनी के लिए हर कठिन परिस्थिति में बड़ा संबल और सहारा बनी रहती है। शाह परिवार में बच्‍चे का जन्‍म, राग-रंग और संतान की परवरिश इन दोनों कथा-कृतियों का एक महत्‍वपूर्ण प्रसंग है, ‘जिन्‍दगीनाम’ में जहां कई साल की मनौतियों के बाद शाहनी के गर्भ से पुत्र का जन्‍म होता है, वहीं ‘चन्‍ना’ की प्रमुख पात्र शाहनी की बेटी शीला की संतान के रूप में जन्‍मी चन्‍ना जैसी चंचल और जुझारू बेटी का बाल्‍यकाल और इसी शाह हवेली में उनकी परवरिश एक अलग तरह की कथा के रूप में सामने आता है।      

     इस उपन्‍यास की सबसे बड़ी उपलब्धि है, इसका केन्‍द्रीय चरित्र चन्‍ना, जिसकी तुलना में  कृष्‍णा सोबती की अन्‍य सारी कहानियों और कथा-कृतियों के मुखर चरित्र अपेक्षाकृत फीके नज़र आते हैं, यहां तक कि ‘मित्रो मरजानी’ की मित्रो या ‘ऐ लड़की’ की बेबाक लड़की भी, जो अपनी जिन्‍दगी के सारे फैसले खुद करती हैं। चन्‍ना अपने जन्‍म से लेकर युवा होने तक जिन विकट और विपरीत परिस्थितियों में संघर्ष करते हुए बड़ी होती है और जिन तनावपूर्ण हालात में संयम और सूझ-बूझ का परिचय देती है, उस रूप में निश्‍चय ही वह एक आत्‍मसजग स्‍त्री चरित्र की मिसाल बनकर सामने आती है। कृष्‍णा जी ने इस जीवंत चरित्र के क्रमिक विकास को जिस यथार्थवादी सोच, समझ और मानवीय संवेदना से रचा है, उससे हमारे समय की स्‍त्री-चेतना और उसके संघर्ष को नयी ऊर्जा और आत्‍मबल मिलता है। ‘चन्‍ना’ के माध्‍यम से उभरती इसी स्‍त्री-छवि के क्रमिक विकास को ठीक से समझने के लिए हमें संक्षेप में इसकी कथा-संरचना और उसके भीतर के निर्णायक कथा-प्रसंगों को ठीक से समझना होगा।

      शाहजी ने स्‍यालकोट के धनी व्‍यापारी लाला दीवानचंद के इकलौते बेटे धर्मपाल के साथ अपनी बेटी शीला को बहुत उमंग साथ ब्‍याहा था और बेटी के साथ उसके वैवाहिक जीवन के आरंभिक दिनों में मदद के लिए शाह परिवार की अनुभवी सदस्‍या चाची महरी को एक संरक्षिका के बतौर उसके साथ भेज दिया था, ताकि बेटी के ससुराल में उसकी सास और कोई अन्‍य स्‍त्री न होने पर उसे असुरक्षा और अकेलेपन का सामना न करना पड़े। शीला से विवाह के बावजूद धर्मपाल को अपनी पत्‍नी से कोई विशेष लगाव नहीं था। वह अधिकतर अपने पिता के व्‍यवसाय में ही व्‍यस्‍त रहता था और इसी सिलसिले में शादी के कुछ अरसे बाद वह कलकत्‍ता और बंबई की यात्रा पर निकल जाता है। बेटे की इस यात्रा के दौरान एक दिन लाला दीवानचंद की तबियत बिगड़ जाती है और उनकी मृत्‍यु हो जाती है। पिता की मृत्‍यु के कारण बेटा धर्मपाल यात्रा से लौट तो जरूर आया, लेकिन अपनी पत्‍नी के प्रति उदासीन ही बना रहा। दरअसल इसी यात्रा के दौरान धर्मपाल को उनकी पूर्व प्रेमिका श्‍यामा से बंबई में फिर से मिल गई थी, जिसने पहले तो  अपने दूसरे प्रेमी अविनाश से विवाह कर लिया, लेकिन वह विवाह सफल न होने पर वह फिर से अकेली हो गई थी। धर्मपाल से मुलाकात होते ही उसका पुराना प्रेम फिर से जाग गया और धर्मपाल उससे वादा कर आया था कि वह जल्‍द लौटेगा और उसे पत्‍नी बनाकर अपने साथ स्‍यालकोट ले जाएगा। पिता की मृत्‍यु के कुछ समय बाद वह फिर से बंबई यात्रा पर गया और श्‍यामा को पत्‍नी बनाकर अपने साथ ले आया।

    धर्मपाल के इस कदम से ग्रामीण संस्‍कारों में पली शीला के हृदय को गहरी ठेस लगी, चाची महरी को भी दामाद का यह बरताव बहुत नागवार गुजरा लेकिन शीला के शान्‍त व्‍यवहार को देखते हुए उसने भी संयम बरता। कुछ अरसे बाद अपने इकलौते भाई की बीमारी के कारण श्‍यामा को बंबई जाना पड़ा। श्‍यामा की गैर-मौजूदगी में शीला के सहज-सरल व्‍यवहार को देखते धर्मपाल को भी अपनी भूल का अहसास हुआ कि उसे ब्‍याहता पत्‍नी के प्रति इतना निष्‍ठुर नहीं होना चाहिए। उसने फिर से शीला की सुध ली और उसे अपने प्‍यार से मना लिया। इन्‍हीं अंतरंग क्षणों में शीला गर्भवती हो गई, लेकिन कुछ अरसे बाद जब श्‍यामा वापस लौट आई तो धर्मपाल फिर उसी के पास पहुंच गया। ऐसे में एक दिन निराश शीला चाची महरी के साथ अपने मायके लौट गई। मायके में शाहजी और शाहनी ने उसका पूरा ध्‍यान रखा और नौ महीने बाद उसने एक बेटी को जन्‍म दिया। इसी प्रसव के बाद अपने कमजोर स्‍वास्‍थ्‍य के चलते शीला की मृत्‍यु हो गई और बच्‍ची के पालन-पोषण की जिम्‍मेदारी हवेली की सेविका सईदा बीबी ने संभाल ली। पत्‍नी की अस्‍वस्‍थता की जानकारी मिलने पर धर्मपाल उसे देखने ससुराल तो जरूर आया, लेकिन उसके पहुंचने से पूर्व ही शीला का निधन हो चुका था। धर्मपाल ने अपनी बेटी के‍ प्रति गहरा लगाव भी व्‍यक्‍त किया, लेकिन शाहनी के अनुरोध पर वह उसे उन्‍हीं की देखरेख में छोड़ गया। बच्‍ची की मां के चनाब प्रेम को ध्‍यान में रखते हुए उसका नाम चन्‍ना रखा गया, जो पांच वर्ष की अवस्‍था तक अपने ननिहाल में ही पलकर बड़ी हुई। फिर यहीं के मदरसे में प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण की, जहां उसे बचपन के साथी मिले। उसे अब तक मां के बारे में कुछ नहीं बताया गया था, लेकिन मदरसे में जब किसी बच्‍चे ने उसे बिन मां की लड़की कहा तो वह विचलित हो गई। उसे यही बताया गया था कि उसकी मां पिता के पास है। चन्‍ना जब अपनी मां से मिलने की जिद करने लगी, तो उसके नाना उसे पिता के घर ले आए और वहां श्‍यामा को ही उसकी मां बताया गया, जिसे उसने सहज भाव से स्‍वीकार कर लिया। श्‍यामा ने भी उसी स्‍नेह से उसे अपना लिया, जिसकी अपनी कोई संतान नहीं थी। अपने मां-पिताजी से मिलने के बाद चन्‍ना ननिहाल लौट आई। उसके कुछ अरसे बाद ही शाहनी की तबियत बिगड़ने लगी और एक दिन उनका निधन हो गया। मां की गोद से वंचित नन्‍हीं चन्‍ना अपनी नानी से भावनात्‍मक रूप से इतनी गहराई से जुड़ चुकी थी कि वह नानी की इस मृत्‍यु को सहज रूप से नहीं ले सकी, बल्कि वह यह मानने को ही तैयार नहीं हुई कि उसकी नानी नहीं रही। पारिवारिक रिश्‍तों के प्रति यह संवेदनशीलता और आत्मिक लगाव आरंभ से ही चन्‍ना के चरित्र की विशेषता रही। घर में नानी की गैरमौजूदगी के कारण वह गुमसुम-सी रहने लगी। ऐसे में उसे सईदा बीबी के साथ पिता के पास स्‍यालकोट भेज दिया गया। धर्मपाल ने वहीं के अच्‍छे स्‍कूल में बेटी का दाखिला करवा दिया। चन्‍ना अब बड़ी हो रही थी और जब उसे नानी के न रहने का अहसास हुआ तो उन्‍हें याद करते हुए वह बिलख पड़ी।

    पिता के पास रहते हुए चन्‍ना की स्‍कूली शिक्षा ठीक तरह से चलती रही। वह किशोरी से युवती होने की अवस्‍था में पहुंच रही थी। उसके मानस-चित्‍त और व्‍यक्तित्‍व में बदलाव आने लगा था। ननिहाल में वह घुड़सवारी पहले ही सीख चुकी थी। समय गुजरने के साथ वह इस सचाई से भी परिचित हो गई कि उसे जन्‍म देनेवाली मां शीला को उसने पैदा होते ही खो दिया था। अपनी जन्‍मदात्री मां के प्रति पिता के व्‍यवहार और सौतेली मां श्‍यामा के रवैये को लेकर उसके मन में टीस भी थी, लेकिन न उसने पिता से ही कोई शिकायत रखी और श्‍यामा से ही।  उसने श्‍यामा को सदा मां का ही मान दिया। श्‍यामा के प्रति यह उदार विवेक उसके व्‍यक्तित्‍व में यथार्थवादी मानवीय दृष्टि के विकास का ही परिणाम था। हाई स्‍कूल की शिक्षा पूरी होने के बाद पिता ने उसे कॉलेज की पढ़ाई के लिए लाहौर भेज दिया गया, जहां अपने सहपाठी छात्र-छात्राओं के बीच उसके व्‍यक्तित्‍व में एक नये तरह का आत्‍मविश्‍वास विकसित हुआ। कॉलेज में अपना पहला साल पूरा कर छुट्टियों में वह घर लौट आई। अगले साल की पढ़ाई के लिए पिता धर्मपाल खुद उसे लाहौर छोड़ने साथ गये। वे चन्‍ना में विकसित होती समझदारी को बहुत करीब से देख रहे थे और कहीं उसकी मां के प्रति अपने बरताव का पछतावा भी उनके मानस में बना रहा, ऐसे में चन्‍ना की मां शीला के पत्र उसे पढ़ने के लिए सौंप दिए ताकि वह अपनी असली मां को ठीक से जान सके। उस वाकये के बाद चन्‍ना की नज़र में पिता की इज्‍़जत और बढ़ गई।

     कुछ अरसा गुजरने के बाद एक दिन चन्‍ना को कुछ ऐसा महसूस हुआ कि उसे तुरन्‍त घर जाना चाहिए और वह उसी शाम गाड़ी में बैठ गई। जब वह सवेरे अपने घर पहुंची तो घर के अहाते में कई गाड़ियां खड़ी थी और बहुत से लोग जमा थे। घर के अंदर जाने पर उसे यह दुखद जानकारी मिली कि पिछली शाम उसके पिता का‍ निधन हो गया था। वह यह सब जानकर स्‍तब्‍ध रह गई। घर में उसकी मां श्‍यामा बेसुध पड़ी थी। परिजनों और घर के सेवकों ने धर्मपाल का अंतिम संस्‍कार संपन्‍न करवाया और श्‍यामा के भाई जगदीश को तार देकर बुला लिया गया। अगली सुबह चन्‍ना के नाना भी आ गये थे। वे श्‍यामा से मिले और उसे तसल्‍ली देते हुए पारिवारिक रस्‍में निभाई और उसे आर्थिक मदद के रूप में कुछ आभूषण और धनराशि भी दी। जाने से पहले वे चन्‍ना से भी मिले और उसके कहने पर सईदा बीबी को भेजने का वास्‍ता देकर वापस अपने गांव लौट गये। इस विकट स्थिति में‍ चन्‍ना ने पूरे धैर्य और समझदारी से घर की जिम्‍मेदारी संभाल ली। श्‍यामा के भाई जगदीश घर में कोई पुरुष न होने की अवस्‍था में खुद सारी व्‍यवस्‍थाएं अपने हाथ में लेने के इच्‍छुक थे, लेकिन जब चन्‍ना ने यह स्‍पष्‍ट कह दिया कि अपने घर की व्‍यवस्‍था वह स्‍वयं संभालेगी। ऐसे में श्‍यामा और जगदीश को जल्‍दी ही यह बात समझ में आ गई कि चन्‍ना ही इस घर की असली वारिस है। कृष्‍णा जी ने इन मार्मिक प्रसंगों के माध्‍यम से चन्‍ना के व्‍यक्तित्‍व को जो सामर्थ्‍य और ठोस आकार दिया है, वह प्रकारान्‍तर से उनके भीतर विकसित होती स्‍वायत्‍त स्‍त्री–छवि का परिचायक है। अपने इसी आत्‍मबोध के चलते पिता की मृत्‍यु के बाद घर और उनके कारोबार पर अपने कब्‍जे की चिन्ता किये बगैर उन्‍हीं  पुराने सेवकों को जिम्‍मेदारी सौंपकर चन्‍ना अपनी कॉलेज की बची हुई पढ़ाई पूरी करने के‍ लिए लाहौर लौट गई। यह है उसके विकसित व्‍यक्तित्‍व की अपनी विशेषता, जिसे कृष्‍णा सोबती ने पूरे मनोयोग से सिरजा है।   

     उधर ननिहाल में शाहनी की मृत्‍यु के बाद शाहजी ने पीछे कोई पुत्र वारिस न होने पर हवेली और जमींदारी की चिन्‍ता करते हुए चचेरे भाई कृपाराम और उसके बेटे भागे को अपनी मदद के लिए बुला लिया, जबकि इन्‍हीं के साथ मनमुटाव और मुकदमेबाजी के कारण लंबे अरसे से उनका कोई संपर्क-संवाद नहीं था। वे इस लायक थे भी नहीं कि उन पर भरोसा किया जा सके। उनके हवेली में आ जाने से मदद या सहारा तो क्‍या होता, उल्‍टे हुआ यह कि इन बाप-बेटों के कारण हवेली में चाची महरी, सईदा बीबी और हवेली के बा‍की सेवकों का चैन से जीना  दूभर हो गया। ऐसे में चाची ने चन्‍ना को पत्र भेजकर इस स्थिति से अवगत जरूर करा दिया। चाची का पत्र पाकर चन्‍ना तुरंत ननिहाल के लिए रवाना हो गई। उसने ननिहाल के करीबी स्‍टेशन से नाना के आसामी से एक घोड़ा लिया और उस पर सवार होकर गांव पहुंच गई। गांव में उसकी पहली मुलाकात अपने आवारा दोस्‍तों से घिरे अपरिचित भागे से ही हुई, जिसने उसका घोड़ा रोकने की कोशिश की, लेकिन ज्‍यों ही चन्‍ना ने उसे यह कहते हुए फटकार लगाई कि लगता है गांव में पहली बार आए हो, वह चन्‍ना के तेवर देखकर सामने से हट गया। चन्‍ना को एक-दो रोज में जब चाची और हवेली की स्त्रियों से भागे के अशोभनीय बरताव की जानकारी मिली तो उसने छोटे नाना कृपाराम को सख्‍ती से समझा दिया कि वे और उनका बेटा हवेली की स्त्रियों से इज्‍जत से पेश आए और किसी को भी हवेली के भीतर जाने की इजाजत नहीं होगी। इस तरह चन्‍ना ने विनम्र किन्‍तु सख्‍त लहजे में सभी को पाबन्‍द कर दिया। उसने भागे को मामू के संबोधन से लज्जित करते हुए अपना हूलिया और बरताव सुधारने की हिदायत भी दे दी, जिसका कोई प्रतिवाद करने की हिम्‍मत भागे नहीं कर सका। यही नहीं, वह नाना के अकेलेपन और उनके कमजोर मन को संबल देने के‍ लिए उनके कारोबार और ज़मीनी मामलों में रुचि लेने लगी और आसामियों से सीधे संवाद करने लगी। इससे कृपाराम और भागे को यह संकेत भी दे दिया कि वे उसके उत्‍तराधिकार को लेकर किसी गलतफहमी में न रहें। उसने चाची और सईदा की सुरक्षा को ध्‍यान में रखते हुए अगले दिन सवेरे लाहौर रवाना होने से पहले नाना को उनके पास सोए बाप-बेटे को सुनाते हुए निस्‍संकोच कह दिया कि “नाना, मामू को अगर यहां बुलाया है तो उसे घर के आदमी की तरह रहने के लिए भी कहें घर का क़ायदा-चलन क्‍या अब कुछ नहीं रहेगा?” यही नहीं, उसने यह भी स्‍पष्‍ट कह दिया – “नाना, मैं सब समझती हूं। जो कभी नहीं समझा, वह भी समझने लगी हूं। आज घर के लिए किसी लड़के की ज़रूरत है, लेकिन नाना, वह लड़का भागा है, यह मानने को जी नहीं चाहता” और इस पर जब नाना ने एतराज करते हुए यह कहा कि वे उनके भाई और भतीजे हैं, उनके बारे वे कुछ नहीं सुनना चाहते, तो चन्‍ना ने शान्‍त स्‍वर में उस पितृसत्‍ता को सीधी चुनौति देते हुए उन्‍हें यह भी स्‍पष्‍ट कह दिया – “आपको नहीं सुननी है, पर मैं  सुनाऊंगी। नाना, उन्‍हें तुम नहीं दीखते उन्‍हें वह भाई नहीं दीखता, जो वर्षों के झगड़े को भूलकर उन्‍हें अपने घर लिवा लाया है। उन्‍हें यह हवेली दीखती है, ज़मीनें दीखती हैं। चाची के पास पड़ा नानी का गहना दीखता है, जिसके लिए कभी-कभी मामू का मन होता है कि बुढ़िया का गला घोंट दे” इस पर शाहजी को पहली बार अपनी गलती का अहसास हुआ और उन्‍होंने चन्‍ना के हाथ पर अपना कांपता हुआ हाथ रखकर इतना ही कहा, “बच्‍ची, यह सब मुझसे मत कहो मैं यह सब जानता हूं।"  इसी अवसर पर चन्‍ना ने कृपाराम और भागे को बुलाकर सख्‍त हिदायत दे दी कि वे हवेली में कायदे से रहें और गांव के लोगों व आसामियों के बीच इज्‍़जत से रहना सीखें। इस तरह कथा में चन्‍ना के सजग और निडर व्‍यक्तित्‍व का जो सहज विकास दिखाया गया है, वह कृष्‍णा सोबती की स्‍त्री के प्रति नयी सोच का ही प्रमाण है।  

    चन्‍ना अपनी कॉलेज की पढ़ाई के आखिरी साल में थी। गांव से लाहौर लौटकर वह वापस उसी में व्‍यस्‍त हो गई। एक दिन चाची के पत्र से चन्‍ना को खबर मिली कि गांव में शाहजी ने फिर नयी ज़मीन खरीदी है, इससे चन्‍ना को तसल्‍ली हुई कि उसके नाना अब फिर से संभलने लगे हैं। शाहजी जमीन खरीदने के बाद उसका मुआयना करने जब अकेले ही अपने घोड़े पर सवार होकर निकल पड़े तो उसी दौरान कुछ अज्ञात लोगों ने उन पर पीछे से हमला कर दिया  और उन पर कुछ ऐसे सख्‍त प्रहार हुए कि उनका प्राणान्‍त हो गया। चन्‍ना को जब यह खबर ‍मिली तो वह नाना के दाह-संस्‍कार से पहले गांव पहुंच गई। उसे नाना के इस तरह मारे जाने का गहरा दुख था, लेकिन वह तत्‍काल नहीं जान सकी कि यह घटना किस तरह से घटित हुई और उसके लिए कौन जिम्‍मेदार है। हालांकि वह जानती थी कि इसके पीछे भागे और उसी के लोगों का हाथ है, लेकिन कोई ठोस सबूत उसके पास नहीं था। नाना की मौत के बाद चन्‍ना सतर्क और सख्‍त हो गई थी। उसने अपनी देखरेख में नाना की मृत्‍यु के बाद उनकी प्रतिष्‍ठा  और पारिवारिक परंपरा के अनुरूप इतना बड़ा आयोजन किया कि आस-पास के सारे गांवों के लोगों ने उसमें भाग लिया, दान-पुण्‍य के लिए कपड़ों के ढेर लग गए, गांव की विधवाओं, दूसरे गांवों में ब्‍याही गांव की लड़कियों और उनके सास-ससुर तक को पोशाकें और रुपयों की सीख दी। उसे नाना की धन-संपत्ति अपने कब्‍जे में लेने का कोई लालच नहीं था, वह मानती थी उस पर इन्‍हीं लोगों का हक है, लेकिन नाना की विरासत को कोई गैरवाजिब तरीके से जबरन हड़पने की कोशिश करे, उसे यह भी कुबूल नहीं था। चन्‍ना के इस हौसले और सूझ-बूझ की गांव और पूरे हलके के लोगों ने भरपूर सराहना की। नाना की हवेली और जमीनों की माकूल व्‍यवस्‍था कर अपनी बची हुई पढ़ाई जारी रखने के लिए चन्‍ना बेशक लाहौर लौट गई, लेकिन नाना के मारे जाने में भागे की भू‍मिका और उन हालात को बखूबी जान चुकी थी। वह इस हकीक़त को भी समझ रही थी कि नाना जैसे भी मरे, अब उसको लेकर जद्दोजहद करने से कुछ हासिल होना मुश्किल है। उसकी पहली कोशिश यही थी कि अपने को सुरक्षित रखते हुए चाची महरी, सईदा बीबी और हवेली के बाकी लोगों की सुरक्षा और नाना की जमीनों पर अपनी पकड़ मजबूत रखे। शाहजी की हवेली और उनकी विरासत को उस विकट परिस्थिति में भी मजबूती से सम्‍हाले रखने में चन्‍ना की निर्णायक भूमिका के माध्‍यम से कृष्‍णा जी ने पितृसत्‍ता के उन तमाम दावों की हवा निकाल दी, जो यह मानती रही है कि‍ जर, जमीन और जोरू पर कब्‍जा रखना तो पुरुषों के बूते की ही बात है।   

     कायदे से तो चन्‍ना की यह कथा यहीं समाप्‍त हो जाती, लेकिन कृष्‍णा जी ने अपने इस केन्‍द्रीय व्‍यक्तित्‍व के एक और महत्‍वपूर्ण पक्ष को उजागर करने की दृष्टि से कथा के ताने-बाने में एक और जरूरी प्रसंग जोड़ा है। और वह प्रसंग है चन्‍ना की अपनी निजी जिन्‍दगी से जुड़ा एक नाजुक मसला, जहां उसे अपने जीवनसाथी का चुनाव करना होता है। अपनी फाइनल की परीक्षा से पहले चन्‍ना श्‍यामा के बुलावे पर एकबार घर लौटती है और उसी शाम उसके पिता के दोस्‍त रामलाल श्‍यामा और चन्‍ना को अपने साथ शिमला चलने का प्रस्‍ताव करते हैं। रामलाल को शिमला से बंबई जाना था, जहां दो दिन बाद उनका डॉक्‍टर बेटा अमेरिका से लौटने वाला था। वे इन तीनों स्त्रियों की शिमला में रुकने की व्‍यवस्‍था कर बंबई चले जाते हैं और दो दिन बाद बेटे कमल को साथ लेकर वहीं लौट आते हैं। अगले कुछ दिन उन्‍हें शिमला में ही रुकना था। इसी दौरान चन्‍ना और कमल के बीच अच्‍छी दोस्‍ती हो जाती है, लेकिन अचानक एक दिन श्‍यामा को एकाएक दिल का दौरा पड़ता है और वे बच नहीं पाती। अपनी मौत से पहले श्‍यामा चन्‍ना का हाथ कमल को थमा जाना चाहती थी, लेकिन चन्‍ना इसके लिए तैयार नहीं थी।

    चन्‍ना की पढ़ाई का यह आखिरी साल था। उसकी परीक्षा अभी बाकी थी, इसलिए उसे  वापस लाहौर जाना था। चन्‍ना और कमल के बीच नजदीकियां जरूर बढ़ गई थीं और वह एक सच्‍चे दोस्‍त के रूप में उसे पसंद भी कर रही थी, लेकिन शादी के बारे में वह तय नहीं कर पाई। कमल ने बहुत आग्रह किया कि वह उसके साथ बंबई चले, लेकिन चन्‍ना का अभी अपने घर और ननिहाल में बने रहना जरूरी था। इस मुलाकात के बाद अगले दिन वह लाहौर चली गई, जहां उसे अपनी फाइनल की परीक्षा देनी थी। चन्‍ना के लाहौर चले जाने के बाद कमल बंबई जाते हुए चन्‍ना से बात करने के लिए एक रात लाहौर रुकता है और उस रात उन दोनों के बीच बहुत खुले मन से बात होती है। चन्‍ना को इस बात का अंदेशा था कि विदेश-प्रवास के दौरान कमल की कोई अच्‍छी दोस्‍त जरूर रही होगी, जिसे वह शायद अपने पारंपरिक सोच वाले मां-बाप के कारण अपने साथ नहीं ला पाया। उसी के बारे में जब चन्‍ना ने बहुत आग्रह किया  तो आखिर कमल ने यह बात कुबूल कर ली कि वह अपनी सहपाठी जूलियन से प्‍यार करता है, लेकिन वह जानता है कि उसके माता-पिता इस रिश्‍ते को कुबूल नहीं करेंगे, इसलिए उससे शादी करने का निर्णय वह नहीं कर सका, जबकि वह अब भी उसका इंतजार कर रही है। चन्‍ना ने उसे यही सलाह दी कि उसे अपनी पसंद और आत्‍मनिर्णय की कद्र करनी चाहिए और जूलियन को अपना लेना चाहिए। कमल के पास इस विवेकसम्‍म्‍त निर्णय को न मानने का कोई कारण नहीं रह जाता और चन्‍ना से विदा लेकर लौट जाता है।  

      चन्‍ना वैसे भी अपने घर और ननिहाल से दूर नहीं जा सकती थी। वह अपनी परीक्षा देकर सईदा बीबी के आग्रह पर सीधी गांव पहुंच गई थी, जहां नाना की जमीनों को कृपाराम और भागे बेचने के मंसूबे बना रहे थे। उन्‍होंने एक जमीन का सौदा तय कर भी लिया था, लेकिन जब चन्‍ना को इसकी जानकारी मिली तो वह खुद घोड़े पर सवार होकर उस जमीन पर पहुंच गई। उसने सौदा करने वाले अपने परिचित रुलदू चाचा को उनकी अग्रिम राशि लौटाकर सौदा रुकवा दिया और यह बात अच्‍छी तरह समझा दी कि भागे के पास उसके नाना की किसी जमीन या संपत्ति का सौदा करने का कोई अधिकार नहीं है। चन्‍ना ने अपनी सूझ-बूझ और हौसले से गांव और हलके के सभी लोगों को यह बात समझा दी कि एक लड़की होने के नाते कोई उसे कमजोर समझने की भूल न करे, वह अपनी विरासत संभालने में पूरी तरह सक्षम है और वह अपने अधिकार जानती है।

      कृष्‍णा सोबती की सद्य प्रकाशित कथा-कृति ‘चन्‍ना‘ की बहुआयामी कथा का यह सार-संक्षेप प्रस्‍तुत करते हुए मेरा मुख्‍य उद्देश्‍य इस तथ्‍य की ओर ध्‍यान आकृष्‍ट करना रहा है कि इस कथा-कृति का प्रारंभिक स्‍वरूप जो भी रहा हो, जो भी इसकी कथा-संवेदना और कथा-भाषा रही हो, कृष्‍णा जी ने इस उपन्‍यास के एक से अधिक प्रारूप तैयार किये हों या न किये हों, मुझे यह जरूर लगता है कि इसके मौजूदा कथानक में, इस कथा के केन्‍द्रीय चरित्र चन्‍ना के जुझारू व्‍यक्तित्‍व की निर्मिति में और इसकी कथा-संरचना में उस मूल रूप को कायम रखते हुए भी कुछ सुधार-निखार कृष्‍णा जी को अवश्‍य करना पड़ा है। इसकी कथानायिका चन्‍ना का चरित्र अपनी जिजीविषा और जुझारूपन में उनके प्रमुख उपन्‍यासों ‘ज़िन्‍दगीनामा’, ‘दिलो दानिश’, ‘समय सरगम’ या ‘ऐ लड़की’ की कथा‍नायिकाओं से पूर्ववर्ती बेशक लगता हो, लेकिन उनकी प्रारभिक कथा-कृतियों की नायिकाओं, विशेष रूप से ‘डार से बिछु‍ड़ी’ की पाशो, ‘मित्रो मरजानी’ की मित्रो, ‘सूरजमुखी अंधेरे के’ की रत्‍ती और ‘तिन पहाड़’ की जया से बहुत आगे का और विकसित चरित्र है, जो अपने जीवन के महत्‍वपूर्ण निर्णय पूरी संजीदगी, विवेक और स्‍वायत्‍त सोच के साथ लेती है। निश्‍चय ही ‘चन्‍ना’ की परिष्‍कृत कथा के माध्‍यम से कृष्‍णा सोबती ने एक बड़े फलक पर अपनी कथा-परिकल्‍पना को प्रस्‍तुत किया है। उनके सामाजिक सरोकार सदा से बहुत व्‍यापक रहे हैं। वे स्‍वतंत्रता, समानता और सामाजिक न्‍याय की सशक्‍त पैरोकार होने के साथ भारतीय समाज की साझा संस्‍कृति की कद्र करने वाली सशक्‍त कथाकार के रूप में अपनी विशिष्‍ट पहचान के साथ सदा मुखर रही हैं। वे धर्म, जाति और साम्‍प्रदायिक भेदभाव से रहित एक बेहतर मानवीय व्‍यवस्‍था की व्‍यापक सोच रखती थीं। एक स्‍त्री कथाकार होते हुए उन्‍होंने कभी अपने को नारीवाद के सांचे तक सीमित नहीं किया और यह बात उनकी तमाम कथा-कृतियों से साबित है, जहां स्‍त्री के मौलिक अधिकारों, व्‍यक्तित्‍व विकास के अवसरों और उसकी मानवीय अस्मिता के लिए स्‍वयं स्‍त्री के अपने संघर्ष और मनोबल की जो निर्णायक भूमिका होती है, उसे कृष्‍णा सोबती ने कथानायिका चन्‍ना के माध्‍यम से बहुत प्रभावशाली ढंग से व्‍यक्‍त किया है – काश, इस उपन्‍यास पहला प्रारूप मूल कथा-कृति के रूप में तभी प्रकाशित हो गया होता तो कृष्‍णा सोबती की आगे की कथा-यात्रा शायद कुछ और ही होती !  

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-    71  247, मध्‍यम मार्ग, मानसरोवर, जयपुर – 302020

Emil : nandbhardwaj@gmail.com,  Mob. 9829103455

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