Sunday, December 29, 2019



हिन्‍दी पाठकों के बीच राजस्‍थानी कहानियों की बेहतर प्रस्‍तुति
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धुनिक राजस्‍थानी कथा-यात्रा की शुरूआत ठीक वहीं से होती है, जहां से हिन्‍दी कहानी की यात्रा आरंभ होती है, लेकिन दोनों के क्रमिक विकास और उपलब्धियों में काफी अंतर है। कमोबेश यही बात अन्‍य भारतीय भाषाओं की कहानी पर भी लागू होती है। यद्यपि लोकवार्ता की दृष्टि से राजस्‍थानी का कथा साहित्‍य पर्याप्‍त समृद्ध रहा है और यहां की वाचिक परंपरा में‍ लोक कथाएं सर्वाधिक लोकप्रिय रही हैं। यही कारण है कि आधुनिक कथा लेखन के दौर में भी रानी लक्ष्‍मीकुमारी चूंडावत, विजयदान देथा, नानूराम संस्‍कर्ता, मनोहर शर्मा, मुरलीधर व्‍यास जैसे आधुनिक भावबोध वाले समर्थ कथाकारों ने इन लोक कथाओं के लेखन और संग्रहण में विशेष रुचि ली। उल्‍लेखनीय बात ये कि‍ यही कथाकार इसी दौर में अपनी मौलिक कहानियां भी लिखते रहे, जिससे आधुनिक राजस्‍थानी कहानी की बेहतर संभावनाएं विकसित हो सकीं।  
     राजस्‍थानी भाषा के साथ एक बड़ी विडंबना यह रही कि आजादी के बाद जहां हिन्‍दी सहित देश की चौदह भारतीय भाषाओं को तो संवैधानिक मान्‍यता देकर उनके विकास का रास्‍ता खोल दिया गया, लेकिन देश के बड़े प्रान्‍त राजस्‍थान की समृद्ध भाषा राजस्‍थानी और कुछ अन्‍य भारतीय भाषाओं‍ को इस प्रक्रिया से बाहर ही छोड़ दिया गया। इरादा शायद यही था कि राजकीय मान्‍यता और संरक्षण के अभाव में ये भाषाएं धीरे धीरे व्‍यवहार से बाहर हो जाएंगी और उनके स्‍थान पर लोग हिन्‍दी या उस क्षेत्र विशेष की मान्‍यता प्राप्‍त भाषा को ही अपनी मातृभाषा के रूप में कुबूल कर लेंगे, जबकि‍ यह सोच अपने आप में ही अवैज्ञानिक और अव्‍यावहारिक थी। इन वंचित भाषा-भाषियों ने अपनी भाषा की मान्‍यता के लिए लंबी लड़ाइयां लड़ीं और उसी की बदौलत अब तक दस और भारतीय भाषाओं को संविधान की आठवीं सूची में शामिल किया जा चुका है, लेकिन राजस्‍थान के आठ करोड़ शान्तिप्रिय वाशिन्‍दों की मातृभाषा राजस्‍थानी आश्‍वसनों और दिलासों के बावजूद आज तक उस मान्‍यता से वंचित है। वह लोगों के जीवन-व्‍यवहार की भाषा है, इसलिए उसे मिटा पाना तो किसी सत्‍ता व्‍यवस्‍था के वश की बात नहीं है, लेकिन संवैधानिक मान्‍यता के अभाव में न वह प्राथमिक स्‍तर पर शिक्षा का माध्‍यम बन सकी और न सरकारी काम-काज की प्रक्रिया में उसको कोई तवज्‍जो दी जाती। अपनी भाषा और संस्‍कृति से लगाव रखने वाले हजारों लाखों संस्‍कृतिकर्मी और जागरूक लोग आज भी उसे अपने जीवन-व्‍यवहार का आवश्‍यक अंग बनाए हुए हैं, उन्‍हीं में वह लेखक समुदाय भी आता है, जो ग्‍यारहवीं शताब्‍दी से चली आ रही साहित्यिक विरासत से जुड़कर आज भी अपनी भाषा में साहित्‍य सृजन की परंपरा को सजीव बनाए हुए है। डॉ नीरज दइया के संपादन में आधुनिक राजस्‍थानी कहानियों के हिन्‍दी अनुवाद के रूप में प्रकाशित कथा संकलन ‘101 राजस्‍थानी कहानियां’ को मैं राजस्‍थानी भाषा की अस्मिता के इसी संघर्ष और उसकी सृजन परम्‍परा के विस्‍तार से जोड़कर ही देखता हूं।    
     इस ऐतिहासिक प्रक्रिया पर बात करते हुए डॉ नीरज दइया ने इस संकलन की भूमिका में भारतीय कहानी के भविष्‍य पर बहुत सटीक टिप्‍पणियां की हैं। वे प्रादेशि‍क भाषाओं और हिन्‍दी कहानी के अंतर्संबंध की ओर इशारा करते हुए सही कहते हैं कि “भारतीय कहानी का भविष्‍य हमारी क्षेत्रीय भाषाओं की कहानी से निर्मित होगा। हरेक भाषा में कहानी की अपनी परंपरा और विकास के आयाम रहे हैं। अपनी समृद्ध साहित्यिक विरासत विकास के कारण आधुनिक राजस्‍थानी कहानियों का भारतीय कहानी में विशेष महत्‍व है।" और इसी महत्‍व को रेखांकित करने के लिए उन्‍होंने आधुनिक राजस्‍थानी के 101 कथाकारों की चुनिन्‍दा कहानियों के पांच सौ पृष्‍ठ के इस वृहद संकलन को मूर्त रूप दिया है। 
    हिन्‍दी प्रकाशन जगत में आजादी के कुछ वर्ष बाद तक शोध और पाठ्यक्रम की मांग के अनुसार राजस्‍थानी के प्राचीन और मध्‍यकालीन साहित्‍य को उसके मूल पाठ और उन पर हिन्‍दी टीकाओं के प्रकाशन में जरूर कुछ दिलचस्‍पी रही, लेकिन राजस्‍थानी के नये मौलिक लेखन के प्रति आमतौर पर उदासीनता ही देखने को मिलती है। प्रदेश में यह जिम्‍मा कुछ हद तक राजस्‍थानी साहित्‍य और संस्‍कृति से जुड़ी संस्‍थाओं और शोध संस्‍थानों ने जरूर संभाला, लेकिन उनकी भी नये लेखन को सामने लाने में कम ही रुचि रही। इस स्थिति में कुछ सुधार तब हुआ, जब राजस्‍थानी के सृजनशील लेखकों ने अपने निजी प्रयत्‍नों से पत्रिकाओं और पुस्‍तकों का प्रकाशन अपने हाथ में लिया। मरुवाणी, जाणकारी, ओळमों, हरावळ, राजस्‍थली, चामळ, जलमभोम, हेलो, दीठ जैसी पत्रिकाओं के माध्‍यम से एक पूरी पीढ़ी सामने आने लगी। उसी दौर में भाषा की मान्‍यता के लिए बढ़ते दबाव में साहित्‍य अकादमी ने राजस्‍थानी भाषा के साहित्‍य को मान्‍यता देते हुए सन् 1972 से राजस्‍थानी कृतियों को साहित्‍य अकादमी पुरस्‍कार की प्रक्रिया में शामिल किया। उसी दौर में बीकानेर में राजस्‍थानी भाषा साहित्‍य और संस्‍कृति की स्‍वतंत्र अकादमी बनी और प्रदेश के हिन्‍दी प्रकाशकों ने राजस्‍थानी की नयी कृतियों को प्रकाशित करने में रुझान दर्शाया। सन् 1960 में जोधपुर से सौ किलोमीटर दूर स्थित बोरूंदा गांव में विजयदान देथा और कोमल कोठारी ने जिस रूपायन संस्‍थान की नींव रखी, उसके आरंभिक संकल्‍प तो काफी व्‍यापक रहे, लेकिन कालान्‍तर में यह संस्‍थान अपने ही कलेवर में सिमटता गया। उस संस्‍थान के माध्‍यम से राजस्‍थानी लोक कथाओं के संग्रहण और प्रकाशन की योजना आरंभ हुई, जिसके तहत ‘बातां री फुलवाड़ी’ का श्रृंखलाबद्ध प्रकाशन आरंभ हुआ। इस योजना के साथ इस संस्‍थान ने राजस्‍थानी के नवलेखन को भी प्रकाशित करने का बीड़ा उठाया और नारायण सिंह भाटी, सत्‍यप्रकाश जोशी, गजानन वर्मा, रेवतदान चारण, कल्‍याणसिंह राजावत, जनकवि उस्‍ताद आदि के कुछ काव्‍य-संकलन पहली बार प्रकाश में आए। लेकिन यह योजना जल्‍दी ही बंद हो गई और रूपायन संस्‍थान बिज्‍जी (विजयदान देथा) के साहित्‍य लेखन को प्रकाशित करने तक सीमित हो गया। इस बीच साहित्‍य अकादमी, दिल्‍ली और राजस्‍थानी भाषा साहित्‍य अकादमी के समर्थन से नये लेखन को प्रकाशित करने की योजनाएं भी सामने आईं। इन संस्‍थानों ने मूल राजस्‍थानी में कृतियां प्रकाशित कीं।
      पिछले एक अरसे से साहित्‍य अकादमी और हिन्‍दी की राष्‍ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं की सक्रियता और समर्थन से जहां राजस्‍थानी कृतियों के हिन्‍दी, अंग्रेजी और दूसरी भारतीय भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित होने लगे हैं, वहीं हिन्‍दी और अन्‍य भाषाओं की श्रेष्‍ठ कृतियों के राजस्‍थानी अनुवाद भी प्रकाशित होकर सामने आने लगे हैं। इसी क्रम में राजकमल प्रकाशन जैसे राष्‍ट्रीय प्रकाशन संस्‍थान ने पहली बार सन् 1979 में बिज्‍जी की राजस्‍थानी लोक कथाओं का संकलन ‘दुविधा और अन्‍य कहानियां’ तथा ‘उलझन’ (सन् 1982) हिन्‍दी अनुवाद के रूप में प्रकाशित किये। इतना ही नहीं सन् 1984 में इसी प्रकाशन संस्‍थान ने बिज्‍जी की मौलिक राजस्‍थानी कहानियों का संकलन ‘अलेखूं हिटलर’ मूल भाषा में प्रकाशित कर राष्‍ट्रीय स्‍तर पर राजस्‍थानी कृतियों के प्रकाशन का रास्‍ता खोला। इसके बाद तो भारतीय ज्ञानपीठ और हिन्‍दी के अन्‍य प्रकाशन संस्‍थानों ने भी राजस्‍थानी की अनेक कृतियां मूल और अनुवाद के रूप में प्रकाशित की हैं। राष्‍ट्रीय पुस्‍तक न्‍यास ने भी अपनी भारतीय पुस्‍तक माला श्रृंखला के अंतर्गत राजस्‍थानी भाषा के लेखन को शामिल करते हुए आधुनिक राजस्‍थानी की प्रतिनिधि कहानियों और कविताओं के संकलन मूल राजस्‍थानी में प्रकाशित किये हैं, जिनके हिन्‍दी अनुवाद भी सामने आ चुके हैं। इसी तरह कुछ और हिन्‍दी प्रकाशकों ने इस दिशा में बेहतर रुझान दिखाया है। डॉ नीरज दइया के संपादन में गाजियाबाद के के एल पचौरी प्रकाशन से आए इस ताजे संकलन ‘101 राजस्‍थानी कहानियां’ को मैं इसी श्रृंखला के विस्‍तार के रूप में देखता हूं और निश्‍चय ही इससे राजस्‍थानी के नवलेखन को हिन्‍दी के व्‍यापक पाठक समुदाय के बीच पहंचने की बेहतर संभावनाएं विकसित हो रही हैं।  
     नीरज दइया ने इधर राजस्‍थानी आलोचना के क्षेत्र में काफी सराहनीय कार्य किया है। उन्‍होंने ‘आलोचना रै आंगणै’ और ‘बिना हासलपाई’ जैसी आलोचना कृतियों के माध्‍यम से राजस्‍थानी कथा साहित्‍य के विवेचन का व्‍यापक काम अपने जिम्‍मे लिया है। इसी क्रम में इस कहानी संकलन के प्रारंभ में उनकी बीस पेज लंबी भूमिका राजस्‍थानी कहानी यात्रा के सभी पक्षों का गहराई से अध्‍ययन और विश्‍लेषण प्रस्‍तुत करती है। यह भूमिका न केवल राजस्‍थानी कहानी के इतिहास और उसके विकास-क्रम का ब्‍यौरा पेश करती है, बल्कि राजस्‍थानी कहानी के बहुआयामी रचना-संसार और कहानियों की अंतर्वस्‍तु का बारीक विवेचन प्रस्‍तुत करते हुए उसकी प्रयोगधर्मिता और रचना-कौशल की खूबियों को भी रेखांकित करती है। नीरज की इस भूमिका की बड़ी खूबी यह है कि उन्‍होंने राजस्‍थानी कथा यात्रा की चार पीढ़ियों के उल्‍लेखनीय कथाकारों की रचनाशीलता की वैयक्तिक खूबियों को उनकी प्रमुख कहानियों को हवाले में रखकर विस्‍तार से समझाने का प्रयत्‍न किया है, जो अपने आप में अच्‍छे खासे अध्‍यवसाय और श्रम की मांग करता है।
    राजस्‍थानी के कई महत्‍वपूर्ण कथाकारों ने हिन्‍दी के कथा साहित्‍य में भी अपनी अलग पहचान अवश्‍य बनाई है, लेकिन पिछले पांच दशक में जो कहानियां हिन्‍दी में अनुदित होकर पाठकों के बीच पहुंची हैं, उनके भीतर का देशज रचना-संसार, उनकी अंतर्वस्‍तु और बयानगी हिन्‍दी या किसी भी भारतीय भाषा की कहानी से नितान्‍त नयी और भिन्‍न किस्‍म की है। वह राजस्‍थानी कहानी की अपनी ज़मीन से उपजी हैं।
    यों तो नीरज ने अपनी भूमिका में संकलन के लिए कथकारों और उनकी कहानियों के चयन को लेकर अपनी सीमाओं का भी हवाला दिया है, लेकिन इस महत्‍वपूर्ण प्रतिनिधि चयन में मुरलीधर व्‍यास, मूलचंद प्राणेश, रामकुमार ओझा, रामनिवास शर्मा, पुष्‍पलता कश्‍यप, हरमन चौहान जैसे जाने-पहचाने कथाकारों का न होना थोड़ा अचरज जरूर पैदा करता है, क्‍योंकि‍ ये अपने समय के महत्‍वपूर्ण कथाकार के रूप में चर्चित रहे हैं, और उनकी कहानियों के संग्रह भी उपलब्‍ध रहे हैं, बल्कि मूलचंद प्राणेश तो साहित्‍य अकादमी पुरस्‍कार से भी सम्‍मानित कथाकार रहे हैं। कुल मिलाकर ‘101 राजस्‍थानी कहानियां’ संकलन का प्रकाशन हिन्‍दी पाठकों के बीच  राजस्‍थानी कहानी की बेहतर प्रस्‍तुति की दृष्टि से एक उल्‍लेखनीय उपलब्धि है। 
- नन्‍द भारद्वाज  
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·        चर्चित कृति : 101 राजस्‍थानी कहानियां, संपादक : नीरज दइया, प्रकाशक : के एल पचौरी प्रकाशन, गाजियाबाद (उ प्र), पष्‍ठ 504, मूल्‍य : 1100/- रुपये।    

Sunday, December 8, 2019



‘एक नये फॉर्म की तलाश में हैं नये कहानीकार’ – स्‍वयं प्रकाश
(समकालीन हिन्‍दी कहानी पर एक अनौपचारिक संवाद) 

नंद भारद्वाज – प्रकाश, आप सातवें और आठवें दशक की हिन्‍दी कहानी में न केवल एक कथाकार के बतौर सक्रिय रहे, बल्कि अपने समय और उससे पहले की कहानी को आपने करीब से जाना-समझा भी है, उस कथा-परंपरा में आये बदलाव में आपकी हिस्‍सेदारी भी रही है। जिस दौर में ‘सारिका’, ‘धर्मयुग’, ‘साप्‍ताहिक हिन्‍दुस्‍तान’ आदि पत्रिकाएं जैसी कहानियां प्रकाशित कर रही थीं, और उस दौर के जो प्रमुख कहानीकार थे, उनमें से बहुत से लोगों ने उन पत्रिकाओं और उस तरह की कहानियों से अपने को अलग कर जिस यथार्थवादी कथा-परम्‍परा से अपने को जोड़ा, और फिर उस दौर की लघु पत्रिकाओं के माध्‍यम से जो कहानी सामने आई, वह बहुत हद तक बदली हुई कहानी थी, जिसमें विषयवस्‍तु, शिल्‍प और यथार्थ का स्‍वरूप भी बदला हुआ दिखाई दिया, इन कहानियों ने व्‍यावसायिक पत्रिकाओं में छपने वाली कहानियों से अपने को अलग भी किया। आज संयोग से आप सामने हैं तो मेरी यह जिज्ञासा है कि हम पहले उसी पृष्‍ठभूमि की थोड़ी चर्चा करें कि वो कौन-से मसले थे, कौन-सी ऐसी बातें थीं, जो आपको गंभीरता से सोचने पर विवश कर रही थीं और उसमें से क्‍या निकलकर आया?
स्‍वयं प्रकाश – हुम्‍म, नंद बाबू, इसके उत्‍तर में तो थोड़ा पीछे जाना पड़े और कुछ पिष्‍ट-पेषण भी हो जाए, तो चलेगा न?
नंद   हां हां, कोई चिन्‍ता की बात नहीं, आप इत्‍मीनान से अपनी बात कहें।
प्रकाश - नयी कहानी के आन्‍दोलन का बहुत बड़ा अवदान हिन्‍दी कहानी को मैं मानता हूं।  उसने नये मुद्दे और नयी भाषा दी, नया मुहावरा दिया और उसके अवसान के बाद कहानी के जो आन्‍दोलन आए, उन्‍होंने कहानी की शक्‍ल को इतना बिगाड़कर रख दिया, कि कहानी से काम करने वाला आदमी, उसकी भाषा, नाद, संस्‍कार, उसकी पहचान सब धीरे-धीरे लुप्‍त होती चली गई, यहां तक कि क्रियाएं भी लुप्‍त होती चली गईं। उस समय की कहानी में आप देखेंगे कि संज्ञाएं तो फिर भी थोड़ी बहुत हैं, क्रियाएं तो हैं ही नहीं, एक निकम्‍मे आदमी का आत्‍मालाप किस्‍म की चीज वह बनकर रह गई। तो आठवें दशक की शुरुआत में एक बहुत बड़ी क्रान्ति इस प्रकार की हुई, जिसमें इन चीजों को गंभीरता से देखा गया। थोड़ा व्‍यापक दृष्टि से सोचें तो साहित्‍य के बाहर भी यह बदलावा दिखाई देता हैं। कहानीकारों ने विचार किया कि कहानी को यथार्थवाद और प्रेमचंद से कैसे जोड़ा जाए? उस समय जैसा आपने कहा, लघु-पत्रिकाओं का एक ज्‍वार जैसा आया था, अकेले अपने राजस्‍थान से बीस-बाईस पत्रिकाएं, एक-से-एक शानदार निकलती थीं, इनका प्रसार ज्‍यादा नहीं होता था और आर्थिक कठिनाइयां भी थीं, इनकी उम्र भी ज्‍यादा नहीं होती थीं, लेकिन एक बंद होती थी तो दो दूसरी निकलती थीं। मध्‍यप्रदेश में भी ऐसा ही हुआ, उत्‍तरप्रदेश में ही ऐसा ही हुआ और सारे हिन्‍दी प्रदेशों ऐसा ही हुआ। उससे क्‍या हुआ कि एक नये किस्‍म की कहानी ने जन्‍म लिया, जिसने मजदूर, किसान और काम करने वाले श्रमजीवी वर्ग को, स्त्रियों को उन सामान्‍य पुरुषों को नायक और नायिका बनाया और जमीन से जुड़ी हुई उन कहानियों की भाषा भी बदल गई। उससे पहले समान्‍तर कहानी में जो एक वामपंथी रचाव बनाने की कोशिश की गई थी, उसे सही दिशा देने की कोशिश भी हुई। वह महत्‍वपूर्ण इसलिए है कि फिर बाद में उसने जनवाद को जन्‍म दिया हिन्‍दी कहानी में, जो पहले के प्रगतिवाद तक सीमित होकर रह गया था। प्रगतिशीलता और प्रगतिवाद में भी अन्‍तर है। प्रगतिवाद में हर जगह एक नया सूरज उगाया जाता है, जो लाल रंग का होता है, और उस प्रकार के सरलीकरण होते हैं, जो वामपंथी विचारधारा के भी अनुकूल नहीं बैठते, उस मुहावरेबाजी से छुटकारा पाकर जो यथार्थपरक कहानियां लिखी जाने लगीं, तो हमने देखा कि नयी कहानी आन्‍दोलन के भी जो रचनाकार इस नये बदलाव में शामिल हो गये, जैसे काशीनाथसिंह, या दूधनाथसिंह और इन्‍होंने बहुत अच्‍छी कहानियां लिखीं। अब उस कहानी का परवर्ती कहानी पर क्‍या प्रभाव पड़ा, ये थोड़ा विस्‍तार से सोचने की जरूरत है, और ये आलोचकों का ही काम है।
  नंद –  उस दौर की कहानी को जिस तरह जनवादी कहानी के रूप में व्‍या‍ख्‍यायित किया गया, रमेश उपाध्‍याय जैसे रचनाकार ने तो उस पर एक पूरी किताब लिखकर विस्‍तार से चर्चा की, उस समय की जो लघु पत्रिकाएं या साहित्यिक पत्रिकाएं थीं, वे भी उसे इसी संज्ञा के साथ प्रस्‍तावित कर रही थीं, तो रचना के स्‍तर पर उसकी मुख्‍य प्रवृत्तियां आपको क्‍या दिखाई देती हैं, यानी कथ्‍य के स्‍तर पर और उसकी भाषा और रचना-शिल्‍प में जो बदलाव आपको दिखाई देता है? जो भूमंडलीकरण की प्रक्रिया शुरुआत में जिस अवस्‍था में थी, क्‍या वह उसमें कहीं प्रतिबिम्बित हो रही थी?
प्रकाश – सबसे पहला बदलाव तो यही समझिये, जो मैंने संकेत किया कि पात्रों के नाम आ गये, पहचान आ गई और संस्‍कार आ गये और इसी के अनुरूप उनके जीवन की भाषा भी आ गई। क्‍योंकि यह ध्‍यान देने की बात है कि नयी कहानी के आन्‍दोलन के बाद जो अकहानी का आन्‍दोलन आया, उसने हिन्‍दी कहानी की सारी विकास-प्रक्रिया को उलट दिया। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया की शुरुआत आम तौर पर सन् ’80 से मानी जाती है, जब आर्थिक सुधार शुरू हुए और उदारीकरण का दौर आरंभ हुआ, लेकिन उससे पहले थोड़ा-सा यह लगने लगा था कि आजादी के बाद एक जो मोहभंग का दौर था, उससे हम लोग उबर आये। आजादी के बाद जिस दूसरी पीढ़ी ने जन्‍म लिया था, वह इस निराशा को यथावत स्‍वीकार करने के लिए तैयार नहीं थी और इसे झूठी आजादी मानकर नेताओं को कोसने के लिए भी तैयार नहीं थी, उस युवा वर्ग में एक प्रकार का संकल्‍प था कि हम अब भी चाहें तो इस देश को बना सकते हैं, बशर्ते कि हम अपनी जड़ों से जुड़ें। इसलिए उन्‍होंने प्रेमचंद को अपने पुरखे के रूप में पहचाना और यथार्थवादी कहानी को पकड़ा और जनवादी कहानी और उससे पहले की कहानी में जो सबसे बड़ा फर्क है वो यह है कि जनवादी कहानी में आशा के स्‍वर सुनाई देते हैं, जबकि उससे पहले की कहानी केऑस की, संत्रास की, घुटन की, और दुनिया के नष्‍ट हो जाने की निराशावादी बातें करती थी। अब आप देखेंगे कि कामू, काफ्‍का, किर्केगार्ड और सार्त्र तक का अस्तित्‍ववादी प्रभाव शून्‍य हो जाता है हिन्‍दी कहानी के पर। फिर से मार्क्‍स और लेनिन की किताबें पढ़ी जाने लगती हैं। अर्थात् एक आशावादी दृष्टि से इस नयी पीढ़ी में हिन्‍दी साहित्‍य को पुनर्रचित किया।
नंद  – और इससे आगे जो बदलाव दिखाई देता है, उदयप्रकाश, रघुनंदन त्रिवेदी आदि की जो कहानियों सामने आईं, उन्‍हें आप किस तरह देखते हैं? 
प्रकाश – देखिये, ये हर दौर में होता है कि जब कोई एक अच्‍छी चीज शुरू होती है, तो उसके साथ ही साथ उसके अतिरेकी स्‍वर भी उभरने लगते हैं, एक पेंडुलम की तरह से यह हो जाता है, तो उसमें बहुत कम आपको कोई ऐसी जगह दिखाई देती है जिसमें कोई सम्‍यक संतुलन दिखाई दे। हुआ ये कि उस जनवादी कहानी में भी उस तरह के अतिरेक दिखाई देने लगे, और सीधे सीधे जमींदार एक किसान से लड़ रहा है और उसे मार रहा है और उस तरह के महानायक पैदा होने लगे, जैसे यथार्थ जीवन में नहीं होते, लेकिन कहानी में संभव हैं। जैसे एक उदाहरण काफी है ‘टेपचू’, और दूसरा उदाहरण ‘देवीसिंह’, या तीसरा उदाहरण बलैत माखन भगत, ये मैं बहुत अच्‍छे कहानीकारों की बहुत अच्‍छी कहानियों के उदाहरण दे रहा हूं, लेकिन इस तरह के नायक सिर्फ फैंटेसी में ही हो सकते हैं, जीवन के संघर्ष में इस प्रकार के नायक यकायक बन जाना, मनुष्‍य को फिर से यथार्थ से पलायन करके किसी कल्‍पना-लोक में पहुंचाने जैसा हो जाता है। इस बात को ’80 के बाद आने वाली पीढ़ी ने समझ लिया। और संयोग से उसी समय बहुत बडे बड़े तीन परिवर्तन इस दुनिया में हुए – एक, सोवियत संघ का टूटना, दूसरा, संचार क्रान्ति और तीसरा, वैश्‍वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण। इन्‍होंने हमारे जीवन को इतनी तेजी से और इतना बुनियादी तौर पर बदल दिया, कि अब चीजें या समस्‍याएं स्‍थानीय रहीं, या देशज रहीं, न समाधान स्‍थानीय या देशज रहे, अब जो भी होना था, ग्‍लोबल होना था। इसलिए जो पुरानी सोच है वह अप्रासंगिक हो गई।
नंद –   एक बड़ा परिवर्तन जो इन पिछले सालों में आया, खासतौर से ’80 और ’90 के बीच, और वह भी शिल्‍प के स्‍तर पर। यानी कहने की शैली बदल रही थी, वह अमूर्तन की ओर जाती हुई दिखाई देती हैं, और वह अमूर्तन एक उपलब्धि के बतौर लिया जा रहा था। वह अमूर्तन निर्मल वर्मा का अमूर्तन नहीं है। जैसे गीतांजलिश्री की जो कहानियां और नये उपन्‍यास आये, उनकी भाषा और कथ्‍य की बुनावट को आप गौर से देखें - वे मुद्दे उतनी ही गंभीरता से उठा रहीं हैं, खासतौर से स्‍त्री–प्रश्‍नों को लेकर उनकी कहानियां और उपन्‍यास अलग से ध्‍यान आकर्षित करते हैं। दूसरी ओर वंचितों और दलितों का जो यथार्थ है, बहुत से लेखकों ने उसे अपने लेखन का आधार बनाया, और इस आग्रह के साथ कि उस सचाई को एक दलित लेखक ही बेहतर ढंग से लिख सकता है, यद्यपि इसी दौर के जो दूसरे महत्‍वपूर्ण कथाकार हैं, उन्‍होंने भी स्त्रियों और दलितों की समस्‍याओं पर पूरी संजीदगी से लिखा, और वो कहानियां, उस पिछले दौर की कहानी से एकदम अलग दिखाई देती हैं और इसे आप किस नजरिये से देखते हैं?  
प्रकाश – मुझे ऐसा लगता है कि भारतीय मानसिकता को इन पिछले साठ सालों में सबसे बडे़ झटके जो लगे हैं, वो दो बार लगे हैं – एक तो लगा 1962 में, और दूसरा लगा 1980 में। जनवादी और प्रगतिशील कहानी की जिस दौर की हम चर्चा कर रहे थे, उसमें कहानीकार को यह खुशफहमी हो गई कि वह जनता को जागरूक कर सकता है, लोगों को सिखा सकता है, पाठकों को ज्ञान दे सकता है, इस झटके को सोवियत संघ के विघटन ने यकायक तोड़ दिया और जो तीन परिवर्तन मैंने बताए, इसमें उसने ऐसी स्थिति कर दी, कि जैसे मैंने बताया कि पुराने विचारधारात्‍मक ढांचे अप्रासंगिक भी हो गये, उसी तरह कहानीकार के सामने भी आशावादी सोच का खोखलापन भी उजागर हो गया, तो आप पाएंगे कि ’80 के बाद के जो लोग हैं, जिसका सबसे प्रतीकात्‍मक उदाहरण हम ले सकते हैं अखिलेश की कहानी ‘चिट्ठी’ या मनोज रूपड़ा की कोई कहानी ले सकते हैं –
  नंद – मनोज के संग्रह ‘टावर ऑफ सायलेंस’ में इस तरह की कहानियां हैं शायद?
 प्रकाश – हां उन्‍हें ले सकते हैं, तो यहां जो अन्‍तर आपको दिखाई देता है कि जनवादी कहानी के आशावादी समय में कहानीकार ने मजदूरों-किसानों की एक प्रकार से वकालत करना शुरू कर दिया और लगता था उनको कि हम सारे देश को जागरूक करके ही छोड़ेंगे, क्‍योंकि हम उनसे ज्‍यादा जानकार हैं। हमारे दशक में कहानीकारों को लगा कि अब संचार-क्रान्ति हो चुकी है, अब वैश्‍वीकरण हो चुका है, अब पाठक को सीखने के लिए हमारी कहानी नहीं पढ़नी है और अब वो कई मामलों में हमसे ज्‍यादा जानकार है, इसलिए उसकी अप्रोच भी बदल गई। और जब अप्रोच बदली तो भाषा की संप्रेषणीयता और पठनीयता भी बदल गई। तो उसने अपनी कहानी कहने के लिए एक नये तरह के मुहावरे की तलाश शुरू की, इसीलिए ये जो शिल्‍प का अतिरेक और आग्रह दिखाई देता है, हमारे दशक के इन कहानीकारों में, दरअसल वह एक खोज है, अपने समय के मुहावरों को पकड़ने की कोशिश वह कर रहा है, अपने तरीके से, कि ऐसे आदमी से किस लहजे में बात की जाय, जो हमारे बराबर ही जानता हो, या हमसे अधिक भी जानता हो, समझदार से बात करने का सलीका सीखने में कहानी को बहुत समय लगा। शायद वह अभी तक सीखने की प्रक्रिया में ही है। इसलिए आप देखेंगे कि आज की कहानी के पास समाधान नहीं है, बल्कि ठीक से देखा जाय तो आज की कहानी के सामने ठीक से प्रश्‍न भी नहीं हैं। क्‍योंकि यह समय इतना तेजी से परिवर्तित होता चला जा रहा है, कि जब तक आप एक समस्‍या को समझें, उसका स्‍वरूप ही बदल जाता है, तो इससे साहित्‍य की भूमिका भी बदल गई। अब मनोरंजन के लिए कोई कहानी नहीं लिखता। कहानी गंभीर व्‍यक्ति पढ़ता है।
नंद –  वो जो कहानी में किस्‍सागोई का तत्‍व महत्‍वपूर्ण हुआ करता था, वह बिल्‍कुल गौण हो गया है, कथानक न हो तो भी चलेगा, एक चरित्र है जो अपनी मनोदशा बयान किये जा रहा है, उसका कोई तारतम्‍य बना रहे, यह भी आवश्‍यक नहीं रह गया है, वह अंत की बात पहले शुरू करता है और फिर कहीं से भी कोई प्रसंग उससे जोड़ लेना, ये जो परिवर्तन आया है, एक तरह से कथा की संरचना का भीतर से बिखर जाना, क्‍या यह आपको विचारणीय नहीं लगता?
प्रकाश – विचारणीय है न। आप मुझे बताएं, आज कौन समाजशास्‍त्री, कौन राजनेता, कौन दार्शनिक, कौन अध्‍यापक, कौन महापंडित आकर यह बता सकेगा कि चार दिन बाद दुनिया की क्‍या हालत होगी? यह दुनिया इतनी ज्‍यादा अव्‍याख्‍येय या अनप्रिडिक्टिबल हो चुकी है, कि उसकी समस्‍याओं को समझ पाना भी एक बहुत बड़ी चुनौती है। अगर कहानी कुछ सार्थक आज कर रही है, तो यही कि इस जटिलता की पर्तों को साफ करने की कोशिश कर रही है।
नंद –  एक और पक्ष पर आपका ध्‍यान आकर्षित कर रहा हूं, जिस पर काफी चर्चा हो भी रही है - इधर कहानी में कहानीपन या कथा-तत्‍व जितना गौण और कमजोर होता गया है, पता नहीं, ये कहानी का विकास है, उसकी कोई खूबी मानी जा रही है या कहीं भीतर से वह बिखर रही है? मैं आश्‍वस्‍त नहीं हूं कि इसे जल्‍दी में किसी निष्‍कर्ष के रूप में ग्रहण करूं। हां यह जिज्ञासा जरूर है कि आप और आपकी पीढ़ी के महत्‍वपूर्ण कथाकार इसे किस तरह देखते हैं?  
प्रकाश – एक और महत्‍वपूर्ण बात इस बीच आई, जिसकी ओर आपने भी इशारा किया है, और वो ये कि अस्मितावादी विचार साहित्‍य-चर्चा के केन्‍द्र में आया, जैसे स्‍त्री विमर्श या दलित विमर्श, और हमने पाया कि बहुत-सी महिलाओं ने, जो आज मध्‍यवित्‍त वर्ग की सभ्रान्‍त महिलाएं हैं उन्‍होंने अकुंठ भाव से अपनी बातें कहना शुरू किया, इसी तरह जो दलित हैं उन्‍होंने अपनी बातें कहना शुरू किया। ये मराठी से शुरू हुआ और हिन्‍दी में भी आया। तो वहां कहानी का शिल्‍प, कहानी की संरचना, उसका स्‍थापत्‍य, ये सब चीजें गौण हो गईं और अभिव्‍यक्ति ही प्रमुख हो गई। तो आज की स्थिति में हम यह मान सकते हैं कि कहानी की जो पारंपरिक संरचना है वह विखंडित हो चुकी है, और कहानी का कोई परिमार्जित स्‍वरूप हमारे सामने नहीं है, जैसा कि हम मास्‍टर्स में देखते हैं। आज आप मोपासां, ओ हैनरी या चेखव जैसी कहानी हिन्‍दी क्‍या किसी भी भाषा में मुश्किल से ही पाएंगे। तो इसे हम एक तलाश के रूप में देख सकते हैं, संभव है कि इसमें से अच्‍छी चीज निकलकर आ सकती है, लेकिन पुरानी चीजें अब काम नहीं आएंगी, ये तय हो गया है। जैसे फ्‍लैशबैक - आप कहेंगे ये फ्‍लैशबैक कहां चला गया, उसके लिए फ्‍लैश-ब्रेक हो गया है, तो ये नयी नयी संभावनाएं उभर कर सामने आ रही हैं और नंद बाबू आप शायद यह जानते हैं कि हिन्‍दी के अतिरिक्‍त दूसरी भाषाओं में, जैसे अंग्रेजी में, जिसका मैं थोड़ा-बहुत ज्ञान रखता हूं, इस सिलसिले में दस गुना ज्‍यादा प्रयोग हुए हैं। भाषा, शिल्‍प और लिपि तक के स्‍तर पर ये देख सकते हैं – मसलन वे बहुत-सी चीजें इटैलिक्‍स में लिखते हैं, और बहुत-सी चीजों में संकेतों का प्रयोग करते हैं। हमारे यहां भी गीत चतुर्वेदी जैसे कुछ नये कहानीकारों ने कम्‍प्‍यूटर की प्रणाली के पारिभाषिक शब्‍दों को बहुत सहज रूप से इस्‍तेमाल करना शुरू किया है और वह स्‍वीकार्य भी हो गया है।
 नंद –  आपने ठीक याद दिलाया, जैसे गीत चतुर्वेदी की कहानियां, खासतौर से ‘सावंत आंटी की ल‍ड़कियां’ और ‘पिंक स्लिप डैडी’, महानगर के मेहनतकश लोगों की रोजमर्रा की जिन्‍दगी के बारीक प्रसंगों और उनके निर्मम यथार्थ को सामने लेकर आती है, कारपोरेट लाइफ भी उनकी कहानियों में विस्‍तार से बिम्बित होती है, लेकिन उनमें कहानी-तत्‍व भी अच्‍छा-खासा है, उसमें वह कहीं कमजोर या गौण नहीं हुआ है, गीत की कहानियों में एक खूबी यह भी है कि वे बात में से बात निकालते हुए किसी एक सवाल पर, एक जगह पर केन्द्रित जरूर नहीं होने देते बल्कि उसको बहुत छितरा-उलझा भी देते हैं, अगर उसको कनक्‍लूड करना चाहें तो वे सारे घटना-प्रसंग, वे सारे मसले, जिनको उभारती हुई कहानी आगे बढ़ती है, उनको समेटना मुश्किल लगता है। इसी तरह मनोज रूपड़ा की इधर एक कहानी आई है ‘आमाजगाह’, जिसमें वे रेगिस्‍तान की पृष्‍ठभूमि पर एक तिलस्‍मी कथा बुनने का प्रयास करते दिखाई देते है, जिसका नायक रेगिस्‍तान में एक ऐसे स्‍थान की तलाश में जा रहा है, जहां पता नहीं उसे किसी बहुत चमत्‍कार की उम्‍मीद है, जहां जाकर सब कुछ बदल जाएगा जैसे, और एक अलग तरह का यथार्थ उसमें से उभारने का प्रयास दिखाई देता है, पता नहीं उसे कोई जादुई यथार्थ कहना पसंद करे, लेकिन एक फैंटेसी उसमें जरूर है और वह कतई विश्‍वसनीय नहीं है, बल्कि परिवेश के चित्रण में भी तमाम तरह की असंगतियां हैं। आशचर्य है कि इस तरह की फैंटेसीज इधर खूब लिखी जा रही है, नये लोगों में विमलचनद्र, प्रत्‍यक्षा  आदि जिस तरह की कहानियां लिख रहे हैं, बल्कि गौरव सोलंकी जैसे युवा जिस तरह की कहानियां इधर लिख रहे हैं, इन कहानियों में कथ्‍य, कथानक, जीवन-मूल्‍य आदि जैसे बहुत गौण बातें होकर रह गई हैं।
प्रकाश – नहीं नहीं, एकदम ऐसा तो नहीं लगता मुझे, और इसलिए नहीं लगता कि जब भी मैं मनोज रूपड़ा की कहानी पढ़ता हूं, या अनिल यादव की कहानी पढ़ता हूं, सत्‍यनारायण की या चरणसिंह पथिक की कहानी पढ़ता हूं, तो मुझे लगता है कि ये लोग सारे परिवेश और सरोकारों से जुड़े हुए हैं और ढंग से बात कर रहे हैं। अमूर्तन अवश्य है, कारण यह कि जब दिशाएं स्‍पष्‍ट नहीं हैं समाज के सामने, तो आप क्‍या करेंगे, कहानीकार कहां से एकदम एक निश्चित स्‍वरूप भविष्‍य का या वर्तमान का आपके समक्ष प्रस्‍तुत करेगा? कलाकारी और फनकारी तो तभी होगी न जब आप जानते हों अच्‍छी तरह से इसकी बुनियाद क्‍या है? यहां तो बुनियाद का ही पता नहीं है। मैं आपको दो कहानियों के उदाहरण देता हूं – और संयोग से दोनों कहानियां अनिल यादव नाम के कहानीकार की हैं, उनकी अभी एक किताब आई है, ‘नगरवधुएं अखबार नहीं पढ़तीं’, ये शीर्षक कहानी लगभग पचास पृष्‍ठ की एक कहानी है, और उसी संग्रह में एक कहानी है ‘दंगा भेजियो मौला’, अद्भुत कहानियां हैं। यद्यपि पुराने वैश्‍या-जीवन पर कई अच्‍छी कहानियां लिखी गई हैं, चाहे कमलेश्‍वर की कहानियों को याद कर लें, लेकिन ‘नगरवधुएं अखबार नहीं पढ़तीं’ कहानी में राजनेता हैं, पत्रकार भी हैं, बहुराष्‍ट्रीय सौदागर भी हैं, वैश्‍याएं भी हैं, भूमाफिया भी हैं और सामान्‍य लोग भी हैं, इन सबको मिलाकर जब वो दिखाते हैं कि इनमें से किसी एक को भी छोड़ दिया जाता तो यह सम्‍पूर्ण चित्र बन ही नहीं सकता था, इसी तरह उनकी दूसरी कहानी है, ‘दंगा भेजियो मौला’, मुसलमानों या अल्‍पसंख्‍यकों पर हिन्‍दी में बहुत कहानियां लिखी गई हैं, लेकिन वे हमें थोड़ा विगलित या द्रवित करने के अलावा कोई खास काम नहीं कर पाती हैं, उनके प्रति हमारी सोच को परिवर्तित नहीं कर पाती हैं, और यहां एक ऐसी कहानी है जो बिल्‍कुल यह आग्रह नहीं करती कि आप अपने सोच को बदलें, वो सिर्फ आपको दिखाती है एक दृश्‍य और वह दृश्‍य इतना भयानक है कि जिसको देखकर आप पहले जैसा रह ही नहीं पाते, ताकत ये है इस कहानी कि ये कहती नहीं, ये बोलती है। और पहले की कहानी बोलती नहीं थी, कहती थी। हम लोगों के जमाने की कहानियां बहुत कहती थीं, लेकिन बोलती कम थीं। इस भाषा को साधने के लिए हो सकता है, थोड़े अभ्‍यास की आवश्‍यकता हो, और सत्‍तर अस्‍सी प्रतिशत तो यह भी हो सकता है अभी कहानीकार अभ्‍यास ही कर रहे हों, इसीलिए जब कभी साल के अंत में आपसे पूछा जाता है कि आपने इस साल कोई यादगार कहानी पढ़ी क्‍या, तो आप एकाएक याद नहीं कर पाते। यह ठीक है, एक परिवर्तन के दौर से गुजरने वाली संक्रमणशील रचना ये है, इसलिये इसमें एक यादगार कहानी की खोज कर पाना, शायद थोड़ी ज्‍यादती हो, लेकिन मुझे विश्‍वास है कि इसमें से ही अच्‍छी कहानियां निकलेंगी, जो अपने समय को ठीक से प्रतिबिम्बित कर पाएंगी।
 नंद – आपने पिछले अरसे में ‘वसुधा’ के दो अंक संपादित किये थे, समकालीन कहानी पर केन्द्रित करके, और उनमें ज्‍यादातर सब नये कहानीकार ही हैं, आपकी पीढ़ी के कहानीकार उसमें लगभग नहीं हैं, शायद आपने सोचकर ही ऐसा किया होगा, उन कहानियों का क्‍या प्रभाव महसूस आप महसूस करते हैं, खासतौर से इधर की कहानी के बनते हुए स्‍वरूप पर?   
प्रकाश – नंदजी, पहली बात तो यह कि उन दोनों अंकों का संपादन मैंने नहीं किया था, लेकिन पत्रिका के संपादक के रूप में हमारी जवाबदेही निश्चित रूप से जुड़ी रही है। उस योजना में जानबूझकर नयी पीढ़ी के रचनाकारों का चुनाव किया गया था, और कोशिश यही थी कि जो ये लोग क्‍या कहना चाह रहे हैं और कैसे कहना चाह रहे हैं, उसे समझा जाय। तो हमने पाया कि उसमें कोइ्र एक-सा-पन बिल्‍कुल नहीं है। आज भी बहुत से कहानीकार ऐसे हैं जो प्रेमचंद की पारंपरिक यथार्थवादी शैली में अपनी बात कहने की कोशिश कर रहे हैं और कह भी पा रहे हैं, लेकिन बहुत से ऐसे कहानीकार हैं जो एक नये प्रकार के फार्म की तलाश में हैं। कभी उनको वह मिल जाता है, कभी नहीं मिलता। और बहुत से ऐसे हैं जो किसी विचारधारा के आग्रही भी नहीं हैं, और जिनको किसी विचारधारा में आस्‍था भी नहीं है। शायद उनको इन्‍सानियत के भविष्‍य में भी कोई आस्था नहीं है, वे बिल्‍कुल अनीश्‍वरवादी, नकारवादी, और निहलिस्‍ट सब प्रकार के लोग हैं, उन्‍हीं का एक संचयन ‘वसुधा’ के दोनों अंकों में था, मैं उससे कोई सामान्‍य निष्‍कर्ष नहीं निकालना जरूरी नहीं समझता।
 नंद – उसी दौर में कुछ कहानी केन्द्रित पत्रिकाओं जैसे ‘कथादेश’, ‘हंस’, ‘नया ज्ञानोदय’, ‘परिकथा’ आदि ने नवलेखन अंक या कथा प्रतियोगिताएं भी आयोजित कीं, और उसके माध्‍यम से इस दौर के श्रेष्‍ठ कहानी कौन-सी कही जाए, इस तरह की प्रक्रियाओं से गुजरते हुए कुछ कहानियां रेखांकित भी कीं, इसमें मैं खास तौर से ‘कथादेश’ की कहानी-प्रतियोगिता की ओर आपका ध्‍यान आकृष्‍ट कराना चाहूंगा, जिसने तीन कहानियां पहले, दूसरे और तीसरे पुरस्‍कार के लिए चुनीं – उनमें प्रेमनिरंजन अनिमेष की कहानी थी, दूसरे क्रम में गौरव सोलंकी की कहानी थी और तीसरी सुभाषचंद्र कुशवाह की कहानी। मैंने उन तीनों कहानियों को देखा-पढा है, उनमें प्रेमरंजन और सुभाषचंद्र कुशवाह की कहानियां तो हमारा जिस तरह का देहात है, उसमें जिस तरह के चरित्र हैं, उनकी अपनी जीवन-शैली की कठिनाइयां हैं, और यही चरित्र जब महानगरीय जीवन में आते हैं, तो किस तरह अपने अस्तित्‍व के लिए संघर्ष करते हैं, उस पर केन्द्रित कहानियां हैं, जबकि गौरव सोलंकी की कहानी उनसे नितान्‍त भिन्‍न है, इन कहानियों को कन्‍क्‍लूड करके अगर मैं एक समय के कहानीकारों के कहानी-लेखन की मुख्‍य प्रवृत्ति को पहचानने की कोशिश करूं, तो जैसा आपने कहा, वह मुझे वहां नहीं दिखाई देता, तो हमारे समय की कहानी की मुख्‍य प्रवृत्तियों को जानने की कोशिश करें तो क्‍या दिखाई देता है।
प्रकाश – देखिये एक बात तो बिल्‍कुल स्‍पष्‍ट है, आज के अधिकांश कहानीकार गांवों के बारे में और किसानों के बारे में कुछ नहीं जानते, दूसरी बात यह स्‍पष्‍ट है कि वे उस यथार्थ के प्रति बहुत उत्‍सुक भी नहीं हैं।
नंद – हां, पर जो उनके बीच से आए हैं, या उन्‍हीं के बीच रहते हैं, जैसे शिवमूर्ति हैं, महेश कटारे हैं, चरणसिंह पथिक हैं तो वे उस यथार्थ से गहरे स्‍तर पर जुडे रहे हैं।
प्रकाश – ऐसे लोग इक्‍का-दुक्‍का हैं, आज महानगरीय जीवन से आने वाले लोगों में एक फैशनेबुल प्रवृत्ति यह दिखाई दे रही है, कि आप इंटरनेट से कहानी बनाते हैं, सारे आंकड़े, सारी जानकारियां, सुचनाएं आप इंटरनेट से इकट्ठी कर लो, और बीच बीच में एक कथा-तत्‍व घुसेड़कर एक कहानी बना लो। जिस संवेदना की हम अपेक्षा करते हैं कहानी से, पात्रों के साथ एकाकार होकर कहानी लिखने की जरूरत है, मैंने एक जगह लिखा था कि आज की कहानी में पसीने की कोई कमी नहीं है, आंसुओं की कमी है। लेकिन इससे कोई निष्‍कर्ष निकालना शायद थोड़ी जल्‍दबाजी होगी, हमें अभी बहुत-कुछ देखना बाकी है, कहानी धीरे धीरे रूप ले रही है। आपको एक बात याद दिलाना चाहता हूं, जब परसाईजी ने लिखना शुरू किया, किसी को समझ में नहीं आया कि इसे कहें क्‍या? निबंध कहें या कहानी कहें, क्‍या कहें और अंत में उन्‍होंने उसे व्‍यंग्‍य कहना शुरू किया। आज की कहानी में कहीं कविता घुस जाती है, कहीं निबंध घुस जाता है और कहीं सामाजिक विश्‍लेषण, इसका स्‍वरूप इतना बदल गया है और विधाओं का सम्मिश्रण इतना तेज है कि इसको कोई नया नाम देना पड़े कालान्‍तर में।
नंद –  ये सवाल भी आता है कि इधर विधाओं के बीच इतना आदान-प्रदान बढ़ रहा है, या यों कहें कि विधाओं की दीवारें टूट रही हैं, जैसे आपने कहा कहानी में थोड़ी कविता भी है, उपन्‍यास भी, उसमें थोड़ा संस्‍मरण भी है, और इसी तरह दूसरी विधाओं में भी बहुत-कुछ है, ऐसे में रचनाकार और पाठक दोनों के ही लिये इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिये कि उस रचना की विधा का नाम क्‍या है?
प्रकाश – इसलिये कि जब हम कहानी की बात करते हैं तो हमारे दिमाग में एक नक्‍शा होता है, जो क्‍लासिक कहानी का नक्‍शा होता है। और उसके अनुसार नापने की कोशिश करते हैं कि कहां की कहानी उसके माकूल बैठ रही है। तो कभी कभी उसकी जरूरत उस स्‍तर पर पड़ जाती है।
नंद – जो नये कथाकार हैं, उनको यह शिकायत है, और यह शिकायत उन्‍होंने कई जगह मुखर रूप से व्‍यक्‍त भी की है, उनको ठीक से नहीं समझा जा रहा है, उनकी रचनाशीलता को सही महत्‍व नहीं दिया जा रहा है, उन्‍हें पहचाना नहीं जा रहा है और उन पर बात ठीक से नहीं की जा रही है। तो इस शिकायत पर आप क्‍या कहेंगे?
प्रकाश – इसके मुझे लगता है, दो पहलू हैं, एक, कुछ तो हमारे आलोचकों का आलस्‍य है सचमुच, वे पढ़ते नहीं हैं, उसके पास पढ़ने का समय नहीं है, उन्‍हें भाषण देने से ही फुरसत नहीं है, और कुछ हमारे कहानीकार भी बहुत जल्‍दी में मालूम पड़ते हैं, एक कहानी-संग्रह छपते से ही अमर क्‍यों हो जाना चाहते हैं? थोड़ा पांच-सात कहानी-संग्रह आ जाने दें, तभी अपेक्षा करें कि मेरी बात को समझा या नहीं समझा। थोड़ा उन्‍हें जल्‍दबाजी से बचना चाहिये, ऐसा मेरा खयाल  है, और एक आश्‍वासन मैं कहानी लिखने वाले अपने छोटे भाइयों जरूर देना चाहूंगा कि यदि उन्‍होंने कोई उल्‍लेखनीय चीज कभी लिखी है, तो वह हमेशा के लिए अलक्षित कभी नहीं रह सकती।
नंद –  कोई और बात जो आपको इधर की कहानी को लेकर विचारणीय या महत्‍वपूर्ण लगती हो, खास तौर से मीडिया के बदलते परिदृश्‍य में? 
प्रकाश – कई बार तो मुझे लगता है कि कहानी का यह रूप भी रहेगा या नहीं, इसको लेकर मैं निश्चिन्‍त नहीं हूं। क्‍योंकि जिस तरह से कहानियों का टी वी सीरियल्‍स की तरह एपिसोडिकरण होने लगा है, तो लगता है कि कल कहानी सुनने-सुनाने की चीज भी हो सकती है और देखने-दिखाने की चीज भी हो सकती है। कुछ लोगों ने ऐसे प्रयोग किये भी हैं, एकबार मैंने खुद अपनी कहानी इंटरनेट पर किसी जगह किसी कलाकार के मुंह से सुनी, ‘क्‍या तुमने कभी सरदार भिखारी देखा है’ और लगा कि ये भी एक बहुत अच्‍छा तरीका संप्रेषण का हो सकता है, फिर मुझे एक किताब याद आई जो बीबीसी के एक मशहूर सीरियल ‘यस मिनिस्‍टर’ और ‘यस प्राइम मिनिस्‍टर’ के आधार पर लिखी गई थी, जिसमें उस मिनिस्‍टर के नोटबुक के पन्‍नों की प्रति प्रकाशित की गई थी एक तरफ उसी की हस्‍तलिपि को प्रस्‍तुत करते हुए, तो मुझे लगा कि इसका एक और चाक्षुस स्‍वरूप भी हो सकता है, जैसा मैं आपसे थोड़ी देर पहले कह रहा था कि अंग्रेजी में ऐसे प्रयोग हुआ है, जहां कई जगह इटैलिक्‍स में लिखा जाता है, या कई जगह भाषा और लिपि की जकड़बंदियों को तोड़ने के नये नये प्रयास किये जाते हैं। हिन्‍दी अभी उस दौर में है जहां इस प्रकार के परिवर्तन होना शेष हैं, लेकिन मैं तो इनका भरपूर स्‍वागत ही करूंगा।
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Wednesday, August 21, 2019



कुछ लिक्‍खा जो नितान्‍त अपना होता है 

 *  नंद भारद्वाज 

एक संवेदनशील मनुष्य जिस सामाजिक-सांस्‍कृतिक पर्यावरण में जीता है, उससे उपजने वाले सुख-दुख, मनोवेग, अनुभव, आशंकाएं और संघर्ष मानवीय अभिव्‍यक्ति के कई रूपों में व्यक्त होते हैं - कविता सर्जनात्‍मक अभिव्‍यक्ति का ऐसा ही कला-रूप है, जो एक संवेदनशील रचनाकार के अन्‍त:करण से रूबरू कराता है। जो रचनाकार अपनी काव्य-परंपरा और भाषिक संवेदन के प्रति सचेत रहते हुए मौलिक अभिव्यक्ति के लिए आग्रहशील रहते हैं, वे अपनी कविता का अलग मुहावरा और पहचान तो विकसित करते ही हैं, उस परम्‍परा में कुछ नया और बेहतर जोड़ने का प्रयत्‍न भी करते हैं। विमलेश शर्मा ऐसी ही संवेदनशील कवयित्री हैं, जो अपनी कविताओं के माध्‍यम से उस काव्‍य-परम्‍परा और नवोन्‍मेष के बीच एक बेहतर रिश्‍ता  बनाने के लिए प्रयासरत हैं।    
     कविता जहां मानवीय संवाद का एक विश्‍वसनीय माध्‍यम मानी जाती है, वहीं वह आत्‍मसंवाद या आत्‍माभिव्‍यक्ति का प्रभावशाली रूप भी – एक ऐसा कला-रूप, जिसे अपनाते हुए हर रचनाकार अपने भीतर के मनुष्‍यत्‍व से अंतरंग साक्षात्‍कार करता है। यह उस जैविक संवेदन और विवेक का अपना वरण और विस्‍तार भी है, जो उसे सर्जक की गरिमा प्रदान करता है। विमलेश की इन कविताओं के बीच से गुजरते हुए यह बात विश्‍वास से कही जा सकती है कि उनकी बयानगी की सहज विनम्रता उनके सर्जनात्‍मक प्रयत्‍न को और गहरा एवं आत्‍मीय बनाती  है। अपनी इसी विनम्र काव्‍य-प्रकृति के बूते वे सदियों पुरानी आख्‍यान-परम्‍परा से आती कृष्‍णप्रिया के अपूर्ण प्रेम की पीड़ा और पदचाप को न केवल सुन पाती हैं, बल्कि उन्‍हीं स्‍मृति-गलियारों में उसे अक्‍क महादेवी और मीरां के काव्‍य-संवेदन में और विस्‍तार पाते भी देखती हैं।
     प्रेम और रागात्‍मकता इन कविताओं में केन्‍द्रीय भाव की तरह विन्‍यस्‍त है। इसी भाव-लोक के इर्द-गिर्द रची गई इन कविताओं में प्रेम की अंतरंगता, उल्‍लास, राग-विराग उसकी व्‍यापकता को अभिव्‍यक्‍त करते हुए जब वे यह कहती हैं कि “मैं ॠतु नहीं हूं / पर उसका उल्‍लास सहेज / सदा खिलता रहूंगा तुम्‍हारे लिए” या कि “मैं वह आकाश हूं / जो थामे रहता है / धरा को / तमाम मौसमों में” तो प्रेम की एक विराट परिकल्‍पना आकार लेने लगती है।
        अपनी विनम्रता और सहजता में वे बहुत सरस और सुहाती बातें बेशक कहती हों, किन्‍तु जीवन के कटु यथार्थ से उपजने वाली टीस, कठिन रास्‍तों की कश्‍मकश और मनुष्‍य के असंगत आचरण से होने वाली परेशानियों को भी अपनी बयानगी का हिस्‍सा अवश्‍य बनाती हैं। जीवन-यथार्थ की इसी बेबाक सचाई को लक्षित करते हुए वे कहती हैं – “जीवन को जीना आसान नहीं होता / यहां एक जीवन के भीतर जाने कितने जीवन छिपे होते हैं / बहुत कुछ होते हुए भी / कुछ नहीं होता यहां / बहुत फर्क पड़ते हुए भी / सब ठीक-ठाक रहता यहां। / चलते हुए भी बहुत कुछ ठहरा है यहां / और दिखती गहराई में सब कुछ उथला है यहां ! दुनिया के इस उथलेपन को उन्‍होंने अन्‍यत्र भी उजागर करते हुए मनुष्‍य और व्‍यवस्‍था के आचरण पर गंभीर सवाल उठाए हैं, खासकर स्त्रियों के प्रति होने वाले उस विषम आचरण को लेकर, जहां स्‍त्री आज भी अपने को वंचित और असुरक्षित अनुभव करती है। इस अवस्‍था से उबरने के लिए वे स्‍वयं स्त्रियों का ही आह्वान करते हुए कहती हैं – “तुम जब इस जंगल के बियाबान में उतरोगी / तब बहुत-सी बातें होंगी / जिन्‍हें तुम कह सकती हो / विचित्र, अनहोनी, बकैती या ऊलजलूल / हिम्‍मत रखना, रहना अटल / और अनसुना कर देना उस बतकही को / जो खारिज करती है तुम्‍हारी निष्‍पाप चेतना को।" इतना ही नहीं, इन विषम परिस्थितियों में भी वह सकारात्‍मक संदेश देते हुए इस दुनिया की खूबसूरती को कतई अनदेखा नहीं करती और कहती है – “भरोसा रखना कि / दुनिया फिर भी खूबसूरत है / उसी चमकीले रूपक की तरह / जिसे तुम जन्‍नत कहा करती हो।" लेकिन आज इस ‘जन्‍नत’ की बदहाली हर किसी की आंख में खटक रही है। देश-दुनिया का आमजन जिन कठिन हालात का सामना करते हुए जी रहा है, कोई भी संवेदनशील और सजग कवि इससे अछूता कैसे रह सकता है? विमलेश की कविताओं का यह पक्ष भी उतना ही महत्‍वपूर्ण है, जहां वे सामयिक हालात पर पैनी नजर रखते हुए ‘सन्‍नाटों में दीपते रतजगे’ जैसी प्रभावशाली कविता के माध्‍यम से अपनी चिन्‍ताएं कुछ यों व्‍यक्‍त करती हैं – “एक शोर मचता रहता है रात की निस्‍तब्‍धता चीर / जिसकी चोट कनपटी पर फड़क बन उभरती है / शोर, आहटों, पदचापों के बीच कोई बुदबुदाता है / कि तुम्‍हें यूं नहीं लौटना था / कि तुम्‍हें यहां होना था / कि तुम्‍हें जीने का सलीका सीखना था / कि तुम्‍हें प्रतिरोध करना था / कि तुम्‍हें अपना मान रखना था।" यथार्थवादी तेवर की इस बयानगी में ‘दीपदान’, ‘भोर-बाती’, ‘लौटना महज लौटना नहीं होता’ आदि ऐसी ही उल्‍लेखनीय कविताएं हैं। 
      विमलेश शर्मा के इस संग्रह में सामयिक यथार्थ और पारिवारिक मानवीय संबंधों की गुरु-गरिमा को उजागर करती कुछ ऐसी विलक्षण कविताएं भी हैं, जो अपनी विषयवस्‍तु और बयानगी में गहरा प्रभाव छोड़ने की क्षमता रखती हैं। विशेषत: माता-पिता और सं‍तति के रिश्‍ते को लेकर रची गई दो बेजोड़ कविताएं हैं - ‘मां को जीते हुए’ और पिता-पुत्री के आत्‍मीय रिश्‍ते पर लिखी कविता ‘पिता यूं ही नहीं पिता हो जाते’। मां पर लिखी इस कविता को पढ़ते हुए तो हिन्‍दी के यशस्‍वी कवि चंद्रकान्‍त देवताले की मार्मिक कविता ‘मां पर नहीं लिख सकता कविता’ का अनायास ही स्‍मरण हो आता है, हालांकि विमलेश की इस कविता की भावभूमि और बयानगी देवताले की उस कविता से नितान्‍त भिन्‍न और अनूठी है, खासतौर से एक मां-बेटी के संश्लिष्‍ट   रिश्‍ते को लेकर। इस सघन कविता की एक छोटी-सी बानगी देखें –
“जिसे लिखते हुए क़लम रुआँसी हो जाए / और आखर गीले
जिसे देखते हुए आँखों में पावित्र्य उतर आए
और हाथों में इबादत की मुद्रा / जिसकी छाँव सुकूनबख़्श हो
जिसे पढ़ते हुए कॉर्निया पर पनीली परत चढ़ जाए
बस ऐसी ही तो कुछ होती है माँ!”
और इसी तरह की मार्मिकता को उजागर करती पिता पर लिखी कविता की यह बानगी –
अक्‍सर टूट जाते हैं पिता
जब उनके शहजादे झुलस जाते हैं ताप से
जब उनकी बेटियाँ  /  काँच सी बिखर जाती हैं 
उन क्षणों में वे कोसते हैं उस ईश्वर को
उसके नियम, कानून, कायदों में रद्दोबदल की माँग करते हैं
और अंततः ठुकरा कर उस चौखट को  / स्वयं ईश्वर हो जाते हैं पिता ! 
      और एक अंतिम बात इस संग्रह की कविताओं के बारे में यह भी कि एक सजग कवयित्री के रूप में विमलेश शर्मा अपने लिखे का महत्‍व भी बखूबी जानती हैं, जिसकी ओर संकेत करते हुए उन्‍होंने कहा भी है – “मेरे लौट जाने पर / जब खोजोगे मुझे / कुछ नहीं होगा वहां / होंगे तो बस / संदूकची में करीने से तह किए कुछ शब्‍द / जिन्‍हें यह जानते हुए रख छोड़ा था कि‍ / कुछ लिक्‍खा नितान्‍त अपना होता है !” 

*** 

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9829103455   

Tuesday, July 9, 2019


समीक्षा
नन्द भारद्वाज की कविताएं : आदिम बस्तियों के बीच

·        अपर्णा मनोज 

पश्चिमी राजस्थान के सीमावर्ती हलके में रेतीले धोरों के बीच बसा वह गुमनाम सा नाम -स्मृतियाँ अपने आदिम आकारों में वहीँ से चली आ रही हैं. कवि का कल्प-संसार इसी धरातल से जन्म लेता है और धरती की देह से उठकर कवि की देह में प्रविष्ट हो जाता है. अपनी जीवनचर्या में 'स्थान' अवचेतन में बना रहता है, किसी विवरण के तौर पर नहीं बल्कि कविता के भूगोल की निर्मिति के रूप में. अतीत के पैर केवल पुराकाल की खुदाई में होंगे, किसी ऐतिहासिक खुदाई में होंगे ऐसा नहीं, वे कहीं हमारी शब्दावलियों में गुम्फित हैं..हम पलटकर उन तक लौटते हैं. भाषा में उसका अतीत उतना ही रहता है जितना वर्तमान त्वरित गति से भविष्य को दौड़ता है. नन्द जी की कविताओं से वही आदिम संवाद पाठक का होता है. गाँव के प्रत्यय व्याकुलता और घेर-घुमेर संवेदनाओं के साथ उनकी कविताओं में लौटते हैं. एक घड़ा पानी से संवाद करते हुए कवि गाँव की टोपोग्राफी और उसकी भाषा में तल्लीन दीखता है-

"किसी प्राचीन पर्वत श्रृखला के पार
जितनी दूर भी आ सकें आप-
चले आइये,
रेतीले धोरों के बीच बिखरी बस्तियों में,
जहाँ घरों में एक घड़ा पानी ही
संचित पूँजी होता है,
सूरज,चाँद और सितारे होते हैं
उजास के आदिम स्रोत -" (कविता-एक घड़ा पानी)

स्थानिकता सहजता से कविता में अंतर्विष्ट होती है और कवि को अंतर्मुखी बनाती हुई जैसे अपने में गुनगुना रही है-

जानता हूँ,
ज्वार उतरने के साथ
यहीं किनारे पर ही
छूट जायेंगी कश्तियाँ
शंख-घोंघे -सीपियों के खोल
अवशेषों में अब कहाँ जीवन? (आदिम बस्तियों के बीच)

महत्त्वपूर्ण बात ये है कि यहाँ कीमियागिरी वर्णन या ब्यौरों की मुहताज नहीं, बल्कि विलक्षण तरीके से वह जीवन के अनुभवों की पुनर्रचना जान पड़ती है, जिसे कवि पूरी इंटेंसिटी और भाषिक आवेग के साथ व्यक्त करना सृजन की जरूरत मानते हैं.

मितबोले क्षणों में ::

जितनी बार कविताओं से संवाद किया,पाया कि वे हौले-हौले बोलती हैं और जरूरतभर बोलती हैं. गहरा बोलती हैं और पूरे स्पर्श के सुख के साथ बोलती हैं. यथार्थ में जीते हुए उनकी शांत भंगिमा कविता के स्त्री होने को सिद्ध कर देती हैं. ये छिपी हुई स्त्री ही कवि को करुणा और प्रेम का कवि बना रही है.

"आज फिर आई तुम्हारी याद
तुम फिर याद में आयीं -
आकर समा गई चौतरफा
समूचे ताल में... (तुम्हारी याद)

कहीं निचाट उदासी प्रेम में कुछ सोचते -सहेजते थके पाँव चली आती है-
"
और यही कुछ सोचते सहेजते
थके पाँव लौट आता हूँ
उन बीते बरसों की धुंधली स्मृतियों के बीच
गो कि कोई शिकायत नहीं है
तुम्हारे मान से-
फ़क़त कुछ उदासियाँ हैं
अकेलेपन कि अपनी." (तुम यकीन करोगी)

लोक की मरुगंध से::

लोक की मरुगंध में स्नात स्वैर विन्यास नन्द जी की कविताओं की विशिष्टता है. आप कविताओं तक आइये और वे उनके संस्कृतिकर्मी रूप को बोल उठेंगी. मरुधर में मोरचंग की तरह बजती हुई कविताएँ आस्वाद की बहुपक्षीय रीत से हृदय में उतरती हैं. कितनी ही सुपरिचित संज्ञाएँ हैं, जीवन के दृश्यों -परिदृश्यों की आख्यायिकाएँ हैं जो पाठक से उसी तरह बतियाती हैं जैसे चाँद पर बैठी बुढ़िया की कथा में एक तकली चल रही है, एक चरखा चल रहा है...  बहुत पुराना सूत..धुनता हैकतता हैबुनता है और समकालीन सन्दर्भों की काव्य-जिज्ञासा बन जाता है. काव्य -कौतुक से कहीं अधिक उत्सुकता का भाव यहाँ स्थायी रूप से वास कर रहा है. जटिलताएँ जनविसर्जन में सरल हो रही हैं. भाषा भी इसी सरलता में विन्यस्त हो गई है; दृष्टव्य है कि गंभीरता आद्योपांत इन कविताओं की प्रकृति है, जो इनके लोकवृत को विस्तार दे रही है. जन सरोकारों से सीधा कवि को जोड़ रही है. आंधी-अंधड़ के शोर गुल वाले समय में कवि नैराश्य के स्वर को तोड़ता है. अतियथार्थवाद का संत्रास यहाँ नहीं है, बल्कि जीवन को भरोसे से देखने का भाव है.

"आदमी के हाथ" कविता में नन्द जी माटी में खिलते आदमी के सयाने हाथों को लेकर जहाँ विचलित हैं,वहीँ अंततः आश्वस्त होते दीखते हैं.
"
धमाकों से थरथरा उठती है
धरती की कोख-
यह किस तरह की आत्मघाती आग में
घिरता-झुलसता जा रहा है
आदमी !
आदमी के हाथ-
बंजर में फूल खिलाते हैं."(आदमी के हाथ)

उलझे हुए सन्दर्भों बीच साफगोई::

चारों तरफ ढेरों उलझे हुए सन्दर्भ हैं. तो हमारे समय की कविता भी उलझ गई है. कहीं वह यथार्थ के जादू में अपना अस्तित्व तलाश रही है तो कहीं यंत्रणा से गुज़रते हुए असंतोष में जी रही है. कविता का मुहावरा बदला है. तकनीक ने इसे मशीनी कलात्मकता की तरफ धकेला है. नाना प्रयोग हैं. हम मिथ तोड़ने में लगे हैं. अस्पष्ट सी बातें हैं. वाद बहुतेरे हैं. विरोधाभास से हम घिरे हैं. लोकतान्त्रिक मांग है पर पूंजीवाद से पीछा नहीं छूट रहा. बाज़ार की अंतर्छायाएँ लेखक और पाठक में डोल रही हैं. आतंक से उबरे नहीं हैं. संशय बढ़ा ही है. ऐसे में नन्द जी का काव्य-संसार संयत होकर अपनी बात कहता -सुनता दिखाई देता है.
सब कुछ स्तुत्य होगा, ऐसा भी नहीं है;पर खुशामदीद पूछती-चाहती कविताएँ हैं.कवि की चिंताएं समय के सन्दर्भ में अपनी प्रासंगिकता खुद-बखुद सिद्ध कर रही हैं. अपनी कविता "उलझे हुए संदर्भ" में आवाज़ों की जात पर कवि प्रश्न चिह्न लगा रहे हैं..यहाँ यंत्र बेकाबू हो गए हैं,लोग बाज़ारों में लापता हैं.संचार-व्यवस्था अबूझ संकेतों में उलझी है. ये कैसा विरोधाभास है कि कवि को अटल होकर कहना पड़ रहा है कि


"
पिछले कई महीनों से-
दमकलें बाधाओं को कुचलती
बेतहाशा भाग रही हैं,
आवाजाही के सारे कायदे उलट गए हैं
सायरन चीख रहे हैं लगातार
समूचा आसमान धुएँ से भर गया है,
परेशान है (उलझे हुए संदर्भ)

दूसरी ओर गुमनामियों से निकलकर ये आवाज़ आम आदमी पर केन्द्रित हो जाती है. यहाँ वह विद्रोह करता है और प्रश्न पूछने का साहस रखता है. दमित सवालों की पटभूमि से अनुगूंज सुनाई देती है-

"आदमी तड़प कर पूछता है:
आखिर मेरा अपराध क्या है?
क्यों हर बार मुझे
मरने के लिए अकेला छोड़ दिया जाता है-
निहत्था करके ठेल दिया जाता है
अकाल की हिंसक परछाइयों के बीच
आखिर क्यों?"

 रिश्तों की आंच में::

जीवन की बहुवचनीयता में अकसर हम अंतरंगता और निजता की गंध को भूल जाते हैं और कस्तूरी मृग की तरह भटकते फिरते हैं. ये छीना-झपटी चलती रहती हैउहापोह और ऊब की नावों को अपने सिर पर ढो कर हम नदी तर जाना चाहते हैं. आत्मकेंद्रिता बढ़ती है, विखंडन होता है.कविता हमें इस उचाट जिन्दगी से बचाती है. ऐसी शरण्या है कविता, जहाँ आपको सुकून के पल मिलते हैं. अपनी आवाज़ को जगह मिलती है. अंतर्मुखी होकर आप खुद से संवाद करते हैं. ये भी तो जरूरी है न. गृहस्थी भी हो..परिवार भी हो, रिश्ते-नाते हों पर रहे तो कुछ इस तरह जैसे शब्दों में कविता. संबंधों की आंच पर ईख पके तो गुड़ की डलियाँ बनें. नन्द जी में ये मिठास स्वभावगत है तो कविता में ये मुस्कान की तरह आ गई है.सहज प्रीतिकर अनुभव सोते की तरह बह चले हैं...अनकही हामी के पुश्तैनी रिश्तों को देखता कवि आयास पीढ़ियों के पानी में बहता जाता है-

"इस सनातन सृष्टि की
उत्पत्ति से ही जुड़ा है मेरा रक्त -सम्बन्ध
अपने आदिम रूप से मुझ तक आती
असंख्य पीढ़ियों का पानी
दौड़ रहा है मेरे ही आकार में" (पीढ़ियों का पानी )
पर कवि की प्रीति ऊर्ध्वगामी है. वह बादलों की तरह ऊपर उठती है और फिर सरस जाती है. इसी कविता में कवि कहते हैं-
"
मेरे ही तो सहोदर हैं
ये दरख्त ये वनस्पतियाँ
मेरी आँखों में तैरते हरियाली के बिम्ब
अनगिनत रंगों में खिलते फूलों के मौसम
अरबों प्रजातियाँ जीवधारियों की
खोजती हैं मुझमें अपने होने की पहचान."

संवेदनाओं का ये कवि कहीं-कहीं खूब भावुक हो उठा है. "माँ की याद"ऐसी ही कविता है. बचपन के बेतरतीब दिनों में माँ की आवाज़ पीछा करती है.आंसुओं से विगलित अपने जीवन में उसे केवल एक ही चिंता है, "वह बचाए रखती थी हमें/उन बुरे दिनों की अदीठ मार से/ कि ज़माने की रफ़्तार में/ छूट नहीं जाए किसी का साथ/ उसकी धुंधली पड़ती दीठ के बाहर!"

शब्दों के सफ़र से:: कुछ खींची तस्वीरें:

कविता के भूगोल की समझ के लिए केवल उसकी संवेदना तक पहुंचना पर्याप्त नहीं. कविता के बरक्स आप उसके शब्दों की अंतर्यात्रा करते हैं. वे मात्र अभिव्यक्ति नहीं हैं..उनमें कहीं विस्फोट है तो कहीं मंथर गति. कभी वे कल्पना के सहारे कविता में अंतरित होते हैं तो कभी तमाम विवरण और घटनाएं उनकी नियति तय कर रही होती हैं. मैं शब्दों को मानव के अवचेतन का हिस्सा भी मानती हूँ:खासकर तब जब आप एक ख़ास दशा में अपना होना देख रहे हैं. अवचेतन स्वप्नों के आवाजाही की विशिष्ट जगह है. यहाँ भारी उथल-पुथल है. बाह्य जीवन के प्रभावों के बिम्ब यहाँ तैर रहे हैं ,जिनसे आपका चेतन सुभिज्ञ  नहीं. अचानक इस मनोजगत में कहीं से विचारों का पत्थर झप से गिरता है और झील आपके लिए खुल जाती है. बाद को वही शांति. ऐसे में शब्द आपकी मदद करते हैं. वे इस तहखाने की अभिव्यक्ति हैं. और अभिव्यक्तियाँ एक तरह का स्थापत्य होती हैं. स्थापत्य में जादू रहता है जो पाठक को खींच कर अन्य जगत में ले जाता हैस्थापत्य विरेचन भी है. कभी केवल मोहविष्ट से आप इसे निरखेंगे तो कभी ये आपको रुलाएगा. जम कर हंसायेगा.

शिल्प अपने तरह की ज्यामिति है. एक ख़ास पैटर्न- जिसमें कलाकार और समय दोनों खूब महत्त्वपूर्ण हैं. देखिये, शब्द एक तरह से सिगमा-5 की तरह काम करते हैं. इनके अपने सिगनल हैं. अपने संकेत..बिलकुल उस तरह जैसे रेडियो एक सुनिश्चित आवृति पर साफ़ सुनाई पड़ता है. ठीक इसी तरह कोई भी विधा अपने संकेतों और पाठक की फ्रीक्वेंसी पर निर्भर भी करती है..इसलिए हम ये बंटवारा करने लगते हैं कि ये साहित्य में शामिल है और ये नहीं. इसके पीछे शिल्पकार का शिल्प ही रहता है.

अब नन्द जी पर. उनकी कविता से गुज़रते हुए राजस्थान का एक ख़ास स्थापत्य आपको आकर्षित करता है. खासकर पश्चिमी राजस्थान की विशिष्ट स्थानिकता. देशज शब्द सायास नहीं आये हैं. वे कवि के चित्त के बहुत करीब हैं. पुस्तक में भूमिका पढ़ते समय एक बात ने पकड़ा-"उदारीकरण की प्रक्रिया में इधर बहुत से बाहरी दबाब अनायास ही बाज़ार में प्रवेश कर गए हैं. यह व्यवसायीकरण जन-आकांक्षाओं की उपेक्षा करके कहीं अपना पाँव नहीं टिका पाता. इन कम्पनियों को जब अपना उत्पाद आम लोगों तक पहुँचाना होता है,तो वे कोई भारतीय भाषा ही क्या, उन भाषाओँ की सामान्य बोलियों तक जा पहुँचती हैं. यह एक अनिवार्य संघर्ष है, जिसके बीच लोक-भाषाओँ को अपनी ऊर्जा बचाकर रखनी है.साहित्य का काम इन्हीं लोगों के मनोबल को बचाए रखना है." तो कई कविताओं में पाया कि कवि की भाषा राजस्थान की मांस-मज्जा का हिस्सा है. वहां खेजड़ी पर कविता का होना अचरज की बात नहीं बल्कि खेजड़ी पेड़ का नाम आते ही एक सजग पाठक के तौर पर आप खेजरली तक पहुँच जाते हैं. अमृता देवी जिक्र न होते हुए भी इस वृक्ष में शामिल रहेंगी. मैंने ख़ास ये महसूस किया. इसका कारण मेरी अपनी जड़ें गहरे तक राजस्थान से जुडी होना हो सकता है. तो ये ख़ास स्थापत्य है, जो हर पाठक को अपने तरह का सुख देता है.कितनी स्थानिक संज्ञाएँ हैं जो कविता में रच बस गई हैं.. बार-बार टीबे आते हैं. बावड़ियाँ हैं.आंधियां हैं. टेराकोटा के घड़े हैं.कुल धारा है, उजाड़ हवेलियाँ हैं..
एक जगह  जब कवि कहते हैं,"उसी निश्छल हंसी में चमकते हैं/ चाँद और सितारे आखी रात तो मैं यकायक चमक जाती हूँ..क्योंकि ये आखा शब्द कितने महीनो के बाद सुना..ठेठ मेरा अपना. कितने ही लोक गीतों में ये शब्द आया होगा. इसी तरह कविता "घर तुम्हारी छाँव में" एक शब्द 'जीवारी' की पुनरावृत्ति हुई है. इन शब्दों का होना मुझे अपने स्थान से जोड़ता है.

कई कविताएँ हैं जहाँ कवि के अवचेतन से आपकी मुलाक़ात होती है और आप ठिठक जाते हैं.. ये तो अपना सा लागे का भाव मुस्करा उठता है."बच्चे के सवाल" एक ऐसी ही कविता है, जो आपको बचपन में ले जायेगी..
कुल मिलाकर कवि का अपना मुहावरा, जैसा की नवल किशोर जी ने कहा है-"उनकी कविताएँ एक विशेष मरुगंधी पहचान देती हैं... मुझे सौ फीसदी सही लगता है.

पुस्तक और कविता पर ::खोज ली पृथ्वी
"तुम्हारे सपनों में बरसता धारोधार
मैं प्यासी धरती का काल मेघ होता

लौटकर आता
रेतीले टीबों के अधबीच
तुम्हारी जागती इच्छा में सपने आंजता" (खोज ली पृथ्वी )
कविता के सत्त्व रूप में उपर्युक्त पंक्तियाँ मैंने बतौर पाठक बचा कर रख ली हैं.
प्रकाशक : विजया बुक्स, नवीन शाहदरा, दिल्ली – ११००३२, प्रथम संस्करण - २०११
मूल्य - १७५ रूपये