चंबल
के दुर्गम अंचल की संघर्ष गाथा ‘डांग’
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नंद भारद्वाज
स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान
दक्षिणी राजस्थान के आदिवासी अंचल की संघर्ष गाथा ‘धूणी तपे तीर’ के चर्चित
कृतिकार हरिराम मीणा का नया उपन्यास ‘डांग’ पूर्वी राजस्थान के डांग अंचल की
प्राकृतिक, सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर लिखा गया ऐसा दस्तावेज
है, जो आजादी के बाद विगत कई दशकों से दस्यु समस्या से जूझ रहे इस दुर्गम अंचल
के लोकजीवन की जीवारी, जिजीविषा और संघर्ष को गहराई से समझने का अवसर देता है। जिस
अंचल का यही जीवन सूत्र रहा हो कि “जाको बैरी सुख से सोवै, बा कू जीबै को धिक्कार
–" वहां का जनमानस सुख चैन से कैसे
जी पाता होगा भला। विदेशी हुकूमत और सामंती दौर में ऐसे बीहड़ हलके में रहने जीने
वाले लोगों का जीवन न पहले कभी आसान था और न आज। कुछ तो कुदरती हालात ही ऐसे रहे
और कुछ वहां के मानव-निर्मित जंगलराज ने लोगों का जीना हमेशा दूभर किये रखा।
अंग्रेजी
हुकूमत के दौरान जो हलके आम सुविधाओं से वंचित और उपेक्षित रहे, आजादी के बाद देश
में लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम हो जाने के बाद भी बरसों तक वहां के जीवन में कोई
बड़ा गुणात्मक परिवर्तन नहीं आया। अलबत्ता लोकराज की नयी व्यवस्था से यह उम्मीद
जरूर थी कि प्राथमिकता के तौर पर उन इलाकों की सुध ली जाती, लेकिन वैसा नहीं हुआ। विडंबना
यह है कि जब देश की आम ग्रामीण जनता को (चाहे वह पहाड़ी क्षेत्र की हो, मैदानी हो
या मरूस्थलीय) लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल करने की इच्छाशक्ति ही देश के व्यावसायिक
राजनैतिक दलों में विकसित नहीं हो पाई, तो प्राकृतिक रूप से अलग थलग पड़े इस बीहड़ डांग
क्षेत्र की सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ी जनता की भला कौन चिन्ता करे। जो
प्रभावशाली दबंग लोग अपने सत्ता बल, धन बल और बाहु बल के जरिये इस गरीब जनता पर जुल्म
ढाते रहे, उनका दबाव और दबदबा आजादी के बाद भी वैसा ही बना रहा, बल्कि कई इलाकों
में तो और बढ़ गया। चंबल जैसी बारहमासी गहरी नदी के बावजूद न खेती की दशा सुधरी, न
दूर दराज के गांवों में बिजली पानी की पहुंच बनी, न आवागमन और संचार-संवाद का
आधारभूत ढांचा विकसित हुआ और न शिक्षा स्वास्थ्य की दशा में ही कोई सुधार संभव
हुआ। जो गरीब और अभावग्रस्त थे, उनकी दशा और बदतर होती गई, उन्हीं बाहुबलियों के
हाथों आम लोगों की जमीन जायदाद छिनती गई, बहन बेटियां सुरक्षित नहीं रहीं और जो भी
इसका विरोध करता, उसे बेरहमी से दर बदर कर दिया जाता। ऐसे में अन्याय और अत्याचार
से सताए लोग बागी न होते तो क्या होते? परिणामस्वरूप चंबल के बीहड़ प्रतिशोध की
आग में सुलग उठते और उन्हीं हालात में ठाकुर मानसिंह, माधोसिंह, मोहरसिंह, लोकमन,
सुल्तानसिंह, पुतली बाई, सरनामसिंह, मलखानसिंह, सुल्ताना कुरैशी, महेन्द्र
फौजी, फूलनदेवी, जगन गूजर, जसवंत, उमराव गूजर जैसे कितने ही आम युवक युवतियां बागी
बनकर चंबल के बीहड़ों में उतर गये। उनके बागी बनने का कारण बेशक खुद उनके या अपनों
के साथ हुए अन्याय का प्रतिकार रहा हो, लेकिन आगे चलकर वे खुद भी उसी तरह की लूट,
हिंसा, अपहरण, फिरौती और बर्बरता का पर्याय बनते गये। इन बागियों में देर सबेर ज्यादातर
तो आपसी रंजिश या पुलिस मुठभेड़ में मारे गये, कुछ थक हार कर शान्त हो गये और बचे
खुचे कुछ जयप्रकाश नारायण और सुब्बाराव जैसे गांधीवादी नेताओं की समझाइश पर आत्मसमर्पण
कर सामान्य जीवन में लौट आए। बेशक इस अराजकता और आपाधापी में बहुत से निर्दोष लोग
मारे गये, स्त्रियों और बच्चों को जुल्म का शिकार होना पड़ा, घर गृहस्थियां
बर्बाद हो गईं, मुठभेड़ों में सरकारी मुलाजिम और पुलिस के सिपाही भी मारे गये, बहुत
से पुलिसकर्मियों ने अपनी जान पर खेल कर लोगों को बचाया भी, उनकी बहादुरी के लिए
उन्हें मान सम्मान भी मिला, लेकिन इस समूची ऊहापोह में डांग अंचल जिस तरह उजाड़
और उपेक्षित बना रहा, हिंसा से लहुलुहान होता रहा, लोग रोजी रोटी के लिए तरसते
रहे, इन सारे हालात को वही ठीक से जान समझकर बयान कर सकता है, जो इसका सजीव साक्षी
रहा हो, जो इस पूरे लोकेल की प्रकृति, पृष्ठभूमि, यहां के लोकजीवन और समस्या के
मानवीय पहलू की न केवल गहरी समझ रखता हो,
बल्कि उतना ही संवेदनशील और वस्तुपरक दृष्टिकोण भी रखता हो। यही बात कथाकार
हरिराम मीणा को इस अर्थ में विशिष्ट बनाती है कि वे एक सजग और संवेदनशील लेखक
होने के साथ साथ भारतीय पुलिस सेवा में जिम्मेदार अधिकारी के बतौर न केवल उस वास्तविकता
के करीब रहे हैं, बल्कि उस समस्या से सीधे तौर पर रूबरू रहे हैं। उनका ताजा उपन्यास
‘डांग’ इसी जीवन अनुभव, समझ और सोच को सामने लाता है।
डांग
की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, उसकी मौजूदा हकीकत और इस पूरे दौर में आए बदलाव को हरिराम
मीणा इसी वृहत्तर मानवीय दृष्टिकोण के साथ जान और बयान कर सके हैं। डांग की इस
वास्तविकता को उजागर करते हुए वे कहते हैं, “इस धरा के वायुमंडल, क्षितिज,
दिशाओं, आकाश व अंतरिक्ष के अनंत विस्तार में भी आदिकाल से अद्यकाल तक की गत्यात्मकता
के स्पंदनक्रम को अनुभूत किया जा सकता है और यहां की भोर, दोपहर और संध्याओं की
ॠतु आधारित भाव भंगिमाओं के नैपथ्य में प्रदर्शित परिवर्तन के नृत्य नैरन्तर्य
का एन्द्रिक अनुमान लगाया जा सकता है। असल में देखा जाए तो डांग की धरती और आसमान
को समेटते हुए सृष्टि के प्रत्येक तत्व एवं उसकी नैसर्गिकता में पल पल परिवर्तन
का क्रम निरंतर चल रहा है। यह परिवर्तन प्रत्येक दृष्टि से यथास्थिति का प्रतिरोध
किये जा रहा है, किन्तु जो यहां का जन साधारण है, चाहे वह कृषक है, श्रमिक है,
शिल्पी है, सेवक है, पशुपालक है, वनोपजीवी है, डेराबंद घूमंतू जनसमूह है अथवा
हरजीनाथ जैसे यायावर हैं, उन सब के इई गिर्द कालचक्र क्यों नहीं घूमता, परिवर्तन
की आहट क्यों नहीं सुनाई देती, लोकतांत्रिक सहभागिता और विकास में साझेदारी क्यों
नहीं दिखाई देती?” और इन सवालों और इस विडंबना की असली वजह की ओर इशारा करते हुए
वे कहते हैं, “ऐसा नहीं है कि डांग की इस भूमि ने बदलाव नहीं देखे हैं, लेकिन वे
सारे बदलाव मनुष्यों के एक विशिष्ट वर्ग के खातों में जमा हुए हैं। यहां
राजनेताओं के कद ऊंचे उठे हैं, सेठों की तौंद फैली है, सरकारी अफसर कर्मचारियों के
घरों में समृद्धि बढ़ी है, ठेकेदारों, दलालों, वकीलों व ऐसे ही अन्य लोगों के यहां
बदलाव (खुशहाली) आया है। खास आदमी की खुशहाली और आम आदमी की बदहाली का एक मात्र
कारण, जो आसानी से समझ में आता है, वह है खास आदमी की बदमाशी और आम आदमी का
भोलापन।" (पृष्ठ 74)
डांग की
इस वास्तविकता को उपन्यास के ताने बाने में संयोजित करने की दृष्टि से कथाकार ने
जहां हरजीनाथ जैसे एक स्थानीय दिलचस्प घुमक्कड़ आल्हा गायक के जीवन-संघर्ष,
उसके लोक अनुभव, अन्वीक्षण और बयानगी को कथानक का आधार बनाया है, वहीं भागोलिक
परिवेश के रूप में भरतपुर, धौलपुर और करौली जिलों के विभिन्न कस्बों विशेषकर
सरमथुरा, राजाखेड़ा, बयाना, बाड़ी, बसेड़ी, तिमनगढ़, शिकारगाह, गढ़ी बाजना, कोड्यापुर,
मासलपुर और चंबल के तटवर्ती बीहड़ों में बसने वाले लोगों और उस हलके के सरकारी
महकमों, पुलिस विभाग में काम करने वाले चरित्रों की गतिविधियों और वहां के
घटनाक्रम को कथासूत्र के रूप में प्रस्तुत किया है, लेकिन यहां मूल उद्देश्य
किन्हीं खास चरित्रों की कथा कहना न होकर समूचे डांग अंचल की पृष्ठभूमि, उसके
परिवेश और दस्यु समस्या से जूझते इस अंचल की वास्तविक दशा और उससे उबरने की
जद्दोजहद को सामने लाना रहा है। इस प्रक्रिया में जो चरित्र अपनी अलग पहचान बना
पाते हैं, उनमें हरजीनाथ के अलावा कोड्यापुर गांव के श्रीफल गूजर, धौलपुर के सेठ
प्रहलादराय, नेता कप्तानसिंह, पंडित हरचरणलाल बोहरा, पुलिस अधिकारी पी जगन्नाथन,
हरनामसिंह भाटी, उम्मेदसिंह, मुरलीधर, सुरेन्द्र सिंह, शिवसिंह, पत्रकार
प्रेमराज, पहलवान चुन्नीसिंह आदि प्रमुख हैं, जो अपनी छोटी छोटी भूमिकाओं के साथ
‘डांग’ की इस कथा में अपना गहरा असर रखते हैं। इस उपन्यास की सबसे बड़ी खूबी है
इसके चरित्रों की अपनी बोली-बानी और लोकेल की भाषा, जो इस पूरी कथा को विश्वसनीय
और रोचक बनाती है। अगर और बारीकी से देखें तो मानवीय चरित्रों के समानान्तर डांग
परिक्षेत्र अपने आप में एक जीवंत चरित्र की तरह यहां उपस्थित है, जिसका अतीत,
वर्तमान और बनता हुआ भविष्य निश्चय ही पाठक का ध्यान आकर्षित करेगा।
***
Email : nandbhardwaj@gmail.com
Mob. 9829103455
· चर्चित कृति : डांग (उपन्यास), लेखक : हरिराम मीणा, प्रकाशक : राजपाल एण्ड संस, दिल्ली, पृष्ठ 158, मूल्य : 100/-
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