हिन्दी पाठकों के बीच राजस्थानी
कहानियों की बेहतर प्रस्तुति
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आधुनिक राजस्थानी कथा-यात्रा की
शुरूआत ठीक वहीं से होती है, जहां से हिन्दी कहानी की यात्रा आरंभ होती है, लेकिन
दोनों के क्रमिक विकास और उपलब्धियों में काफी अंतर है। कमोबेश यही बात अन्य
भारतीय भाषाओं की कहानी पर भी लागू होती है। यद्यपि लोकवार्ता की दृष्टि से राजस्थानी
का कथा साहित्य पर्याप्त समृद्ध रहा है और यहां की वाचिक परंपरा में लोक कथाएं
सर्वाधिक लोकप्रिय रही हैं। यही कारण है कि आधुनिक कथा लेखन के दौर में भी रानी
लक्ष्मीकुमारी चूंडावत, विजयदान देथा, नानूराम संस्कर्ता, मनोहर शर्मा, मुरलीधर
व्यास जैसे आधुनिक भावबोध वाले समर्थ कथाकारों ने इन लोक कथाओं के लेखन और संग्रहण
में विशेष रुचि ली। उल्लेखनीय बात ये कि यही कथाकार इसी दौर में अपनी मौलिक
कहानियां भी लिखते रहे, जिससे आधुनिक राजस्थानी कहानी की बेहतर संभावनाएं विकसित
हो सकीं।
राजस्थानी
भाषा के साथ एक बड़ी विडंबना यह रही कि आजादी के बाद जहां हिन्दी सहित देश की चौदह
भारतीय भाषाओं को तो संवैधानिक मान्यता देकर उनके विकास का रास्ता खोल दिया गया,
लेकिन देश के बड़े प्रान्त राजस्थान की समृद्ध भाषा राजस्थानी और कुछ अन्य
भारतीय भाषाओं को इस प्रक्रिया से बाहर ही छोड़ दिया गया। इरादा शायद यही था कि
राजकीय मान्यता और संरक्षण के अभाव में ये भाषाएं धीरे धीरे व्यवहार से बाहर हो
जाएंगी और उनके स्थान पर लोग हिन्दी या उस क्षेत्र विशेष की मान्यता प्राप्त
भाषा को ही अपनी मातृभाषा के रूप में कुबूल कर लेंगे, जबकि यह सोच अपने आप में ही
अवैज्ञानिक और अव्यावहारिक थी। इन वंचित भाषा-भाषियों ने अपनी भाषा की मान्यता
के लिए लंबी लड़ाइयां लड़ीं और उसी की बदौलत अब तक दस और भारतीय भाषाओं को संविधान
की आठवीं सूची में शामिल किया जा चुका है, लेकिन राजस्थान के आठ करोड़ शान्तिप्रिय
वाशिन्दों की मातृभाषा राजस्थानी आश्वसनों और दिलासों के बावजूद आज तक उस मान्यता
से वंचित है। वह लोगों के जीवन-व्यवहार की भाषा है, इसलिए उसे मिटा पाना तो किसी
सत्ता व्यवस्था के वश की बात नहीं है, लेकिन संवैधानिक मान्यता के अभाव में न
वह प्राथमिक स्तर पर शिक्षा का माध्यम बन सकी और न सरकारी काम-काज की प्रक्रिया में
उसको कोई तवज्जो दी जाती। अपनी भाषा और संस्कृति से लगाव रखने वाले हजारों लाखों
संस्कृतिकर्मी और जागरूक लोग आज भी उसे अपने जीवन-व्यवहार का आवश्यक अंग बनाए
हुए हैं, उन्हीं में वह लेखक समुदाय भी आता है, जो ग्यारहवीं शताब्दी से चली आ
रही साहित्यिक विरासत से जुड़कर आज भी अपनी भाषा में साहित्य सृजन की परंपरा को
सजीव बनाए हुए है। डॉ नीरज दइया के संपादन में आधुनिक राजस्थानी कहानियों के हिन्दी
अनुवाद के रूप में प्रकाशित कथा संकलन ‘101 राजस्थानी कहानियां’ को मैं राजस्थानी
भाषा की अस्मिता के इसी संघर्ष और उसकी सृजन परम्परा के विस्तार से जोड़कर ही देखता
हूं।
इस
ऐतिहासिक प्रक्रिया पर बात करते हुए डॉ नीरज दइया ने इस संकलन की भूमिका में
भारतीय कहानी के भविष्य पर बहुत सटीक टिप्पणियां की हैं। वे प्रादेशिक भाषाओं
और हिन्दी कहानी के अंतर्संबंध की ओर इशारा करते हुए सही कहते हैं कि “भारतीय
कहानी का भविष्य हमारी क्षेत्रीय भाषाओं की कहानी से निर्मित होगा। हरेक भाषा में
कहानी की अपनी परंपरा और विकास के आयाम रहे हैं। अपनी समृद्ध साहित्यिक विरासत
विकास के कारण आधुनिक राजस्थानी कहानियों का भारतीय कहानी में विशेष महत्व
है।" और इसी महत्व को रेखांकित करने के लिए उन्होंने आधुनिक राजस्थानी के
101 कथाकारों की चुनिन्दा कहानियों के पांच सौ पृष्ठ के इस वृहद संकलन को मूर्त
रूप दिया है।
हिन्दी
प्रकाशन जगत में आजादी के कुछ वर्ष बाद तक शोध और पाठ्यक्रम की मांग के अनुसार
राजस्थानी के प्राचीन और मध्यकालीन साहित्य को उसके मूल पाठ और उन पर हिन्दी
टीकाओं के प्रकाशन में जरूर कुछ दिलचस्पी रही, लेकिन राजस्थानी के नये मौलिक
लेखन के प्रति आमतौर पर उदासीनता ही देखने को मिलती है। प्रदेश में यह जिम्मा कुछ
हद तक राजस्थानी साहित्य और संस्कृति से जुड़ी संस्थाओं और शोध संस्थानों ने
जरूर संभाला, लेकिन उनकी भी नये लेखन को सामने लाने में कम ही रुचि रही। इस स्थिति
में कुछ सुधार तब हुआ, जब राजस्थानी के सृजनशील लेखकों ने अपने निजी प्रयत्नों
से पत्रिकाओं और पुस्तकों का प्रकाशन अपने हाथ में लिया। मरुवाणी, जाणकारी,
ओळमों, हरावळ, राजस्थली, चामळ, जलमभोम, हेलो, दीठ जैसी पत्रिकाओं के माध्यम से
एक पूरी पीढ़ी सामने आने लगी। उसी दौर में भाषा की मान्यता के लिए बढ़ते दबाव में
साहित्य अकादमी ने राजस्थानी भाषा के साहित्य को मान्यता देते हुए सन् 1972 से
राजस्थानी कृतियों को साहित्य अकादमी पुरस्कार की प्रक्रिया में शामिल किया। उसी
दौर में बीकानेर में राजस्थानी भाषा साहित्य और संस्कृति की स्वतंत्र अकादमी
बनी और प्रदेश के हिन्दी प्रकाशकों ने राजस्थानी की नयी कृतियों को प्रकाशित
करने में रुझान दर्शाया। सन् 1960 में जोधपुर से सौ किलोमीटर दूर स्थित बोरूंदा
गांव में विजयदान देथा और कोमल कोठारी ने जिस रूपायन संस्थान की नींव रखी, उसके
आरंभिक संकल्प तो काफी व्यापक रहे, लेकिन कालान्तर में यह संस्थान अपने ही
कलेवर में सिमटता गया। उस संस्थान के माध्यम से राजस्थानी लोक कथाओं के संग्रहण
और प्रकाशन की योजना आरंभ हुई, जिसके तहत ‘बातां री फुलवाड़ी’ का श्रृंखलाबद्ध
प्रकाशन आरंभ हुआ। इस योजना के साथ इस संस्थान ने राजस्थानी के नवलेखन को भी
प्रकाशित करने का बीड़ा उठाया और नारायण सिंह भाटी, सत्यप्रकाश जोशी, गजानन वर्मा,
रेवतदान चारण, कल्याणसिंह राजावत, जनकवि उस्ताद आदि के कुछ काव्य-संकलन पहली
बार प्रकाश में आए। लेकिन यह योजना जल्दी ही बंद हो गई और रूपायन संस्थान बिज्जी
(विजयदान देथा) के साहित्य लेखन को प्रकाशित करने तक सीमित हो गया। इस बीच साहित्य
अकादमी, दिल्ली और राजस्थानी भाषा साहित्य अकादमी के समर्थन से नये लेखन को
प्रकाशित करने की योजनाएं भी सामने आईं। इन संस्थानों ने मूल राजस्थानी में
कृतियां प्रकाशित कीं।
पिछले
एक अरसे से साहित्य अकादमी और हिन्दी की राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं की सक्रियता
और समर्थन से जहां राजस्थानी कृतियों के हिन्दी, अंग्रेजी और दूसरी भारतीय
भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित होने लगे हैं, वहीं हिन्दी और अन्य भाषाओं की श्रेष्ठ
कृतियों के राजस्थानी अनुवाद भी प्रकाशित होकर सामने आने लगे हैं। इसी क्रम में राजकमल
प्रकाशन जैसे राष्ट्रीय प्रकाशन संस्थान ने पहली बार सन् 1979 में बिज्जी की राजस्थानी
लोक कथाओं का संकलन ‘दुविधा और अन्य कहानियां’ तथा ‘उलझन’ (सन् 1982) हिन्दी
अनुवाद के रूप में प्रकाशित किये। इतना ही नहीं सन् 1984 में इसी प्रकाशन संस्थान
ने बिज्जी की मौलिक राजस्थानी कहानियों का संकलन ‘अलेखूं हिटलर’ मूल भाषा में
प्रकाशित कर राष्ट्रीय स्तर पर राजस्थानी कृतियों के प्रकाशन का रास्ता खोला।
इसके बाद तो भारतीय ज्ञानपीठ और हिन्दी के अन्य प्रकाशन संस्थानों ने भी राजस्थानी
की अनेक कृतियां मूल और अनुवाद के रूप में प्रकाशित की हैं। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास
ने भी अपनी भारतीय पुस्तक माला श्रृंखला के अंतर्गत राजस्थानी भाषा के लेखन को
शामिल करते हुए आधुनिक राजस्थानी की प्रतिनिधि कहानियों और कविताओं के संकलन मूल
राजस्थानी में प्रकाशित किये हैं, जिनके हिन्दी अनुवाद भी सामने आ चुके हैं। इसी
तरह कुछ और हिन्दी प्रकाशकों ने इस दिशा में बेहतर रुझान दिखाया है। डॉ नीरज दइया
के संपादन में गाजियाबाद के के एल पचौरी प्रकाशन से आए इस ताजे संकलन ‘101 राजस्थानी
कहानियां’ को मैं इसी श्रृंखला के विस्तार के रूप में देखता हूं और निश्चय ही इससे
राजस्थानी के नवलेखन को हिन्दी के व्यापक पाठक समुदाय के बीच पहंचने की बेहतर संभावनाएं
विकसित हो रही हैं।
नीरज
दइया ने इधर राजस्थानी आलोचना के क्षेत्र में काफी सराहनीय कार्य किया है। उन्होंने
‘आलोचना रै आंगणै’ और ‘बिना हासलपाई’ जैसी आलोचना कृतियों के माध्यम से राजस्थानी
कथा साहित्य के विवेचन का व्यापक काम अपने जिम्मे लिया है। इसी क्रम में इस
कहानी संकलन के प्रारंभ में उनकी बीस पेज लंबी भूमिका राजस्थानी कहानी यात्रा के
सभी पक्षों का गहराई से अध्ययन और विश्लेषण प्रस्तुत करती है। यह भूमिका न केवल
राजस्थानी कहानी के इतिहास और उसके विकास-क्रम का ब्यौरा पेश करती है, बल्कि
राजस्थानी कहानी के बहुआयामी रचना-संसार और कहानियों की अंतर्वस्तु का बारीक
विवेचन प्रस्तुत करते हुए उसकी प्रयोगधर्मिता और रचना-कौशल की खूबियों को भी
रेखांकित करती है। नीरज की इस भूमिका की बड़ी खूबी यह है कि उन्होंने राजस्थानी
कथा यात्रा की चार पीढ़ियों के उल्लेखनीय कथाकारों की रचनाशीलता की वैयक्तिक
खूबियों को उनकी प्रमुख कहानियों को हवाले में रखकर विस्तार से समझाने का प्रयत्न
किया है, जो अपने आप में अच्छे खासे अध्यवसाय और श्रम की मांग करता है।
राजस्थानी
के कई महत्वपूर्ण कथाकारों ने हिन्दी के कथा साहित्य में भी अपनी अलग पहचान
अवश्य बनाई है, लेकिन पिछले पांच दशक में जो कहानियां हिन्दी में अनुदित होकर
पाठकों के बीच पहुंची हैं, उनके भीतर का देशज रचना-संसार, उनकी अंतर्वस्तु और
बयानगी हिन्दी या किसी भी भारतीय भाषा की कहानी से नितान्त नयी और भिन्न किस्म
की है। वह राजस्थानी कहानी की अपनी ज़मीन से उपजी हैं।
यों तो
नीरज ने अपनी भूमिका में संकलन के लिए कथकारों और उनकी कहानियों के चयन को लेकर
अपनी सीमाओं का भी हवाला दिया है, लेकिन इस महत्वपूर्ण प्रतिनिधि चयन में मुरलीधर
व्यास, मूलचंद प्राणेश, रामकुमार ओझा, रामनिवास शर्मा, पुष्पलता कश्यप, हरमन
चौहान जैसे जाने-पहचाने कथाकारों का न होना थोड़ा अचरज जरूर पैदा करता है, क्योंकि
ये अपने समय के महत्वपूर्ण कथाकार के रूप में चर्चित रहे हैं, और उनकी कहानियों
के संग्रह भी उपलब्ध रहे हैं, बल्कि मूलचंद प्राणेश तो साहित्य अकादमी पुरस्कार
से भी सम्मानित कथाकार रहे हैं। कुल मिलाकर ‘101 राजस्थानी कहानियां’ संकलन का
प्रकाशन हिन्दी पाठकों के बीच राजस्थानी
कहानी की बेहतर प्रस्तुति की दृष्टि से एक उल्लेखनीय उपलब्धि है।
- नन्द भारद्वाज
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चर्चित कृति : 101 राजस्थानी कहानियां, संपादक : नीरज दइया, प्रकाशक
: के एल पचौरी प्रकाशन, गाजियाबाद (उ प्र), पष्ठ 504, मूल्य
: 1100/- रुपये।
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