Wednesday, February 17, 2021

 


कृष्‍णा सोबती : एक विलक्षण व्‍यक्तित्‍व  

 विभाजन-पूर्व के पंजाब सूबे का पुराना शहर उदयगिरी गुजरात (जो अब पाकिस्‍तान में है) और उसके करीब स्थित चिल्लियांवाला मैदान, राजा रणजीतसिंह की सिक्‍ख सेना और फिरंगी फौज के बीच हुई तीन लड़ाइयों के कारण अपना ऐतिहासिक महत्‍व रखता है। इसी सिक्‍ख सेना ने जहां दो बार ब्रिटिश सेना को करारी मात दी, वहीं तीसरी मुठभेड़ में ब्रिटिश सेना ने उसी सिक्‍ख सेना को मात देकर 21 फरवरी, 1849 को पूरे पंजाब पर अपना कब्‍जा जमा लिया। इसी गुजरात शहर के मूल निवासी दीवान जे सी सोबती की सोबतिया हवेली में उनके पुत्र पृथ्‍वीराज और बहू दुर्गा की कोख से 18 फरवरी, 1925 को जिस सुकुमार कन्‍या का जन्‍म हुआ, तब किसी को यह कल्‍पना भी नहीं थी कि आनेवाले समय में यही कन्‍या सुविख्‍यात कथाकार कृष्‍णा सोबती के नाम से हिन्‍दी-जगत में अपनी विशिष्‍ट पहचान बनाएगी। इस पुश्‍तैनी विरासत और बचपन की स्‍मृतियों का हवाला देते हुए कृष्‍णा जी अक्‍सर उन स्‍मृतियों से अपने स्‍वाभाविक लगाव और स्‍वाभिमान से भर उठती थीं।

     पिता पृथ्‍वीराज सोबती तब भारत की ब्रिटिश सरकार में सीनियर सिविल सर्वेण्‍ट के रूप में कार्यरत थे, जो छह महीने शिमला और छह महीने दिल्‍ली रहा करते थे। बच्‍चे जब स्‍कूल जाने लायक हो गये, तब से वे परिवार को अपने साथ ही रखने लगे थे। कृष्‍णा जी बड़ी बहन राज दीदी और उनसे छोटे भाई थे जगदीश के कुछ अंतराल बाद सबसे छोटी बहन पैदा हुई थी सुषमा, इन सबको मिलाकर वे चार भाई बहन थे। कृष्‍णा सोबती ने अपने जन्‍म और बचपन और पारिवारिक पृष्‍ठभूमि को लेकर साहित्यिक पत्रिका ‘अन्‍यथा’ से एक विस्‍तृत बातचीत में बहुत दिलचस्‍प ब्‍यौरा दिया था। उन्‍होंने कहा था – “हर किसी की तरह जन्‍म लेने के लिए मुझे भी परिवार चुनने की छूट तो नहीं थी। आंख खोलते ही विविधताओं के तीन अकाउंट मेरे नाम के इम्‍पीरियल बैंक में खुल गए। पहला खाता खुला ननिहाल घर में। क्‍या नहीं था इसमें। चनाब का मनमौजी किनारा, लहराते खेत, लय में चलते रहट, अमृत भरे कुंए-कुंइयां, छांहदार पेड़, मुंडेरों पर खड़े मोटे गाढ़े में खुरदरे लोग, मजबूत कद-काठीवाली गरमीली मुटियारें। दूसरा खाता खुला ददियाल घर। उदयगिरी गुजरात। चिल्लियां वाले मैदानवाला ऐतिहासिक शहर। फिरंगी को हमारी सेनाओं ने दो बार मात दी और तीसरी बार हार कर रणजीतसिंह का पंजाब अंग्रेजों ने हथिया लिया। सर्रायों से लगी सोबतियों की हवेली छोटी ईंट में चुनी। तीन पाटों वाला लकड़ी का फाटक, पीतल के कीलों की जड़तवाला। खुला सहन। -- हवेली पर उतरती थी दोहरी सांझ। चढ़त का वक्‍त गुजर चुका था और धीरे-धीरे उतार पसर रहा था। लड़ाइयों की गवाह इमारत खुद हारी हुई लगती थी। अपने को विशेष का वंशज समझनेवाले खानदान का गुम्‍बद ढहने लगा तो दादा साहिब गुजरात से रावलपिंडी को निकल गए। छावनी में अच्‍छे अधिकारी की कुर्सी पा ली। पिंडी और मरी, फिर तबादला कलकत्‍ता। डिफैंस के मेडिकल में। मेरे पिताजी और उनके छोटे भाई सब वहीं बड़े हुए। राजधानी कलकत्‍ता से दिल्‍ली आ गई तो फिर परिवार छह महीने दिल्‍ली और छह महीने शिमला। छुट्टियों में हम कभी अपने वतन गुजरात जाते। कभी उसे अपनी और कभी पराई आंखों से देखते। वहां अब भी बहुत कुछ ऐसा था जो मूल्‍यवान था और ऐसा भी जो फीका, खस्‍ता हालत में था। वह उस पर से गुजर चुके गुलजार और वीरान मौसमों की याद दिलाता। अपनी हवेली का पता हम में खास तरह का स्‍वाभिमान जगाता। सोबती स्‍ट्रीट, डिस्टि्रक्‍ट गुजरात, पंजाब। फिर उमंग से लौटते अपनी दिल्‍ली, शिमला की सुहानी धूप में।" (वही, पृ 172)

     उस समय के घरेलू वातावरण और पारिवारिक अनुशासन को याद करते हुए वे कहती हैं, “हम बच्‍चों को अपनी बात कहने की खुली छूट थी। हमें इतना विश्‍वास था कि जो बात ठीक होगी, वह मान ली जाएगी। अनुशासन न तो इतना कड़ा था कि हम मन-ही-मन कुढ़ते रहें और न ही लाड़-प्‍यार से बिगड़ जाएं। बड़ों की ओर से एकल परिवार की चौखट में कुछ ऐसा सिखाया गया कि‍ हममें सही और गलत को जान लेने की तमीज हो। और इसकी तालीम भी कि हर बार सही वही नहीं होगा जो बड़े कहते हैं, सही वह भी होगा जो बच्‍चे कहते हैं। अपनी अपनी बात कहने की हमें पूरी आजादी थी।" (वही, पृ 103) अपने इस बाल्‍यकाल के कुछ वर्ष सोबतिया हवेली में बिताने के बाद कृष्‍णा सोबती अपनी स्‍कूली शिक्षा के लिए पिता के पास शिमला आ गईं और वहां की लेडी इ‍रविन स्‍कूल में उन्‍हें दाखिला दिलवा दिया गया। वहीं दूसरे स्‍कूल हारकोर्ट बटलर में उनका भाई जगदीश भी पढ़ता था, जहां हिन्‍दी के जाने-माने कथाकार निर्मल वर्मा उसके सहपाठी हुआ करते थे। कृष्‍णाजी उन्‍हें भाई के सहपाठी के रूप में जानती अवश्‍य थी, लेकिन तब उनसे कोई विशेष परिचय नहीं था और न उन्‍हें इस बात का कोई इल्‍म ही था कि आनेवाले समय में वे दोनों हिन्‍दी के महत्‍वपूर्ण कथाकारों में गिने जाएंगे। तब के शिमला के वातावरण और अंग्रेजी राज के असर का हवाला देते हुए वे कहती हैं : “यह ब्रिटिश राजधानी होने का असर था कि भारतीय लोग भी बहुत औपचारिक व्‍यवहार करने लगे थे। शहर भी दो हिस्‍सों में बंटा था – लोअर बाजार में भारती की खुशबू मिलती थी, तो मॉल का अपर बाजार अपनी अंग्रेजियत के लिए जाना जाता था। शिमला में उन दिनों ब्रह्म समाज और आर्य समाज दोनों सक्रिय थे। ब्रह्म समाज के सदस्‍य शिक्षित लोग थे, जो देखने में अंग्रेज लगते थे। आर्य समाज वहां का हिन्‍दी का वाहक बना।" अपनी स्‍कूली शिक्षा के दौरान शिमला में हिन्‍दी साहित्‍य सम्‍मेलन के अधिवेशन और उसमें भाग लेने वाले लेखकों के एक जुलूस का स्‍मरण करते हुए कृष्‍णा सोबती ने उसे अपने जीवन-अनुभव के लिए निर्णायक मानते हुए उसमें महाकवि निराला की मौजूदगी को बहुत आत्‍मीयता से याद किया। वे कहती हैं, “सन् छत्‍तीस या सैंतीस में हिन्‍दी साहित्‍य सम्‍मेलन का शिमला अधिवेशन हुआ। उस सम्‍मेलन का अनुभव मेरे लिए निर्णायक साबित हुआ। शिमला अधिवेशन में अध्‍यक्ष बनकर ‘आज’ के संपादक पंडित बाबूराव विष्‍णु पराड़कर आए थे। सम्‍मेलन में निराला, भगवतीचरण वर्मा, सुमन, विद्यावती कोकिला भी आईं थी। हमें पता चला कि‍ मालरोड पर इन लेखकों का जुलूस निकलेगा तो हम फूल लेकर सड़क किनारे खड़े हो गए। अनोखा जुलूस था। सरदारों ने हाथ में नंगी तलवारें ले रखी थीं। निराला जी लंबे थे, उन्‍होंने हम बच्‍चों को नहीं देखा। हमने भगवतीचरण वर्मा, सुमन, कोकिला को फूल भेंट किए। बाद में सम्‍मेलन में निराला जी ने जब कविता पढ़ी तो सारा हॉल उत्‍तेजित हो गया। निराला की कविता ने श्रोताओं को अजीब तरह से उत्‍साहित कर दिया था।" उसी अवसर पर भगवतीचरण वर्मा से हुई अपनी भेंट और अपने आरंभिक लेखन की शुरूआत का हवाला देते हुए कृष्‍णा जी ने बताया कि “मैंने भगवतीचरण वर्मा का ऑटोग्राफ लिया था। वहीं उन्‍होने बताया कि वे कलकत्‍ता से ‘विचार’ निकालने जा रहे हैं। मैंने ‘विचार’ का पता लिया और उसी में मेरी पहली कहानी ‘उसकी रोटी’ शायद सन् उन्‍तालीस में छपी थी। बाद में अज्ञेय जी ने ‘प्रतीक’ में मेरे उपन्‍यास का अंश ‘चन्‍ना’ और कहानी ‘सिक्‍का बदल गया’ को छापा। इस तरह लिखने की शुरुआत हुई तो फिर क्रम चलता रहा। (वही, पृ 151-152)

    कृष्‍णा जी के इस ब्‍यौरे से यह बात स्‍पष्‍ट हो जाती है कि उनके लेखन की शुरुआत शिमला में उनके स्‍कूली दिनों से ही हो गई थी। हालांकि शुरुआत उन्‍होने भी कविता से ही की थी, उस प्रसंग को याद करते हुए वे कहती हैं, “पहली कविता जब लिखी गई, मैं अपनी मां के साथ शिमला, इसे एक प्रतियोगिता में पढ़ने गई, और वहां मुझे इस पर पहला पुरस्‍कार मिला – एक रजत पदक। कॉलेज के दिनों तक मैं कविताएं लिखती रही और जल्‍दी ही मुझे मालूम हो गया कि‍ कविता मेरा क्षेत्र नहीं है, और मैं गंभीरता पूर्वक गद्य की तरफ मुड़ गई।" (वही, पृ 129)  अपनी हाई स्‍कूल तक की शिक्षा पूरी करने के बाद कृष्‍णा सोबती कॉलेज शिक्षा के लिए लाहौर आ गईं। लाहौर के फतेहचंद कॉलेज में जहां वे पढ़ती थीं, उसी कॉलेज में तेजी बच्‍चन अंग्रेजी की प्राध्‍यापक थीं और वे शेक्‍सपीयर के नाटकों में अपने जानदार अभिनय के कारण अच्‍छी प्रसिद्धि प्राप्‍त कर चुकी थीं। इसी कॉलेज में शिक्षा ग्रहण करते हुए कृष्‍णा सोबती अपने लेखन के प्रति और निरन्‍तर सक्रिय बनी रहीं। ‘लामा’ जैसी दिलचस्‍प कहानी उसी दौर की उपज के रूप में सामने आई। देश की आजादी के एक-दो साल पहले ही पंजाब और सीमान्‍त क्षेत्र का वातावरण लगातार तनावपूर्ण हो रहा था, ऐसे दौर में कृष्‍णा जी के पिता पहले ही दिल्‍ली आ गए थे और कृणा सोबती ने भी अपनी बची हुई कॉलेज शिक्षा दिल्‍ली में ही पूरी की और वे अपनी कहानियों और अपने पहले उपन्‍यास ‘चन्‍ना’ की तैयारी में जुट गईं। उनकी प्रमुख कहानियां ‘सिक्‍का बदल गया’, ‘मेरी मां  कहां है’, ‘डरो मत मैं तुम्‍हारी रक्षा करूंगा’, ‘खून, मिट्टी, सरसती’ जैसी कहानियां उसी विभाजन की पीड़ा से उपजी कहानियां हैं, जिसे कृष्‍णा सोबती जैसे रचनाकारों ने उस दौर को जी कर लिखा है। ‘चन्‍ना’ का पहला प्रारूप सन् 1952 में तैयार हो चुका था और उसे कृष्‍णा जी ने इलाहाबाद के प्रमुख प्रकाशन संस्‍थान भारती भंडार को प्रकाशित करने के लिए दे भी दिया, जो अगले दो साल तक उस पर कोई निर्णय नहीं कर सके। और जब छापने का मानस बनाया तो उसकी भाषा में इतने फेरबदल कर उसे छापना आरंभ किया कि‍ कृष्‍णा जी को तुरंत इसका मुद्रण रुकवाना पड़ा, क्‍योंकि प्रकाशक ने जो परिवर्तन किये थे, वे उन्‍हें स्‍वीकार्य नहीं थे। उन्‍होंने प्रकाशक को उसके छपे हुए तीन सौ पृष्‍ठों का भुगतान कर उपन्‍यास वापस अपने नियंत्रण में ले लिया और उसके प्रकाशन को लंबे समय के लिए स्‍थगित कर दिया। यही उपन्‍यास अपने लिखे जाने के अट्ठारह वर्ष बाद कुछ आवश्‍यक परिवर्तनों के साथ ‘जिन्‍दगीनामा’ शीर्षक से सन् 1979 प्रकाशित हुआ, जिस पर कृष्‍णा सोबती को सन् 1980 का साहित्‍य अकादमी पुरस्‍कार प्रदान किया गया और आज भी यह उपन्‍यास उनकी रचनाशीलता का महत्‍वपूर्ण पड़ाव माना जाता है।

     कृष्‍णा सोबती का पूरा जीवन यों तो एक स्‍वतंत्र पूर्णकालिक लेखक के रूप में व्‍यतीत हुआ, लेकिन आजादी के बाद अपनी कॉलेज शिक्षा पूरी होने तथा दिल्‍ली को ही स्‍थाई निवास बना लेने के बावजूद उन्‍होंने पारिवारिक जीवन की बजाय एक लेखक के रूप में एकाकी जीवन का विकल्‍प ही चुना। आजादी के तुरन्‍त बाद अपने जीवन की पहली नौकरी के रूप में दो वर्ष तक वे राजस्‍थान की पूर्व रियासत सिरोही के‍ राजघराने में रहीं, जहां उनमें एक स्‍वतंत्र देश के नागरिक होने का अहसास जगा। सिरोही राजघराने में शिक्षक और गवर्नेंस का काम करते हुए ज्‍यों ही राजघराने की अंदरूनी राजनीति और वहां के सामंती वातावरण से उनका मन ऊबने लगा, वे वापस दिल्‍ली लौट आईं और फिर एक स्‍वतंत्र लेखक के रूप में वहीं की होकर रह गईं। सन् 1980 से 1982 तक पटियाला में पंजाब विश्‍वविद्यालय की फैलो रहीं। उसके कुछ अरसे बाद वे दिल्‍ली लौट आईं और एक स्‍वतंत्र लेखक के रूप में अपने लेखनकर्म पर ही केन्द्रित हो गईं। उनके दो चर्चित उपन्‍यास ‘ऐ लड़की’ और ‘दिलो दानिश’ तथा संस्‍मरण सीरीज ‘हम हशमत’ का दूसरा भाग इन्‍हीं वर्षों में प्रकाशित होकर सामने आयीं। इसी दौर में वे साहित्‍य अकादमी से पुरस्‍कृत अपने उपन्‍यास ‘जिन्‍दगीनामा’ के शीर्षक संबंधी कॉपीराइट विवाद को लेकर अमृता प्रीतम से अदालती लड़ाई भी लड़ी और उसमें कामयाब भी हुईं। जिसकी वजह से अपने समय की इन दो बड़ी लेखिकाओं के आपसी रिश्‍ते थोड़े कटु भी रहे, लेकिन कृष्‍णा जी ने उस प्रसंग को लेकर अमृता प्रीतम पर सार्वजनिक रूप से कभी कोई टिप्‍प्‍णी नहीं की, जबकि अमृता प्रीतम ने कृष्‍णा जी के लेखन पर कई बार अनर्गल टिप्‍प्‍णियां भी की, जिनका कृष्‍णा जी ने कोई उत्‍तर देना मुनासिब नहीं समझा। इसी दौरान वे दूरदर्शन से विभाजन के दौर की कथा पर आधारित टीवी सीरियल ‘बुनियाद’ के निर्माण में सलाहकार के बतौर जुड़ी और मनोहरश्‍याम जोशी की पटकथा को उस समय के जीवन और परिवेश के अनुरूप जीवंत बनाने में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाई। सन् 1996 में वे तीन वर्ष के लिए भारतीय उच्‍च अध्‍ययन संस्‍थान की राष्‍ट्रीय फैलो बनकर शिमला चली गईं, जहां उन्‍हें राष्‍ट्रपति निवास परिसर में पोस्‍टमास्‍टर्ज हाउस रहने के लिए अलॉट हुआ। कृष्‍णा जी के इस शिमला प्रवास के बारे में उनके उत्‍तर जीवन के साथी डोगरी के मशहूर लेखक शिवनाथ ने अपनी आत्‍मकथा ‘वे भी दिन थे’ में बहुत रोचक वर्णन किया है। संयोग से शिवनाथ जी भी राजकीय सेवा से मुक्‍त होने के बाद सन् 1989 में मयूर विहार, दिल्‍ली की हाउसिंग सोसाइटी ‘पूर्वाशा’ के अपने फ्‍लैट 505 में रहने के लिए आ गए थे, जहां उसी फ्‍लोर पर कृष्‍णा सोबती भी अपने फ्‍लैट 503 में रहा करती थीं, यों वे उनके लेखन से पहले से ही परिचित थे और पड़ौस में रहते हुए उन दोनों के बीच मैत्री का अच्‍छा रिश्‍ता भी बन गया। स्‍वयं कृष्‍णा जी ने भी शिवनाथ जी के साथ अपने संपर्क-सहयोग और रागात्‍मक संबंधों पर आधारित ‘समय सरगम’ जैसा महत्‍वपूर्ण उपन्‍यास लिखा, जो सने 2000 में प्रकाशित हुआ था। दोनों के बीच के इसी आत्मिक लगाव का जिक्र करते हुए शिवनाथ‍ जी ने कृष्‍णा जी के शिमला प्रवास और उस दौरान वहां अपनी उपस्थिति का जिक्र करते हुए लिखा है – “एक दिन वे शिमला से दिल्‍ली आयीं तो मुझे अपने साथ शिमला चलने के लिए कहा। दिल्‍ली में उन दिनों डेंगू बुखार के बहुत केस हो रहे थे। डेंगू से बचने के लिए और राष्‍ट्रपति निवास में अपने पुराने महकमे के बंद डाकखाने के ऊपर बने डाकपाल के निवास के लिए बने फ्‍लैट के साथ अपना कुछ संबंध समझकर मैं उनके साथ चलने को राजी हो गया। तीन साल, मैं कुछ-कुछ दिनों के लिए उनका मेहमान बनकर पोस्‍टमास्‍टर्ज हाउस में ठहरता रहा। उच्‍च अध्‍ययन संस्‍थान में कृष्‍णा जी एक ही नेशनल फैलो थीं और संस्‍थान में उनका बहुत आदर-सम्‍मान और रुआब था।" (वे भी दिन थे, पृ 131) दरअसल कृष्‍णा जी के निजी जीवन और उनके जीवन-संघर्ष के बारे में उन्‍होंने अपनी कृतियों और साक्षात्‍कारों में बहुत सीमित शब्‍दों में बात की है, इसलिए उनके निजी जीवन के बारे में यह जिज्ञासा बनी ही रह जाती है कि एक व्‍यक्ति और लेखक के रूप में उन्‍होंने ऐसा एकाकी जीवन क्‍यों चुना? उनके उपन्‍यासों के केन्‍द्रीय स्‍त्री-चरित्र भी कभी चैन की पारिवारिक जिन्‍दगी ठीक से नहीं जी सके, वह चाहे ‘डार से बिछुड़ी’ की पाशो हो, ‘मित्रो मरजानी’ की मित्रो हो, ‘सूरजमुखी अंधेरे के’ की रत्‍ती हो, ‘तिन पहाड़’ की जया हो या ‘दिलो दानिश’ की महकबानो, ये सभी चरित्र अपने जीवन के अकेलेपन से संघर्ष करती रही हैं। बेशक उनके लेखन में और निजी जीवन में भी अकेलेपन का अभाव या अवसाद जैसा कुछ भी रेखांकित कर पाना कठिन है, बल्कि अपने इस अकेलेपन की वैयक्तिक स्‍वायत्‍ता को वे पूरी गरिमा के साथ जीती रही हैं। तभी तो वे अपने को ‘हशमत’ जैसे पौरुष किरदार में ढाल सकीं। और तो और उनके जीवन-सरोकार भी बहुत व्‍यापक थे। लेखकीय स्‍वतंत्रता, लोकतंत्र, सामाजिक न्‍याय और अपने मानवीय अधिकारों के प्रति वे किसी भी सत्‍ता या संस्‍थान के सामने झुकने को तैयार नहीं होती थीं, बल्कि उसे अपने लेखन और वैयक्तिक क्षमताओं में सीधी चुनौती देने को तैयार रहती थीं। कृष्‍णा जी के इस जुझारू व्‍यक्तित्‍व का जिक्र करते हुए अशोक वाजपेयी ने बहुत सटीक बात कही है – “कृष्‍णा जी उन मुद्दों और वृत्तियों के प्रति सजग थीं, जो हमारे सामाजिक जीवन में साहित्‍य से बाहर, उठते रहे हैं। स्‍वयं बंटवारे का शिकार होने के कारण भी उन्‍हें हमेशा पता था कि भारतीय समाज को लिंग, जाति, धर्म आदि आधारों पर बांटने की कोशिश करने वाली शक्तियां निरंतर सक्रिय हैं और इधर भयावह रूप से सशक्‍त और सत्‍तारूढ़ तक हो गयी हैं। इसलिए उनके विरुद्ध आवाज उठाना एक साहित्‍यकार के नाते उन्‍हें अपना नैतिक कर्तव्‍य लगता रहा। जब भारत के कुछ लेखकों ने देश में बढ़ती असहिष्‍णुता के विरोध में अपने पुरस्‍कार लौटाए तो न केवल 90 के ऊपर उम्र की कृष्‍णा जी ने अपनी साहित्‍य अकादमी फैलोशिप लौटा दी, बल्कि प्रतिरोध के लिए आयोजित एक सार्वजनिक सभा में व्‍हीलचेयर पर बैठकर बहुत जोरदार शब्‍दों में अपना विरोध व्‍यक्‍त किया।" (नया ज्ञानोदय, फरवरी 2019 पृ 7) 

   कृष्‍णा सोबती के साहित्यिक अवदान पर बात करने से पहले उनके कृतित्‍व को संक्षेप में जान लेना बेहतर होगा। यह बात सर्वविदित है कि कृष्‍णा सोबती सन् 1944-45 से कथा-लेखन के क्षेत्र में सक्रिय हुई और उनकी पहली कहानी ‘उसकी रोटी’ भगवतीचरण वर्मा की पत्रिका ‘विचार’ में सन् 1939 में प्रकाशित हुई तथा दूसरी कहानी ‘लामा’ 1950 में। उनकी सभी कहानियां उनके पहले कहानी संग्रह ‘बादलों के घेरे’ में संग्रहीत हैं। तब से अब तक सात दशकों की इस अथक साहित्‍य-यात्रा में उन्‍होंने ‘डार से बिछुड़ी’, ‘मित्रो मरजानी’, ‘सूरजमुखी अंधेरे के’, ‘यारों के यार’, ‘तिन पहाड़’, ‘जिन्‍दगीनामा’, ‘समय सरगम’, ‘दिलो दानिश’, ‘ऐ लड़की’ और ‘गुजरात पाकिस्‍तान से गुजरात हिन्‍दुस्‍तान’जैसी कथा-कृतियों तथा ‘जैनी मेहरबानसिंह’, ‘हम हशमत’, ‘लद्दाख : बुद्ध का कमंडल’, ‘मुक्तिबोध एक व्‍यक्तित्‍व की सही तलाश’ जैसी कथेतर कृतियों के माध्‍यम से हिन्‍दी और भारतीय साहित्‍य  जगत में अपनी विशिष्‍ट पहचान बनाई है। उनकी रचनाएं अनेक भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में अनुदित हैं।

     कृष्‍णा जी के साक्षात्‍कारों की नयी पुस्‍तक ‘लेखक का जनतंत्र’ के आवरण पर अंकित टिप्‍पणी में एक लेखक के रूप में कृष्‍णा सोबती की शख्सियत को रेखांकित सटीक वाकई गौरतलब है कि “लेखक की इस पहचान को स्‍वयं उन्‍होंने जिस अकुंठ निष्‍ठा और मौन संकल्‍प के साथ जिया, उसके आयाम ऐतिहासिक हैं। उनका लेखक सिर्फ लिखता ही नहीं रहा, उसने अपनी सामाजिक, राजनैतिक और नागरिक जिम्‍मेदारियों का आविष्‍कार भी किया और लेखकीय अस्तित्‍व के सहज विस्‍तार के रूप में उन्‍हें स्‍थापित भी किया।" कृष्‍णा जी ने इसी किताब की भूमिका में साहित्‍य कर्म की प्रकृति, स्‍वरूप और उसके संवेदन-संकल्‍प की अहमियत पर विशेष बल देते हुए यह बात कही है कि‍ “साहित्‍य अपनी गहराई, व्‍यापकता और संवेदन में सत्‍य, स्‍मृति, जिज्ञासा और उस उदात्‍त का वह शिखर है, जिस तक हम बराबर पहुंचना चाहते हैं। इसमें साहित्‍य की ऊर्जा और ऊष्‍मा रेखांकित है जिन्‍हें आप लिखी गई पंक्तियों के गुच्‍छे में महसूस करना चाहते हैं। शब्‍दों में से उभरती वैचारिक ऊष्‍मा, बौद्धिक ऊर्जा और भाषा के रूप में भाव का संवेदन। --- एक लेखक होने के नाते साहित्‍य और साहित्‍यकार की विशिष्‍ट सांस्‍कृतिक पहचान और खुले उन्‍मुक्‍त संस्‍कार की सुरक्षा चाहती हूं। रचनात्‍मक प्रतिभा, मौलिकता, अस्मिता और गरिमा जैसे मूल्‍यवान शब्‍दों का अवमूल्‍यन नहीं होना चाहिए।" (वही, पृ 8) 

    हिन्‍दी उपन्‍यास में इसी लोकतांत्रिक चेतना के विकास की ओर संकेत करते हुए आलोचक डॉ मैनेजर पाण्‍डेय ने बहुत सही कहा है कि “हिन्‍दी उपन्‍यास की दुनिया में सचमुच लोकतंत्र तब आया, जब स्‍त्री लेखिकाओं ने अपने उपन्‍यासों में एक ओर पुरुष सत्‍ता का विश्‍लेषण और चित्रण आरंभ किया और दूसरी ओर स्‍त्री के संघर्ष की कथा को उपन्‍यास के केन्‍द्र में लाने का प्रयत्‍न किया। कृष्‍णा सोबती के उपन्‍यासों में स्‍त्री की दृष्टि से देखे गये भारतीय समाज और उसमें स्‍त्री-पुरुष के संबंधों के सच को अनेक रूपों में व्‍यक्‍त किया गया है। कृष्‍णा सोबती और मन्‍नू भंडारी यद्यपि स्‍त्रीवादी लेखिकाएं नहीं हैं, फिर भी इनके लेखन में पुरुष के छल-छद्म की शिकार स्‍त्री की विडम्‍बनापूर्ण स्थिति की अभिव्‍यक्ति है। मृदुला गर्ग ने कुछ अधिक साहस के साथ स्‍त्री-पुरुष संबंध के प्रसंग में स्‍त्री के अनुभव के ऐसे पक्षों को व्‍यक्‍त किया है, जो केवल एक स्‍त्री कर सकती है, कोई पुरुष नहीं। इस प्रक्रिया में उपन्‍यास के माध्‍यम से स्‍त्री ने अपनी स्‍वतंत्र पहचान बनाई है।" (उपन्‍यास और लोकतंत्र, पृष्‍ठ 30)

    कृष्‍णा सोबती के इस अपूर्व साहित्यिक अवदान के लिए अपने जीवनकाल में वे पद्मभूषण, ज्ञानपीठ पुरस्‍कार, साहित्‍य अकादमी पुरस्‍कार, व्‍यास सम्‍मान, कथा चूड़ामणि पुरस्‍कार, साहित्‍य कला परिषद पुरस्‍कार, हिन्‍दी अकादमी के शलाका सम्‍मान, मैथिलीशरण गुप्‍त राष्‍ट्रीय सम्‍मान, पंजाब विश्‍वविद्यालय, पटियाला की फैलो और साहित्‍य अकादमी की महत्‍तर सदस्‍यता से सम्‍मानित हो चुकी हैं। इन तमाम राष्‍ट्रीय सम्‍मान-पुरस्‍कारों के बावजूद कृष्‍णा सोबती साहित्‍य की समग्रता में अपने को साधारण की मर्यादा में एक छोटी-सी कलम का पर्याय मानते हुए  कहती हैं - “सच पूछिए तो लेखक की पहचान से हटकर मेरी दूसरी कोई पहचान नहीं है। अपने को खुशकिस्‍मत मानती हूं कि‍ साहित्‍यकारों, पाठकों, आलोचकों और सम्‍पादकों की एक बड़ी विशिष्‍ट बिरादरी मेरी बौद्धिक विरासत का अंग है। मेरी सोच का गहरा और बड़ा हिस्‍सा भी। अच्‍छा लगता है यह सोचकर कि‍ इसकी विस्‍तृत सीमाओं में मेरी भी एक छोटी-सी पहचान जुड़ी हुई है।" जबकि यह निर्विवाद तथ्‍य है कि एक सजग, सक्रिय और जीवंत लेखक के रूप में वे हिन्‍दी और भारतीय साहित्‍य-समाज में स्‍त्री-गरिमा का प्रतीक और जिन्‍दादिली मिसाल मानी जाती हैं। अपनी आयु के 94 वें बसंत के आखिरी चरण में कृष्‍णा सोबती अपनी लेखकीय उपलब्धियों और मानवीय गरिमा से भरा-पूरा महत्‍वपूर्ण जीवन जीकर 25 जनवरी, 2019 को इस भौतिक संसार से बेशक विदा ले गई हों लेकिन अपनी लेखकीय विरासत और कालजयी कृतियों के माध्‍यम से उनकी उपस्थिति हमारे आस-पास सदा बनी रहेगी।

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