Wednesday, December 4, 2013


अपनी कुछ कविताएं

अपना घर

ईंट-गारे की पक्की चहार-दीवारी
और लौह-द्वार से बन्द
इस कोठी के पिछवाड़े
रहते हुए किराये के कोने में
अक्सर याद आ जाया करता है
रेगिस्तान के गुमनाम हलके में
बरसों पीछे छूट गया वह अपना घर -

घर के खुले अहाते में
बारिश से भीगी रेत को देते हुए
अपना मनचाहा आकार
हम अक्सर बनाया करते थे बचपन में
उस घर के भीतर निरापद अपना घर -
बीच आंगन में खुलते गोल आसरों के द्वार
आयताकार ओरे,  तिकोनी ढलवां साळ
अनाज की कोठी, बुखारी, गायों की गोर
बछड़ों को शीत-ताप और बारिश से
बचाये रखने की पुख्ता ठौर !


न जाने क्यों
अपना घर बनाते हुए
अक्सर भूल जाया करते थे
घर को घेर कर रखने वाली
वह चहार-दीवारी !


हरी दूब का सपना


कितने भाव-विभोर होकर पढ़ाया करते थे
                    मास्टर लज्जाराम -
कितनी आस्था से
डूब जाया करते थे किताबी दृश्‍यों में
एक अनाम सात्विक बोझ के नीचे
दबा रहता था उनका दैनिक संताप
और मासूम इच्छाओं पर हावी रहती थी
एक आदमकद काली परछाई -

ब्लैक-बोर्ड पर अटके रहते थे
कुछ टूटे-फुटे शब्द -
धुंधले पड़ते रंगों के बीच
वे अक्सर याद किया करते थे
एक पूरे आकार का सपना !


बच्चे
मुंह बाए ताकते रहते
उनके अस्फुट शब्दों से
            बनते आकार
और सहम जाया करते थे
गड्ढों में धंसती आंखों से -


आंखें:
जिनमें भरा रहता था
अनूठा भावावेश
छिटक पड़ते थे
अधूरे आश्‍वासन
बरबस कांपते होठों से

और हंसते-हंसते
बेहद उदास हो जाया करते थे
                   अनायास
हर बार अधूरा छूट जाता था
हरी दूब का सपना !


हर बार

हर बार
शब्द होठों पर आकर लौट जाते हैं
कितने निर्जीव और अर्थहीन हो उठते हैं
हमारे आपसी सम्बन्ध,
एक ठण्डा मौन जमने लगता है
हमारी सांसों में
और बेजान-सी लगने लगती हैं
              आंखों की पुतलियां !

कितनी उदास और
अनमनी हो उठती हो तुम एकाएक
कितनी भाव-शून्य अपने एकान्त में,

हमने जब भी आंगन से बात उठाई
चीजों को टकराकर टूटने से
                 रोक नहीं पाए
न तुम अपने खोने का कारण जान सकी
न मैं अपनी नाकामी का आधार !

तुम्हें खुश देखने की ख्वाहिश में
मैं दिन-रात उसी जंगल में जूझता रहा
और तुम घर में ऊबती रही लगातार
गुजरते हुए वक्त के साथ
तुम्हारे सवाल और शिकायतें बढ़ती रहीं
और मैं खोता रहा हर बार
अपने शब्दों की सामर्थ्य में विश्‍वास !

 
खोज ली पृथ्वी

तुम्हारे सपनों में बरसता धारोधार
प्यासी धरती का काला मेघ होता

लौट कर आता
रेतीले टीलों के मंझधार
तुम्हारी जागती इच्छा में सपने आंजता

अब तो चिन्दी चिन्दी बिखर गया है
लौटता उल्लास
और मन्दी पड़ती जा रही है
उस चूड़े की मजीठ
जिसकी रंगत
बरसों खिलती रही
हमारे पोरों में
पर इसी जोम में खटते आखी उम्र
हमने आकाश और पाताल के बीच     
          आखिर खोज ली पृथ्वी !


    मैं जो एक दिन

मैं जो एक दिन
तुम्हारी अधखिली मुस्कान पर रीझा,
अपनों की जीवारी और जान की खातिर
तुम्हारी आंखों में वह उमड़ता आवेग -
मैं रीझा तुम्हारी उजली उड़ान पर
जो बरसों पीछा करती रही -
अपनों के बिखरते संसार का,

तुम्हारी वत्सल छवियों में 
छलकता वह नेह का दरिया
बच्चों की बदलती दुनिया में
तुम्हारे होने का विस्मय
मैं रीझा तुम्हारी भीतरी चमक
            और ऊर्जा के उनवान पर
जैसे कोई चांद पर मोहित होता है -
कोई चाहता है -
नदी की लहरों को
        बांध लेना बाहों में !


तुम्हारा होना


तुम्हारे साथ
बीते समय की स्मृतियों को जीते
कुछ इस तरह बिलमा रहता हूं
                  अपने आप में,
जिस तरह दरख्त अपने पूरे आकार
और अदीठ जड़ों के सहारे
बना रहता है धरती की कोख में ।

जिस तरह
मौसम की पहली बारिश के बाद
बदल जाती है
धरती और आसमान की रंगत
             ऋतुओं के पार
बनी रहती है नमी
तुम्हारी आंख में -
इस घनी आबादी वाले उजाड़ में
ऐसे ही लौट कर आती
तुम्हारी अनगिनत यादें -

अचरज करता हूं
तुम्हारा होना
कितना कुछ जीता है मुझ में
                इस तरह !

 
अपनी पहचान

इस सनातन सृष्टि की
उत्पत्ति से ही जुड़ा है मेरा रक्त-संबंध
अपने आदिम रूप से मुझ तक आती
असंख्य पीढ़ियों का पानी
दौड़ रहा है मेरे ही आकार में

पृथ्वी की अतल गहराइयों में
संचित लावे की तरह
मुझमें सुरक्षित है पुरखों की आदिम ऊर्जा
उसी में साधना है मुझे अपना राग

मेरे ही तो सहोदर हैं
ये दरख्त   ये वनस्पतियां
मेरी आंखों में तैरते हरियाली के बिंब
अनगिनत रंगों में खिलते फूलों के मौसम
अरबों प्रजातियां जीवधारियों की
खोजती हैं मुझमें  अपने होने की पहचान।

*    

आपस का रिश्ता

इतना करार तो बचा ही रहता है
हर वक्त हाथी की देह में
कि अपनी पीठ पर सवार
महावत की मनमानियों को
उसके अंकुश समेत
उतार दे अपनी पीठ से बेलिहाज
और हासिल कर ले अपनी आजादी

सिर्फ अपनी परवरिश का लिहाज
उसके हाथों की मीठी थपकियां
और पेट भर आहार का भरोसा रोक लेता है
उसके इरादों को हर बार

एक अनकही हामी का पुश्‍तैनी रिश्ता
ऐसे ही बना रहता है दोनों के बीच
बरसों-बरस!

*    

मां की याद
                               
बीत गये बरसों के उलझे कोलाहल में
अक्सर उसके बुलावों की याद आती है
याद आता है उसका भीगा हुआ आंचल
जो बादलों की तरह छाया रहता था कड़ी धूप में
रेतीले मार्गों और अधूरी उड़ानों के बीच
अब याद ही तो बची रह गई है उस छांव की
                                                                                                
बचपन के बेतरतीब दिनों में
अक्‍सर पीछा करती थी उसकी आवाज
और आंसुओं में भीगा उसका उदास चेहरा
अपने को बात-बात में कोसते रहने की
उसकी बरसों पुरानी बान
वह बचाए रखती थी हमें
उन बुरे दिनों की अदीठ मार से
कि जमाने की रफ्तार में छूट न जाए साथ
उसकी धुंधली पड़ती दीठ से बाहर

दहलीज के पार
हम नहीं रह पाए उसकी आंख में
गुजारे की तलाश में भटकते रहे यहां से वहां
और बरसों बाद जब कभी पा जाते उसका आंचल
सराबोर रहते थे उसकी छांव में

वह अनाम वत्सल छवि
अक्सर दीखती थी उदास
             बाद के बरसों में,
कहने को जैसे कुछ नहीं था उसके पास
न कोई शिकवा-शिकायत 
न उम्मीद ही बकाया
फकत् देखती भर रहती थी    अपलक
हमारे बेचैन चेहरों पर आते उतरते रंग -
हम कहां तक उलझाते
           उसे अपनी दुश्‍वारियों के संग?



*** 

Wednesday, August 14, 2013

औरत की आज़ादी के अलसुलझे सवाल




नूर ज़हीर के उपन्‍यास 'अपना खुदा एक औरत' की समीक्षा - 

औरत की आजादी के अलसुलझे सवाल 

* नन्‍द भारद्वाज

        औरत की आजादी और उसके साथ समानता का बरताव मानव सभ्‍यता के इतिहास और उसकी विकास-प्रक्रिया का एक अहम मसला रहा है। यूरोप और मध्‍य एशिया में औद्योगिक क्रान्ति के बाद बदलती आर्थिक प्रक्रियाओं के साथ जारी बहस का सार निकालते हुए मार्क्‍स के अनन्‍य सहयोगी फ्रेडरिक एंगेल्‍स ने बहुत साफ तौर पर लिखा था कि औरतों की आजादी और पुरुषों के साथ उसकी समानता उस वक्‍त तक नामुमकिन रहेगी, जब तक औरतों को सामाजिक उत्‍पादन प्रक्रिया से अलग रखकर उन्‍हें, घरेलू काम तक, जो निजी काम है, सीमित रखा जाएगा।" इसी समझ के साथ विकसित हुए मजदूर आन्‍दोलन ने बेशक औरत को अपने संघर्ष में बराबरी का हिस्‍सेदार बनाया हो, लेकिन सामाजिक संबंधों और धार्मिक प्रक्रियाओं पर इसका असर प्राय कम ही देखा गया। भारत की आजादी के संघर्ष में भी उसकी भूमिका सीमित ही बन पाई, लेकिन आजादी के बाद संविधान और लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था कायम हो जाने के बावजूद औरत की आजादी तब भी अपना सही स्‍वरूप ग्रहण नहीं कर पाई है। 
      यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि औरत की आजादी और स्‍त्री-प्रश्‍नों पर चल रही विश्‍व-व्‍यापी बहस तकरीबन इकतरफा-सी होती रही है। कुछ धार्मिक जमातें आज भी आश्‍वस्‍त हैं कि उनके मजहब में औरत सब से अधिक महफूज है, उसे वे सारे हक और सहूलियतें हासिल हैं, जो उनके मुल्‍क या मजहब के सभी लोग अपने जीवन-व्‍यवहार में बरत रहे हैं, पर उस पर बहस या ऐतराज उठाने की इजाजत किसी को नहीं है। कुछ धर्मावलंबियों ने महिमा-मंडन का ऐसा मिथ्‍या आडंबर गढ़ लिया कि उसमें सचाई पर बात करना और मुश्किल हो गया। ऐसे दौर में औरत की आजादी की एक मुखर पैरोकार और हिन्‍दी-उर्दू की जानी-मानी लेखिका नूर ज़हीर का नया उपन्‍यास ‘अपना खुदा एक औरत’ इस ज्‍वलंत मसले पर नये सिरे से हमारा ध्‍यान आकर्षित करता है। अपनी इस बेबाक दास्‍तान में वे बेलिहाज कहती हैं – औरत की आजादी की गुत्‍थी इतनी उलझी हुई इसीलिए है कि मर्दो ने इसको देने या न देने की जिम्‍मेदारी अपने ऊपर ले ली है और औरतों ने मर्दों को, सबसे बुनियादी चीज अगवा करने दिया है – आजादी की परिभाषा और कैसे उसे हासिल किया जाये, क्‍यों कर उसे जिया जाये।" (पृष्‍ठ 279) स्‍त्री–प्रश्‍नों पर ऐसी बेबाक राय रखने वाली कथाकार नूर ज़हीर के इस उपन्‍यास को पढ़ना निश्‍चय ही ज़िन्‍दगी के एक रोमांचकारी अनुभव के बीच से गुजरना है। यह उपन्‍यास मूल रूप से ‘माई गॉड इज ए वूमन’ शीर्षक से अंग्रेजी में लिखा था, जिसे स्‍वयं लेखिका ने हिन्‍दी में अनुदित किया है।
       कथा का आरंभ ही इतना दिलचस्‍प और दो-टूक है कि एक बार पढ़ना शुरू करने के बाद उससे अलग हटना आसान तो कतई नहीं – वह लोकेल, समय और किरदार सब एक साथ सजीव हो उठते हैं और कथा के प्रवाह में पाठक को बहा ले जाते हैं। मसलन, यह शुरुआत कुछ इस तरह सामने आती है - वह लंबी और दुष्कर यात्रा थी। झुलसते थार रेगिस्‍तान से गंगा के मैदानों की सघन सरस घनी हरियाली तक। सफिया पूरी रात सो नहीं पाई थी। --- उसकी शादी ऐसे खानदान में तय हुई, जिसमें दो अदद ‘सर’ की उपाधियां, पांच खानबहादुर और नौ बैरिस्‍टर मौजूद थे। उसका शौहर (अब्‍बास जाफरी) भी बैरिस्‍टर था और उसके ससुर अवध हाई कोर्ट के जज। --- इस रिश्‍ते पर बहुतों को हैरानी हुई थी, क्‍योंकि उसके पिता (सैयद मुर्तजा मेंहदी) तो एक मामूली-से स्‍कूल इंस्‍पैक्‍टर थे। अमीरों की दुनिया। उसने नजर चुराकर अपने शौहर को देखा। उसकी एक किताब छप चुकी थी, जो काफी विवादास्‍पद हुई थी। शरीफ़ मुसलमान घरानों में उसका जिक्र तक मना था।" (पृष्‍ठ 7) और इस तरह अपने आप में मुकम्‍मल इस सार-संक्षिप्‍त जानकारी के साथ सफिया के संघर्षपूर्ण जीवन जो कथा आरंभ होती है, वह आगे के सफों में पर्त-दर-पर्त और गहरी, गुरूतर और व्‍यापक होती जाती है। 
    एक मध्‍यवर्गीय शिक्षक परिवार में जन्‍मी और इंटरमीडिएट तक शिक्षित सत्रह वर्षीय सफिया जब बैरिस्‍टर अब्‍बास जाफरी से शादी कर ज़िन्‍दगी के नये सफ़र पर निकली, तो वह कई तरह की आशंकाओं से घिरी थी। ग्‍यारह सेर जेवर और जरी की भारी-भरकम पोशाक में दुबकी उस नयी-नवेली दुल्‍हन के सामने ज़िन्‍दगी जिस तरह के सवाल और शंकाएं लिये खड़ी थी, वह नहीं जानती थी कि आने वाला कठिन समय उसे किस मुकाम पर ले-जाकर छोड़ेगा। तसल्‍ली थी तो बस इतनी कि उसका शौहर एक पढ़ा-लिखा ज़हीन इन्‍सान है, जो अपनी शरीके़-हयात को ज़िन्‍दगी में बराबरी का हिस्‍सेदार मानता है – वह न केवल उसे घर-परिवार की चहारदीवारी तक सीमित नहीं रखता, बल्कि उसे तर्क की बिनह पर अपने से असहमत होने की पूरी आज़ादी देता है। इस अर्थ में अब्‍बास वाकई अपवाद रहे कि वे न केवल उस ज़माने की मजहबी पाबंदियों के खिलाफ चुनौती बन गये थे, बल्कि सामाजिक बदलाव की हिमायत करने वाली क्रान्तिकारी पार्टी के लिए भी उसका समर्थन करना आसान नहीं रह गया था। वह पार्टी जिसके लिए उन्‍होंने ज़िन्‍दगी की सारी सुख-सुविधाएं ठुकरा दीं। अपने क्रान्तिकारी विचारों और उन पर लगे मजहबी फतवों की वजह से न केवल उन्‍हें अंग्रेजी हुकूमत के दौर में जेल जाना पड़ा, आज़ाद मुल्‍क  की धर्मनिरपेक्ष सत्‍ता के लिए भी वे उलझन का कारण ही बने रहे। बेशक प्रदेश और देश के सिरमौर सियासतदां निजी तौर पर उनके विचारों की कद्र करते रहे हों, लेकिन जहां भी मजहबी दबाव आया, उन्‍होंने सचाई और न्‍याय का पक्ष लेने की बजाय अपने सियासी हितों को ही अहमियत दी। अब्‍बास के चरित्र की सबसे बड़ी खूबी यही थी कि वे न केवल सार्वजनिक जीवन में सचाई और न्‍याय के पक्ष में लड़ते रहे, बल्कि अपने घर में, वाल्‍दा जीनत बेगम की उन बातों के भी सख्‍त खिलाफ रहे, जो गरीब लड़कियों को गुलाम बनाकर रखने या मजहबी पाबंदियों को अपनी बहू और परिवार के लोगों पर लागू करने की आकांक्षा रखती थी। जब उन्‍हें यह जानकारी मिली कि उनकी अम्‍मी किसी मजहबी दलाल के जरिये सस्‍ते दामों पर नयी गरीब लड़कियां बतौर गुलाम खरीदना चाहती हैं, तो वे उनके सख्‍त खिलाफ हो गये और जब मां अपनी ज़िद पर अड़ी रहीं तो वे और सफिया अपने घर सफ़दर मंज़िल से अलग हो गये और उसी हवेली के अहाते में नौकरों के लिए बने रिहायशी हिस्‍से सागर पेशे की कोठरियों में रहने को चले गये।  
     सफ़दर मंज़िल से अलग होते ही अंग्रेज हुकूमत के लिए अब्‍बास को गिरफ्‍तार करना आसान हो गया और उन्‍हें जेल भेज दिया गया। ऐसे में अब्‍बास को यह जरूरी लगा कि इस दौरान सफिया अपनी ग्रेजुएशन की तालीम पूरी कर जल्‍द-से-जल्‍द अपने पांवों पर खड़ी हो जाए। उन दिनों अब्‍बास के वालिद जज सफ़दर अली जाफरी हाई कोर्ट से अपने रिटायरमेंट के बाद वकालत करने इलाहाबाद चले गये थे, इसलिए सफिया भी अपने हमदर्द ससुर की सेवा के बहाने इलाहाबाद पहुंच गई और दो साल में अपनी ग्रेजुएशन की तालीम पूरी कर ली। इन्‍हीं दो सालों में मुल्‍क भी आज़ाद हो गया, अब्‍बास जेल से छूटकर सफिया के पास आ गया और वे वापस लखन लौट आये। आज़ाद हिन्‍दुस्तान मे देश की नयी पौध को ज़रूरी तालीम मुहैया करवाने के लिए हर शहर-कस्‍बे और समुदाय मे लड़के-लड़कियों के लिए नये नये स्‍कूल खुल रहे थे, इसी प्रक्रिया में लखनमें भी मुस्लिम लड़किेयों के लिए बेहतर तालीम के इरादे से एक नेक मुसलमान बुजुर्ग मुज्‍तबा हुसैन ने अपनी बड़ी-सी कोठी को ‘साजिदा हुसैन मुस्लिम गर्ल्‍स  स्‍कूल’ में तब्‍दील कर दिया और उन्‍होंने सफिया के सामने यह प्रस्‍ताव रखा कि वे एक बतौर शिक्षिका के उनकी स्‍कूल से जुड़ जाएं। सफिया को काम की जरूरत भी थी और वह इस स्‍कूल से जुड़ गई। इन लड़कियों को पढ़ाने के दौरान ही उसने यह जाना कि मुसलमान घरों में आमतौर पर लड़कियां कमजोर रह जाती हैं, इसलिए इनके शारीरिक विकास के लिए उन्‍हें व्‍यायाम की शिक्षा देना उसे जरूरी लगा। जब मजहबी लोगों तक यह बात पहुंची तो उन्‍हें यह बहुत नागवार लगी। इसी बात को लेकर एक मौलवी और सफिया में तीखी तककरार भी हो गई और इस मामले ने इतना तूल पकड़ लिया कि शहर के पेशे-इमाम और मौलवी सफिया-अब्‍बास से जवाब-तलबी करने सफ़दर-मंजिल तक आ पहुंचे। इधर स्‍कूल संचालक मुज्‍तबा हुसैन पर भी कई तरह के दबाव आने लगे और इस तरह सफिया-अब्‍बास और मजहबी लोगों के बीच एक खुली जंग-सी शुरू हो गई।
      उनके बीच बढ़ते विवाद का एक कारण यह भी रहा कि सफिया उन स्‍कूली लड़कियों में आत्‍म-सजग बनने का नया हौसला पैदा कर रही थी, ताकि वे अपने साथ होने वाले अन्‍याय को चुपचाप बर्दाश्‍त न करें। ऐसी ही एक लड़की निगार एक दिन सफिया के पास अपनी तकलीफ लेकर आई कि उसके वालिद उसकी शादी एक ऐसे उम्रदराज अमीर से करने पर तुले हैं जो उसके अपने ही आशिक का बाप है। सफिया और अब्‍बास ने मामले की नजाकत को समझकर उसे यह सलाह दी कि वह अभी उसका सीधे विरोध न करे, बल्कि ऐन  निकाह के मौके पर जब उसकी रजामंदी पूछी जाए तो वह कबूल करने से इन्‍कार कर दे, क्‍योंकि शरीअत औरत को यह हक़ देता है कि अगर उसे कोई इन्‍सान कबूल न हो तो वह निकाह के वक्‍त इन्‍कार कर सकती है। सफिया और अब्‍बास उस वक्‍त बतौर गवाह मौके पर मौजूद रहे, ताकि बेवजह उसे दबाया न जा सके। और इस तरह उन्‍होंने एक मासूम के साथ हो रही नाइन्‍साफी से उसे बचा लिया। इसी प्रसंग ने पहली बार सफिया को यह सोचने पर विवश कर दिया कि कुछ अलग क्‍यों नहीं सोचती औरतें? सारे पैगंबर पुरुष हुए हैं, क्‍यों हमेशा खुदा मर्द माना जाता है? दूर, अछूता, अदृश्‍य बने रहने के‍ लिए? क्‍यों ज्ञान की खोज में मैत्रेयी और गार्गी तक को भी अपने पतियों के पीछे चलना पड़ा, क्‍योंकि वे दूसरी दिशा में नहीं गर्इं? (पृ 66)  
     सफिया का संघर्ष उसके लिए इस अर्थ में और कठिन हो गया कि उसे समाज या मजहबी लोगों से ही नहीं, अपनी सास ज़ीनत बेगम से लड़ना पड़ा और यह परिस्थिति तब और विकट हो गई जब अब्‍बास मजहबी फतवे के कारण पहले तो गिरफ्‍तार कर लिये गये और बाद को कट्टरपंथी हमले में अपनी जान गंवा बैठे, ऐसे कठिन समय में घर के लोगों से हमदर्दी पाने की बजाय सफिया और उसकी नवजात बच्‍ची को जीनत बेगम ने यह कहकर बेघर कर दिया कि जब उसका बेटा ही नहीं रहा तो इस औरत से उनका कोई रिश्‍ता नहीं बचा और उससे वह रिहाइश भी छीन ली, जिसमें वह किसी तरह अपना गुजारा कर रही थी। सफिया ने इस अन्‍याय के‍ खिलाफ कानूनी लड़ाई भी लड़ी, लेकिन शरीअत के कमजोर कायदों की वजह से उसे न्‍याय नहीं मिल पाया। आखिरकार उसे अपना ठिकाना बदलकर दिल्‍ली आना पड़ा, जहां उसे अपने हमदर्द साथी की मदद से एक संगीत संस्‍थान गंधर्व कला केन्‍द्र में नौकरी और सर छुपाने को जगह मिली। राजनैतिक हलकों में अब्‍बास की बेहतर साख और एक पढ़ी-लिखी सजग स्‍त्री के रूप में सफिया को दिल्‍ली में अपनी जगह बनाने में विशेष कठिनाई नहीं हुई। उसे संगीत नाटक अकादमी में उसकी योग्‍यता के अनुरूप अच्‍छा काम और रहने का ठिकाना भी मिल गया, लेकिन गंधर्व केन्‍द्र की मालकिन अमृता की त्रासद जिन्‍दगी के प्रति भी उसके मन में गहरी हमदर्दी बनी रही। सफिया जानती थी कि अमृता का पति गोविन्‍दराम एक ऐय्‍याश किस्‍म का व्‍यक्ति है और वह अपनी बीबी और अपाहिज बच्‍ची के साथ अच्‍छा सुलूक नहीं करता, उन्‍हें शारीरिक प्रताड़नाएं देता है, तो उसके संघर्ष का दायरा और बड़ा हो गया। उसे लगा कि स्‍त्री किसी भी धर्म या मजहब के दायरे में बेहतर हालत में नहीं है, वह हर जगह दोयम दर्जे की ज़िन्‍दगी जीती है। सफिया इससे पहले अपने ससुराल में सिल्विया जैसी ईसाई स्‍त्री को उसके ससुर सफ़दर अली द्वारा रखैल बनाकर रखने और बंगाल से लाई उन लड़कियों की गुलामी भी देख चुकी थी। यही नहीं, उसकी पीड़ा तब और बढ़ गई जब उसकी अपनी ही जवान बेटी सितारा ने उसके उसूलों के खिलाफ एक ऐसे मुस्लिम नौजवान को पसंद किया जो बुनियादी रूप से न केवल एक कट्टर मजहबी सोच वाला व्‍यक्ति था, बल्कि विदेश में गरीब बच्‍चों को बेचने का गैर-कानूनी कारोबार भी करता था और जब वहां उसके गिरफ्‍तार होने की आशंका बनी तो वह भागकर हिन्‍दुस्‍तान आ गया। संयोग से उन्‍हीं दिनों सफिया दिल की मरीज के रूप में अस्‍पताल में भर्ती थी, सितारा के पति वसीम ने सफिया के इस तरह बीमार होने को भी अपने बचाव में इस्‍तेमाल किया और धोखे से अपनी बीबी की आड़ में सफिया के घर और उसकी संपत्ति पर कब्‍जा करके बैठ गया।
      सफिया की इस संघर्षगाथा को एक नाटकीय मोड़ देते हुए नूर ज़हीर ने इसे उस दौर के चर्चित प्रसंग शाहबानो केस से जोड़ दिया। यानी बरसों पहले सफिया ने अपने हक की जिस लड़ार्इ को लखनहाई कोर्ट में अधूरा  छोड़ दिया था, उसे अंतिम परिणति मिली, शाहबानो केस में, जहां देश की सबसे बड़ी अदालत ने प्राकृतिक न्‍याय से वंचित मुस्लिम महिलाओं को उनका जायज हक़ देने के पक्ष में फैसला दिया था। न्‍यायालय के इस फैसले के खिलाफ यही कट्टरपंथी समुदाय सड़कों पर उतर आया और उस न्‍याय से वंचित औरत के मसले को ‘मुसलमान बनाम अन्‍य’ के विवाद मे तब्‍दील कर संसद में सरकार को विशेष विधेयक पास करने पर मजबूर कर दिया। और इस तरह बरसों बाद मिले उस सही फैसले का अमल रुकवा दिया। अपनी जिन्‍दगी की लड़ाई हार चुकी सफिया के सामने बस यही एक सार्थक विकल्‍प बच गया था कि वह इन्‍दौर पहुंचकर शाहबानो के साथ खड़ी हो और इस न्‍यायिक संघर्ष को अन्तिम परिणति तक पहुंचाने में भागीदार बने। सफिया ने अपने शौहर से धोखा खा चुकी बेटी सितारा और पति गोविन्‍दराम से प्रताड़ित अमृता से भी उसके साथ चलने का आग्रह किया, लेकिन वे अंतिम क्षणों तक यह नहीं तय कर पाई कि उन्‍हें किसका साथ देना चाहिये। ऐसी हालत में बीमार सफिया ने अकेले ही इन्‍दौर जाने का फैसला किया और वहां पहुंचते पहुंचते उसकी सांसों ने उसका साथ छोड़ दिया। इन्‍दौर स्‍टेशन पर वहां के बुजुर्ग और नेक मुस्लिम स्‍टेशन मास्‍टर इम्तियाज ने अंतिम क्षणों में उसकी देखरेख की और जब उसने वहीं प्राण त्‍याग दिये तो उसका अंतिम संस्‍कार सम्‍पन्‍न करवाया। सफिया की बेटी सितारा और अमृता को उसके जाने के बाद जब अपनी गलती का अहसास हुआ तो वे उसकी खोज में इन्‍दौर पहुंची और उन्‍हें सफिया के ऐसे दुखद अंत की जानकारी मिली। स्‍टेशन मास्‍टर इम्तिायाज ने उन्‍हें सफिया का बचा-हुआ सामान और एक डायरी सुपुर्द कर दी, जिसमें उसने अपनी लड़ाई को जारी रखने की इच्‍छा व्‍यक्‍त की थी। सितारा और अमृता को सफिया की विरासत सुपुर्द करते हुए उस नेक मुसलमान की पीड़ा कुछ इस तरह व्‍यक्‍त हुई है – मैं कौन होता हूं तुमसे सवाल करने वाला? सवाल तो तुमसे तुम्‍हारा ज़मीर करेगा और तुम्‍हें उसका जवाब देना पडे़गा। --- तुम चाहती थोड़े ही थी कि वे मर जाएं, लेकिन तुमने उन्‍हें जीने का मौका भी तो नहीं दिया। वे ज़िन्‍दा रहतीं अगर उनके मकसद को सहारा मिलता। आप लोगों के स्‍टेटस की एक भी औरत अगर उनका साथ देतीं, तो वे जरूर ज़िन्‍दा रहतीं। शायद शारीरिक तौर पर नहीं, पर उस अकेली पढ़ी-लिखी, बाशऊर मुसलमान औरत की तरह, जिसमें हिम्‍मत थी कि ग़लत को ग़लत कह सके।" (पृष्‍ठ 276)   
     निश्‍चय ही नूर ज़हीर का यह उपन्‍यास औरत की आजादी और उसकी अपनी खुदाई के जरूरी मसले पर फिर से विचार करने की जरूरत का गहरा अहसास कराता है।
***
-         नन्‍द भारद्वाज
71/247, मध्‍यम मार्ग, मानसरोवर, जयपुर – 302020
nandbhardwaj@gmail.com , मोबा – 09829103455

अपना खुदा एक औरत (उपन्‍यास) – नूर ज़हीर, प्रकाशक – हार्परकालिन्‍स पब्लिशर्स इंडिया, नई दिल्‍ली।
                          संस्‍करण 2011, पृष्‍ठ 286, मूल्‍य - 199 /-


Friday, July 5, 2013

कथा-संकलन 'आपसदारी' की समीक्षा -



तेरी, मेरी, सब की – आपसदारी
·        डॉ लक्ष्‍मी शर्मा

   ‘आपसदारी’ संग्रह वरिष्‍ठ कथाकार नंद भारद्वाज का सद्य-प्रकाशित कथा- संग्रह है। ये संग्रह लेखक की कुछ मौलिक हिन्‍दी कहानियों और कुछ चुनिन्‍दा राजस्‍थानी कहानियों के हिन्‍दी अनुवाद का अनूठा संकलन है। इस अर्थ में ये कथाएं संगम हैं राजस्‍थानी और हिन्‍दी दो भाषाओं का, और धुर पश्चिमी मरु-प्रदेश के ग्राम्‍य-जीवन के स्‍पंदन और तेजी से परिवर्तित होते इक्‍कीसवीं सदी के चतुर नागरिक परिवेश का। यहां प्रत्‍येक संगम आवेश के नीचे दीपती झिलमिलाती है लेखक की संवेदनशील सरस्‍वती रूपी चेतना, जो कभी परिवेशगत-प्रतिबद्धता के रूप में झलकती है तो कभी अतिक्रमण करते नगरीय जीवन-मूल्‍यों के प्रति चिन्‍ता के रूप में थरथराती है।
     सहज मानवीय संवेदनशीलता की यह सरस्‍वती उस विलुप्‍त सरस्‍वती की तरह है, जो आज भी पश्चिमी राजस्‍थान के सीने तले दबी धारा-सी अजस्र उद्दाम बह रही है, लेकिन जिसकी त्रासदी यह है कि वह अब किसी को दीख नहीं पड़ती, जो इन धोरों के बीच अपने अस्तित्‍व के लिए जूझते पीलू, कैर, कीकर, खेजड़ियों को सींचती तो है, पर कभी भूलकर भी सतह पर नहीं दिखती। कथाकार नंद भारद्वाज का संवेदनशील चित्‍त और उनकी चेतना अपने इसी परिवेश को पूरे मनोयोग से रचती, उकेरती और चित्रित करती आई है – भरपूर रंग-रूप-बिम्‍ब–चित्र संवेदना के साथ।
     संग्रह की कहानियों में हम जीते हैं तपती रेत के धोरों की सघनता और गहराई, आंधियों के रूप में उमड़ता आवेग और वहां की अनुदार प्रकृति की मार से आहत होकर पलायन करते बसेरे, पशु-पक्षी और उनमें जूझता- छीजता अकेला-दुकेला-सा जीवन। इसी उलझन, असमंजस और अन्‍यमनस्‍क एकाकी जीवन तथा उजाड़ परिवेश के बीच फूटती शाश्‍वत मानव-जीवन की वह अखूट, अटूट धारा जो एक फांक, दो फांक में बांटते-बदलते परिवेश में भी अथक बनी रहती है। अपने बेलौस यथार्थ में खटते-जूझते जीवन-आदर्श को कसकर थामे कि आपदाओं में नि:शेष न हो जाए जीवन-प्रवाह।
     ‘आपसदारी’ संग्रह की लगभग सभी कहानियों के मूल स्‍वर में यही रेशम के तार-सा क्षीण किन्‍तु सुदृढ़ आदर्श भाव, जीवन के प्रति जिजीविषा, तेजी से बदलते जीवन को भोगते स्‍वीकारते हुए भी सनातन मानवीय मूल्‍यों को बचाए रखने की आकुलता और आस हमें भीतर से बचाए रखती है। विशेषकर दुनिया की आधी से भी कम बच रही आबादी ‘स्‍त्री’ के लिए गहरी चिन्‍ता के साथ आत्मिक विश्‍वास भी उपजाती है, जिसके लिए लेखक को अपने स्‍त्री चरित्रों के जीवन-अनुभव और चेतना पर कहीं अधिक भरोसा करते हैं। वे अपने संघर्षशील स्‍त्री-चरित्र के माध्‍यम से यह बात कहते भी हैं – एक बात आप निश्चित जान लीजिये कि मुझे एक सहज इन्‍सान के रूप में जो कुछ करना जरूरी लगता है, वह तो मैं करती आई हूं और आगे भी करती रहूंगी, बिना किसी से कोई उम्‍मीद रखे, लेकिन किसने मुझसे कब-क्‍या उम्‍मीद बांध ली और मैं उस पर खरी उतरी या नहीं, उस बात का प्रमाण आप मुझसे ही क्‍यों चाहते हैं? (बदलती सरगम, पृ 18)       
     वर्तमान का संक्रमणशील जीवन, जिस विकल्‍पहीनता और संकट के दौर से गुजर रहा है, उसके बीच तत: किम् की मन:स्थिति में छटपटाता जीवन और प्रश्‍नाकुल समस्‍याओं के सामने मुंह बाए खड़े जत्‍थे के बीच ऊहापोह में फंसे मनुष्‍य और कथा-पात्र अपनी इस निरुपाय अवस्‍था के कारण पाठक के साथ एक विश्‍वसनीय सहवेदना का संबंध अवश्‍य स्‍थापित कर लेते हैं – वह चाहे ‘उलझन में अकेले’ का नरपत हो या ‘तुम क्‍यों उदास होती हो मूरहेन’ की मनस्‍वी। जब ‘उलझन में अकेले’ का नरपत कहानी के अंत में इस नतीजे पर पहुंचता है कि जीसा, भाभू और भाभीसा की अपनी उलझनें थीं, खुद मुझे भी उन सारी बातों पर विचार करना था और वह भी किसी के मन को बिना ठेस पहुंचाए। घर-परिवार का अहित किये बिना एक ऐसा निराकरण खोजना था जो उस पुश्‍तैनी घर का और मेरी अपनी ज़िन्‍दगी दोनों का मान रख सके।" तो यही बात पाठक के मन में उसके प्रति गहरी सहानुभूति का संचार करती है।
     इन कहानियों से यह बात स्‍पष्‍ट होती है कि लेखक का प्रारंभिक जीवन मारवाड़ के मरु-अंचल में गुजरा है और अब भी उस जीवन से उसका गहरा आत्मिक जुड़ाव बना हुआ है। वहां के भौगोलिक परिवेश और सामाजिक-सांस्‍कृतिक जीवन से उनकी प्रतिबद्धता ‘आपसदारी’ की इन कहानियों में खुलकर व्‍यक्‍त हुई है। ‘बदलती सरगम’ कहानी की वाधू (फालतू) की दास्‍तान अपनी उस विकल्‍पहीन अवस्‍था से निकलकर वसुधा पंवार बनने की सामान्‍य कथा भर नहीं है, बल्कि ये कहानी है पिछड़ी और वंचित जाति की स्‍त्री होने और उस पारम्‍परिक विषम जीवन को जीती औरत के दुख-दर्द और यंत्रणा की, जिसे वह सदियों से बेबसी में सहन करती आई है। लेकिन यहां कथाकार का संवेदनशील, प्रगतिकामी मन इस ग्रामीण बालिका वाधू के सफल सम्‍मानित कलाकार वसुधा बनने के जुझारू संघर्ष को जिस मनोयोग से चित्रित करता है, तो यही कथा परिवर्तनशील युग में रूढ़ सामाजिक मानसिकता और सचेत रहकर उस रूढ़िगत हदबंदी को तोड़कर खड़ी होती स्‍त्री के चैतन्‍य की विश्‍वसनीय गाथा बन जाती है।
     स्‍त्री सरोकार इस संग्रह की अधिकांश कहानियों का मूल स्‍वर है। कहीं उसका संघर्ष उसे खास बना रहा है, तो कहीं उसकी विवशता का अनकहा आख्‍यान। इन कहानियों के चरित्रों में जहां एक ओर अपने हालात से खुद लड़ती वसुधा पंवार है (बदलती सरगम), तो कहीं ‘आसान नहीं है रास्‍ता’ की पार्वती, जो अन्‍याय के विरुद्ध खड़े होने की अपनी सहज प्रकृति और अटल हौसले के साथ समाज और परिवार के बीच अपने लक्ष्‍य चयन को लेकर उलझी दिखाई देती है, किन्‍तु इस विषम स्थितियों के बावजूद वह अपनी जिजीविषा और आशावादी दृष्टि से स्‍वयं अपनी राह बनाने-चुनने का हौसला भी रखती-जुटाती है। ‘आपसदारी’ की प्रिया और ‘तुम क्‍यों उदास होती हो मूरहेन’ की मनस्‍वी का संघर्ष भी यही कुछ कहता है। यद्यपि कहीं-कहीं वह उस भारतीय मध्‍यम वर्गीय समाज की पितृसत्‍तात्‍मक विवशताओं के समक्ष टूटती-बिखरती स्‍त्री के यथार्थ रूप में भी नजर आती है,  यथा ‘आत्‍मनिर्वासित’ की कुमुद और ‘वापसी’ की सुखदा, लेकिन इन कहानियों का मूल स्‍वर स्‍त्री-संघर्ष को ही वरीयता देता है।  
     ‘अपने-अपने अरण्‍य’ स्‍त्री-चैतन्‍य की दृष्टि से ही नहीं, कथ्‍य और शिल्‍प की दृष्टि से भी इस संग्रह की विशिष्‍ट और उल्‍लेखनीय कहानी है। कथा-नायक रोहित  एक शिक्षित उच्‍च अधिकारी है, जो विवाहित होते हुए भी प्रेम के मामले में असंयमित और दिशाहीन मानसिकता वाला व्‍यक्ति है, जबकि उसकी पत्‍नी मानसी और रोहित की महिला मित्र शालिनी दोनों सही अर्थों में शिक्षित, आधुनिक और सुदृढ़ स्त्रियां हैं, जो न केवल स्‍त्री-मुक्ति के सही मायने जानती हैं, अपितु परिवार, समाज और विवाह-संस्‍था के अंतर्संबंधों को प्राथमिकता देती हैं। यद्यपि इनके ही बीच ‘दूसरी औरत’ की गीता भी है, जो अपने बंधे-बंधाए, तयशुदा आदर्शवादी फ्रेम  में रची-बसी देवदासीय पारो जैसा चरित्र है। एक किशोरी, जो अधेड़ दुहाजू की विवाहिता बनते ही समवयस्‍क लड़की की मां बन जाने की उदार भूमिका में आ जाती है, किन्‍तु इस सामान्‍य चरित्र और संवेदना वाली कहानी को दुहाजू नायक का आत्‍म-द्वन्‍द्व और अपराधबोध सामान्‍य होने से बचा ले जाता है।
     यद्यपि इस संग्रह में भूमंडलीकरण, नगरीकरण, पितृसत्‍ता के विकेन्‍द्रीकरण, स्‍त्री सशक्तिकरण, आधुनिक मुक्‍त यौनिकता जैसे ट्रैंडी शब्‍द सीधे-सीधे कहीं नहीं आते, लेकिन इन कहानियों के परिवेश की व्‍याप्ति में सुधि पाठक इन सम-सामयिक परिस्थितियों, परिघटनाओं को बखूबी देख-समझ सकते हैं, जो लेखक की परिवेशगत संबद्धता और प्रतिबद्धता को तो दर्शाता ही है, उन बदलती वैश्विक स्थितियों, दृश्‍यों और संघर्षों पर उसकी गहरी दृष्टि और सोच-सरोकारों को भी उजागर करता है।
    स्‍त्री-पुरुष के आपसी संबंधों में अकृत्रिम और निर्मल सरल भाव हो, वे बौद्धिकता का साझा करते हुए बगैर किसी अहं, भय एवं झिझक के अपने संबंधों को अहं-रहित मुक्‍त-भाव से जिएं, लेखक की यह सदाशय कामना लगभग सभी कहानियों में दृष्टिगत होती है, जो कहीं-कहीं पर दोहराव से ग्रसित लगती है तो कहीं कथावस्तु के चयन में उनकी सीमा बनती नजर आती है। 
     कथा-भाषा लेखक की निजी भाषा समृद्धता का परिचायक होती है, इस दृष्टि से यह कहानी संग्रह श्‍लाघनीय है। नंद भारद्वाज की कथा-भाषा सरल और सहज संप्रेषणीय विश्‍वसनयता से अपनी बात कहती है। मारवाड़ अंचल की ठेट भाषा का ठाट और वर्तमान के शिक्षित आधुनिक वैश्‍वीकृत मानव की परिष्‍कृत भाषा का प्रयोग इन कहानियों को अपने परिवेश से गहरी संपृक्ति दर्शाते भाषा वैभव से सजाता है।
     ‘दूसरी औरत’ कहानी में बेटी की विदाई के समय गाये जाने वाले गीत का दृष्‍टान्‍त इस कथा-प्रसंग को सीधे पाठकों के हृदय से जोड़कर उस मार्मिक वेला में ला खड़ा करता है, जो राजस्‍थानी लोक-जीवन की अपनी अन्‍यतम विशेषता है –
आंबा पाका ए आंबली
ए, इतरो बाबल कैरो लाड, छोड़’र बाई सिध चाली।           
ए, आयो सगां रौ सूवटो, वौ तौ लेग्‍यौ टोळी मांय सूं टाळ,
कोयल बाई सिध चाली।"
       पूरे संग्रह में जहां-जहां भी यह आंचलिक परिवेश, जिस किसी भी कहानी में चित्रित हुआ है, वहीं यह भाषा अपने बिम्‍ब और मुहावरे के वैभव से अनायास ही पाठक का ध्‍यान आकर्षित करती है, बगैर किसी भारी भरकम सायास तामझाम के, जैसे मरुधरा के धोरों में बिखरा सुनहरा बालू-कोष। कह सकते हैं कि नंद भारद्वाज की यह ‘आपसदारी’ पाठकों के हाथों में पहुंचकर उन्‍हीं की नहीं, अपितु हम सब की आपस की बात बन जाती है। इस दृष्टि से यह एक पठनीय संग्रह है कि यहां मानवीय रिशतों की अंतरंग दुनिया सघन होकर गहरी आपसदारी में बंध जाती है।
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·         आपसदारी (कथा-संकलन) : लेखक – नंद भारद्वाज, प्रकाशक : यश पब्लिकेशन, नई दिल्‍ली। पृष्‍ठ : 132, मूल्‍य : 295 रुपये।                        


·         साहित्यिक पत्रिका ‘अक्‍सर-24’ (अप्रेल-जून 2013) से साभार।