Tuesday, May 3, 2016

वरिष्‍ठ कवि गोविन्‍द माथुर के जन्‍मदिन पर -
मनुष्य और समय के बचाव में कविता
·         नंद भारद्वाज

विगत चार दशक से अपने समय और मानवीय सरोकारों से जुड़े कवि गोविन्द माथुर की कविताओं के बीच से गुजरना प्रकारान्तर से एक नये अनुभव-संसार से रूबरू होना है। अपनी विशिष्ट स्थानिकता और सहज-बयानी के कारण उनकी कविताएं अनायास ही हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं। एक मध्यवर्गीय व्यक्ति के जीवन अनुभव, कवि का आत्मीय लहजा और सहज काव्‍य-भाषा उन्हें अपने समकालीन कवियों से थोड़ा अलग भी करती हैं, स्‍वयं अपनी पूर्ववर्ती कविताओं से भी वे हर बार थोड़ा अलग हुए हैं, - जैसे सबके सामने वे अपना मन खोलकर रख देना चाह रहे हों। अपने कठिन समय और आस-पास की देखी-जानी दुनिया की विसंगतियों पर गहरी संवेदनात्मक प्रतिक्रिया उनकी कविताओं की अन्यतम खूबी है, जो उन्हें वृहत्तर मानवीय सरोकारों से जोड़ते हुए उल्लेखनीय बनाती हैं। एक सहज आत्मीय संवाद के रूप में उनका कथ्य और काव्य-कौशल परस्पर घुलमिल गये हैं और यह तय कर पाना कठिन है कि उनका कथ्य महत्वपूर्ण है या कहने का तरीका।  
   गोविन्‍द माथुर बताते हैं कि वे सन् 1972 से कविता के माध्‍यम से अपने को अभिव्‍यक्‍त करते रहे हैं, आरंभ के तीन-चार साल (सन् 1975 तक) सक्रिय रहने के बाद उन्‍होंने सात-आठ साल का छोटा-सा ब्रेक लिया और सन् ’82 के बाद से निरन्‍तर काव्‍य-लेखन से जुड़े रहे हैं। तब से अब तक उनकी कविताओं के पांच संकलन प्रकाशित होकर आ चुके हैं – शेष होते हुए (1982), दीवारों के पार कितनी धूप (1991) उदाहरण के लिए (1998), बची हुई हंसी (2006) और ताजा संग्रह ‘नमक की तरह’ (2014)। इनके अलावा एक काव्‍य-संचयन भी प्रकाशित हुआ है – ‘समय को काटती धार’ (2012) और इस तरह समकालीन काव्‍य-परिदृश्‍य में उनकी प्रभावशाली उपस्थिति बराबर पाठकों का ध्‍यान आकर्षित करती रही है। उनके नये संग्रह ‘नमक की तरह’ की कविताएं प्रकारान्‍तर से उनके उसी काव्‍य-स्‍वर और संवेदना को और गहराती हैं, अपने समय-समाज और मानवीय सरोकारों को लेकर उनकी जो केन्‍द्रीय चिन्‍ताएं पूर्ववर्ती संग्रहों में व्‍यक्‍त होती रही हैं, वे इस संग्रह की कविताओं में कुछ और नयी चिन्‍ताओं के साथ और सघन होती दीखती हैं। हमारे समय की कतिपय गंभीर चिन्‍ताओं की ओर इशारा करती इन कविताओं को लेकर कवि विष्‍णु नागर ने सही कहा है कि “दरअसल आर्थिक अभाव उतना बुरा नहीं है, जितना कि लोगों के बीच की आत्‍मीयता का छीजते चले जाना और उसकी जगह महत्‍वाकांक्षाओं का बढ़ते चले जाना, रिश्‍तों का स्‍वार्थों तक सिमट जाना, अपनों से असहमतों के प्रति असहिष्‍णुता का बढ़ते जाना आदि। --- वे बार-बार कहते हैं कि क्षुद्रताओं से उबरो, लोकतंत्र और बराबरी के मूल्‍यों का सम्‍मान करो, अपने आपको बचाकर रखो।“ गोविन्‍दजी की कविताओं की यही संजीदगी और चिन्‍ताएं लगातार हिन्‍दी पाठकों का ध्‍यान अपनी ओर आकर्षित करती रही हैं। 
   अपनी काव्य-संवेदना, सुरुचि और काव्य-भाषा को सहेजती इन कविताओं में बयान की सादगी और साफगोई नया असर पैदा करती है। किसी अमूर्त व्यंजना या लाक्षणिकता को संजोने का प्रयत्न यहां नहीं दीखता - न भाषा या उक्ति को लेकर कोई ऊहापोह या आडंबर। यही वजह है कि अपनी अनुभूतियों और जीवन की वास्तविकताओं को वे बिना किसी औपचारिकता के बेबाकी से बयान कर पाते हैं -  
          जिन शब्दों में  /  लिखता हूं कविताएं /  उन्हीं शब्दों में
          व्यक्त करता हूं शोक /   खुशी व्यक्त करने के लिए
          अलग शब्द नहीं हैं मेरे पास  /  एक ही चेहरा है
          कठोर और उदास  /  खुशी जिस पर ठहर नहीं पाती
          उत्सव में चला जाता हूं /   यही चेहरा लेकर
                                                (बचे हुए शब्द, पृ. 5)
    मानवीय व्यवहार और आपसी सद्भाव के लिए गहरी चिन्ता और अपने कर्म के प्रति सच्ची निष्ठा के बावजूद यदि किसी रचनाकार को उसके रचनात्मक-कर्म के लिए अपेक्षित स्वीकृति और स्नेह समय पर न मिल पाए तो यह बात उसके मनोबल पर कुछ असर अवश्य डालती है। समय बीतने के साथ जीवन की बहुत-सी स्मृतियां, खारे-खट्टे अनुभव और उदासीनता उसके मन में टीस और कचोट बनकर उभरते हैं। वह जितना चीजों को बचाने और सहेजने का प्रयत्न करता है, उतना ही उनसे दूर जा छिटकता है। गोविन्द माथुर की इन कविताओं में कुछ इसी तरह की वेदना और कचोट गहरी आर्द्रता के साथ व्यक्त होती दिखाई देती है -
1.  जितने थे उतने भी /  नहीं माने गए
अपनों में भी नहीं पहचाने गए
                          (आत्मबोध, पृ. 4)
2.  जो चाहा था जीवन में  / वह नहीं मिला
क्या चाहा था यह स्पष्ट नहीं रहा
जो मिला वह तो नहीं चाहा था
                               (जीवन दर्शन-एक, पृ. 27)

     इस अवसाद में एक गहरी चिन्ता अपनी पसन्द की उन पुरानी वस्तुओं, विचारों और अपनी जीवन शैली के लिए भी निहित है, जिसके प्रति लोगों का नजरिया बहुत-कुछ बदल गया है। वे अक्सर इस बात को लेकर चिन्तित हो उठते हैं कि तेजी से बदलती दुनिया में इन्‍सानियत की भाषा और हंसी धीरे-धीरे लुप्त हो रही है, वे इस भाषा और हंसी को बचा लेना जरूरी समझते हैं - अपनी उन श्वेत-श्याम स्मृतियों की पोटलीके साथ, कि कुछ तो बचे रहने का संतोष वे पा सकें।
     उदासी और अवसाद की इस जमीन पर खड़ा यह कवि दरअसल अपनी कविताओं में जीवन के प्रति गहरे लगाव और मानवीय सरोकारों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को ही व्यक्त करता है। एक कवि के रूप में वे बचाए रखना चाहते है थोड़ी-सी हंसी और वह भाषा जो कठिन समय में मनुष्य का मनोबल बनाए रखे। गोविन्द माथुर की काव्य-प्रकृति और सरोकारों के बारे में हेतु भारद्वाज की यह राय बहुत सटीक लगती है कि ‘‘कविता लिखना उनके लिए न विवशता है न शौक, बल्कि जीवन के प्रति अपने नजरिये को व्यक्त करने का तरीका है, जो जीवन की सारी असंगतियों, विद्रूपताओं, संघर्षों को रेखांकित करता हुआ मनुष्यता को बचाए रखने की बेचैनी को केन्द्र में रखता है।’’
    इसी मानवीय भाव और समय को केन्द्र में रखकर गोविन्द माथुर ने अनेक कविताएं लिखी हैं, जो प्रकारान्तर से मनुष्य और समय के साथ उनके अंतरंग संवाद का साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं। समय से जुड़ी अनगिनत स्मृतियां, दैनंदिन जीवन के अनेक ऐसे अनुभव और प्रसंग हैं, जहां समय की गति और दिशा कवि को चिन्तित और विचलित करती है, उसे जीवन का सतत प्रवाह टूटता-सा दिखाई देता है। कहीं समय अनुकूल न होने का अवसाद है तो कहीं इस बात का पछतावा कि समय का उचित उपयोग नहीं किया जा सका। यही नहीं, उसे समय की प्रकृति और उसके उतार-चढ़ाव का पूरा अहसास रहता है -  
             बहुत सारी चीजें/  समय पर/ समझ में नहीं आतीं
             जब समझ में आती हैं/ समय निकल चुका होता है
                        .....     .....
             एक ही समय में होते हैं /  कितने सारे समय
             एक ही समय सब के लिए    
             एक ही समय नहीं होता
                                           (एक ही समय में, पृ. 17)
    समय को लेकर कवि की मूल चिन्ता यह है कि उसका नियमन करने वाले समाज और सत्ता के सामने मनुष्य असहाय होकर न रह जाय। कोई ताकतवर व्यक्ति, समूह या देश किसी कमजोर व्यक्ति, समुदाय या देश पर अपना आधिपत्य जमाकर उसका शोषण-उत्पीड़न न कर सके। जब वह अपने आस-पास के जीवन पर नजर डाल कर देखता है तो उसे हैरत होती है कि रोजमर्रा की मामूली चीजों के साथ गुजर-बसर करने वाला समय कितना निर्मम और क्रूर होता गया है -  
             आधी सदी के सफर में /   इतने क्रूर नहीं थे
             इतने निरीह भी / नहीं थे लोग
              जितने नजर आ रहे हैं /  पूरी सदी के बाद।
                                          (आधी सदी के सफर में, पृ. 22)
और इसी सदी के आखिर में इस देश की आम जनता ने गुजरात की वह क्रूर त्रासदी भी देखी है, जहां साम्प्रदायिक दंगों ने हमारे राष्ट्रीय जीवन के राग-रंग को तहस-नहस करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। कवि को इस बात का गहरा मलाल है कि जो गुजरात कभी द्वारिका, नरसी भगत, महात्मा गांधी और स्वावलंबी जीवन की प्रतीक साबरमती और अमूल के लिए याद किया जाता है, वही गुजरात अपने ही देशवासियों के भीषण नर-संहार की दर्दनाक तस्वीर भी पेश करता है -  
             गुजरात उसे लुप्त हुई द्वारिका के लिए नहीं
             लुप्त हुई मानवीयता के लिए भी याद रहेगा
             सोमनाथ का मंदिर लूटे जाने के लिए ही नहीं
             मानव संहार के लिए भी याद रहेगा
                                                                    (गुजरात, पृ. 31)
     गुजरात ही क्या, कवि अपने ही शहर के लोगों को जब इधर उधर में बंटा देखता है तो उसे सदियों से बनी साझा विरासत के सपने चूर-चूर होते दिखाई देते हैं। वह जानता है कि यह ऐसा एक दिन में नहीं हुआ। वोट की राजनीति करने वाले दलों ने बरसों से जिस तरह हमारे भाईचारे की साझी विरासत को धर्म और जाति के नाम पर टुकड़ों में बांटा है और जो नफरत और दहशत का माहौल पैदा किया है, उसने देश की एकता और इन्‍सानियत की नींव को हिलाकर रख दिया है -  
             ऐसा एक दिन में नहीं हुआ था/  राख के ढेर में
             वर्षों से दबी आग फिर से सुलगाई गई थी
             अफवाहों से गर्म की गई थी शहर की ठंडी हवा
             राजनीति के तवे पर सेके जा रहे थे वोट
             अतीत के खंडहरों से निकाल कर/  लाई गई थी 
             नफरत भय और दहशत  पैदा की गई थी 
             धर्म  और राष्ट्र के नाम पर
                                             (इधर-उधर के लोग, पृ. 34)
   विनाश की इस प्रक्रिया में बढ़ते बाजारवाद और भूमंडलीकरण ने भी दरअसल आग में घी का काम किया है। विकास की अंधी दौड़ में वह पारंपरिक जीवन-शैली तो नष्ट हुई ही, रोजमर्रा के जीवन में काम आने वाले उपकरण साइकिल, रेडियो, दीवार घड़ी, चप्पल, पोस्टकार्ड या गुड़ की चाय जैसी जीवनोपयोगी चीजें तक चलन से बाहर कर दी गई हैं। उनके हिस्से का अनाज तो गोदामों में बंद है ही, उनकी धूप, हवा और पानी भी अब निरापद नहीं है -
             उन्हें भय लगता है भूखे और गरीब लोगों से
             जिनके हिस्से का अन्न बंद है उनके गोदामों में
                            वे असुरक्षा महसूस करते हैं  /  
              उन असुरक्षित लोगों से
                            जो जीवित हैं धूप, हवा और पानी पर
                                                   (वे ही सिर्फ वे ही, पृ. 41)
   बाजारवाद की इस प्रक्रिया ने हमारी अर्थव्यवस्था, सामाजिक जीवन, संस्कृति और जीवन-मूल्यों के सामने तो चुनौती उत्पन्न की ही, हमारी स्वतंत्रता, अस्मिता और समूचे अस्तित्व के सामने गहरे संकट खड़े कर दिये हैं। इस निर्मम प्रक्रिया का सबसे बुरा असर हमारे समय की स्त्री के जीवन पर पड़ा है। इस बाजार ने आज उसे अपने उत्पादों के साथ नुमाइश की चीज़ बनाकर छोड़ दिया है, जहां वह अपने शरीर के उभारों को प्रदर्शित करती हुई @ बहुत कम कपड़ों में कपड़ों के प्रदर्शन के लिएकैट-वॉक करती दिखाई जाती है। यही नहीं इस महत्वाकांक्षी मध्यवर्गीय समाज में स्त्री और गहरे संकट में घिरी दिखाई देती है। समाज के सारे नीति-नियम जैसे उसी की स्वतंत्रता का हनन करने के पर्याय होकर रह गये हैं। घरेलू हिंसा, उत्पीड़न, बलात्कार, आत्महत्या और भ्रूण-हत्या आज अखबारों की आम खबरें हो गई हैं। इसी परिदृश्य से जुड़ी स्त्री की नींद’, ‘तीन बहनें’, ‘तीन लड़कियां’ ‘जली हुई देहआदि कविताओं के माध्यम से कवि ने पूरी शिद्दत के साथ स्त्री के प्रति होने वाले असंगत बरताव और उसकी मार्मिक पीड़ा को बेलिहाज एक शर्मिन्दा कर देने वाली सचाई के रूप में उजागर किया है -  
             पवित्र अग्नि की  लौ से गुजर कर आई
             स्त्री को  एक दिन लौटा दिया अग्नि को 
             जिस स्त्री ने /   पहचान दी घर को
             उस स्त्री की पहचान नहीं थी 
             जली हुई देह थी /   एक स्त्री की
                                                        (जली हुई देह, पृ. 47)
इसी सामंती ढांचे की दुश्वारियों के बरक्स आज तथाकथित पढ़े-लिखे मध्यवर्गीय समाज में स्त्री की दशा और भी दारुण हो गई है। इस समाज में शादी के बाद पत्नी या बहू की हैसियत घर में काम करने वाले एक घरेलू श्रमिक से बेहतर नहीं है। कुछ इसी तरह के हालात की ओर संकेत करते कवि ने आज के दाम्पत्य का यह दृष्टान्त प्रस्तुत किया है -
             दस बार कहने पर  
                          एक बार गये होंगे पत्नी के साथ बाजार
             सौ बार कहने पर एक बार गये होंगे सिनेमा
             कभी चले भी गए तो   
             दस कदम आगे रहे पत्नी से
             मुड़ मुड़ कर देखते रहे कितनी दूर है
             कंधे से कंधा मिलाकर नहीं चले कभी
                                              (पत्नी के साथ जीवन, पृ. 82)
   यह मध्यवर्गीय मनुष्य आज जिस तरह आधुनिक जीवन-शैली की ओर बढ़ते  महानगरों में रहता है, उनका माहौल बहुत तेजी से बदलता गया है। वहां अब पिछले समय और पुराने तहजीब के लिए कोई जगह नहीं बची है। पिछले पचास सालों से जयपुर जैसे महानगर में रहते हुए कवि ने जो जीवन जिया, देखा और अनुभव किया, उनका अपना आभ्यंतर उसी परम्परा और परिवेश से जुड़ा रहा है। उसी की खट्टी-मीठी स्मृतियां और दृश्यों के कोलाज इन कविताओं में जगह जगह बिखरे मिलते हैं - यहां गलियों में से निकलती कितनी ही गलियां थीं, चैक-चैराहे थे, खुले खिड़की-दरवाजे और जाली-झरोखे थे, एक-दूसरे के घरों में बेरोक आवाजाही थी, प्रेम परिहास के अटूट रिश्ते बनते थे, खिड़कियों के खुलने और बंद होने का संगीत गूंजता था एक-दूसरे के कानों में। इसी भाव-संसार और स्मृतियों को साकार करती कुछ रागात्मक कविताएं सहज ही हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं -
            उस गली का एक एक दर
            एक एक दरीचा पहचानता था मुझे
            खिड़कियों के खुलने बंद होने का संगीत
            आज भी गूंजता है मेरे कानों में
                          (शहर की एक गली, पृ. 72)
    इन स्मृतिपरक कविताओं को रचते हुए कई बार कवि अपने अतीत के ब्यौरों में दूर तक निकल गया है और स्मृतियां कच्चे माल की तरह इस्तेमाल होती गई हैं। किसी भी कविता को रचते हुए जो आत्म-संयम और आन्तरिक अनुशासन अपेक्षित है, उस पर से कवि की पकड़ कुछ ढीली-सी पड़ती दीखने लगती है और उस विस्तार में कविता का प्रभाव शिथिल होने लगता है। यही वह बिन्दु है, जिस पर हमारे समय के बहुत-से कवियों को फिर से विचार करना है, क्योंकि मेरा मानना है कि कविता एक सधे हुए कला-रूप के बतौर ही अपना सघन प्रभाव कायम रख सकती है।
    महानगरों और बड़े कस्बों में रहने वाले मनुष्य की जीवन-शैली और जरूरतों में इधर बहुत तेजी से बदलाव आया है। इन नगरों के विस्तार में बनते नये उप-नगरों, मार्गों, मकानों और नये बाजारों के मायाजाल ने उस पुराने को सिरे से बदल दिया है। पुरानी बस्तियों में भी अब न वो गलियां हैं, न जाने-पहचाने रास्ते, न वैसे घर हैं और न ही घर का वह अन्दरूनी रंग-रूप। वे पुरानी पाठशालाएं, वाचनालय और पुराने सिनमाघर भी अब अपने मूल रूप में नहीं रहे, जिनके साथ हमारी जीवन-शैली का अनलिखा इतिहास और अनेक स्मृतियां जुड़ी रही हैं, जिनके टूटने की आवाज़ ऐसे संवेदनशील कवि को कहीं अपने भीतर सुनाई देती है -
          उस दिन मैं मिर्जा इस्माइल रोड पर  
          अजमेरी गेट से न्यू गेट की ओर जा रहा था    
          मुझे कुछ टूटने की आवाज आई
          आवाज मेरे अन्दर से आई थी    
          पर टूट बाहर रहा था,
          मुझे नहीं मालूम मानप्रकाश टाकीज   
                    कितना पुराना था
          पहली फिल्म कौन-सी लगी थी इसमें  
                                          मानप्रकाश टाकीज, पृ. 93)    
    यह टूटना और बिखरना पिछले एक अरसे से जारी है। यह टूटना उस प्राकृतिक आपदा की तरह है, जिसमें सब-कुछ का नष्ट होना एक नियति की तरह सामने आता है। ऐसे में जो कुछ भी बचाया जा सकता है, लोग उसे बचाने का हर संभव प्रयत्न करते हैं। इस टूटने की प्रक्रिया में कवि की मूल चिन्ता यही है कि जो बचाया जाना आवश्यक है, उसे तो हर हाल में बचाया ही जाना चाहिए। अपनी इसी सोच और मुहावरे का प्रयोग करते हुए कवि गोविन्द माथुर ने जो काव्य-श्रृंखला खड़ी की है, उसके माध्यम से उन्होंने उसी मूल्यवान को बचाने और आदमी के भीतर के अकेलेपन को अपनी जीवंत स्मृतियों और बेहतर सपनों से भरने का संकल्प दोहराया है और यही बात उनकी कविता को प्रासंगिक बनाती है।

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