Friday, February 11, 2022

 


विभाजन की त्रासदी और ‘टूटी हुई जमीन’ 
 • नंद भारद्वाज
सन् 1947 में देश की आजादी के साथ विभाजन की जो त्रासदी घटित हुई, उससे प्रभावित लोगों की बची हुई जिन्दगी और उनकी स्मृतियों में वे घाव बरसों तक उतने ही ताजा और तकलीफदेह बने रहे। दरअसल मनुष्य के दैनंदिन जीवन और उसकी नियति को निर्धारित करने वाले ये कुछ सवाल ऐसे होते हैं, जो ताउम्र उन्हें विकल किये रहते हैं और हर मोड़ पर उनकी दारुण स्मृतियां उन्हें भीतर ही भीतर कुरेदती रहती हैं। जो उनकी अपनी जमीन थी, जिस पर वे अपनी फसलें बोते थे, जहां पीढ़ियों से उनका बसा-बसाया घर था, जीवन-मरण के किस्से और रिश्ते थे, उस परिस्थिति को बिना ठीक से जाने-समझे, बिना उसका सामना किये, उन्हें एकाएक छोड़कर निकल भागने के अलावा क्या और कुछ नहीं किया जा सकता था? क्या राजनीति की बिसात पर उस अनचाहे बंटवारे को मूक दर्शक बने देखते रहना ही उनकी नियति थी?
यही वे विकल कर देने वाले सवाल हैं, जिन्हें कथाकार हरदर्शन सहगल ने अपने उपन्यास ‘टूटी हुई जमीन’ के माध्यम से आजादी के पचासवें साल में एक बार फिर से उठाने की जरूरत महसूस की। अपनी अनेक कहानियों में वे इसी समस्या के विभिन्न पहलुओं पर बरसों से लिखते आए थे, स्वयं उनका परिवार भी इसी हादसे के दौर से गुजरा था और उन तमाम तरह के वाकयात के वे भी कहीं मूक साक्षी अवश्य रहे थे। विडंबना यह रही कि आजादी के पचास वर्ष बाद भी यह देश उन त्रासद स्थितियों से उबर नहीं पायाऔर यह बात एक संवेदनशील लेखक को कहीं गहरे में चिन्ति और आन्दोलित भी करती है। खासतौर से ऐसे माहौल में, जहां साम्प्रदायिक तनाव और विभाजन की वह विनाशकारी मनोवृत्ति आज भी वैसी ही बनी दिखाई देती है, जिसमें देश के कई शहर कस्बे और उनमें रहने वाले मानव समुदाय बंटे हुए नजर आते हैं तो यह बात एक सजग नागरिक के लिए कम चिन्ता की बात नहीं है, इनसे भी बड़ी चिन्तां यह कि आशंकाएं और अविश्वास लोगों की आदत बनते जा रहे हैं।
यह बात ऐतिहासिक तथ्य के रूप में साबित हो चुकी है कि दूसरे महायुद्ध के बाद थके हुए और पस्त साम्राज्यवादी मुल्कों में इतनी शक्ति बची ही नहीं थी कि वे अपने उपनिवेशों में उठ रहे राष्ट्रीय आन्दोलनों का मुकाबला कर अपनी प्रभुता बरकरार रख पाते। ऐसे में उन गुलाम मुल्कों की फिरकापरस्त ताकतों को उकसाकर उनको टुकड़ों बांट देना, उनके बीच वैमनस्य का जहर घोलते रहना और उन्हें बरसों तक आपस में उलझाए रखना, उनकी आजमाई हुई ऐसी दुर्नीति थी, जिसके शिकार वे मुल्क आजाद होकर भी आने वाले वर्षों में आर्थिक रूप से उनके गुलाम ही बने रहें। हिन्दुस्तान पर 190 साल तक राज करने वाले अंग्रेजों को यह बात भली भांति समझ में आ चुकी थी कि दक्षिण एशिया के इतने बड़े भू-भाग पर अपना दबदबा बनाए रखने के लिए इस उपमहाद्वीप की दो बड़ी कौमों हिन्दू और मुसलमानों के बीच तनाव बनाए रखे बगैर अपने राजनैतिक और औपनिवेशिक हितों की पूर्ति असंभव है। यह तनाव उनके चले जाने के बाद भी लंबे अरसे तक बना रहे, इसी के लिए कौम के नाम पर इस मुल्क के दो टुकड़े कर देना एक ऐसा दूरगामी दांव था, जिसकी आंच और असर से दोनों मुल्क आज तक उबर नहीं पाए हैं।
सन् 1947 का भारत विभाजन राष्ट्रीय आन्दोलन से उकताए हुए अंग्रेजों की कुटिल नीति और कुछ सत्ता लोलुप राजनेताओं की सोची बूझी चाल का ही हिस्सा था, जो कौमी हितों की रक्षा के नाम पर अपनी अलग सियासत कायम करने का मनसूबा लेकर अंग्रेजों की इस साजिश में शामिल हुए थे। ऐसे में सिन्ध, पंजाब और कश्मीर में रातों-रात विभाजन के नाम पर खिंच गई सीमा रेखा के आर पार हिन्दु और मुस्लिम बहुल हलकों में पुश्तों से रहने वाले हिन्दु और मुस्लिम परिवारों पर जो कहर का पहाड़ टूटा, उसका बयान करते हुए कलमकारों के हौसले और चेतना सुन्न पड़ गई थी। उस त्रासदी के बरसों बाद भी उस पर लिखना उनके लिए कतई सहज नहीं रहा, जिन्होंने कभी ख्वाब में भी नहीं सोचा था कि अपनी आबरू और जान की खातिर उन्हें अपनी जमीन और बसे-बसाए घरबार सें यों रातों-रात बेदखल होना पड़ेगा। ‘टूटी हुई जमीन’ उसी सिन्ध पंजाब से जान बचाकर निकल आए लाखों परिवारों में से एक किला शेखूपुरा के रेल्वे मुलाजिम बाबू जयदयाल के बिखरे हुए परिवार की त्रासद कहानी पर आधारित एक मार्मिक औपन्यासिक कृति है।
देश का बंटवारा घोषित हो जाने के साथ ही सीमा के दोनों ओर के हिन्दु और मुस्लिम परिवारों को जिस कौमी जुनून का सामना करना पड़ा, वह इतना अप्रत्याशित और रोमांचकारी था कि लोगों के सामने अपनी जान बचाकर निकल भागने के अलावा और कोई रास्ता ही नहीं बचा था। किला शेखूपुरा का यह मध्य वर्गीय हिन्दु परिवार ऐसी ही विकट परिस्थिति में अनेक कष्ट उठाता हुआ लायलपुर, लुधियाना और फिरोजपुर होता हुआ आखिर अंबाला के शरणार्थी शिविर पहुंचा और कुछ दिनों के लिए वहीं टिका रहा। परिवार के मुखिया बाबू जयदयाल चूंकि विभाजन से पहले भी अविभाजित रेल विभाग में टी टी के पद पर कार्यरत थे, इसलिए अंबाला के शरणार्थी शिविर में रहते हुए जब उन्होंने अपने महकमे से संपर्क किया और महकमे से उनकी सेवाएं बहाल करने की गुजारिश की तो आवश्यकक तहकीकात के बाद उन्हें मुरादाबाद रेल्वेे मुख्यालय से उसी विभाग में अपना कार्यभार संभाल लेने का आदेश मिल गया। उन्हें बरेली रेल मुख्यालय में फिर से नियुक्ति मिल गई। इस परिवार में बाबू जयदयाल की पत्नी जमना, तीन बेटे मनोज, कुंदन और हरमिलाप तथा एक ब्याहता बेटी अलका, किसी तरह अपनी जान बचाकर सुरक्षित निकल आए थे। अलका के पति रौशनलाल उसी हलके में फौज के सिपाही थे और विभाजन के बाद फौज में हुए बंटवारे के बतौर वे भी बंबई आ गये। यहां आने के बाद उन्होंने बरेली में कार्यरत अपने सास-ससुर के परिवार को खोज लिया और कुछ अरसे बाद स्वयं बरेली आए और अपनी पत्नी अलका को साथ लेकर बंबई लौट गये।
बाबू जयदयाल के बरेली में अपनी नौकरी में व्यवस्थित हो जाने के बाद उनके बड़े बेटे मनोज को भी वापस उसी रेल महकमें में नियुक्ति मिल गई, जो विभाजन से पहले उसी महकमे में काम करते थे। उसे भी रेल महकमे में वापस ले लिया गया और पहली पोस्टिंग बंबई रेल्वे में ही मिली, इसलिए वह भी बंबई चला गया। बाबू जयदयाल के एक और रेल्वे के साथी थे, बाबू केदारनाथ, जो अंबाला के शरणार्थी शिविर से उनके साथ हो लिये थे, वे भी अपनी बेटी सत्या और बेटे बंसी के साथ बरेली आ गये थे। दोनों परिवार कुछ दिन बरेली में साथ ही रहे, जहां मनोज और सत्याह के बीच प्रणय संबंध बना और आगे चलकर दोनों ने विवाह कर लिया।
कुंदन इस परिवार का सबसे चंचल, जीवंत और संवेदनशील लड़का था। उपन्यास का सारा घटनाक्रम और सोच एक तरह से इसी कुंदन को केन्द्र में रखकर रचा गया है। वही इस उपन्यास का नायक है, जो उम्र के हर मोड़ पर महत्वपूर्ण फैसले लेता रहा है। परिवार के विरोध के बावजूद वह अपनी किशोरावस्था की परिचित लड़की आकाशी से विवाह करने का साहसी फैसला लेता है, जो नाबालिग अवस्था में ही एक दहेज-लोभी परिवार में ब्याह दी गई थी, जहां उसके पति और घरवालों के अत्याचारों का सामना करते हुए जीवन बिता रही थी। परिवार के उसी तनावपूर्ण हालात में उसके पति की हत्या हो गई और इल्जाम आकाशी पर लगा दिया गया। उस पर मुकदमा चला और आखिरकार हत्या को परिस्थितिजन्य मानते हुए अदालत ने उसे दोषमुक्त कर दिया। इस तनावपूर्ण प्रकरण का आकाशी के मानस पर गहरा प्रभाव पड़ा और वह निराशा में डूब गई। आकाशी की इस मनोदशा को बदलने और उसे अपनी सोच में ढालने की कुंदन ने भरपूर कोशिश की। उसे अनेक शहरों में घुमाता हुआ आखिर वह पाकिस्तान की उस जमीन पर जा पहंचा, जो उसकी जन्मंस्थली थी, जिसकी स्मृतियां उसके जीवन का अटूट हिस्सा थीं और वही जमीन आज उसके लिए पराई हो गई थी। अपनी जमीन से बेदखल होने का यही दुख उपन्यास के अन्य पात्रों को भी उम्र भर सालता रहा।
इस उपन्यास के लेखक की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि सारा घटनाक्रम और त्रासद स्थितियां बयान करने के बावजूद कहीं भी वह भावना के अतिरेक में नहीं बहता, सोच के धरातल पर कहीं अपना संतुलन नहीं खोता और न किसी पक्ष की तरफ अनावश्यक झुकाव दिखाता। उसकी नजर में सीमा के दोनों तरफ रहने वाले हिन्दु्ओं और मुसलमानों का दुख एक जैसा है, वह किसी कौम के प्रति अतिरिक्त उत्तेजना का स्वर नहीं अख्तियार करता, बल्कि समस्या की जड़ में छिपे उन कारणों और परिस्थितियों को रेखांकित करने का प्रयत्न करता है, जिनकी वजह से दोनों ओर के लोगों को इस भीषण त्रासदी का सामना करना पड़ा और उससे किसी को कुछ हासिल नहीं हुआ, सिवाय उन सियासतदानों के, जिनके लिए इन्सानी जिन्दगियां महज मोहरा होकर रह जाती हैं।
हरदर्शन सहगल ने इस कृति के रचाव में जिस तरह की औपन्यासिक संरचना और भाषा का उपयोग किया है, उससे उनके सृजन में एक नयी तरह की चमक पैदा हो गई है। भाषा इतनी सहज और बयान के अनुकूल बन पड़ी है कि उसके प्रवाह में अलग अलग अध्यायों का बंटवारा शायद अवरोध ही उत्पन्न करता, इसलिए लेखक ने पूरे कथानक को देशकाल और परिस्थिति की दृष्टि से तीन बड़े खंडों में बांटकर प्रस्तुत किया है, जो इस कृति को नयी अर्थवत्ता प्रदान करते हैं।
हिन्दीृ कथा साहित्य में ‘टूटी हुई जमीन’ विभाजन की ऐतिहासिक त्रासदी पर बरसों तक याद रखा जाने वाला एक ऐसा जीवंत दस्तावेज है, जिसमें समूचा घटनाक्रम और उसके हेतु अपने सभी आवश्यक ब्यौरों के साथ बेहतर ढंग से दर्ज हैं।
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