Saturday, September 27, 2014




‘बदलाव अभी शेष है’ – स्‍वयंप्रकाश

(समकालीन हिन्‍दी कहानी पर ‘पाखी’ के सितंबर 2014 अंक में
प्रकाशित वरिष्‍ठ कथाकार स्‍वयंप्रकाश से संवाद)

नंद भारद्वाज – प्रकाश, आप सातवें और आठवें दशक की हिन्‍दी कहानी में न केवल एक कथाकार के बतौर सक्रिय रहे, बल्कि अपने समय और उससे पहले की कहानी को आपने करीब से जाना-समझा भी है, उस कथा-परंपरा में आये बदलाव में आपकी हिस्‍सेदारी भी रही है। जिस दौर में ‘सारिका’, ‘धर्मयुग’, ‘साप्‍ताहिक हिन्‍दुस्‍तान’ आदि पत्रिकाएं जैसी कहानियां प्रकाशित कर रही थीं, और उस दौर के जो प्रमुख कहानीकार थे, उनमें से बहुत से लोगों ने उन पत्रिकाओं और उस तरह की कहानियों से अपने को अलग कर जिस यथार्थवादी कथा-परम्‍परा से अपने को जोड़ा, और फिर उस दौर की लघु पत्रिकाओं के माध्‍यम से जो कहानी सामने आई, वह बहुत हद तक बदली हुई कहानी थी, जिसमें विषयवस्‍तु, शिल्‍प और यथार्थ का स्‍वरूप भी बदला हुआ दिखाई दिया, इन कहानियों ने व्‍यावसायिक पत्रिकाओं में छपने वाली कहानियों से अपने को अलग भी किया। आज संयोग से आप सामने हैं तो मेरी यह जिज्ञासा है कि हम पहले उसी पृष्‍ठभूमि की थोड़ी चर्चा करें कि वो कौन-से मसले थे, कौन-सी ऐसी बातें थीं, जो आपको गंभीरता से सोचने पर विवश कर रही थीं और उसमें से क्‍या निकलकर आया?
स्‍वयंप्रकाश – हुम्‍म, नंद बाबू, इसके उत्‍तर में तो थोड़ा पीछे जाना पड़े और कुछ पिष्‍ट-पेषण भी हो जाए, तो चलेगा न?
नंद  –  हां हां, कोई चिन्‍ता की बात नहीं, आप इत्‍मीनान से अपनी बात कहें।
प्रकाश - नयी कहानी के आन्‍दोलन का बहुत बड़ा अवदान हिन्‍दी कहानी को मैं मानता हूं।  उसने नये मुद्दे और नयी भाषा दी, नया मुहावरा दिया और उसके अवसान के बाद कहानी के जो आन्‍दोलन आए, उन्‍होंने कहानी की शक्‍ल को इतना बिगाड़कर रख दिया, कि कहानी से काम करने वाला आदमी, उसकी भाषा, नाद, संस्‍कार, उसकी पहचान सब धीरे-धीरे लुप्‍त होती चली गई, यहां तक कि क्रियाएं भी लुप्‍त होती चली गईं। उस समय की कहानी में आप देखेंगे कि संज्ञाएं तो फिर भी थोड़ी बहुत हैं, क्रियाएं तो हैं ही नहीं, एक निकम्‍मे आदमी का आत्‍मालाप किस्‍म की चीज वह बनकर रह गई। तो आठवें दशक की शुरुआत में एक बहुत बड़ी क्रान्ति इस प्रकार की हुई, जिसमें इन चीजों को गंभीरता से देखा गया। थोड़ा व्‍यापक दृष्टि से सोचें तो साहित्‍य के बाहर भी यह बदलावा दिखाई देता हैं। कहानीकारों ने विचार किया कि कहानी को यथार्थवाद और प्रेमचंद से कैसे जोड़ा जाए? उस समय जैसा आपने कहा, लघु-पत्रिकाओं का एक ज्‍वार जैसा आया था, अकेले अपने राजस्‍थान से बीस-बाईस पत्रिकाएं, एक-से-एक शानदार निकलती थीं, इनका प्रसार ज्‍यादा नहीं होता था और आर्थिक कठिनाइयां भी थीं, इनकी उम्र भी ज्‍यादा नहीं होती थीं, लेकिन एक बंद होती थी तो दो दूसरी निकलती थीं। मध्‍यप्रदेश में भी ऐसा ही हुआ, उत्‍तरप्रदेश में ही ऐसा ही हुआ और सारे हिन्‍दी प्रदेशों ऐसा ही हुआ। उससे क्‍या हुआ कि एक नये किस्‍म की कहानी ने जन्‍म लिया, जिसने मजदूर, किसान और काम करने वाले श्रमजीवी वर्ग को, स्त्रियों को उन सामान्‍य पुरुषों को नायक और नायिका बनाया और जमीन से जुड़ी हुई उन कहानियों की भाषा भी बदल गई। उससे पहले समान्‍तर कहानी में जो एक वामपंथी रचाव बनाने की कोशिश की गई थी, उसे सही दिशा देने की कोशिश भी हुई। वह महत्‍वपूर्ण इसलिए है कि फिर बाद में उसने जनवाद को जन्‍म दिया हिन्‍दी कहानी में, जो पहले के प्रगतिवाद तक सीमित होकर रह गया था। प्रगतिशीलता और प्रगतिवाद में भी अन्‍तर है। प्रगतिवाद में हर जगह एक नया सूरज उगाया जाता है, जो लाल रंग का होता है, और उस प्रकार के सरलीकरण होते हैं, जो वामपंथी विचारधारा के भी अनुकूल नहीं बैठते, उस मुहावरेबाजी से छुटकारा पाकर जो यथार्थपरक कहानियां लिखी जाने लगीं, तो हमने देखा कि नयी कहानी आन्‍दोलन के भी जो रचनाकार इस नये बदलाव में शामिल हो गये, जैसे काशीनाथसिंह, या दूधनाथसिंह और इन्‍होंने बहुत अच्‍छी कहानियां लिखीं। अब उस कहानी का परवर्ती कहानी पर क्‍या प्रभाव पड़ा, ये थोड़ा विस्‍तार से सोचने की जरूरत है, और ये आलोचकों का ही काम है।
  नंद –  उस दौर की कहानी को जिस तरह जनवादी कहानी के रूप में व्‍या‍ख्‍यायित किया गया, रमेश उपाध्‍याय जैसे रचनाकार ने तो उस पर एक पूरी किताब लिखकर विस्‍तार से चर्चा की, उस समय की जो लघु पत्रिकाएं या साहित्यिक पत्रिकाएं थीं, वे भी उसे इसी संज्ञा के साथ प्रस्‍तावित कर रही थीं, तो रचना के स्‍तर पर उसकी मुख्‍य प्रवृत्तियां आपको क्‍या दिखाई देती हैं, यानी कथ्‍य के स्‍तर पर और उसकी भाषा और रचना-शिल्‍प में जो बदलाव आपको दिखाई देता है? जो भूमंडलीकरण की प्रक्रिया शुरुआत में जिस अवस्‍था में थी, क्‍या वह उसमें कहीं प्रतिबिम्बित हो रही थी?
प्रकाश – सबसे पहला बदलाव तो यही समझिये, जो मैंने संकेत किया कि पात्रों के नाम आ गये, पहचान आ गई और संस्‍कार आ गये और इसी के अनुरूप उनके जीवन की भाषा भी आ गई। क्‍योंकि यह ध्‍यान देने की बात है कि नयी कहानी के आन्‍दोलन के बाद जो अकहानी का आन्‍दोलन आया, उसने हिन्‍दी कहानी की सारी विकास-प्रक्रिया को उलट दिया। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया की शुरुआत आम तौर पर सन् ’80 से मानी जाती है, जब आर्थिक सुधार शुरू हुए और उदारीकरण का दौर आरंभ हुआ, लेकिन उससे पहले थोड़ा-सा यह लगने लगा था कि आजादी के बाद एक जो मोहभंग का दौर था, उससे हम लोग उबर आये। आजादी के बाद जिस दूसरी पीढ़ी ने जन्‍म लिया था, वह इस निराशा को यथावत स्‍वीकार करने के लिए तैयार नहीं थी और इसे झूठी आजादी मानकर नेताओं को कोसने के लिए भी तैयार नहीं थी, उस युवा वर्ग में एक प्रकार का संकल्‍प था कि हम अब भी चाहें तो इस देश को बना सकते हैं, बशर्ते कि हम अपनी जड़ों से जुड़ें। इसलिए उन्‍होंने प्रेमचंद को अपने पुरखे के रूप में पहचाना और यथार्थवादी कहानी को पकड़ा और जनवादी कहानी और उससे पहले की कहानी में जो सबसे बड़ा फर्क है वो यह है कि जनवादी कहानी में आशा के स्‍वर सुनाई देते हैं, जबकि उससे पहले की कहानी केऑस की, संत्रास की, घुटन की, और दुनिया के नष्‍ट हो जाने की निराशावादी बातें करती थी। अब आप देखेंगे कि कामू, काफ्‍का, किर्केगार्ड और सार्त्र तक का अस्तित्‍ववादी प्रभाव शून्‍य हो जाता है हिन्‍दी कहानी के पर। फिर से मार्क्‍स और लेनिन की किताबें पढ़ी जाने लगती हैं। अर्थात् एक आशावादी दृष्टि से इस नयी पीढ़ी में हिन्‍दी साहित्‍य को पुनर्रचित किया।
नंद  – और इससे आगे जो बदलाव दिखाई देता है, उदयप्रकाश, रघुनंदन त्रिवेदी आदि की जो कहानियों सामने आईं, उन्‍हें आप किस तरह देखते हैं? 
प्रकाश – देखिये, ये हर दौर में होता है कि जब कोई एक अच्‍छी चीज शुरू होती है, तो उसके साथ ही साथ उसके अतिरेकी स्‍वर भी उभरने लगते हैं, एक पेंडुलम की तरह से यह हो जाता है, तो उसमें बहुत कम आपको कोई ऐसी जगह दिखाई देती है जिसमें कोई सम्‍यक संतुलन दिखाई दे। हुआ ये कि उस जनवादी कहानी में भी उस तरह के अतिरेक दिखाई देने लगे, और सीधे सीधे जमींदार एक किसान से लड़ रहा है और उसे मार रहा है और उस तरह के महानायक पैदा होने लगे, जैसे यथार्थ जीवन में नहीं होते, लेकिन कहानी में संभव हैं। जैसे एक उदाहरण काफी है ‘टेपचू’, और दूसरा उदाहरण ‘देवीसिंह’, या तीसरा उदाहरण बलैत माखन भगत, ये मैं बहुत अच्‍छे कहानीकारों की बहुत अच्‍छी कहानियों के उदाहरण दे रहा हूं, लेकिन इस तरह के नायक सिर्फ फैंटेसी में ही हो सकते हैं, जीवन के संघर्ष में इस प्रकार के नायक यकायक बन जाना, मनुष्‍य को फिर से यथार्थ से पलायन करके किसी कल्‍पना-लोक में पहुंचाने जैसा हो जाता है। इस बात को ’80 के बाद आने वाली पीढ़ी ने समझ लिया। और संयोग से उसी समय बहुत बडे बड़े तीन परिवर्तन इस दुनिया में हुए – एक, सोवियत संघ का टूटना, दूसरा, संचार क्रान्ति और तीसरा, वैश्‍वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण। इन्‍होंने हमारे जीवन को इतनी तेजी से और इतना बुनियादी तौर पर बदल दिया, कि अब चीजें या समस्‍याएं स्‍थानीय रहीं, या देशज रहीं, न समाधान स्‍थानीय या देशज रहे, अब जो भी होना था, ग्‍लोबल होना था। इसलिए जो पुरानी सोच है वह अप्रासंगिक हो गई।
नंद –   एक बड़ा परिवर्तन जो इन पिछले सालों में आया, खासतौर से ’80 और ’90 के बीच, और वह भी शिल्‍प के स्‍तर पर। यानी कहने की शैली बदल रही थी, वह अमूर्तन की ओर जाती हुई दिखाई देती हैं, और वह अमूर्तन एक उपलब्धि के बतौर लिया जा रहा था। वह अमूर्तन निर्मल वर्मा का अमूर्तन नहीं है। जैसे गीतांजलिश्री की जो कहानियां और नये उपन्‍यास आये, उनकी भाषा और कथ्‍य की बुनावट को आप गौर से देखें - वे मुद्दे उतनी ही गंभीरता से उठा रहीं हैं, खासतौर से स्‍त्री–प्रश्‍नों को लेकर उनकी कहानियां और उपन्‍यास अलग से ध्‍यान आकर्षित करते हैं। दूसरी ओर वंचितों और दलितों का जो यथार्थ है, बहुत से लेखकों ने उसे अपने लेखन का आधार बनाया, और इस आग्रह के साथ कि उस सचाई को एक दलित लेखक ही बेहतर ढंग से लिख सकता है, यद्यपि इसी दौर के जो दूसरे महत्‍वपूर्ण कथाकार हैं, उन्‍होंने भी स्त्रियों और दलितों की समस्‍याओं पर पूरी संजीदगी से लिखा, और वो कहानियां, उस पिछले दौर की कहानी से एकदम अलग दिखाई देती हैं और इसे आप किस नजरिये से देखते हैं?  
प्रकाश – मुझे ऐसा लगता है कि भारतीय मानसिकता को इन पिछले साठ सालों में सबसे बडे़ झटके जो लगे हैं, वो दो बार लगे हैं – एक तो लगा 1962 में, और दूसरा लगा 1980 में। जनवादी और प्रगतिशील कहानी की जिस दौर की हम चर्चा कर रहे थे, उसमें कहानीकार को यह खुशफहमी हो गई कि वह जनता को जागरूक कर सकता है, लोगों को सिखा सकता है, पाठकों को ज्ञान दे सकता है, इस झटके को सोवियत संघ के विघटन ने यकायक तोड़ दिया और जो तीन परिवर्तन मैंने बताए, इसमें उसने ऐसी स्थिति कर दी, कि जैसे मैंने बताया कि पुराने विचारधारात्‍मक ढांचे अप्रासंगिक भी हो गये, उसी तरह कहानीकार के सामने भी आशावादी सोच का खोखलापन भी उजागर हो गया, तो आप पाएंगे कि ’80 के बाद के जो लोग हैं, जिसका सबसे प्रतीकात्‍मक उदाहरण हम ले सकते हैं अखिलेश की कहानी ‘चिट्ठी’ या मनोज रूपड़ा की कोई कहानी ले सकते हैं –
  नंद – मनोज के संग्रह ‘टावर ऑफ सायलेंस’ में इस तरह की कहानियां हैं शायद?
 प्रकाश – हां उन्‍हें ले सकते हैं, तो यहां जो अन्‍तर आपको दिखाई देता है कि जनवादी कहानी के आशावादी समय में कहानीकार ने मजदूरों-किसानों की एक प्रकार से वकालत करना शुरू कर दिया और लगता था उनको कि हम सारे देश को जागरूक करके ही छोड़ेंगे, क्‍योंकि हम उनसे ज्‍यादा जानकार हैं। हमारे दशक में कहानीकारों को लगा कि अब संचार-क्रान्ति हो चुकी है, अब वैश्‍वीकरण हो चुका है, अब पाठक को सीखने के लिए हमारी कहानी नहीं पढ़नी है और अब वो कई मामलों में हमसे ज्‍यादा जानकार है, इसलिए उसकी अप्रोच भी बदल गई। और जब अप्रोच बदली तो भाषा की संप्रेषणीयता और पठनीयता भी बदल गई। तो उसने अपनी कहानी कहने के लिए एक नये तरह के मुहावरे की तलाश शुरू की, इसीलिए ये जो शिल्‍प का अतिरेक और आग्रह दिखाई देता है, हमारे दशक के इन कहानीकारों में, दरअसल वह एक खोज है, अपने समय के मुहावरों को पकड़ने की कोशिश वह कर रहा है, अपने तरीके से, कि ऐसे आदमी से किस लहजे में बात की जाय, जो हमारे बराबर ही जानता हो, या हमसे अधिक भी जानता हो, समझदार से बात करने का सलीका सीखने में कहानी को बहुत समय लगा। शायद वह अभी तक सीखने की प्रक्रिया में ही है। इसलिए आप देखेंगे कि आज की कहानी के पास समाधान नहीं है, बल्कि ठीक से देखा जाय तो आज की कहानी के सामने ठीक से प्रश्‍न भी नहीं हैं। क्‍योंकि यह समय इतना तेजी से परिवर्तित होता चला जा रहा है, कि जब तक आप एक समस्‍या को समझें, उसका स्‍वरूप ही बदल जाता है, तो इससे साहित्‍य की भूमिका भी बदल गई। अब मनोरंजन के लिए कोई कहानी नहीं लिखता। कहानी गंभीर व्‍यक्ति पढ़ता है।
नंद –  वो जो कहानी में किस्‍सागोई का तत्‍व महत्‍वपूर्ण हुआ करता था, वह बिल्‍कुल गौण हो गया है, कथानक न हो तो भी चलेगा, एक चरित्र है जो अपनी मनोदशा बयान किये जा रहा है, उसका कोई तारतम्‍य बना रहे, यह भी आवश्‍यक नहीं रह गया है, वह अंत की बात पहले शुरू करता है और फिर कहीं से भी कोई प्रसंग उससे जोड़ लेना, ये जो परिवर्तन आया है, एक तरह से कथा की संरचना का भीतर से बिखर जाना, क्‍या यह आपको विचारणीय नहीं लगता?
प्रकाश – विचारणीय है न। आप मुझे बताएं, आज कौन समाजशास्‍त्री, कौन राजनेता, कौन दार्शनिक, कौन अध्‍यापक, कौन महापंडित आकर यह बता सकेगा कि चार दिन बाद दुनिया की क्‍या हालत होगी? यह दुनिया इतनी ज्‍यादा अव्‍याख्‍येय या अनप्रिडिक्टिबल हो चुकी है, कि उसकी समस्‍याओं को समझ पाना भी एक बहुत बड़ी चुनौती है। अगर कहानी कुछ सार्थक आज कर रही है, तो यही कि इस जटिलता की पर्तों को साफ करने की कोशिश कर रही है।
नंद –  एक और पक्ष पर आपका ध्‍यान आकर्षित कर रहा हूं, जिस पर काफी चर्चा हो भी रही है - इधर कहानी में कहानीपन या कथा-तत्‍व जितना गौण और कमजोर होता गया है, पता नहीं, ये कहानी का विकास है, उसकी कोई खूबी मानी जा रही है या कहीं भीतर से वह बिखर रही है? मैं आश्‍वस्‍त नहीं हूं कि इसे जल्‍दी में किसी निष्‍कर्ष के रूप में ग्रहण करूं। हां यह जिज्ञासा जरूर है कि आप और आपकी पीढ़ी के महत्‍वपूर्ण कथाकार इसे किस तरह देखते हैं?  
प्रकाश – एक और महत्‍वपूर्ण बात इस बीच आई, जिसकी ओर आपने भी इशारा किया है, और वो ये कि अस्मितावादी विचार साहित्‍य-चर्चा के केन्‍द्र में आया, जैसे स्‍त्री विमर्श या दलित विमर्श, और हमने पाया कि बहुत-सी महिलाओं ने, जो आज मध्‍यवित्‍त वर्ग की सभ्रान्‍त महिलाएं हैं उन्‍होंने अकुंठ भाव से अपनी बातें कहना शुरू किया, इसी तरह जो दलित हैं उन्‍होंने अपनी बातें कहना शुरू किया। ये मराठी से शुरू हुआ और हिन्‍दी में भी आया। तो वहां कहानी का शिल्‍प, कहानी की संरचना, उसका स्‍थापत्‍य, ये सब चीजें गौण हो गईं और अभिव्‍यक्ति ही प्रमुख हो गई। तो आज की स्थिति में हम यह मान सकते हैं कि कहानी की जो पारंपरिक संरचना है वह विखंडित हो चुकी है, और कहानी का कोई परिमार्जित स्‍वरूप हमारे सामने नहीं है, जैसा कि हम मास्‍टर्स में देखते हैं। आज आप मोपासां, ओ हैनरी या चेखव जैसी कहानी हिन्‍दी क्‍या किसी भी भाषा में मुश्किल से ही पाएंगे। तो इसे हम एक तलाश के रूप में देख सकते हैं, संभव है कि इसमें से अच्‍छी चीज निकलकर आ सकती है, लेकिन पुरानी चीजें अब काम नहीं आएंगी, ये तय हो गया है। जैसे फ्‍लैशबैक - आप कहेंगे ये फ्‍लैशबैक कहां चला गया, उसके लिए फ्‍लैश-ब्रेक हो गया है, तो ये नयी नयी संभावनाएं उभर कर सामने आ रही हैं और नंद बाबू आप शायद यह जानते हैं कि हिन्‍दी के अतिरिक्‍त दूसरी भाषाओं में, जैसे अंग्रेजी में, जिसका मैं थोड़ा-बहुत ज्ञान रखता हूं, इस सिलसिले में दस गुना ज्‍यादा प्रयोग हुए हैं। भाषा, शिल्‍प और लिपि तक के स्‍तर पर ये देख सकते हैं – मसलन वे बहुत-सी चीजें इटैलिक्‍स में लिखते हैं, और बहुत-सी चीजों में संकेतों का प्रयोग करते हैं। हमारे यहां भी गीत चतुर्वेदी जैसे कुछ नये कहानीकारों ने कम्‍प्‍यूटर की प्रणाली के पारिभाषिक शब्‍दों को बहुत सहज रूप से इस्‍तेमाल करना शुरू किया है और वह स्‍वीकार्य भी हो गया है।
 नंद –  आपने ठीक याद दिलाया, जैसे गीत चतुर्वेदी की कहानियां, खासतौर से ‘सावंत आंटी की ल‍ड़कियां’ और ‘पिंक स्लिप डैडी’, महानगर के मेहनतकश लोगों की रोजमर्रा की जिन्‍दगी के बारीक प्रसंगों और उनके निर्मम यथार्थ को सामने लेकर आती है, कारपोरेट लाइफ भी उनकी कहानियों में विस्‍तार से बिम्बित होती है, लेकिन उनमें कहानी-तत्‍व भी अच्‍छा-खासा है, उसमें वह कहीं कमजोर या गौण नहीं हुआ है, गीत की कहानियों में एक खूबी यह भी है कि वे बात में से बात निकालते हुए किसी एक सवाल पर, एक जगह पर केन्द्रित जरूर नहीं होने देते बल्कि उसको बहुत छितरा-उलझा भी देते हैं, अगर उसको कनक्‍लूड करना चाहें तो वे सारे घटना-प्रसंग, वे सारे मसले, जिनको उभारती हुई कहानी आगे बढ़ती है, उनको समेटना मुश्किल लगता है। इसी तरह मनोज रूपड़ा की इधर एक कहानी आई है ‘आमाजगाह’, जिसमें वे रेगिस्‍तान की पृष्‍ठभूमि पर एक तिलस्‍मी कथा बुनने का प्रयास करते दिखाई देते है, जिसका नायक रेगिस्‍तान में एक ऐसे स्‍थान की तलाश में जा रहा है, जहां पता नहीं उसे किसी बहुत चमत्‍कार की उम्‍मीद है, जहां जाकर सब कुछ बदल जाएगा जैसे, और एक अलग तरह का यथार्थ उसमें से उभारने का प्रयास दिखाई देता है, पता नहीं उसे कोई जादुई यथार्थ कहना पसंद करे, लेकिन एक फैंटेसी उसमें जरूर है और वह कतई विश्‍वसनीय नहीं है, बल्कि परिवेश के चित्रण में भी तमाम तरह की असंगतियां हैं। आशचर्य है कि इस तरह की फैंटेसीज इधर खूब लिखी जा रही है, नये लोगों में विमलचनद्र, प्रत्‍यक्षा  आदि जिस तरह की कहानियां लिख रहे हैं, बल्कि गौरव सोलंकी जैसे युवा जिस तरह की कहानियां इधर लिख रहे हैं, इन कहानियों में कथ्‍य, कथानक, जीवन-मूल्‍य आदि जैसे बहुत गौण बातें होकर रह गई हैं।
प्रकाश – नहीं नहीं, एकदम ऐसा तो नहीं लगता मुझे, और इसलिए नहीं लगता कि जब भी मैं मनोज रूपड़ा की कहानी पढ़ता हूं, या अनिल यादव की कहानी पढ़ता हूं, सत्‍यनारायण की या चरणसिंह पथिक की कहानी पढ़ता हूं, तो मुझे लगता है कि ये लोग सारे परिवेश और सरोकारों से जुड़े हुए हैं और ढंग से बात कर रहे हैं। अमूर्तन अवश्य है, कारण यह कि जब दिशाएं स्‍पष्‍ट नहीं हैं समाज के सामने, तो आप क्‍या करेंगे, कहानीकार कहां से एकदम एक निश्चित स्‍वरूप भविष्‍य का या वर्तमान का आपके समक्ष प्रस्‍तुत करेगा? कलाकारी और फनकारी तो तभी होगी न जब आप जानते हों अच्‍छी तरह से इसकी बुनियाद क्‍या है? यहां तो बुनियाद का ही पता नहीं है। मैं आपको दो कहानियों के उदाहरण देता हूं – और संयोग से दोनों कहानियां अनिल यादव नाम के कहानीकार की हैं, उनकी अभी एक किताब आई है, ‘नगरवधुएं अखबार नहीं पढ़तीं’, ये शीर्षक कहानी लगभग पचास पृष्‍ठ की एक कहानी है, और उसी संग्रह में एक कहानी है ‘दंगा भेजियो मौला’, अद्भुत कहानियां हैं। यद्यपि पुराने वैश्‍या-जीवन पर कई अच्‍छी कहानियां लिखी गई हैं, चाहे कमलेश्‍वर की कहानियों को याद कर लें, लेकिन ‘नगरवधुएं अखबार नहीं पढ़तीं’ कहानी में राजनेता हैं, पत्रकार भी हैं, बहुराष्‍ट्रीय सौदागर भी हैं, वैश्‍याएं भी हैं, भूमाफिया भी हैं और सामान्‍य लोग भी हैं, इन सबको मिलाकर जब वो दिखाते हैं कि इनमें से किसी एक को भी छोड़ दिया जाता तो यह सम्‍पूर्ण चित्र बन ही नहीं सकता था, इसी तरह उनकी दूसरी कहानी है, ‘दंगा भेजियो मौला’, मुसलमानों या अल्‍पसंख्‍यकों पर हिन्‍दी में बहुत कहानियां लिखी गई हैं, लेकिन वे हमें थोड़ा विगलित या द्रवित करने के अलावा कोई खास काम नहीं कर पाती हैं, उनके प्रति हमारी सोच को परिवर्तित नहीं कर पाती हैं, और यहां एक ऐसी कहानी है जो बिल्‍कुल यह आग्रह नहीं करती कि आप अपने सोच को बदलें, वो सिर्फ आपको दिखाती है एक दृश्‍य और वह दृश्‍य इतना भयानक है कि जिसको देखकर आप पहले जैसा रह ही नहीं पाते, ताकत ये है इस कहानी कि ये कहती नहीं, ये बोलती है। और पहले की कहानी बोलती नहीं थी, कहती थी। हम लोगों के जमाने की कहानियां बहुत कहती थीं, लेकिन बोलती कम थीं। इस भाषा को साधने के लिए हो सकता है, थोड़े अभ्‍यास की आवश्‍यकता हो, और सत्‍तर अस्‍सी प्रतिशत तो यह भी हो सकता है अभी कहानीकार अभ्‍यास ही कर रहे हों, इसीलिए जब कभी साल के अंत में आपसे पूछा जाता है कि आपने इस साल कोई यादगार कहानी पढ़ी क्‍या, तो आप एकाएक याद नहीं कर पाते। यह ठीक है, एक परिवर्तन के दौर से गुजरने वाली संक्रमणशील रचना ये है, इसलिये इसमें एक यादगार कहानी की खोज कर पाना, शायद थोड़ी ज्‍यादती हो, लेकिन मुझे विश्‍वास है कि इसमें से ही अच्‍छी कहानियां निकलेंगी, जो अपने समय को ठीक से प्रतिबिम्बित कर पाएंगी।
 नंद – आपने पिछले अरसे में ‘वसुधा’ के दो अंक संपादित किये थे, समकालीन कहानी पर केन्द्रित करके, और उनमें ज्‍यादातर सब नये कहानीकार ही हैं, आपकी पीढ़ी के कहानीकार उसमें लगभग नहीं हैं, शायद आपने सोचकर ही ऐसा किया होगा, उन कहानियों का क्‍या प्रभाव महसूस आप महसूस करते हैं, खासतौर से इधर की कहानी के बनते हुए स्‍वरूप पर?   
प्रकाश – नंदजी, पहली बात तो यह कि उन दोनों अंकों का संपादन मैंने नहीं किया था, लेकिन पत्रिका के संपादक के रूप में हमारी जवाबदेही निश्चित रूप से जुड़ी रही है। उस योजना में जानबूझकर नयी पीढ़ी के रचनाकारों का चुनाव किया गया था, और कोशिश यही थी कि जो ये लोग क्‍या कहना चाह रहे हैं और कैसे कहना चाह रहे हैं, उसे समझा जाय। तो हमने पाया कि उसमें कोइ्र एक-सा-पन बिल्‍कुल नहीं है। आज भी बहुत से कहानीकार ऐसे हैं जो प्रेमचंद की पारंपरिक यथार्थवादी शैली में अपनी बात कहने की कोशिश कर रहे हैं और कह भी पा रहे हैं, लेकिन बहुत से ऐसे भी हैं जो एक नयी प्रकार के फार्म की तलाश में हैं। कभी उनको वह मिल जाता है, कभी नहीं मिलता। और बहुत से ऐसे हैं जो किसी विचारधारा के आग्रही भी नहीं हैं, और जिनको किसी विचारधारा में आस्‍था भी नहीं है। शायद उनको इन्‍सानियत के भविष्‍य में भी कोई आस्था नहीं है, वे बिल्‍कुल अनीश्‍वरवादी, नकारवादी, और निहलिस्‍ट सब प्रकार के लोग हैं, उन्‍हीं का एक संचयन ‘वसुधा’ के दोनों अंकों में था, मैं उससे कोई सामान्‍य निष्‍कर्ष नहीं निकालना जरूरी नहीं समझता।
 नंद – उसी दौर में कुछ कहानी केन्द्रित पत्रिकाओं जैसे ‘कथादेश’, ‘हंस’, ‘नया ज्ञानोदय’, ‘परिकथा’ आदि ने नवलेखन अंक या कथा प्रतियोगिताएं भी आयोजित कीं, और उसके माध्‍यम से इस दौर के श्रेष्‍ठ कहानी कौन-सी कही जाए, इस तरह की प्रक्रियाओं से गुजरते हुए कुछ कहानियां रेखांकित भी कीं, इसमें मैं खास तौर से ‘कथादेश’ की कहानी-प्रतियोगिता की ओर आपका ध्‍यान आकृष्‍ट कराना चाहूंगा, जिसने तीन कहानियां पहले, दूसरे और तीसरे पुरस्‍कार के लिए चुनीं – उनमें प्रेमनिरंजन अनिमेष की कहानी थी, दूसरे क्रम में गौरव सोलंकी की कहानी थी और तीसरी सुभाषचंद्र कुशवाह की कहानी। मैंने उन तीनों कहानियों को देखा-पढा है, उनमें प्रेमरंजन और सुभाषचंद्र कुशवाह की कहानियां तो हमारा जिस तरह का देहात है, उसमें जिस तरह के चरित्र हैं, उनकी अपनी जीवन-शैली की कठिनाइयां हैं, और यही चरित्र जब महानगरीय जीवन में आते हैं, तो किस तरह अपने अस्तित्‍व के लिए संघर्ष करते हैं, उस पर केन्द्रित कहानियां हैं, जबकि गौरव सोलंकी की कहानी उनसे नितान्‍त भिन्‍न है, इन कहानियों को कन्‍क्‍लूड करके अगर मैं एक समय के कहानीकारों के कहानी-लेखन की मुख्‍य प्रवृत्ति को पहचानने की कोशिश करूं, तो जैसा आपने कहा, वह मुझे वहां नहीं दिखाई देता, तो हमारे समय की कहानी की मुख्‍य प्रवृत्तियों को जानने की कोशिश करें तो क्‍या दिखाई देता है।
प्रकाश – देखिये एक बात तो बिल्‍कुल स्‍पष्‍ट है, आज के अधिकांश कहानीकार गांवों के बारे में और किसानों के बारे में कुछ नहीं जानते, दूसरी बात यह स्‍पष्‍ट है कि वे उस यथार्थ के प्रति बहुत उत्‍सुक भी नहीं हैं।
नंद – हां, पर जो उनके बीच से आए हैं, या उन्‍हीं के बीच रहते हैं, जैसे शिवमूर्ति हैं, महेश कटारे हैं, चरणसिंह पथिक हैं तो वे उस यथार्थ से गहरे स्‍तर पर जुडे रहे हैं।
प्रकाश – ऐसे लोग इक्‍का-दुक्‍का हैं, आज महानगरीय जीवन से आने वाले लोगों में एक फैशनेबुल प्रवृत्ति यह दिखाई दे रही है, कि आप इंटरनेट से कहानी बनाते हैं, सारे आंकड़े, सारी जानकारियां, सुचनाएं आप इंटरनेट से इकट्ठी कर लो, और बीच बीच में एक कथा-तत्‍व घुसेड़कर एक कहानी बना लो। जिस संवेदना की हम अपेक्षा करते हैं कहानी से, पात्रों के साथ एकाकार होकर कहानी लिखने की जरूरत है, मैंने एक जगह लिखा था कि आज की कहानी में पसीने की कोई कमी नहीं है, आंसुओं की कमी है। लेकिन इससे कोई निष्‍कर्ष निकालना शायद थोड़ी जल्‍दबाजी होगी, हमें अभी बहुत-कुछ देखना बाकी है, कहानी धीरे धीरे रूप ले रही है। आपको एक बात याद दिलाना चाहता हूं, जब परसाईजी ने लिखना शुरू किया, किसी को समझ में नहीं आया कि इसे कहें क्‍या? निबंध कहें या कहानी कहें, क्‍या कहें और अंत में उन्‍होंने उसे व्‍यंग्‍य कहना शुरू किया। आज की कहानी में कहीं कविता घुस जाती है, कहीं निबंध घुस जाता है और कहीं सामाजिक विश्‍लेषण, इसका स्‍वरूप इतना बदल गया है और विधाओं का सम्मिश्रण इतना तेज है कि इसको कोई नया नाम देना पड़े कालान्‍तर में।
नंद –  ये सवाल भी आता है कि इधर विधाओं के बीच इतना आदान-प्रदान बढ़ रहा है, या यों कहें कि विधाओं की दीवारें टूट रही हैं, जैसे आपने कहा कहानी में थोड़ी कविता भी है, उपन्‍यास भी, उसमें थोड़ा संस्‍मरण भी है, और इसी तरह दूसरी विधाओं में भी बहुत-कुछ है, ऐसे में रचनाकार और पाठक दोनों के ही लिये इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिये कि उस रचना की विधा का नाम क्‍या है?
प्रकाश – इसलिये कि जब हम कहानी की बात करते हैं तो हमारे दिमाग में एक नक्‍शा होता है, जो क्‍लासिक कहानी का नक्‍शा होता है। और उसके अनुसार नापने की कोशिश करते हैं कि कहां की कहानी उसके माकूल बैठ रही है। तो कभी कभी उसकी जरूरत उस स्‍तर पर पड़ जाती है।
नंद – जो नये कथाकार हैं, उनको यह शिकायत है, और यह शिकायत उन्‍होंने कई जगह मुखर रूप से व्‍यक्‍त भी की है, उनको ठीक से नहीं समझा जा रहा है, उनकी रचनाशीलता को सही महत्‍व नहीं दिया जा रहा है, उन्‍हें पहचाना नहीं जा रहा है और उन पर बात ठीक से नहीं की जा रही है। तो इस शिकायत पर आप क्‍या कहेंगे?
प्रकाश – इसके मुझे लगता है, दो पहलू हैं, एक, कुछ तो हमारे आलोचकों का आलस्‍य है सचमुच, वे पढ़ते नहीं हैं, उसके पास पढ़ने का समय नहीं है, उन्‍हें भाषण देने से ही फुरसत नहीं है, और कुछ हमारे कहानीकार भी बहुत जल्‍दी में मालूम पड़ते हैं, एक कहानी-संग्रह छपते से ही अमर क्‍यों हो जाना चाहते हैं? थोड़ा पांच-सात कहानी-संग्रह आ जाने दें, तभी अपेक्षा करें कि मेरी बात को समझा या नहीं समझा। थोड़ा उन्‍हें जल्‍दबाजी से बचना चाहिये, ऐसा मेरा खयाल  है, और एक आश्‍वासन मैं कहानी लिखने वाले अपने छोटे भाइयों जरूर देना चाहूंगा कि यदि उन्‍होंने कोई उल्‍लेखनीय चीज कभी लिखी है, तो वह हमेशा के लिए अलक्षित कभी नहीं रह सकती।
नंद –  कोई और बात जो आपको इधर की कहानी को लेकर विचारणीय या महत्‍वपूर्ण लगती हो, खास तौर से मीडिया के बदलते परिदृश्‍य में? 
प्रकाश – कई बार तो मुझे लगता है कि कहानी का यह रूप भी रहेगा या नहीं, इसको लेकर मैं निश्चिन्‍त नहीं हूं। क्‍योंकि जिस तरह से कहानियों का टी वी सीरियल्‍स की तरह एपिसोडिकरण होने लगा है, तो लगता है कि कल कहानी सुनने-सुनाने की चीज भी हो सकती है और देखने-दिखाने की चीज भी हो सकती है। कुछ लोगों ने ऐसे प्रयोग किये भी हैं, एकबार मैंने खुद अपनी कहानी इंटरनेट पर किसी जगह किसी कलाकार के मुंह से सुनी, ‘क्‍या तुमने कभी सरदार भिखारी देखा है’ और लगा कि ये भी एक बहुत अच्‍छा तरीका संप्रेषण का हो सकता है, फिर मुझे एक किताब याद आई जो बीबीसी के एक मशहूर सीरियल ‘यस मिनिस्‍टर’ और ‘यस प्राइम मिनिस्‍टर’ के आधार पर लिखी गई थी, जिसमें उस मिनिस्‍टर के नोटबुक के पन्‍नों की प्रति प्रकाशित की गई थी एक तरफ उसी की हस्‍तलिपि को प्रस्‍तुत करते हुए, तो मुझे लगा कि इसका एक और चाक्षुस स्‍वरूप भी हो सकता है, जैसा मैं आपसे थोड़ी देर पहले कह रहा था कि अंग्रेजी में ऐसे प्रयोग हुआ है, जहां कई जगह इटैलिक्‍स में लिखा जाता है, या कई जगह भाषा और लिपि की जकड़बंदियों को तोड़ने के नये नये प्रयास किये जाते हैं। हिन्‍दी अभी उस दौर में है जहां इस प्रकार के परिवर्तन होना शेष हैं, लेकिन मैं तो इनका भरपूर स्‍वागत ही करूंगा।

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Tuesday, September 23, 2014

कहानी - 'एक अनाम रिश्‍ता'



कहानी
एक अनाम रिश्‍ता

·         नंद भारद्वाज

          
      सवेरे आठ और नौ के बीच उससे अक्‍सर बात हो जाया करती थी। इस वक्‍त तक आलोक घर में ही होता था और फोन भी वही उठाया करता। लेकिन आज देर तक रिंग बजते रहने के बाद जब किसी स्‍त्री ने फोन उठाया तो मैं अचकचा गया। आलोक सामने होता है तो अपना परिचय देने की आवश्‍यकता  नहीं होती, हलो की पहली आवाज से ही हम एक-दूसरे को पहचान लेते हैं। यों आमतौर पर अपनी ओर से बात करते समय अमूमन मैं अपना परिचच देकर ही बात शुरू करता हूं, लेकिन आज जाने कैसे वह क्रम गड़बड़ा गया - मैंने पूछ लिया कि वे कौन बोल रही हैं तो अपना नाम बताने की बजाय उन्‍हीं ने मेरा परिचय पूछ लिया। मैंने तुरंत अपनी भूल सुधारते हुए अपना और अपने शहर का नाम बता दिया। जवाब में हल्‍के-से पॉज के साथ उन्‍होंने नमस्‍कार किया और अपने स्‍वर में विनम्रता लाते हुए बताया कि ‘आलोक तो सुबह जल्‍दी ही शिलांग के लिए गये हैं, शाम तक लौट आएंगे, मैं चाहूं तो शाम को आठ-नौ के बीच फोन करके पता कर लूं।‘ इतनी-सी बात कहकर उसने फोन रख दिया। उसके बात करने के लहजे से तो यही लगा था कि वह मुझे पहले से जानती है, शायद आलोक की पत्‍नी हो या घर की कोई और सदस्‍या। आलोक की मां तो नहीं थी, उनकी आवाज मैं पहचानता हूं। दिन भर इसी बात का बार-बार खयाल आता रहा कि आखिर वे कौन थीं, जिनकी आवाज इतनी जानी-पहचानी-सी लग रही थीं।   
      उसी रात सवा नौ के करीब मैंने फिर लैंड-लाइन पर नंबर मिलाया तो आलोक ने ही फोन उठाया था। मेरी पोस्टिंग और गुवाहाटी आने की खबर पर पहले तो खुशी ही जाहिर की, मुझे बधाई भी दी और हमारे बचपन के दिनों के साथ को याद करता रहा, लेकिन कुछ ही क्षणों में बात करते हुए लगा कि उसका उत्‍साह कुछ ठंडा-सा पड़ने लगा है। मैंने आशंका भांपते हुए तुरंत स्‍पष्‍ट कर दिया कि फलां तारीख को गुवाहाटी पहुंच जरूर रहा हूं, लेकिन मेरे रुकने को लेकर ज्‍यादा चिन्‍ता न करे। शुरू के दो-चार दिन के लिए कहीं ठहरने की व्‍यवस्‍था हो सके तो जरूर कन्‍फर्म कर दे, अन्‍यथा वहां पहुंचकर इंतजाम देख लूंगा। बचपन की दोस्‍ती के नाते यह जिम्‍मेदारी भी उसे सौंप दी कि अपने आस-पास कोई किराये का छोटा मकान हो तो वह भी पता कर ले। उसने पहले तो इस बात पर नाराजगी जाहिर की कि मैं कहीं और रुकने के बारे क्‍यों कह रहा हूं, मुझे और कहीं नहीं, उसके घर ही रुकना है। फिर मेरी चिन्‍ता दूर करते हुए बता दिया कि मकान की व्‍यवस्‍था भी कहीं हो ही जाएगी।     
      अगले दिन दिल्‍ली से राजधानी पकड़ी और तीस घंटे की यात्रा के उपरांत मैं अपने गंतव्‍य के करीब पहुंच गया। शाम पौने छह के करीब जब गाड़ी बादलों से ढंकी तर हरियाली को पार करती एक विशाल नदी पर बने पुल को पार करने लगी तो मेरी आंखें खुली की खुली रह गईं। जीवन में पहली बार  इतनी बड़ी नदी जो देख रहा था। सहयात्रियों ने बताया कि यही ब्रह्मपुत्र है। नदी क्‍या थी, जैसे समंदर ही पसरा पड़ा था। पुल के उस पार दूर नगर की रौशनियां चमक रही थीं। गाड़ी के स्‍टेशन पहुंचने तक अच्‍छा-खासा अंधेरा हो चुका था। गाड़ी प्‍लेट-फार्म पर आकर रुकी तो मैं भी अपना सामान लेकर डिब्‍बे से बाहर आ गया। आलोक थोड़ी दूरी पर खड़ा दिख गया था, मैंने सामान नीचे रख उसे हाथ उठाकर इशारा किया तो वह मुस्‍कुराता हुआ मेरी ओर बढ़ आया। उसे सामने पाकर तसल्‍ली हुई और आगे बढ़कर उत्‍साह से उसे गले लगा लिया। सामान लेकर हम ज्‍यों ही प्‍लेटफार्म से बाहर आए, तो एक सफेद मारुति हमारे पास आकर खड़ी हो गई। आलोक ने आगे बढ़कर दरवाजा खोला और मुझे पीछे बैठने का इशारा किया। अटैची और होल्‍डोल डिक्‍की में रखवाने के बाद हम पीछे की सीट पर बैठ गये। आलोक ने ड्राइवर से असमिया में कुछ बात की जिसका मैंने अनुमान लगा लिया कि उसने गाड़ी सीधी अपने घर लेने की हिदायत दी थी। मैंने उसके भाषा-ज्ञान की सराहना करते हुए कहा, वाह भाई, तुम तो थोड़े ही बरसों में अच्‍छे-खासे असमिया हो गये।"  
      थोडे़ कहां यार, पूरे आठ साल बिताए हैं यहां। जब इन्‍हीं के साथ रहना है तो इनकी बोली-बानी तो सीखनी ही होगी न। यहां धंधा जमा लिया, घर बना लिया तो फिर यहां का होने में क्‍या कसर रह गई? उसने हंसते हुए मेरी बात का जवाब दिया। मैं भी उसकी बात सुनकर मुस्‍कुरा दिया। कार अपनी रफ्‍तार से बाजार के बीच से गुजर रही थी।
      और घर में सब कैसे हैं? कैसा चल रहा है कारोबार? मैंने सहज जिज्ञासावश पूछ लिया था।
      सब ठीक है, बस बाबूजी की तबियत जरूर कुछ नर्म रहती है, मां और भाई-बहन मजे में हैं। तेरी भाभी अभी पीहर गई हुई है कोलकाता, जिसे जाकर लाना है, लेकिन दुकान के काम ने ऐसी हालत बना रखी है कि किसी बात पर अपना बस नहीं रह गया है। सुबह नौ बजे निकलता हूं घर से और रात को नौ-साढ़े-नौ तक सिर उठाने की फुरसत नहीं मिलती। गनीमत है कि तू आज रविवार को पहुंचा है तो तुझे लेने खुद आ सका हूं।" आलोक ने सार रूप में घर और अपने काम की व्‍यस्‍तता के बारे में बता दिया था।        
     मैंने भी बात को हल्‍के परिहास में रखते हुए कह दिया, अब इतना बड़ा कारोबार फैलाया है तो ये सब तो होगा ही भई। हां, पिताजी की तबियत के बारे में जानकर वाकई चिन्‍ता हुई, किसी अच्‍छे  स्‍पेशलिस्‍ट से सलाह ले लो, सब ठीक हो जायेगा।" उसकी बात का संक्षिप्‍त-सा उत्‍तर देकर मैं भी खिड़की से बाहर देखने लगा। गाड़ी अपना रास्‍ता बनाती रफ्‍तार से आगे बढ़ रही थी। आलोक मुझे रास्‍ते  में आने वाली प्रमुख जगहों की जानकारी देता जा रहा था और कोई आधे घंटे की यात्रा के बाद गाड़ी एक बंगले के पोर्च में पहुंचकर खड़ी हो गई। आलोक को अपनी तरफ से उतरते देख मैं भी दरवाजा खोलकर बाहर आ गया।
        अपने पत्र में कभी आलोक ने जिक्र किया था कि उसके पिता ने बेलटोला में किसी असमिया रईस से एक बनी-बनाई कोठी खरीद ली थी। आज उसी कोठी में दाखिल होते हुए मैं चकित था। मैं और आलोक ग्रेजुयएशन तक साथ पढे थे। कॉलेज की पढ़ाई खत्‍म होते ही आलोक के पिता उसे अपने साथ गुवाहाटी ले आए और उसे अपने व्‍यापार में जोड़ लिया। फैंसी बाजार में रेडीमेड गारमेंट्स और कपड़े का एक बड़ा शो-रूम था उनका। आलोक पिता के साथ उसी काम में रम गया।
       उसके बहन-भाइयों और परिवार के लोगों से भी मेरी अच्‍छी वाकफियत थी। लेकिन उसी घर में मौजूद उस स्‍त्री को मैं नहीं पहचान नहीं पा रहा था, जो घर में दाखिल होते समय सामने दिखती रसोई में आधा घूंघट निकाले खड़ी थी। उसे देखकर अनुमान लगया कि शायद फोन पर उसी से बात हुई थी। थोड़ी देर बाद जब वह बैठक में चाय लेकर हमारे बीच आई तो उसे देखकर मैं आश्‍चर्य-चकित रह गया। उसे पहली ही नजर में पहचान लेने में मैंने कोई ग़लती नहीं की। यह सुखदा थी, आलोक के स्‍वर्गवासी भाई गोपाल की पत्‍नी। जिसके बारे में मेरी जानकारी यही थी कि गोपाल की असामयिक मृत्‍यु के बाद वह अपनी मां के पास ही रह रही थी। यह यहां कब आ गई, इसकी जानकारी मुझे नहीं थी।   
        सुखदा को मैं बचपन से ही अपने घर में आते-जाते देखता रहा हूं। उसके पिता सुगनचंद की गिनती हमारे गांव के मौजीज में होती थी। कई साल पहले अपने कारोबार में घाटा लगने के कारण उस सदमे से वे उबर नहीं पाए और असमय ही चल बसे, लेकिन सेठानी ने धीरज और सूझ-बूझ से काम लिया। उन्‍होंने भाइयों की मदद से समय रहते अपनी दोनों बेटियों और एक बेटे को अच्‍छे खाते-पीते घरों में ब्‍याह दिया था। उन्‍हीं में से छोटी सुखदा सेठ लक्ष्‍मीचंद के बड़े बेटे गोपाल को ब्‍याही गई थी, लेकिन दुर्भाग्‍य से वह एक हादसे का शिकार होकर कच्‍ची उम्र में ही स्‍वर्ग सिधार गया। सुखदा उस समय कोई इक्‍कीस-बाईस बरस की रही होगी। उन दिनों अपनी पोस्‍ट-ग्रेजुएशन की पढ़ाई के कारण मैं गांव कम ही जा पाता था। सुखदा वहीं पढ़ी थी, जब मैंने उसे आखिरी बार देखा तब तक वह सीनियर सेकेण्‍ड्री कर चुकी थी। लेकिन तब तक शादी नहीं हुई थी। इतने बरस बाद उसे इस घर में अचानक देखकर भी पहचानने में कोई दिक्‍कत नहीं हुई।
        अगली सुबह जब वह चाय लेकर मेरे कमरे में आई तब उससे मेरी संक्षिप्‍त-सी बातचीत हुई। आलोक तब तक उठा नहीं था। उसके रंग-रूप में बदलाव के बावजूद मेरे लिए वही अपने गांव-गली की सुखदा थी, चेहरे पर वही बाल-छवि अब भी बरकारार थी, जिसकी धुंधली-सी स्‍मृति बची रह गई थी। हल्‍की आसमानी साड़ी और उसी रंग के ब्‍लाउज में निखरती उसकी काया, कलाइयों में उसी रंग की चार-चार चूड़ियां, कानों में पतले-से टॉप्‍स, गले में फकत एक पतली-सी सोने की चैन और पांवों में चांदी की पायलें – बस इतने से श्रृंगार में वह जितनी आकर्षक लग रही थी, उतनी तो कोई बनाव-श्रृंगार करने के बाद भी शायद ही लगती। इतने अन्‍तराल के बाद मिलते हुए उसकी नजर में एक स्‍वाभाविक-सी शर्म और संकोच था। चाय देते वक्‍त उससे हुई बातचीत मे बस इतना भर जान पाया कि वह पिछले चार महीनों से यहीं है। वह इस घर की बहू थी तो उसका यहां होना मुझे स्‍वाभाविक ही लगा।
     अगले दो-तीन दिनों में आलोक के घर के बाकी सदस्‍यों से भी मेरा मेलजोल सहज हो गया। आलोक की छोटी बहन उमा यों तो सुखदा से कोई दस बरस छोटी थी, लेकिन कद-काठी में उससे सवाई ही लगती थी। उमा से छोटा दीपक आठवें दर्जे में पढ़ रहा था। सुखदा का ज्‍यादातर समय घर की रसोई में ही बीतता था। आलोक की मां को जो भी काम करवाना होता, वह उसी को आवाज देती, भले उमा खाली हाथ पास ही क्‍यों न खड़ी हो। मुझे सुखदा के प्रति घर के लोगों का यह बरताव कुछ अटपटा-सा लगा, लेकिन कुछ कहने की गुंजाइश कम ही दीख रही थी। मेरी गहरी पहचान और नजदीकी फकत आलोक तक सीमित थी। मेरा रुकने का इंतजाम उसने अपने घर के गैस्‍ट-रूम में कर रखा था, जो एक तरह से अलग-सा पड़ता था।
      यों पिछले सालों में आलोक से चिट्ठियों के जरिये संपर्क तो बना ही रहा, कभी-कभी फोन पर बात भी हो जाती, लेकिन इस बीच उसके परिवार में जो कुछ घटित हुआ, उसकी जानकारी मुझे कम ही हो पाई। आलोक भी पूछने पर टाल जाता। जब तक उनका परिवार बीकानेर में रहा, उनके घर में मेरा अक्‍सर जाना-आना होता रहा, लेकिन वहां से यहां आ जाने के बाद वह संपर्क काफी कम हो गया था। सुखदा उन दिनों गांव के स्‍कूल में ही पढ़ती थी। मैं उसे गली में अक्‍सर आते-जाते देखता रहता। लड़कियों से मेरी बोल-चाल यों कम ही होती थी, लेकिन स्‍कूल आती-जाती सुखदा जाने क्‍यों मुझे अच्‍छी  लगती और वह भी मुझे देख कर मुस्‍कुरा देती। हमारा एक-दूसरे के प्रति अमूर्त-सा आकर्षण शुरू से ही रहा। एक बार मैंने उसे गली में लड़ते दो सांडों की चपेट में आने से बचा लिया और उस हादसे में मुझे हल्‍की चोट भी आई, लेकिन सुखदा को बचाकर मैंने उसके घर पहुंचा दिया। उसकी मां को जब इस घटना का पता चला तो वह कई दिनों तक मेरे प्रति कृतज्ञता प्रकट करती रही। सुखदा भी उसके बाद जब भी मिलती, उस अहसान और संकोच में डूब जाती। अफसोस भी जाहिर करती कि उसे बचाने में मैं जख्‍मी हो गया। जब मैं बीकानेर चला गया और गांव आना-जाना कम हो गया तो सुखदा से मेरा संपर्क लगभग टूट-सा गया। प्रत्‍यक्ष रूप से न मिल पाने के बावजूद वह मेरी स्‍मृति से कभी लुप्‍त नहीं हुई। 
     यहां गुवाहाटी में पिताजी की तबियत नर्म रहने के कारण इधर कारोबार की सारी जिम्‍मेदारियां आलोक पर आ गई थी। वह सुबह से रात तक उसी में लगा रहता। मैंने जब सुखदा के बारे में उससे पूछा तो उसने अनमनेपन से इतना ही बताया कि भाई के स्‍वर्गवास के बाद वह अपनी मां के पास गांव में ही रहा करती थी, छह महीने पहले जब उसकी मां भी चल बसी तो पिताजी उसे यहां अपने साथ गुवाहाटी ले आए। वह इस घर की बहू है तो और कहीं क्‍यों रहती?
      तो इसकी दूसरी शादी करवा दी होती, कितनी कम उम्र तो रही होगी उसकी? मैंने एक स्‍वाभाविक-सी जिज्ञासा व्‍यक्‍त की।  
      कैसी अजीब बात कह रहे हो, आनंद। बनियों में कहीं देखा है ऐसा रिवाज?
      तुम इतने पढ़े-लिखे हो आलोक, गुवाहाटी जैसे आधुनिक शहर में रहते हो और इतने पुराने खयाल रखते हो? फिर औरों से तो उम्‍मीद ही क्‍या की जाए? 
       सवाल मेरे पढ़े-लिखे या आधुनिक होने का नहीं है दोस्‍त, जब तक घर के बाकी लोगों और समाज की राय नहीं बदलती, ऐसे रिवाजों को उलट देना किसी एक के बूते की बात नहीं है।" आलोक की इस राय के बाद मैं भी उसे क्‍या कहता?
      मैंने बात को वहीं छोड़कर जब अपने लिए किराये के मकान के बारे में पूछा तो उसने बताया कि उसी मोहल्‍ले में उन्‍हीं के जानकार असमिया परिवार के घर में दो कमरों का हिस्‍सा खाली है। मकान के एक भाग में मकान मालिक का परिवार रहता है और आधा हिस्‍सा वे किराये पर देने को तैयार हैं, अगर पसंद आ जाए, तो बात की जा सकती है।
      मैं तो बिना देखे ही हामी भरने को तैयार बैठा था। वैसे भी इतवार का दिन था और आलोक भी इतवार को कारोबार की छुटटी रखता है। हम दोनों तुरंत तैयार होकर मकान देखने के लिए पहुंच गये। वह असमिया शैली में बना साफ-सुथरा एक मंजिला मकान था, जो बाहर से एक बंधी इकाई की तरह लगता था। किराये पर देने वाला भाग ठीक-ठाक था। बारह-बाई-दस के दो कमरे एक सीध में बने थे। पिछले कमरे के आधे हिस्‍से में अंदर खुलती छोटी-सी रसोई और उसी की बराबरी में खुलता शौचालय और बाथरूम। मुझे मकान देखते ही पसंद आ गया। शायद दो-चार दिन पहले ही खाली हुआ था, इसलिए साफ-सफाई होनी बाकी थी। दीवारों का रंग-रोगन हुए भी काफी समय हो गया था शायद। मकान मालकिन ने बताया कि दो-चार दिन में रंग-रोगन का काम पूरा हो जायेगा। इसके लिए वे सप्‍ताह भर का समय मांग रही थी, जबकि मैं तो तुरंत आने को तैयार बैठा था। मेरे कुछ कहने से पहले ही आलोक ने उनकी बात मान ली। संकोच करते हुए मैंने किराया पूछा तो आलोक ने बताया कि अभी तक दो हजार में उठा हुआ था। दूसरा कोई लेता तो मकान मालकिन ढाई हजार से कम में राजी न होती, पर मेरे लिए दो में तैयार हो गई है। मैंने तुरंत किराये की राशि अग्रिम रूप से उन्‍हें सौंप दी।
      इन सात दिनों में मैं आलोक के परिवार में काफी घुल-मिल गया। उमा और दीपक की शर्म-शंका जरूर कुछ कम हो गई, लेकिन सुखदा की चुप्‍पी अभी वैसी ही कायम थी। कई बार शाम को उमा और सुखदा के साथ किसी घरेलू काम से पास वाले बाजार में घूम भी आता, पर बाजार में बात फकत् उमा से ही होती। सुखदा को दो-चार बार कुछ पूछा भी, लेकिन वह छोटा-सा उत्‍तर देकर मौन धारण कर लेती। मुझे उसका यह अबोलापन कुछ अटपटा-सा लगता।
     सप्‍ताह पूरा होने पर मुझे किराये के मकान में रहने के लिए जाना था, उसी शाम आलोक ने घर आकर बताया कि उसे अपनी पत्‍नी और बेटे को ससुराल से लाने के लिए कोलकाता जाना होगा। मैंने तुरंत कह दिया कि इसमें चिन्‍ता की कोई बात नहीं, मैं तो कल ही किराये के मकान में शिफ्‍ट हो जाउंगा, वह निश्चिन्‍त होकर कोलकाता हो आए। आलोक को मेरी बात कुछ कम जंची। बोला, क्‍या बात करते हो आनंद, मेरे मां-बाप के लिए जैसा मैं हूं, वैसा ही तू है। पिताजी की तो यों भी तबियत नर्म है, तेरे यहां रहने से घर में कुछ मदद ही रहेगी। इसलिए मेरी वापसी के बाद आराम से शिफ्‍ट हो जाना।"  
     आलोक के पिताजी और माताजी ने जब इस बात पर जोर दिया तो मुझे उनकी बात मान लेनी पड़ी। इधर सुखदा की चुप्‍पी ने भी जाने-अनजाने अपने प्रति मेरी दिलचस्‍पी को बढ़ा दिया था। मैं लगातार इस इंतजार में था कि थोड़ा एकान्‍त मिले तो मैं इसकी वजह जानूं। वह इतनी अबोली और अनमनी क्‍यों रहती है? आलोक की मौजूदगी में इस सब पर बात कर पाना मुश्किल था। शाम को उसके घर लौट आने के बाद तो वह दिखाई देनी ही बंद हो जाती। यों सुखदा का आलोक से देवर-भाभी का जो रिश्‍ता था, मैं भी इसी नजर से उसे देखता था। भले वह उम्र में मुझसे छोटी थी, लेकिन उस घर की बड़ी बहू होने के नाते मेरे लिए भी अब बड़ी भाभी जैसी ही हो गई थी। सुखदा का संकोच कई बार मुझे दुविधा में डाल देता। उमा जितनी सहजता से मुझे भाईजी कहकर संबोधित कर लेती, सुखदा मेरे लिए कोई संबोधन तय नहीं कर सकी। वह बोलती ही इतना कम थी कि शायद उसे किसी संबोधन की जरूरत ही नहीं थी।
     पिताजी की तबियत को लेकर आलोक अक्‍सर चिन्‍ता में रहता था। दो-एक दिनों से उनकी तबियत यों भी नर्म थी। मैंने उसे तसल्‍ली देने का प्रयास किया कि वह चिन्‍ता न करे, जरूरत पड़ने पर दवाई-पानी की कमी नहीं होगी। यह बात जानता था कि आलोक के बाहर जाते ही मेरी जिम्‍मेदारी अवश्‍य बढ़ जाएगी, जबकि गुवाहाटी मेरे लिए एकदम नयी जगह थी। मेरी तसल्‍ली के बाद आलोक उसी शाम कोलकाता के लिए रवाना हो गया।
     सवेरे जब सुखदा कमरे में चाय देने आई तो मैंने कुछ जानकारियां लेने के बहाने उसे बातचीत में लगा लिया। वह खाली ट्रे हाथ में लिये मेरे सवालों के छोटे-छोटे उत्‍तर देती रही। पास में खाली पड़ी कुर्सी पर बैठने का कहने के उपरान्‍त भी वह अपने पांवों पर ही खड़ी रही। मैंने चाय पीकर कप उसे वापस कर दिया। मैं कुछ और पूछता, तभी भीतर से मांजी के बुलावे की आवाज आ गई। वह खाली कप लेकर तुरंत कमरे से बाहर निकल गई।
      अगले दिन आलोक के पिताजी की तबियत और नर्म हो गई। उनके पेट और कलेजे में जलन-सी हो रही थी। शाम को डॉक्‍टर ने जांच कर उन्‍हें दवाई दे दी और उन्‍हें नींद आ गई। रात को ग्‍यारह बजने तक मैं, सुखदा और मांजी सभी उनके पास बैठे रहे। उमा और दीपक तो दस बजे अपने कमरे में जाकर सो गये। मां अक्‍सर बच्‍चों के पास ही सोया करती थी, पर उस रात ज्‍यादा थकान के कारण बातचीत करते करते वहीं पिताजी के पास ही दूसरे पलंग पर लेट गई और उन्‍हें नींद आ गई। रात को सवा ग्‍यारह बजे मैं भी सुखदा से एक ग्‍लास पानी देने का कहकर अपने कमरे की ओर बढ़ गया।
       थोड़ी देर बाद सुखदा पानी लेकर आ गई। ग्‍लास मेरे हाथ में देकर वह वह मेरे पास रुक गई। मैंने जब उससे नर्मी से पूछा कि वह इतनी गुमसुम और उदास क्‍यों रहती है? तो वह उसी तरह बिना कुछ बोले सिर नीचा किये आंगन की ओर घूरती खड़ी रही। मैंने जब अधिक आग्रह किया तो वह संकोच करती-सी खाली कुर्सी पर बैठ गई। सुखदा अभी इसी दुविधा में थी कि वह अपने मन की पीड़ा मेरे सामने प्रकट करे या नहीं। मेरी हमदर्दी से उसके मन में थोड़ी तसल्‍ली अवश्‍य हो गई थी और उसी विश्‍वास से वह मेरे पास बैठ गई थी। मैं जानता था कि उसका यह विश्‍वास बनाये रखना बेहद जरूरी है। बरसों बाद उसके साथ एकान्‍त में बात करने का यह मेरा पहला अवसर था और वह इसका कोई गलत अर्थ न लगाए, इस बात का मुझे विशेष ध्‍यान रखना था। किसी जवान विधवा के साथ एकान्‍त में बात करना कितना मुश्किल होता है, यह बात मैं अच्‍छी तरह जानता था। मैंने जब उसे इतनी तसल्‍ली और अपनापन देकर आग्रह किया तो उसने धीरे धीरे अपनी सारी व्‍यथा और आशंकाएं खोलकर मेरे सामने रख दीं।
      सुखदा ने अपनी मां के स्‍वर्गवास और उसके बाद बीते घटनाक्रम को बयान करने के बाद सार रूप में इतना ही कहा था, आनन्‍द, आप मेरे परिवार को अच्‍छी तरह जानते हैं, मेरी मां ने जीते-जी अपनी बेटियों की आंख में आंसू नहीं आने दिया। मेरी बड़ी बहन और बड़ा भाई आज उसी के बूते सुख की जिन्‍दगी जी रहे हैं। अगर भाई-भाभी का मन कमजोर न होता, तो आज शायद मुझे यहां आने की जरूरत न होती। मैं खुद एक बेटी की मां हूं, उसकी पीड़ा और चिन्‍ताओं को करीब से जानती हूं। छह महीने पहले अपनी मां के स्‍वर्गवास के बाद मैंने आलोक को दो-तीन पत्र लिखे कि वे मां-बाबूजी को कुछ समय के लिए देश पहुंचा दें या एक बार खुद आकर यहां का घर खोल जाएं, ताकि मैं घर में अपनी बेटी के साथ रह सकूं। इतने बरस तो मैंने अपनी मां के साथ जैसे-तैसे गुजार लिये, लेकिन अब भाई-भाभी पर बोझ बने रहने की बजाय मुझे अपने घर में रहना ही उचित लगता है। आलोक से दो बार फोन पर बात भी की, लेकिन मुझे अफसोस हुआ कि उनके लिए मेरी परेशानी किसी गिनती में नहीं थी। आखिर मैंने सीधे बाबूजी से बात की और अपनी चिन्‍ता–परेशानियों से अवगत कराया। उन्‍होंने ही शायद लोकलाज के दबाव में एक करीबी रिश्‍तेदार के साथ मुझे गुवाहाटी बुलवा लिया। तय तो यही हुआ था कि मां-बाबूजी या आलोक स्‍वयं मेरे साथ वापस चलकर उस घर में मेरे रहने की व्‍यवस्‍था कर आएंगे और मां-बाबूजी को मेरे पास छोड़ जाएंगे। लेकिन पिछले चार महीनों से मैं यहां अटकी पड़ी हूं, आलोक से जब भी बात करती हूं, किसी-न-किसी बहाने से टाल देता है। मेरी बच्‍ची वहां भाई के बच्‍चों के साथ बैठी है। पता नहीं किस हाल में है।" इतना कहते हुए उसकी आंखें छलछला आईं।   
     सुखदा की पीड़ा जानकर मैं अवाक् था। सूझ नहीं रहा था कि किस तरह उसे धीरज दिलाऊं। यह भी चिन्‍ता हो रही थी कि कहीं आलोक की मां न जाग जाए, और अपनी बहू को इस तरह किसी पराये के सामने रोते देखकर कुछ गलत न सोचने लगे। मैंने किसी तरह सुखदा को धीरज से काम लेने को कहा और आश्‍वस्‍त किया कि मैं कोई रास्‍ता निकालने का प्रयत्‍न अवश्‍य करूंगा। उसका ध्‍यान बंटाने के लिए यों ही पूछ लिया, तो आप यहां अकेली क्‍यों आ गईं, बेटी को भी अपने साथ ले आतीं। वह तो अभी छोटी ही होगी न। आपको यहां रहना पड़े तो क्‍या दिक्‍कत है, ये भी आपका अपना घर है।"
       मैं तो खुद यहां आकर बंध गई हूं, आनंदजी। अब तो वाकई यहां से वापस निकलना मुश्किल हो गया है। बिटिया को इसीलिए नहीं लाई कि जब हफ्‍ते दस दिन में वापस लौटना था तो उसे क्‍यों  कष्‍ट देती, यों वो छह बरस की है, मेरे साथ रहने की ज्‍यादा जिद भी नहीं करती। वह भाई के बच्‍चों के साथ पहले से घुली-मिली थी और भाई-भाभी ने भी यही सलाह दी कि बच्‍ची को उन्‍हीं के पास छोड़ जाऊं, बस यही गलती हो गई मुझसे।"   
     लेकिन आप तो इस घर की बड़ी बहू हैं, मां-बाबूजी भी आपका मान रखते हैं, फिर एक बार ढंग से बैठकर बात क्‍यों नहीं कर लेतीं? या तो वे बच्‍ची को यहीं बुलवा लेंगे या साथ चलकर आपकी व्‍यवस्‍था  कर देंगे। ये तो बिल्‍कुल वाजिब बात है। 
     अब तो कहने भर को इस घर की बहू रह गई हूं आनंद बाबू। पति के न रहने पर ससुराल में औरत की क्‍या कद्र रह जाती है, यह इतने बरसों में अच्‍छी तरह से जान गई हूं। लगता है, वह रिश्‍ता   उन्‍हीं के साथ कहीं खो गया है। बाबूजी भी बस लोक-लिहाज के कारण थोड़ा-सा खयाल रख लेते है, वरना सासूजी और देवरजी की तरफ से तो दुआ-सलाम हुआ ही समझें।"  
     अपनी निराशा को व्‍यक्‍त करने के लिए यों तो सुखदा के ये शब्‍द पर्याप्‍त थे, फिर भी जाने क्‍यों   पूछ ही लिया, क्‍या आलोक को आपसे कोई शिकायत है? वह आपके पति का सगा भाई है, आपका इस घर में उतना ही अधिकार है, जितना उसका। फिर ऐसी तो कोई तंगी-परेशानी भी नहीं कि कोई अपनों से ऐसा बरताव करे? सब अच्‍छा खाते कमाते हैं।"  
       इसी बात का तो रोना है। बहुत खाते-पीते आसामियों में गिनती होती है। चार बेटे-बेटी हैं सेठ लक्ष्‍मीचंद के, पर सारी संपत्ति अकेले आलोक बाबू को चाहिये। मैंने तो कभी भूलकर भी अपने हिस्‍से की बात नहीं की। फकत् इतनी-सी बात कहने आई थी कि वे एक बार मां-बाबूजी को मेरे साथ बीकानेर भेज दें, जिससे मैं बरसों से बंद पड़े घर को उनके सामने खुलवा कर साफ-सफाई करवा लूं, कोई टूट-फूट हो तो उसकी मरम्‍मत हो जाए और बच्‍ची को लेकर बस रहने भर का हिस्‍सा अपने लिए ठीक कर लूं। मेरे तो अपने कपड़े और घर के बर्तन तक उसी में बंद पड़े हैं। यों तो मैं इनसे बगैर पूछे भी घर खुलवा लूं तो मुझे कौन रोकने वाला है? लेकिन बेबात की बदमगजी क्‍यों हो? इसीलिए चाहती थी कि सारी बात राजी-खुशी इनके अपने हाथ से हो जाए। मुझे किसी से कोई और हिस्‍सेदारी नहीं चाहिये। खुद बी ए बी-ऐड हूं, कोशिश करके किसी स्‍कूल में छोटी-मोटी जॉब करके भी अपना गुजारा कर लूंगी। हां इतना जरूर चाहती हूं कि अपने घर में मेरे साथ भेदभाव न किया जाए।"   
      तो इसमें आलोक का क्‍या कहना है? क्‍या वह आपको उस घर में रहने से मनाही करता है?"
      आपके मित्र आलोक बाबू बहुत होशियार सेठ बन गये हैं। वे साम-दाम-दंड-भेद की सारी नीतियां बरतना जानते हैं। अगर भाभी तैयार हो तो यहीं सारी सुख-सुविधाएं देकर रखने को तैयार हैं, बस उनकी इच्‍छाओं का खयाल रखूं। यदि उनकी बातों को विरोध करूंगी तो इस पराई धरती पर मेरे साथ कोई हादसा करवाने में भी वे शायद ही चूकें, अगर उनके व्‍यवहार की शिकायत करूं तो उल्‍टे मुझ पर आरोप लगाकर बदनाम करने में भी संकोच नहीं करेंगे। बस उन्‍हें यह बात अच्‍छी नहीं लगती‍ कि मैं परिवार में अपने हक की बात करूं या अपने हिस्‍से का अलग ढंग से उपयोग करूं। अब तो किसी से बात करते हुए भी डर-सा लगा रहता है आनंद, मैं आखिर किस पर भरोसा करूं?"   
     यह तो बहुत दुख की बात है, सुखदा। मैं तो कल्‍पना भी नहीं कर सकता कि कोई सगा भाई  अपने बड़े भाई की पत्‍नी के साथ ऐसा रवैया रख सकता है, वह भी तब, जब उसका भाई संसार में न रहा हो।" मुझे पहली बार आलोक का मेहमान बनकर उस घर में रहना बोझ-सा लगने लगा। लेकिन अब तो उससे बड़ी चिन्‍ता यह हो गई कि सुखदा को इन हालात से निकालकर किस तरह उसके ठिकाने वापस पहुंचाया जाए। खुद को लेकर यह चिन्‍ता भी होने लगी थी कि कहीं सुखदा मेरी हमदर्दी का गलत अर्थ न लगाने लगे।
     तुमने बाबूजी या मांजी से इस बारे में बात नहीं की कभी? वे क्‍या कहते हैं?
     बाबूजी की बड़ी चिन्‍ता खुद उनका कमजोर स्‍वास्‍थ्‍य है। उनके पेट में अल्‍सर है। पूछने पर यही कहते हैं कि थोड़ी तबियत सुधर जाए तो कोई हल निकालेंगे। लेकिन पिछले दो महीने से यही हाल है। मैंने खुद इसी उम्‍मीद में इतने दिन निकाल दिये। जबकि आलोक की बदनीयत सामने आने के बाद तो एक दिन भी यहां रहना भारी लगता है। उसे तो इसी बात की शिकायत है कि मैंने उसकी नीयत में साथ नहीं दिया। इस बात से परेशान रहता है कि कहीं मैं घर में उसकी चर्चा न कर दूं। मैं क्‍या करूं आनंद, मां-बाबूजी को कहने से भी क्‍या होगा, उल्‍टा घर का अकाज ही होना है, उन्‍हें दुख होगा, उनका यह एक ही बेटा है, इतना बडा़ कारोबार है, और किसके भरोसे चलाएं?" कहते हुए सुखदा गहरे सोच में डूबकर चुप हो गई। मेरे पास भी कहने को कुछ नहीं था जैसे।
     गनीमत है कि वे हमारे बचपन के रिश्‍ते को नहीं जानते, वरना आपको यहां लाने जोखिम कभी न उठाते। मैं भी यही कोशिश करती हूं कि उनके सामने आपसे कोई बात न करूं। आप मुझे बचपन से जानते हैं और इस बची हुई दोजख जिन्‍दगी में भी मैं आपके उस अहसान को मैं कभी नहीं भूली – जो इन्‍सान किसी और को बचाने में अपनी जान जोखिम में डाल सकता है, उसके अपनेपन को कैसे भूला जा सकता है? जिस दिन मुझे यह जानकारी मिली कि आप आने वाले हैं, मेरा तो जी में जी आ गया। इस पराई जमीन पर कोई तो ऐसा दीखा, जिसे अपनी तकलीफ बयान कर सकी हूं।" सुखदा के चेहरे पर पहली बार मुझे शान्ति और संतोष का भाव दिखाई दिया।
      इसे अहसान मत कहो सुखदा, अगर अपना समझती हो तो इसे अपना हक समझो। मेरा तो विचार है कि एक बार ठंडे दिमाग से आलोक से बात कर लो, उसकी कमजोरियों को दरकिनार रख किसी तरह उसे इस बात के लिए राजी कर लो कि वह मां-बाबूजी को कुछ दिनों के लिए तुम्‍हारे साथ भेजने को तैयार हो जाए। जरूरत पड़े तो उसे यह भी जता दो कि तुम किसी दबाव में आने वाली नहीं हो। मेरा खयाल है, वह टकराव में आने से जरूर बचेगा। 
      हां सोचा तो मैंने भी कुछ ऐसा ही है, लेकिन डर इसी बात का है कि अगर बाबूजी की तबियत न संभली तो मेरी परेशानी निश्‍चय ही बढ़ जानी है, तब मांजी के चलने की गुंजाइश भी खत्‍म हो जायेगी। दो दिन बाद कोलकाता से उसकी बीबी के आ जाने के बाद यों ही घर का माहौल शायद ही अनुकूल रह पाए। उसकी पत्‍नी को मेरा यहां रहना कतई रास नहीं आएगा। उस स्थिति में लगता है, मुझे अकेले ही निकलने की हिम्‍मत बटोरनी होगी।"
      उसकी चिन्‍ता करने की अब जरूरत नहीं है। अभी तो खुद मुझे किराये वाले मकान में कुछ जरूरी सामान रखवाकर एक बार बीकानेर जाना है। उस स्थिति में तुम्‍हें सुरक्षित घर पहुंचा देना अब मेरी जिम्‍मेदारी समझो।" पूरे हालात जानने के बाद मैंने सुखदा को यह तसल्‍ली देना जरूरी समझा।
      वाकई यह चिन्‍ता दूर हो जाए, तो मेरे मन से बड़ा बोझ हट जाए। भर पाई मैं यहां आने और रहने से, कोई मेरे साथ चले तो अच्‍छी बात, न चल सके तो उनकी मरजी। घर की चाबी तो बाबूजी यों भी देने को तैयार बैठे हैं, उन्‍होंने ही तो इतने दिनों से धीरज दिला रखा है, वे आलोक के रवैये को जानते हैं, बस उसकी बदनीयती वाली बात मैंने उन्‍हें नहीं बताई और न बताने की जरूरत। वैसे बाबूजी खुद आलोक पर अब नजर रखने लगे हैं, घर में अगर मेरे साथ वह अच्‍छा बरताव न करे, तो उसे टोक भी देते हैं। पर इससे मेरी समस्‍या अपनी जगह बरकरार हे। अब सोचती हूं, आपका यहां आना वाकई मेरे लिए एक बडी उम्‍मीद जैसा हो गया है, मुझे तो अपनी वापसी अब आप ही के जिम्‍मे आती दिख रही है। इस बार आपकी पत्‍नी और घर वालों से मिलना हो जाए, तो वहां मेरा भी कोई अपना कहने वाला हो जायेगा।" सुखदा प्रसन्‍न मन से अपने भावी जीवन की कल्‍पना में विभोर होने लगी थी।  
       बीबी और परिवार तो अभी घर बसाने से बनेगा, सुखदाजी। अभी तो पीछे अपनी बूढ़ी मां और दो छोटे भाई-बहन को छोड़कर आया हूं, जो पढ़ रहे हैं। बहन ने बी ए कर ली है और मां की बड़ी चिन्‍ता उसकी शादी करना रह गई है। पिछले कुछ अरसे से मेरे पीछे पड़ी हुई है, पर मैं चाहता हूं कि पहले बहन के हाथ पीले हो जाएं तो एक बड़ी जिम्‍मेदारी पूरी हो जाए। 
      मेरी बात सुनकर सुखदा आश्‍चर्य से मेरी ओर देखती रह गई। उसकी आंखों में गहरा अपनेपन का भाव था, लेकिन फिलहाल उसने उसे शब्‍दों में बयान करना टाल दिया। उसने उठते हुए बस इतना ही कहा, बहुत भाग्‍यशाली हैं आपकी मां, जिन्‍हें आप जैसा बेटा मिला। वह लड़की भी बेहद खुशनसीब होगी, जिसे आप अपना जीवनसाथी चुनेंगे। ईश्‍वर आपकी हर कामना पूरी करे।"  
     सुखदा की इन दिली दुआओं से दूर मैं जाने अतीत की किन रूमानी स्‍मृतियों और कल्‍पनाओं में खो गया था, एक अनाम रिश्‍ता जो बनने पहले ही कहीं विलग गया। अगर वह समय पर आकार ले पाता तो आज सुखदा को ये दुर्दिन शायद न देखने पड़ते। अब हमारे पास क्‍या विकल्‍प बच गये हैं, मेरे लिए उन पर बात करना आसान नहीं है। एक अव्‍यक्‍त आत्‍मीयता और अपनापन है, जिसे शब्‍दों में बयान करने की कोई सूरत नहीं सूझ रही। इस बीच अपने को समेटती-सी वह उठी और एक फीकी मुस्‍कान को साथ लिए बाहर निकल गई। उसके विदा होने के बाद मैं उसी नीम अकेलेपन में देर तक सुखदा की परेशानियों पर सोचता ही रह गया, जिनका कोई संगत निस्‍तार बेशक न दीख रहा हो, लेकिन उन संभावनाओं के प्रति आश्‍वस्‍त जरूर था, जो उसके नये इरादों में आकार लेने लगी थी।      
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-          नंद भारद्वाज
71/247, मध्‍यम मार्ग
मानसरोवर, जयपुर – 302020
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