Sunday, January 24, 2021

 


कृष्‍णा जी की जीवन-कथा का सिरोही-प्रसंग

·        नन्‍द भारद्वाज

हिन्‍दी की प्रतिष्ठित कथाकार कृष्‍णा सोबती आजादी पूर्व के अखंड पंजाब के जिस गुजरात शहर में पैदा हुईं, वह विभाजन के बाद अब पाकिस्‍तान का हिस्‍सा है। उनके पिता ब्रिटिश शासन में सीनियर सिविल सर्वेंट थे और अपनी नौकरी के सिलसिले में वे आधे साल शिमला और आधे साल दिल्‍ली रहते थे। कृष्‍णा जी का बचपन और शिक्षा दीक्षा शिमला, दिल्‍ली और लाहौर में सम्‍पन्‍न हुई और वे किशोरावस्‍था पार होने तक अपने जन्‍म-स्‍थल गुजरात बराबर आती-जाती रहीं। उनकी मां दुर्गादेवी और भाई-बहन विभाजन से पहले शिमला-दिल्‍ली आ चुके थे, बल्कि उनके दादा तो उससे भी पहले अपने काम के सिलसिले में कलकत्‍ता पहुंच चुके थे। कृष्‍णा सोबती की जन्‍मभूमि और ननिहाल पश्चिमी पंजाब में होने की वजह से उस समूचे अतीत और वहां के लोकजीवन से उनका गहरा भावनात्‍मक जुड़ाव हमेशा बना रहा। उनकी अनेक कहानियां और शुरुआती दौर के उपन्‍यास उसी आंचलिक परिवेश और जीवन से संबंधित रहे हैं, वह चा‍हे ‘डार से बिछुड़ी’ हो, ‘जिन्‍दगीनामा’ हो, ‘ऐ लड़की’ हो यह ताजा उपन्‍यास ‘गुजरात पाकिस्‍तान से गुजरात हिन्‍दुस्‍तान’। सन् 2017 में अपने पहले संस्‍करण के रूप में प्रकाशित यह कथा-कृति प्रकारान्‍तर से उनकी अपनी ही जीवन-कथा का अंश है।

    इस ताजा उपन्‍यास का एक बड़ा अंश साहित्यिक पत्रिका ‘तद्भव’ में छपा था और उसे पढ़ते हुए यही अनुमान हुआ था कि शायद वे इसे अपनी आत्‍मकथा के रूप में लिख रही हैं, लेकिन जब यह मौजूदा रूप में सामने आया तो इतना ही स्‍पष्‍ट हुआ कि यह उनकी अपनी जीवन-कथा का एक अंश अवश्‍य है, अपने जीवन की पूरी कथा न उन्‍होंने कभी लिखी और न लिखने का कोई इरादा ही रहा। इस आत्‍मकथा में आजादी पूर्व के लाहौर से अपनी कॉलेज शिक्षा पूरी कर उनके दिल्‍ली आने और पहली नौकरी के रूप में राजपुताना की सिरोही रियासत के राजघराने में गवर्नेस के बतौर दो वर्ष तक कार्य करने तक के अनुभव दर्ज हैं। दो वर्ष बाद सिरोही से वापस दिल्‍ली लौटने के साथ ही इस जीवन-वृतान्‍त को वे वहीं विराम दे देती हैं। इस जीवन-कथा के आवरण पृष्‍ठ पर अंकित टिप्‍पणी भी इसी ओर संकेत करती है, जिसमें कहा गया है कि “इस कृति का नजदीकी संबंध उस शख्सियत से है, जिसे हम कृष्‍णा सोबती के नाम से जानते हैं। बंटवारे के दौरान अपने जन्‍मस्‍थान गुजरात और लाहौर को यह कहकर कि ‘याद रखना, हम यहां रह गए हैं’, वे दिल्‍ली पहुंची थीं कि यहां के गुजरात ने उन्‍हें आवाज़ दी है और अपनी स्‍मृतियों को सहेजते-संभालते वे अपनी पहली नौकरी करने सिरोही पहुंच गई, जहां उनमें अपने स्‍वतंत्र देश का नागरिक होने का अहसास जगा, व्‍यक्ति की खुद्दारी और आत्‍मसम्‍मान को जांचने-परखने के लिए सामंती ताम-झाम का एक बड़ा फलक मिला।" 

     कृष्‍णा सोबती लाहौर के फतेहचंद कॉलेज से अपनी शिक्षा पूरी कर जब दिल्‍ली लौटी तब  उनके सिविल सर्वेंट पिता कर्जन रोड के सरकारी आवास में रहते थे। उसी आवास में रहते हुए एक दोपहर को उन्‍होंने बाहर सड़क पर कुछ मजदूरों को ‘तुरही नगाड़ा होइश्‍शा’ की नारेबाजी के साथ एक बिजली के गोल ट्रांसफॉर्मर को धकेलकर ले जाते हुए खिड़की से देखा और यह भी देखा कि उनके पड़ौसी कुरेशी अंकल के घर का सामान तांगे पर लदवाया जा रहा था और उस फ्‍लैट पर पी डब्‍ल्‍यू डी का चौकीदार ताला लगाने के लिए मुस्‍तैदी से खड़ा था। उसने देखा कि कुरेशी अंकल स्‍वयं भी परिवार के साथ जैसे हमेशा के लिए जाने की तैयारी कर रहे थे, तो वह हड़बड़ाई-सी कुरेशी आंटी के पास पहुंची और उनका हाथ छूकर रोने लगी। कुरेशी अंकल ने पुचकारकर उसके सिर पर हाथ रखा और कहा – ‘जाओ बिटिया, जाओ, यह बाहर खड़े रहने का वक्‍़त नहीं।' वह स्‍वयं भी यह बात को जान चुकी थी कि उन दिनों चारों तरफ जिस तरह का माहौल था, उसमें अधिकांश मुस्लिम परिवार नये मुल्‍क पाकिस्‍तान की ओर पलायन कर रहे थे और ऐसा ही सिलसिला उधर से हिन्‍दु परिवारों के हिन्‍दुस्‍तान लौटने का भी बना हुआ था। इस आवाजाही के लिए कुछ स्‍पेशल गाड़ियों की व्‍यवस्‍था की गई थी, जो अपर्याप्‍त-सी थी। जिस तरह की तबाही की भयावह खबरें अखबारों और अफवाहों के जरिये आ रही थी, उससे चारों तरफ अराजकता का-सा माहौल बनता जा रहा था। ऐसी भयावह घटनाओं की एक चलचित्रनुमा तस्‍वीर कृष्‍णा जी ने इस जीवन-कथा के आरंभिक 15 पृष्‍ठों में दर्ज की है, जिससे यह अनुमान होता है कि उस समय लोग किस तरह के त्रासद हालात के बीच से गुजर रहे थे। ऐसे ही हालात में कृष्‍णा जी ने अपने को किसी काम में व्‍यस्‍त करने के उद्देश्‍य से जब अखबार में सिरोही रियासत का एक विज्ञापन देखा कि वहां की शिशुशाला के किसी प्रशिक्षित शिक्षक की जरूरत है, तो उन्‍हें यह काम अपनी रुचि के अनुरूप लगा और अपना आवेदन रजिस्‍टर्ड डाक से भेज दिया। उन्‍होंने चूंकि स्‍नातक डिग्री के साथ मौंटेसरी प्रशिक्षण का डिप्‍लोमा भी कर रखा था, इसलिए  कुछ ही दिनों में उन्‍हें बुलावा भी आ गया।

     पंजाब और हिमाचल की हरी-भरी वादियों में रहने वाली कृष्‍णा सोबती सिरोही रियासत के बुलावे पर शायद पहली बार राजस्‍थान की रूखी-सूखी धरती पर रेल-सफ़र कर रही थीं। ऐसे में उनकी यह प्रतिक्रिया स्‍वाभाविक ही थी, जो इन शब्‍दों में व्‍य‍क्‍त हुई – “वह सरसों के पीले-हरियाले खेत क्‍या हुए ! कहां ओझल हुए वह भरपूर पत्‍तोंवाले छांहदार पेड़। क्‍या हुईं वह कच्‍ची राहें ! वह दरिया चनाब की झिलमिलाती लहरें। कहां खो गई वह सुथरी चमकती रेते। और अब गाड़ी के साथ-साथ दौड़ती डूंगरों की सलवटों में छिपी मजबूत राजपुताना धरती।"

   इसी सफ़र के अंतिम पड़ाव के रूप में जब वे अपने टिकिट पर अंकित एरिनपुरा रेल्‍वे स्‍टेशन पर दोपहर के वक्‍़त उतरीं तो सामने सुनसान सपाट प्‍लेटफॉर्म को देखकर एकबारगी ठगी-सी रह गई थी कि वे कहां आ गई हैं ! सिरोही शहर से कोई चालीस किलोमीटर दूर तब का एरिनपुरा आज जवाई बांध रेल्‍वे स्‍टेशन के रूप में परिवर्तित हो गया है। गाड़ी से उतरकर जब उन्‍होंने चारों ओर नज़र दौड़ाई तो सामने से धोती-कमीज पहने एक नाटा-सा आदमी उनके करीब आता दिखा, जिसने करीब आने पर अपना नाम मुन्‍नालाल बताते हुए उन्‍हें आश्‍वस्‍त किया कि वह सिरोही राज की ओर उन्‍हीं को लेने आया है। उसने बताया कि रेल्‍वे स्‍टेशन के बाहर ही एक बस उनके इंतजार में खड़ी है, जो यहां की सवारियों को सिरोही पहुंचाती है। उसी बस में सवार होकर वे सवा-डेढ़ घंटे के सफ़र के अंत में वे सिरोही शहर पहुंच गई, जो पहली नज़र में एक ठीक-ठाक-सा छोटा शहर नज़र आ रहा था। वहां पहुचने पर सिरोही राज के गैस्‍ट हाउस में उनके लिए ठहरने की व्‍यवस्‍था थी, जो एक पुराना-सा गैस्‍ट हाउस था, दीवारें और दरवाजे बदरंग। वह रात उन्‍हें वहीं गुजारनी थी। सुबह जब आंख खुली तो बाहर का प्राकृतिक दृश्‍य उन्‍हें कुछ खुशनुमा-सा लगा। तभी गैस्‍ट हाउस के सेवक देवला ने आकर सलाम किया और बताया कि चाय-नाश्‍ता उन्‍हें दीवान जी यहां करना है।

   कृष्‍णा जी नहा-धोकर तैयार हो गईं और सवेरे नौ बजे उन्‍हें दीवान जी के यहां से गाड़ी आ गई। वह कुछ ही मिनट में दीवान जी की ड़योढ़ी पहुंच गई और बैठक में दाखिल हो गईं। दीवान जी ने उनका स्‍वागत किया और सुख-सुविधा की जानकारियां लीं। इस बीच उनका नाश्‍ता आ गया। दीवान जी से यह पहली मुलाकात एक तरह से कृष्‍णा जी का इंटरव्‍यू ही थी, जिसमें उनकी शिक्षा-दीक्षा और रुचियों के बारे में आवश्‍यक जानकारियां ली गई। इन्‍हीं जानकारियों में उन्‍होंने अपनी ‘सिक्‍का बदल गया’ और अज्ञेय जी की पत्रिका ‘प्रतीक’ में प्रकाशित कहानियों का भी हवाला दिया। इस मुलाकात में दीवान जी ने बताया कि उनके अहमदाबाद के मित्र देसाई जी और कृष्‍णा के पिता अच्‍छे मित्र हैं और उन्‍होंने पहले ही उसके आगमन की जानकारी दे दी थी, लेकिन उनका चयन विशुद्ध रूप से योग्‍यता के आधार पर किया जा रहा है, किसी सिफारिश पर नहीं। अगर उन्‍हें सिरोही रहना या यहां का काम पसंद न आए तो वे बिना किसी संकोच के बता सकती हैं, यात्रा-व्‍यय सहित उनकी वापसी की व्‍यवस्‍था कर दी जाएगी। इंटरव्‍यू के दौरान दीवान उन्‍हें बेटी कहकर ही संबोधित करते रहे और कृष्‍णा जी भी उनकी आंखों में अपने प्रति सहज स्‍नेह का भाव देखकर थोड़ी आश्‍वस्‍त हुई।

    दीवान जी ने कृष्‍णा जी को रियासत के एक और अधिकारी जुत्‍शी जी से भी मुलाकात करवा दी, जो उनके कक्ष में ही आ गये थे। जुत्‍शी जी के पास एजुकेशन सुपरिटेंडेंट और काल्विन स्‍कूल की प्रिंसीपलशिप का दोहरा चार्ज था। वे मूलरूप से कश्‍मीरी थे, लेकिन कुछ साल पहले उनका परिवार उदयपुर आ गया था। उन्‍होंने कृष्‍णा जी से जानकारियां लेकर शिशुशाला के बारे में मुख्‍य जानकारियां दे दीं और शिशुशाला दिखा भी दी। उन्‍होंने बताया कि महारानी साहिबा अहमदाबाद के श्रेयस स्‍कूल जैसा आदर्श स्‍कूल बनाना चाहती हैं, उसी के लिए योग्‍य शिक्षकों की तलाश की जा रही है। उन्‍होंने उनके रहने की व्‍यवस्‍था के बारे में जानकारी लेने के बाद यही सलाह दी वे दीवान जी से कहकर स्‍टेट के यूरोपियन गैस्‍ट हाउस में रह सकती हैं।

    जुत्‍शी ने कृष्‍णा जी को इस बात के लिए आश्‍वस्‍त भी कर दिया कि वे उन्‍हें इस काम के लिए सबसे उपयुक्‍त लगती हैं, बस एक बार राजमाता से उनकी मुलाकात हो जाए और वे भी अपनी सहमति दे दें, फिर उनका चयन निश्चित है। उन्‍होंने यह भी बताया कि वे जिस पद के लिए आई हैं, उस पर दीवान जी की पसंद का अहमदाबाद का एक और प्रत्‍याशी है, जो उनके बाद दूसरे नंबर पर है, इसलिए अगर उन्‍हें काम अनुकूल लगे तो वे निर्णय करने में देरी न करें, बल्कि तुरंत अपनी रजामंदी दे दें। जुत्‍शी जी से मुलाकात के बाद वे वापस अपने गैस्‍ट हाउस आ गई और भोजन के बाद कुछ देर आराम किया। इस बीच उन्‍हें दिल्‍ली से रवाना होने से पूर्व अपने पिता और हिन्‍दी के प्रसिद्ध लेखक भगवतीचरण वर्मा और नवीन जी (बालकृष्‍ण शर्मा ‘नवीन’) से हुई बातचीत की याद आती रही, जिनकी यही सलाह थी कि उन्‍हें कहीं अन्‍यत्र जाने की बजाय दिल्‍ली में ही बने रहना चाहिए। चाहें तो उनके साथ ही काम कर सकती हैं, लेकिन कृष्‍णा जी को किसी के मातहत काम करने की कोई इच्‍छा नहीं थी, इसलिए उन्‍होंने पिताजी को यही कहकर आश्‍वस्‍त किया था कि अगर उन्‍हें सिरोही का काम पसंद न आया तो वे दिल्‍ली लौट आएंगी और अपनी एम ए की पढ़ाई पूरी करेंगी। अपरान्‍ह जब वे आराम करके जागी तो राजमहल से उन्‍हें लेने के लिए गाड़ी आ गई थी। वे तैयार होकर राजमाता से मुलाकात के लिए रवाना हो गईं। सिरोही के दत्‍तक महाराज स्‍वरूपविलास में रहते थे और राजमाता केसरविलास में। उन्‍हें राजमाता से मिलने के नियम-कायदे बता दिये गये थे, जिन पर बिना कोई प्रतिक्रिया किये उन्‍होंने सुन लिया था। महल में प्रवेश के बाद लाउंज में उनकी भेंट एक अंग्रेज महिला मिस विलियम से हुई, जो अन्‍दरूनी व्‍यवस्‍था का काम देखती थीं। विलियम कृष्‍णा जी से आवश्‍यक जानकारियां लेने के बाद उन्‍हें राजमाता से मिलवाने भीतर ले गईं। मिस विलियम ने राजमाता को कृष्‍णा जी की ओर संकेत करते हुए बताया कि ये मिस सोबती दिल्‍ली से आई हैं। उसी के साथ कृष्‍णा जी ने राजमाता को ‘गुड ईवनिंग योर हाईनैस’ कहकर अभिवादन किया, जिसका उत्‍तर राजमाता ने भी ‘गुड ईवनिंग’ कहकर दिया और पास ही रखी सोफा चेयर पर बैठने का संकेत किया। राजमाता उन्‍हें एक खुशमिजाज स्‍त्री लगीं, जिन्‍होंने आरंभ में उनकी यात्रा और सिरोही में उनकी सुख-सुविधा के बारे पूछते हुए विलियम को चायपान के लिए निर्देश दिया। वे उनसे दिल्‍ली में उनकी रिहाइश और शिक्षा के बारे में सहजता से बात करती रहीं। जब चाय आ गई और मिस विलियम कहीं अंदर ही व्‍यस्‍त दिखीं तो कृष्‍णा जी ने राजमाता की अनुमति लेकर चाय के दो कप तैयार कर लिये। राजमाता ने बताया कि वे अहमदाबाद के श्रेयस संस्‍थान जैसा ही एक शिक्षण संस्‍थान सिरोही में बनाना चाहती हैं, जिसके लिए उन्‍होंने यही सलाह दी कि एक बार वे जुत्‍शी जी के साथ अहमदाबाद जाकर उस संस्‍थान को देख आएं और विलियम को यह भी निर्देश दिया कि सोबती के रहने की व्‍यवस्‍था यूरोपियन गैस्‍ट हाउस में करवा दी जाए। इस पर कृष्‍णा जी ने राजमाता के प्रति कृतज्ञता व्‍यक्‍त करते हुए जब यह कहा कि वे अभी यहां रहने का पक्‍का फैसला नहीं कर पाई हैं तो राजमाता ने हंसकर कहा कि कोई बात नहीं, आप इत्‍मीनान से विचार कर लें, लेकिन अगर यहां न भी रहना चाहें तो दिल्‍ली जाने से पहले सिरोही नगर और यहां की कृष्‍णावती नदी को अवश्‍य देखकर जाएं। उन्‍हें राजमाता का यह स्‍नेह-संवाद बहुत रुचिकर लगा और उनके प्रति फिर से गहरी कृतज्ञता व्‍यक्‍त की। इस मुलाकात से कृष्‍णा जी के मन को गहरा सुकून मिला। 

   राजमाता से मुलाकात के बाद कृष्‍णा जी ने सिरोही के इस शैक्षणिक संस्‍थान में काम करने के‍ लिए अपना मन बना लिया था। उन्‍हें सिरोही राज से दिल्‍ली के पते पर जो औपचारिक पत्र भेजा गया था, वह असल में नियुक्ति पत्र ही था, दीवान जी और राजमाता से मिलना तो एक तरह की शिष्टाचार मुलाकात थी। उन्‍होंने सवेरे ही सिरोही स्‍टेट के तहसील ऑफिस जाकर अपनी ज्‍वाईनिंग दे दी। उन्‍हें तहसील ऑफिस कर्मियों का रूखा व्‍यवहार तथा माहौल कुछ ऊबाऊ-सा जरूर लगा, लेकिन उसे अनदेखा करते हुए वे ज्‍वाईनिंग की कॉपी लेकर बाहर आ गईं। रास्‍ते में जुत्‍शी जी अपनी जीप में आते दिखाई दिये और पास आने पर जीप रुकवाकर जब उन्‍होंने पूछा कि वे यहां कैसे? तो कृष्‍णा जी ने बता दिया कि वे अपनी ज्‍वाईनिंग देकर आ रही हैं, इस पर जुत्‍शी जी ने आश्‍चर्य प्रकट किया कि उन्‍होंने इस बारे में उनसे तो पूछा ही नहीं, सीधे ज्‍वाईनिंग देने कैसे आ गईं। उन्‍हें और दीवान जी को पहली मुलाकात से यही अनुमान था कि शायद वे वापस दिल्‍ली लौट जाएंगी, इसलिए दीवान जी ने अपनी पसंद के पोपटलाल को पहले से वहीं रोक रखा था। जुत्‍शी जी को इस तरह उनसे बिना अनुमति लिये ज्‍वाईनिंग देना रास नहीं आया। उनकी जीप में अहमदाबाद का वही प्रतियोगी बैठा था, इसलिए वे बिना कुछ कहे आगे निकल गये। जीप के ड्राइवर ने हाथ के इशारे से कृष्‍णा जी को काल्विन शिक्षा संस्‍थान पहुंचने का संकेत जरूर कर दिया था, इसलिए वे मुस्‍कुराती हुई पैदल ही उस ओर रवाना हो गई।

    काल्विन पहुंचकर कृष्‍णा जी कुछ देर लाइब्रेरी में किताबें और पत्रिकाएं देखती रहीं, तभी जुत्‍शी भी बाहर से लौट आए। वे थोड़े खिन्‍न-से थे, कृष्‍णा जी को देखकर पहले जैसा उत्‍साह भी नहीं था, लेकिन सामान्‍य शिष्‍टाचार के नाते अपने कमरे में आमंत्रित किया और चाय मंगवाई। बातचीत में उन्‍होंने बताया कि सिरोही राज के घटनाक्रम में तेजी से बदलाव आया है, दीवान जी सेवानिवृत्‍त होकर जा रहे हैं और गोकुलभाई भट्ट सिरोही राज के मुख्‍यमंत्री के रूप में कार्यभार संभाल रहे हैं। तब तक सिरोही राजस्‍थान राज्‍य से अलग था। वे बोले, ‘यह न समझ लीजिये कि आपने ज्‍वाईनिंग दे दी तो नौकरी पक्‍की हो गई। मुमकिन है पुराने इंटरव्‍यू ही रद्द कर दिये जाएं।‘ कृष्‍णा जी ने जुत्‍शी की बात को चुपचाप सुना और बातचीत के अंत में इतना ही पूछा कि ‘सिरोही में कोई देखने की खास जगह है?’ इस पर जुत्‍शी ने आश्‍चर्य प्रकट करते हुए माउण्‍ट आबू और सिरोही के कुछ प्रमुख स्‍थानों के नाम बताए, जो वे पहले ही देख चुकी थीं। इसी बीच तहसील से संदेशवाहक आया और उन्‍हें डाक-पैड दे गया। चाय पीते हुए उन्‍होंने डाक देखी और अंत में बताया कि अगले दिन सवेरे मुख्‍यमंत्री गोकुलभाई भट्ट ने उन दोनों को मुलाकात के लिए बुलाया है। विदा लेने से पहले कृष्‍णा जी ने सारणेश्‍वर जाने की इच्‍छा जताई, इस पर जुत्‍शी ने उन्‍हें जीप ले जाने का सुझाव दिया, लेकिन वे पैदल ही जाने का कहकर वहां से गैस्‍ट हाउस की ओर निकल आई।

   अगली सुबह जब वे गोकुलभाई भट्ट से मुलाकात के लिए पहुंची तो वहां दीवान और जुत्‍शी भी मौजूद थे। भट्ट जी ने कृष्‍णा जी को देखते ही जिस अपनत्‍व से उनका स्‍वागत किया और हाल-चाल पूछे तो दीवान और जुत्‍शी दोनों आश्‍चर्य से उन्‍हें देखते रह गये। भट्ट जी ने निर्देश देते हुए कहा कि “जुत्‍शी जी, इन्‍हें वह सब सुविधाएं दें कि ये अपना काम कुशलता से कर सकें। हम शिशुशाला को राज्‍य का सबसे अच्‍छा स्‍कूल बनाना चाहते है।" इस पर जुत्‍शी ने “हुकुम !” कहकर उन्‍हें आश्‍वस्‍त किया। भट्टजी ने कृष्‍णा जी से कहा कि “सोबती बाई, नवीन जी आपके लिए चिन्तित थे। हमने उन्‍हें आश्‍वासन दिया कि बाई को हमारे यहां कोई तकलीफ नहीं होगी।" और इस तरह कृष्‍णा जी की शिशुशाला की निर्देशिका के रूप में नियुक्ति निश्चित हो गई।  जुत्‍शी और प्रशासन के सभी लोगों को उनकी अहमियत और अपनी सीमाएं समझ में आ गई।

    गैस्‍ट हाउस पहंचने पर उन्‍हें मिस विलियम का छोटा-सा नोट मिला कि राजमाता शाम साढ़े चार बजे उनसे मिलने की इच्‍छुक हैं। कृष्‍णा जी घूमती हुई चार बीस पर केसरविलास पहुंच गई। नियत समय पर राजमाता के कक्ष में पहुंचने पर उन्‍होंने खुशी से स्‍वागत किया और अपनी बातचीत में उनके आत्‍मविश्‍वास की प्रशंसा भी की। फिर पिछले दो दिनों के हाल-चाल जानने की इच्‍छा प्रकट की। कृष्‍णा जी ने बिना किसी की शिकायत या किसी कमी का हवाला दिये सारी बातें उनके सामने बयान कर दीं। खासतौर से सारणेश्‍वर दर्शन का उत्‍साह से वर्णन किया। फिर दोनों के बीच साहित्‍य और दर्शन की कई पुस्‍तकों और दार्शनिकों पर भी चर्चा हुई। उन्‍हें यह जानकर अच्‍छा लगा कि राजमाता साहित्‍य और दर्शन में अच्‍छी रुचि रखती हैं। उन्‍होंने फिर कभी और चर्चा के लिए आमंत्रित करने का आश्‍वासन देकर उन्‍हें विदा किया।

     शिशुशाला में नियुक्ति निश्चित हो जाने के बाद कृष्‍णा जी ने सिरोही में रहने का अपना मन पक्‍का कर लिया था। अगली सुबह गैस्‍ट हाउस में शिशुशाला की दो सेविकाएं मिश्रीबाई और फूलीबाई उनकी हाजरी में आकर खड़ी हो गई और अपने लायक सेवा का निवेदन करने लगी। कृष्‍णा जी ने दोनों को यह कहते हुए विदा किया कि उनकी ड्यूटी स्‍कूल में है, उन्‍हें उन‍की निजी सेवा के लिए आने की जरूरत नहीं है। उसी दोपहर राज के दारोगा जी उनके लिए आवास की व्‍यवस्‍था हेतु उन्‍हें कुछ मकान दिखाने का प्रस्‍ताव लेकर आ गए। कृष्‍णा जी ने उनके साथ जाकर दो आवास देखे, लेकिन वे उन्‍हें पसंद नहीं आए, लौटते में स्‍वरूपविलास के पास एक भुतहा-सा कॉटेजनुमा मकान देखा, जो उन्‍हें पसंद आ गया, लेकिन उस मकान के बारे में आम राय यही थी कि यहां रात में भूत मंडराते हैं और इस मकान में कोई रहना पसंद नहीं करता। कृष्‍णा जी ने इस दलील को नहीं माना और उन्‍होंने विलियम को नोट भेजकर वह मकान आवंटित करवाने के बारे में रानी साहिबा को अपना निवेदन भिजवा दिया। रानी साहिबा के कहने पर वह कॉटेज तुरन्‍त उन्‍हें आवंटित कर दिया गया और उसकी साफ-सफाई कर रहने लायक करवा दिया गया। रहने की व्‍यवस्‍था निश्चित हो जाने के बाद उन्‍हें जुत्‍शी जी के साथ शिशुशाला के काम से अहमदाबाद और बंबई की यात्रा पर रवाना होना था। वे दो दिन बाद रेल यात्रा से अहमदाबाद पहुंच गई। वहां उनके मौसा रोहित मिल्‍स में चीफ इंजीनियर थे, इसलिए अहमदाबाद में उनके रुकने का अपना इंजजाम पहले से था। वे जुत्‍शी जी के साथ रेल्‍वे स्‍टेशन से सीधे अपनी प्रकाश मौसी के घर पहुंच गई और उनके मौसा मुकुल जी ने जुत्‍शी जी के लिए भी अपनी मिल के गैस्‍ट हाउस में ठहरने की व्‍यवस्‍था करवा दी।

     प्रकाश मौसी के करीब ही मिल कर्मचारियों के आवास के बीच उनकी छोटी मौसी शान्ति भी पाकिस्‍तान से विस्‍थापित होकर आनेवाले परिवारों के बीच छोटे से मकान में रहती थी। कृष्‍णा जब अपनी छोटी मौसी से मिलने पहुंची तो वे उसे गले लगाकर रुआंसी हो गई। विभाजन के दौर में मौसी और मौसा जी किसी तरह अपने दो बच्‍चों के साथ जान बचाकर बड़ी बहन के पास अहमदाबाद आ गये थे, जहां मुकुल जी ने अपने साढू को रोहित मिल में ही काम पर लगवा दिया और रहने की तात्‍कालिक व्‍यवस्‍था भी करवा दी। शान्ति मौसी और कृष्‍णा की इस मुलाकात और उनकी आपसी बातचीत में ऐसे विस्‍थापितों की पीड़ा गहराई से व्‍यक्‍त हुई है।

    अहमदाबाद में कृष्‍णा जी को एक-दो दिन ही रुकना था, उसके बाद उन्‍हें बंबई के लिए रवाना होना था। दो दिन बाद जब वे बंबई स्‍टेशन पहुंची तो उसके बड़े मामा (कृष्‍णा जी की मां के मामा) और उनके बेटे काशीनाथ स्‍टेशन पर उन्‍हें रिसीव करने आ गये थे। उन्‍होंने जुत्‍शी जी से उनके ठहरने की व्‍यवस्‍था पूछकर  टैक्‍सी से उन्‍हें कालबादेवी रोड के लिए रवाना कर दिया  और कृष्‍णा को गाड़ी में बिठाकर अपने माटुंगा आवास पहुंच गये। माटुंगा में मामा जी के आवास में उनकी अपनी नानी से मुलाकात हुई, जो विभाजन के दौर में कष्‍ट सहती हुई किसी तरह बंबई पहुंची थी। बड़े मामा ने अगली सुबह जुत्‍शी जी के पास कृष्‍णा को हार्नबी रोड, पहुंचाने की जिम्‍मेदारी काशीनाथ को सौंप दी थी। कृष्‍णा जी एक सप्‍ताह बंबई में रहीं और दौरान उनके बहुत से दोस्‍त और सहेलियां उनसे मिलने आए। सप्‍ताह भर में जुत्‍शी जी के साथ शिशुशाला के लिए आवश्‍यक सामान की खरीद कर वे उसी रेलयात्रा से सिरोही लौट आई। सिरोही लौटकर उन्‍होंने अपने मम्‍मी पापा को पत्र लिखा जिसमें अहमदाबाद और बंबई में अपने मामा और मौसियों से हुई मुलाकात के बारे में विस्‍तार से लिखा। सिरोही लौटने पर यह भी जानकारी मिली कि राजघराने और सिरोही की नयी सरकार के बीच शिशुशाला को लेकर उत्‍पन्‍न हुए नये विवाद के कारण उसकी शुरुआत अभी स्‍थगित कर दी गई है, ऐसे में कृष्‍णा जी के लिए नये काम की तजवीज के लिए कमीश्‍नर ने उन्‍हें यूरोपियन गैस्‍ट हाउस विचार-विमर्श के लिए बुलाया था। कमीश्‍नर ने कृष्‍णा जी को राजभवन में नये महाराज की गवर्नेस के रूप में कार्य करने का प्रस्‍ताव किया तो उन्‍होंने उसे सहर्ष स्‍वीकार कर लिया और वे अगले ही दिन तैयार होकर स्‍वरूपविलास पहुंच गई।

    गवर्नेस के रूप में स्‍वरूपविलास में प्रवेश के साथ ही कृष्‍णा जी के सिरोही प्रवास की परिस्थितियां, प्रयोजन और उनकी पूरी दिनचर्या बदल गई। सबसे पहले तो उनके रहने का ठिकाना बदलकर महल के भीतर सभी सुख-सुविधाओं से लैस वह कक्ष हो गया, जहां रहते हुए उन्‍हें दत्‍तक महाराज तेजसिंह की शिक्षा, राजसी संस्‍कार और उनके व्‍यक्तित्‍व विकास की तमाम जिम्‍मेदारियां निभानी थी। इसके लिए उन्‍हें सबसे पहले उन सभी लोगों को जानना जरूरी था, जो महल के भीतर महाराज की सेवा में पहले से नियुक्‍त हैं, जैसे उनके ए डी सी जयसिंह और उनके प्रभारी कर्नल साहब आदि। यहां तक कि युवराज की बड़ी मां और छोटी मां की देखरेख तथा पूर्व अंग्रेज गवर्नेंस मिसेज मैकफर्ल्‍न द्वारा दी गई अब तक की शिक्षा आदि को जान-समझ लेना जरूरी था। इस प्रक्रिया में कुछ वक्‍़त लगना स्‍वाभाविक था। उन्‍होंने पाया कि युवराज में सामान्‍य शिष्‍टाचार, विनम्रता और बालसुलभ जिज्ञासाभाव पर्याप्‍त रूप में विद्यमान था, इससे उन्‍हें अपना काम थोड़ा सहज लगा। युवराज की शिक्षा के लिए निर्धारित वर्करूम में जब कृष्‍णा जी ने महात्‍मा गांधी और पंडित नेहरू के चित्र देखे तो उन्‍हें यह भी आश्‍वस्ति हुई कि यह राज परिवार बदलते समय के प्रति सकारात्‍मक रुख रखता है। उन्‍हें आजादी की लड़ाई में प्रजामंडल के साथ देशी रियासतों के टकराव की भी जानकारी थी, नेताजी सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिन्‍द फौज के प्रति लोगों के सहज लगाव से भी वे परिचित थी और अपेक्षा कर रही थी कि इस बदलते माहौल के प्रति इस राजभवन के लोगों की सोच में भी कुछ बदलाव अवश्‍य आया होगा। इस राजनैतिक परिदृश्‍य के साथ ही देश के बंटवारे से उत्‍पन्‍न विस्‍थापन की पीड़ादायक स्‍मृतियां यदा-कदा उनके मन-मस्तिष्‍क में अक्‍सर गहरी टीस पैदा करती थी। राजमहल में काम करते हुए अक्‍सर वे उन स्‍मृतियों में खो जाती थी और वे फ्‍लैशबैक्‍ के रूप में उनकी चेतना में उभर आती थी। आजादी मिलने के तुरन्‍त बाद देश में बढ़ते साम्‍प्रदायिक तनाव, दक्षिणपंथी ताकतों के  उभार, महात्‍मा गांधी की हत्‍या आदि ऐसे मसले थे, जो उनकी चेतना और स्‍मृतियों पर लंबे समय तक बने रहे। इसी चिन्‍ता, सोच और संवेदना के बीच वे अपनी गवर्नेंस की जिम्‍मेदारियां निभा रही थी। इन बाह्य परिस्थितियों के बावजूद राजमहलों के भीतर का वातावरण पूर्व की भांति आपसी रंजिश, मनमुटाव, ईर्ष्‍या-द्वेष और वर्चस्‍व की मानसिकता से मुक्‍त नहीं हो पाया था। यही प्रवृत्तियां इस राजभवन में भी कमोबेश रूप में कायम थी, जिनके बीच गवर्नेस कृष्‍णा जी को अपने दायित्‍व का निर्वाह करना था और अपने शिष्‍य नन्‍हे युवराज के मानस को उनसे बचाते हुए उनमें सहज मानवीय संवेदना और संस्‍कारों का विकास करना अपना प्राथमिक कर्तव्‍य लग रहा था। उन्‍होंने प्रयत्‍न करके युवराज के साथ अपना निरापद समय अवश्‍य निश्चित करवा लिया, जिसमें महारानियों और राजपरिवार के किसी अन्‍य वयक्ति का कोई दखल न हो। खुद युवराज भी शिक्षक के रूप में उसके निर्देशों को संजीदगी से लेने लग थे। वे जो हिदायतें देतीं, वे उनका पालन करते। गवर्नेस और संरक्षक के रूप में वे उनके खान-पान, राजभवन परिसर की विभिन्‍न गतिविधियों में उनकी मौजूदगी, उनके आचरण और उन पर होनेवाले असर का पूरा ध्‍यान रखती थी। वे यह जान गई थी कि सिरोही दरबार तेजसिंह के पिता भूपालसिंह मनादर के ठिकानेदार थे। अपने रुतबे के मुताबिक सभी मामलों में बीकानेरी बड़ी मां छोटी मां से हल्‍की पड़ती थीं, क्‍योंकि दरबार तेजसिंह छोटी मां की कोख से ही पैदा हुए थे। गुजरात की इस राजकुमारी से भूपालसिंह की शादी बीकानेरी रानी साहिबा की सहमति से इसी मकसद से करवाई गई थी कि उनसे होनेवाली संतान उन्‍हीं के निर्देशों का पालन करेगी, ताकि राजमाता के रूप में उनके अधिकार सुरक्षित रहें। तेजसिंह बालपन में ही बड़ी मां द्वारा गोद ले लिये गये और सिरोही दरबार बनकर गद्दी पर आसीन हुए। रियासती गद्दी और वह भी आजादी के बाद। बचपन से ऐसी ही परवरिश में पलने के कारण वे बड़ी मां पर कुछ ऐसे न्‍यौछावर रहते कि बड़ी मां देखकर खुश रहतीं। वे अपनी आंखों से बेटे को बांधे रखतीं। छोटी मां दोनों को बाहरी वृत्‍त से ही देख पातीं। पहले की विलायती गवर्नेस भी उन्‍हें अपने बेटे से दूर-दूर ही रखतीं, ले‍किन देसी गवर्नेस के रूप में कृष्‍णा जी के जिम्‍मेदारी सम्‍हाल लेने के बाद छोटी मां के लिए अपने बेटे से मिलना और बात करना सहज हो गया था। महल में आरामदायक आवास व्‍यवस्‍था के बावजूद कृष्‍णा जी अपनी सुरक्षा के प्रति पूरी चौकस थी। सेविका मिश्रीबाई को इसी मकसद से उन्‍होंने अपने साथ ही रखा था। सिरोही के स्‍वरूपविलास में कुछ महीने गुजारने के बाद एक सुबह उन्‍हें बताया गया कि दरबार अब माउंट आबू के स्‍वरूपविलास में रहेंगे, इसलिए उन्‍हें भी उनके साथ माउंट आबू जाना है। 

     दरबार तेजसिंह, एडीसी जयसिंह, कर्नल साहिब और गवर्नेस कृष्‍णा जी माउंट आबू पहुंच गये। माउंट आबू पहुंचने के बाद भी तेजसिंह की शिक्षा जारी रही। उसी दौरान दरबार के मामा देवीसिंह और पुराने दीवान पांड्या जी भी माउंट आबू पहुंच गये थे। माउंट आबू के स्‍वरूपविलास में एक दिन गुजरात कैडर के नये एडमिनिस्‍ट्रेटर प्रेमा भाई पटेल उनसे बिना किसी पूर्व सूचना के मुलाकात के लिए आ गये, जबकि दरबार को अपनी मां से मुलाकात के लिए निकलना था।  वे इस मुलाकात के लिए तैयार नहीं थे, लेकिन प्रेमा भाई तो बैठक में आ चुके थे, इसलिए दरबार कुछ क्षण उनके पास रुक गए। प्रेमा भाई उन्‍हें बच्‍चा समझकर बेतकल्‍लुफी से उनका  नाम पूछने लगे, दरबार पहले तो चुप रहे, फिर जब दुबारा पूछा और कृष्‍णा जी ने उन्‍हें उत्‍तर देने के लिए कहा तो दरबार ने इतना ही कहा कि जब ये मेरा नाम ही नहीं जानते तो इस  मुलाकात का क्‍या मतलब है। इस बात पर जब प्रेमा भाई अपने अफसर होने का रौब दिखाने लगे और कृष्‍णा जी को उनकी जिम्‍मेदारियों के बारे में कहने लगे तो दरबार ने तुरंत मुलाकात को स्‍थगित करने की घोषणा कर दी और कृष्‍णा जी के साथ मां साहब के कक्ष की ओर रवाना हो गये, जबकि एडीसी जयसिंह और कर्नल प्रेम जी पटेल के पास खड़े रहे। प्रशासक प्रेम जी  पटेल को यह बहुत नागवार गुजरा और उन्‍होंने अगले ही रोज गवर्नेस के नाम मीमो के रूप में दो पत्र भेज दिये। कृष्‍णा जी ने उन्‍हें पढ़ा और बाद में तसल्‍ली से जवाब देने के लिए अलग रख दिया। अगले ही दिन दिल्‍ली से भारत सरकार के एक वरिष्‍ठ अधिकारी भास्‍कर राव दरबार से मुलाकात के लिए आनेवाले थे, जिसकी सूचना पहले ही मिल दरबार को चुकी थी। अगले दिन जब रेजीडेन्‍सी ऑफिस में भास्‍कर राव से दरबार और कृष्‍णा जी की मुलाकात हुई तो वे दरबार की शालीन बातचीत और गवर्नेस के काम से बेहद प्रभावित हुए।

      एक शाम दरबार का काफिला जब स्‍वरूपविलास से नक्‍कीलेक की ओर निकला तो रास्‍ते में सिरोही राज के प्रजाजन अपने महाराज के दर्शन और उनके सम्‍मान में खम्‍माघणी कहते हुए रास्‍ते में खड़े मिल गए। इन सबको देखकर बाई (कृष्‍णा जी) सोचने लगी – “पुरानी रस्‍म कब बदलेगी। विदेशी रेजीडेंट की रजामंदी से तेजसिंह गोद ले लिये गए। अंग्रेज चले जाने के बाद स्‍वदेशी राज की नीतियों के अनुसार गद्दी पर आसीन हैं। इस छोटे-से बच्‍चे के आस-पास सिर उठाती चिन्‍ताओं की भीड़ है। अलवर महाराजा जैसे हितचिन्‍तक कम हैं, दुश्‍मन ज्‍यादा। सिरोही राज के लिए नए एडमिनिस्‍ट्रेटर प्रेमा भाई से सहानुभूति की कोई उम्‍मीद नहीं। सिरोही अंबाजी तीर्थ के दबाव में राजस्‍थान से गुजरात में जोड़ दी जाएगी। तो भी क्‍या तेजसिंह दरबार बने रहेंगे? दिल्‍ली सरकार इस रियासती ताम-झाम को किसी और को सौंप देगी?” यही सब चिन्‍ता करते हुए जब उनकी गाड़ी आगे बढ़ी तो सड़क किनारे एक साधु को देखकर कर्नल साहब के इशारे पर ड्राइवर को कार रोकनी पड़ी। गाड़ी के रुकते ही साधु शिलाखंड महाराज जय जूजाननाथ की आवाजें लगाता हुआ उनके करीब आ गया। कर्नल के कहने पर दरबार ने उनका अभिवादन करते हुए हाथ जोड़ दिये, जबकि कृष्‍णा जी को यह निरा पाखंड लग रहा था। उन्‍होंने ड्राइवर को गाड़ी आगे बढ़ाने के लिए कहा, लेकिन कर्नल के संकेत पर गाड़ी अभी रुकी रही। शिलाखंड दरबार तेजसिंह की बजाय उनके प्रतिस्‍पर्धी अभयसिंह का हिमायती था, इसलिए वह कह रहा था कि अब वह तभी मिलेगा जब अभयसिंह सिरोही राज की गद्दी संभाल लेंगे। तेजसिंह को भी साधु का यह व्‍यवहार कुछ अजीब-सा लगा और वे खिन्‍न हो गये। कृष्‍णा जी ने सख्‍त आवाज में ड्राइवर को गाड़ी आगे बढ़ाने की हिदायत दी और वे सीधे नक्‍कीलेक की ओर बढ़ गए। वहां पहुंचकर कुछ देर सभी ने झील में बोटिंग की। तेजसिंह थक गये थे, इसलिए वे नाव में ही कृष्‍णा जी गोद में सिर देकर सो गये। दरबार का सिर सहलाते हुए कृष्‍णा जी पहले से ही एक गहन चिन्‍ता में डूबी हुई थी।  

      गवर्नेस के रूप में कृष्‍णा जी अब राजभवन के अंदर की सियासी बातों को काफी कुछ जान गई थी और उन्‍हें अपने शिष्‍य से गहरी हमदर्दी थी। वे यह जानती थी कि “नाबालिग तेजसिंह की ‘रीजैंसी काउंसिल’ की मुखिया राजमाता साहिबा हैं। अभयसिंह राजमाता के नजदीक हैं। वे जयपुर दरबार के भी निकट हैं। जाम साहिब नावानगर सिरोही के जामाता हैं और सरदार पटेल के करीब हैं। उनके तराजू में कौन तुलेगा, एक ओर अभयसिंह और दूसरी ओर तेजसिंह। वजन आमने-सामने का नहीं, ऊपर नीचे का था।" निवर्तमान दीवान पांड्या का झुकाव भी अभयसिंह की तरफ लग रहा था, कर्नल और जयसिंह यों भी अबोले और असरहीन व्‍यक्ति थे और यही बात कृष्‍णा जी की चिन्‍ता का मुख्‍य कारण थी।

    माउंट आबू प्रवास के दौरान दरबार तेजसिंह को एक दिन खेतड़ी हाउस में स्‍वामी जी का आशीर्वाद लेने जाना था। गवर्नेस, एडीसी और कर्नल साहिब सहित वे नियत समय पर खेतड़ी हाउस पहुंच गए, जहां उनका गर्मजोशी से स्‍वागत हुआ। यहां भी कृष्‍णा जी को स्‍वामी जी की विलासी जीवन शैली और स्त्रियों के प्रति पूर्वाग्रही व्‍यवहार के कारण उनसे मिलकर निराशा ही हुई, लेकिन सिरोही राज की अपनी मर्यादाओं के कारण वे बिना कोई प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त किये इस औपचारिकता को निभा आई। वहां से लौटकर सभी स्‍वरूपविलास आ गये, लेकिन कृष्‍णा जी को कुछ वस्‍त्र खरीदने थे, इसलिए वे गाड़ी लेकर बाजार की ओर निकल आईं। बरूचा की दुकान से उन्‍होंने कुछ ओढ़नियां, सलवार और कमीज खरीदे और थोड़ा सुस्‍ताने के लिए राजपुताना होटल के रेस्‍तरां आ गई। उन्‍होंने चाय का ऑर्डर दिया ही था कि दरबार के प्रतिस्‍पर्धी अभयसिंह के भाई रामसिंह शिष्‍टाचारवश उनके पास आ खड़े हुए। वे उनसे पहले केसरविलास में मिल चुकी थीं। कृष्‍णा जी को थोड़ा आश्‍चर्य तो जरूर हुआ लेकिन उन्‍होंने चाय का प्रस्‍ताव किया और कुछ देर उनसे औपचारिक बातचीत की। चाय खत्‍म होने के साथ उनसे विदा लेकर वे स्‍वरूपविलास लौट आई। उसी शाम दरबार से मुलाकात के लिए अभयसिंह जी के वकील के एम मुंशी, सीतलवाड़ और दरबार के अपने वकील अमीन साहिब भी आ गये। के एम मुंशी ने दरबार से गुजराती में बात करनी चाही, लेकिन उन्‍होंने हिन्‍दी में बात करना ही पसंद किया। उन्‍होंने दरबार को अंबा जी दर्शन के लिए पधारने का आग्रह किया, लेकिन दरबार ने उसे यह कहकर टाल दिया कि जब मां साहिब कहेंगी, तभी आएंगे। इस बीच के एम मुंशी ने कृष्‍णा जी से पूछा कि गवर्नेस के रूप में वे दरबार को कौन-सी भाषाएं सिखाती हैं, साथ ही उनकी शिक्षा दीक्षा और मूल निवास के बारे में भी जानकारी ली। कृष्‍णा जी ने जानकारियां देते हुए जब यह बताया कि वे उनकी पुस्‍तक ‘बैरनी वसुलात’ को हिन्‍दी अनुवाद पढ़ चुकी हैं, तो वे भी उनसे प्रभावित हुए। थोड़ी देर इसी तरह की औपचारिक बातचीत के बाद वे तीनों वापस लौट गये। वे शायद दरबार तेजसिंह की शिक्षा, मनोबल और सिरोही की गद्दी पर उनकी दावेदारी का पक्ष जानने समझने के लिए आए थे, लेकिन इस पर बात करने का कोई सीधा संदर्भ नहीं खोज पाए और न दरबार ने ही उसमें कोई रुचि ली। गवर्नेस कृष्‍णा जी ने यह जरूर अनुभव किया कि बातचीत के दौरान एडीसी जयसिंह और कर्नल साहिब मौन ही बने रहे। ऐसे में कृष्‍णा जी को दत्‍तक पुत्र तेजसिंह और रियासत का भाग्‍य उन्‍हें चक्रव्‍यूह में ही फंसता नज़र आया।

    आबू प्रवास की समाप्ति के बाद दरबार का काफिला एक दिन सिरोही वापसी पर रवाना हो गया। वे एक रात ही सिरोही रुक पाए। इस बीच उन्‍हें दिल्‍ली यात्रा का बुलावा आ चुका था और उसके लिए आबू रोड से ही ट्रेन पकड़नी थी। गवर्नेस कृष्‍णा जी को भी उनके साथ दिल्‍ली जाने का आदेश हुआ तो वे अपने सामान के साथ दिल्‍ली यात्रा के लिए तैयार हो गई। एडीसी जयसिंह और कर्नल तो साथ थे ही। दिल्‍ली पहुंचने पर अलवर हाउस की दो गाड़ियां दरबार की अगवानी में तैयार खड़ी थी। अलवर हाउस पहुंचकर सभी ने नाश्‍ता वगैरह किया और उसके तुरन्‍त बाद उन्‍हें मसूरी के लिए रवाना होना था। मसूरी में दरबार तेजसिंह के वकील बंबई से पहुंचने वाले थे, उन्‍हीं से मुलाकात के लिए वे मसूरी जा रहे थे। बीच रास्‍ते में कृष्‍णा जी दरबार को देहरादून, मसूरी और उत्‍तरांचल के बारे में बहुत सी बातें बताती रहीं। वे इस क्षेत्र में बहुत बार आ चुकी थी। उन्‍होंने मसूरी के होटल में ही रात्रि-विश्राम किया, जहां उनके वकील पहले ही पहुंच चुके थे। अगली शाम तक वे सभी दिल्‍ली वापस लौट आए। सुबह एडीसी जयसिंह ने बताया कि दरबार के साथ मंत्रालय जाना है इसलिए सभी तैयार होकर बैठक में पहुंचे तो कृष्‍णा जी को यह देखकर आश्‍चर्य हुआ कि वहां दीवान पंड्या भी बैठे थे। पंड्या ने भी उन्‍हें देखा तो हुक्‍म देने के अंदाज में कहा कि ‘आप यहीं रहिए, आपको हमारे साथ नहीं जाना होगा।' और ज्‍यों ही कृष्‍णा जी ने ‘ठीक’ कहकर दरबार का हाथ छोड़ा तो दरबार तेजसिंह को पांड्या की यह हरकत बहुत नागवार गुजरी और उन्‍होंने फौरन आज्ञा के स्‍वर में कहा – “मैम हमारे साथ जाएंगी, आप भले न जाएं पांड्या जी।"

    वे सभी मंत्रालय पहुंच गए, लेकिन शाम तक इंतजार करने के बावजूद मंत्री जी से उनकी मुलाकात नहीं हो सकी। ऐसे में सभी लोग वापस अलवर हाउस लौट आए। आखिर लंबे इंतजार के बाद अगले दिन शाम मंत्री जी से मुलाकात का समय निश्चित हुआ और वे लोग मंत्री जी के निवास पहुंच गए। मंत्री जी के निवास पर नवीन जी और सिरोही के नये मुख्‍य मंत्री गोकुलभाई भट्ट से दरबार की भेंट हुई। उनके बीच थोड़ी देर सामान्‍य बातचीत हुई और नवीन जी ने बताया कि मंत्री जी से बातचीत अगले दिन सवेरे 11 बजे हो सकेगी। वे लोग वापस अलवर हाउस आ गये। अलवर हाउस में शाम की चाय पीते हुए दीवान पांड्या जी जाने किस बात पर खफा थे कि वे एडीसी जयसिंह से गवर्नेस कृष्‍णा जी को लेकर कुछ अनर्गल-सी टिप्‍पणियां करने लगे। पहले तो कृष्‍णा जी ने उनकी बातचीत को अनसुना करने की कोशिश की लेकिन जब वे नहीं रुके तो उन्‍हें सख्‍ती से कहना पड़ा कि न वे सिरोही राज के दीवान हैं और न ही दरबार के हितचिन्‍तक। वे महज मामा देवीसिंह के कहने पर अपने मकसद से यहां चले आए हैं, इसलिए अपनी मर्यादा में रहें। कृष्‍णा जी की इस सपाट और तल्‍ख टिप्‍पणी के बाद पांड्या के पास और कुछ कहने का कोई आधार नहीं था। इसके कुछ क्षण बाद ही कृष्‍णा जी दरबार से अपने पिता से मिलने की इजाजत लेकर वहां से निकल आई और रात्रि विश्राम अपने घर पर ही किया।

   अपने घर के पुराने कमरे में जब नींद खुली तो कृष्‍णा को लगा ही नहीं कि बीते समय का कोई टुकड़ा कहीं था भी। मां और पिताजी अभी अभी उठे नहीं थे। वह बिस्‍तर से उठी, बाथरूम जाकर हाथ-मुंह धोए, अपना पुराना जोड़ा निकाला और फ्‍लीटबूट पहनकर सैर को निकल गई। बाहर पर्याप्‍त उजाला हो चुका था। फिरोजशाह चौक से कर्जनरोड पर दूर तक उनकी चिर-परिचित सड़क सूनी और साफ दिख रही थी। सड़क पर चलते हुए उनकी स्‍मृति में सिरोही की सुबहें और नन्‍हे दरबार की सेवा-चाकरी में लगे लोगों की गतिविधियां कौंधती रही। वे जब तक घूमकर लौटीं, मां-पिताजी उठ गये थे और चाय पीते हुए अखबार देख रहे थे। कृष्‍णाजी भी उनके करीब बैठकर अखबार देखने लगी और जब पिताजी ने उनके अगले कार्यक्रम के बारे में पूछा तो यही बताया कि वह आज घर पर ही रहेंगी। फिर यह भी बता दिया कि अब वह लौटकर सिरोही नहीं जाएगी। यहीं दिल्‍ली रहकर अपनी पसंद का काम करेगी। दिन में एकबार दरबार से मिलने अलवर हाउस जाएगी और फिर उनसे विदा लेकर लौट आएगी।

   कृष्‍णा जी जब अलवर हाउस पहुंची तो दरबार कुछ नयी पोशाक देखने उनके साथ कनॉट प्‍लेस तक निकल आए। एडीसी जयसिंह उनके साथ थे, जब नयी पोशाक के लिए वे ट्रायल रूम में जाने लगे तो एडीसी की बजाय उन्‍होंने कृष्‍णा जी को अपने साथ आने का निवेदन किया और जब थोड़ा एकान्‍त मिला तो उन्‍होंने अपनी मैम से पूछ लिया कि ये ‘बेदखल’ क्‍या होता है। मैम के वजह पूछने पर उन्‍होंने बताया कि दिन में पांड्या और मामा देवीसिंह की बातचीत में इसी शब्‍द का जिक्र हो रहा था। कृष्‍णा जी को थोड़ा अफसोस तो जरूर हुआ, लेकिन आनेवाले समय में रियासतों के भविष्‍य और अपने शिष्‍य तेजसिंह की बढ़ती समझदारी पर भरोसा रखते हुए उन्‍होंने यही कहा कि वे इन बातों की तनिक भी परवाह न करें और अपने आत्‍मविश्‍वास को बनाए रखें। वहां का कार्य संपन्‍न होने पर जब दरबार तेजसिंह के साथ सभी उनकी कार तक पहुंचे और बैठने लगे तो दरबार ने मैम से भी अपने साथ चलने का आग्रह किया, लेकिन कृष्‍णा जी ने मुस्‍कुराते हुए उनसे अपने घर लौटने की इजाजत मांग ली और वहीं से ‘बाय’ कहकर वापस अपने मां-पिताजी के पास लौट आईं। अगले दिन हिन्‍दुस्‍तान टाइम्‍स में एक इंटरव्‍यू दिया और अपने को हर तरह के दबावों से मुक्‍त अनुभव करते हुए अपनी इस जीवन-कथा को वहीं विराम दे दिया।  

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Friday, January 8, 2021

 


चंबल के दुर्गम अंचल की संघर्ष गाथा ‘डांग’

·        नंद भारद्वाज

स्‍वाधीनता आन्‍दोलन के दौरान दक्षिणी राजस्‍थान के आदिवासी अंचल की संघर्ष गाथा ‘धूणी तपे तीर’ के चर्चित कृतिकार हरिराम मीणा का नया उपन्‍यास ‘डांग’ पूर्वी राजस्‍थान के डांग अंचल की प्राकृतिक, सामाजिक, राजनैतिक और सांस्‍कृतिक पृष्‍ठभूमि पर लिखा गया ऐसा दस्‍तावेज है, जो आजादी के बाद विगत कई दशकों से दस्‍यु समस्‍या से जूझ रहे इस दुर्गम अंचल के लोकजीवन की जीवारी, जिजीविषा और संघर्ष को गहराई से समझने का अवसर देता है। जिस अंचल का यही जीवन सूत्र रहा हो कि “जाको बैरी सुख से सोवै, बा कू जीबै को धिक्‍कार –"  वहां का जनमानस सुख चैन से कैसे जी पाता होगा भला। विदेशी हुकूमत और सामंती दौर में ऐसे बीहड़ हलके में रहने जीने वाले लोगों का जीवन न पहले कभी आसान था और न आज। कुछ तो कुदरती हालात ही ऐसे रहे और कुछ वहां के मानव-निर्मित जंगलराज ने लोगों का जीना हमेशा दूभर किये रखा।

      अंग्रेजी हुकूमत के दौरान जो हलके आम सुविधाओं से वंचित और उपेक्षित रहे, आजादी के बाद देश में लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था कायम हो जाने के बाद भी बरसों तक वहां के जीवन में कोई बड़ा गुणात्‍मक परिवर्तन नहीं आया। अलबत्‍ता लोकराज की नयी व्‍यवस्‍था से यह उम्‍मीद जरूर थी कि प्राथमिकता के तौर पर उन इलाकों की सुध ली जाती, लेकिन वैसा नहीं हुआ। विडंबना यह है कि जब देश की आम ग्रामीण जनता को (चाहे वह पहाड़ी क्षेत्र की हो, मैदानी हो या मरूस्‍थलीय) लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल करने की इच्‍छाशक्ति ही देश के व्‍यावसायिक राजनैतिक दलों में विकसित नहीं हो पाई, तो प्राकृतिक रूप से अलग थलग पड़े इस बीहड़ डांग क्षेत्र की सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ी जनता की भला कौन चिन्‍ता करे। जो प्रभावशाली दबंग लोग अपने सत्‍ता बल, धन बल और बाहु बल के जरिये इस गरीब जनता पर जुल्‍म ढाते रहे, उनका दबाव और दबदबा आजादी के बाद भी वैसा ही बना रहा, बल्कि कई इलाकों में तो और बढ़ गया। चंबल जैसी बारहमासी गहरी नदी के बावजूद न खेती की दशा सुधरी, न दूर दराज के गांवों में बिजली पानी की पहुंच बनी, न आवागमन और संचार-संवाद का आधारभूत ढांचा विकसित हुआ और न शिक्षा स्‍वास्‍थ्‍य की दशा में ही कोई सुधार संभव हुआ। जो गरीब और अभावग्रस्‍त थे, उनकी दशा और बदतर होती गई, उन्‍हीं बाहुबलियों के हाथों आम लोगों की जमीन जायदाद छिनती गई, बहन बेटियां सुरक्षित नहीं रहीं और जो भी इसका विरोध करता, उसे बेरहमी से दर बदर कर दिया जाता। ऐसे में अन्‍याय और अत्‍याचार से सताए लोग बागी न होते तो क्‍या होते? परिणामस्‍वरूप चंबल के बीहड़ प्रतिशोध की आग में सुलग उठते और उन्‍हीं हालात में ठाकुर मानसिंह, माधोसिंह, मोहरसिंह, लोकमन, सुल्‍तानसिंह, पुतली बाई, सरनामसिंह, मलखानसिंह, सुल्‍ताना कुरैशी, महेन्‍द्र फौजी, फूलनदेवी, जगन गूजर, जसवंत, उमराव गूजर जैसे कितने ही आम युवक युवतियां बागी बनकर चंबल के बीहड़ों में उतर गये। उनके बागी बनने का कारण बेशक खुद उनके या अपनों के साथ हुए अन्‍याय का प्रतिकार रहा हो, लेकिन आगे चलकर वे खुद भी उसी तरह की लूट, हिंसा, अपहरण, फिरौती और बर्बरता का पर्याय बनते गये। इन बागियों में देर सबेर ज्‍यादातर तो आपसी रंजिश या पुलिस मुठभेड़ में मारे गये, कुछ थक हार कर शान्‍त हो गये और बचे खुचे कुछ जयप्रकाश नारायण और सुब्‍बाराव जैसे गांधीवादी नेताओं की समझाइश पर आत्‍मसमर्पण कर सामान्‍य जीवन में लौट आए। बेशक इस अराजकता और आपाधापी में बहुत से निर्दोष लोग मारे गये, स्त्रियों और बच्‍चों को जुल्‍म का शिकार होना पड़ा, घर गृहस्थियां बर्बाद हो गईं, मुठभेड़ों में सरकारी मुलाजिम और पुलिस के सिपाही भी मारे गये, बहुत से पुलिसकर्मियों ने अपनी जान पर खेल कर लोगों को बचाया भी, उनकी बहादुरी के लिए उन्‍हें मान सम्‍मान भी मिला, लेकिन इस समूची ऊहापोह में डांग अंचल जिस तरह उजाड़ और उपेक्षित बना रहा, हिंसा से लहुलुहान होता रहा, लोग रोजी रोटी के लिए तरसते रहे, इन सारे हालात को वही ठीक से जान समझकर बयान कर सकता है, जो इसका सजीव साक्षी रहा हो, जो इस पूरे लोकेल की प्रकृति, पृष्‍ठभूमि, यहां के लोकजीवन और समस्‍या के मानवीय पहलू  की न केवल गहरी समझ रखता हो, बल्कि उतना ही संवेदनशील और वस्‍तुपरक दृष्टिकोण भी रखता हो। यही बात कथाकार हरिराम मीणा को इस अर्थ में विशिष्‍ट बनाती है कि वे एक सजग और संवेदनशील लेखक होने के साथ साथ भारतीय पुलिस सेवा में जिम्‍मेदार अधिकारी के बतौर न केवल उस वास्‍तविकता के करीब रहे हैं, बल्कि उस समस्‍या से सीधे तौर पर रूबरू रहे हैं। उनका ताजा उपन्‍यास ‘डांग’ इसी जीवन अनुभव, समझ और सोच को सामने लाता है।

      डांग की ऐतिहासिक पृष्‍ठभूमि, उसकी मौजूदा हकीकत और इस पूरे दौर में आए बदलाव को हरिराम मीणा इसी वृहत्‍तर मानवीय दृष्टिकोण के साथ जान और बयान कर सके हैं। डांग की इस वास्‍तविकता को उजागर करते हुए वे कहते हैं, “इस धरा के वायुमंडल, क्षितिज, दिशाओं, आकाश व अंतरिक्ष के अनंत विस्‍तार में भी आदिकाल से अद्यकाल तक की गत्‍यात्‍मकता के स्‍पंदनक्रम को अनुभूत किया जा सकता है और यहां की भोर, दोपहर और संध्‍याओं की ॠतु आधारित भाव भंगिमाओं के नैपथ्‍य में प्रदर्शित परिवर्तन के नृत्‍य नैरन्‍तर्य का एन्द्रिक अनुमान लगाया जा सकता है। असल में देखा जाए तो डांग की धरती और आसमान को समेटते हुए सृष्टि के प्रत्‍येक तत्‍व एवं उसकी नैसर्गिकता में पल पल परिवर्तन का क्रम निरंतर चल रहा है। यह परिवर्तन प्रत्‍येक दृष्टि से यथास्थिति का प्रतिरोध किये जा रहा है, किन्‍तु जो यहां का जन साधारण है, चाहे वह कृषक है, श्रमिक है, शिल्‍पी है, सेवक है, पशुपालक है, वनोपजीवी है, डेराबंद घूमंतू जनसमूह है अथवा हरजीनाथ जैसे यायावर हैं, उन सब के इई गिर्द कालचक्र क्‍यों नहीं घूमता, परिवर्तन की आहट क्‍यों नहीं सुनाई देती, लोकतांत्रिक सहभागिता और विकास में साझेदारी क्‍यों नहीं दिखाई देती?” और इन सवालों और इस विडंबना की असली वजह की ओर इशारा करते हुए वे कहते हैं, “ऐसा नहीं है कि डांग की इस भूमि ने बदलाव नहीं देखे हैं, लेकिन वे सारे बदलाव मनुष्‍यों के एक विशिष्‍ट वर्ग के खातों में जमा हुए हैं। यहां राजनेताओं के कद ऊंचे उठे हैं, सेठों की तौंद फैली है, सरकारी अफसर कर्मचारियों के घरों में समृद्धि बढ़ी है, ठेकेदारों, दलालों, वकीलों व ऐसे ही अन्‍य लोगों के यहां बदलाव (खुशहाली) आया है। खास आदमी की खुशहाली और आम आदमी की बदहाली का एक मात्र कारण, जो आसानी से समझ में आता है, वह है खास आदमी की बदमाशी और आम आदमी का भोलापन।" (पृष्‍ठ 74)

   डांग की इस वास्‍तविकता को उपन्‍यास के ताने बाने में संयोजित करने की दृष्टि से कथाकार ने जहां हरजीनाथ जैसे एक स्‍थानीय दिलचस्‍प घुमक्‍कड़ आल्‍हा गायक के जीवन-संघर्ष, उसके लोक अनुभव, अन्‍वीक्षण और बयानगी को कथानक का आधार बनाया है, वहीं भागोलिक परिवेश के रूप में भरतपुर, धौलपुर और करौली जिलों के विभिन्‍न कस्‍बों विशेषकर सरमथुरा, राजाखेड़ा, बयाना, बाड़ी, बसेड़ी, तिमनगढ़, शिकारगाह, गढ़ी बाजना, कोड्यापुर, मासलपुर और चंबल के तटवर्ती बीहड़ों में बसने वाले लोगों और उस हलके के सरकारी महकमों, पुलिस विभाग में काम करने वाले चरित्रों की गतिविधियों और वहां के घटनाक्रम को कथासूत्र के रूप में प्रस्‍तु‍त किया है, लेकिन यहां मूल उद्देश्‍य किन्‍हीं खास चरित्रों की कथा कहना न होकर समूचे डांग अंचल की पृष्‍ठभूमि, उसके परिवेश और दस्‍यु समस्‍या से जूझते इस अंचल की वास्‍तविक दशा और उससे उबरने की जद्दोजहद को सामने लाना रहा है। इस प्रक्रिया में जो चरित्र अपनी अलग पहचान बना पाते हैं, उनमें हरजीनाथ के अलावा कोड्यापुर गांव के श्रीफल गूजर, धौलपुर के सेठ प्रहलादराय, नेता कप्‍तानसिंह, पंडित हरचरणलाल बोहरा, पुलिस अधिकारी पी जगन्‍नाथन, हरनामसिंह भाटी, उम्‍मेदसिंह, मुरलीधर, सुरेन्‍द्र सिंह, शिवसिंह, पत्रकार प्रेमराज, पहलवान चुन्‍नीसिंह आदि प्रमुख हैं, जो अपनी छोटी छोटी भूमिकाओं के साथ ‘डांग’ की इस कथा में अपना गहरा असर रखते हैं। इस उपन्‍यास की सबसे बड़ी खूबी है इसके चरित्रों की अपनी बोली-बानी और लोकेल की भाषा, जो इस पूरी कथा को विश्‍वसनीय और रोचक बनाती है। अगर और बारीकी से देखें तो मानवीय चरित्रों के समानान्‍तर डांग परिक्षेत्र अपने आप में एक जीवंत चरित्र की तरह यहां उपस्थित है, जिसका अतीत, वर्तमान और बनता हुआ भविष्‍य निश्‍चय ही पाठक का ध्‍यान आकर्षित करेगा।

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·         चर्चित कृति : डांग (उपन्‍यास), लेखक : हरिराम मीणा, प्रकाशक : राजपाल एण्‍ड संस, दिल्‍ली, पृष्‍ठ 158, मूल्‍य : 100/-