Wednesday, August 14, 2013

औरत की आज़ादी के अलसुलझे सवाल




नूर ज़हीर के उपन्‍यास 'अपना खुदा एक औरत' की समीक्षा - 

औरत की आजादी के अलसुलझे सवाल 

* नन्‍द भारद्वाज

        औरत की आजादी और उसके साथ समानता का बरताव मानव सभ्‍यता के इतिहास और उसकी विकास-प्रक्रिया का एक अहम मसला रहा है। यूरोप और मध्‍य एशिया में औद्योगिक क्रान्ति के बाद बदलती आर्थिक प्रक्रियाओं के साथ जारी बहस का सार निकालते हुए मार्क्‍स के अनन्‍य सहयोगी फ्रेडरिक एंगेल्‍स ने बहुत साफ तौर पर लिखा था कि औरतों की आजादी और पुरुषों के साथ उसकी समानता उस वक्‍त तक नामुमकिन रहेगी, जब तक औरतों को सामाजिक उत्‍पादन प्रक्रिया से अलग रखकर उन्‍हें, घरेलू काम तक, जो निजी काम है, सीमित रखा जाएगा।" इसी समझ के साथ विकसित हुए मजदूर आन्‍दोलन ने बेशक औरत को अपने संघर्ष में बराबरी का हिस्‍सेदार बनाया हो, लेकिन सामाजिक संबंधों और धार्मिक प्रक्रियाओं पर इसका असर प्राय कम ही देखा गया। भारत की आजादी के संघर्ष में भी उसकी भूमिका सीमित ही बन पाई, लेकिन आजादी के बाद संविधान और लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था कायम हो जाने के बावजूद औरत की आजादी तब भी अपना सही स्‍वरूप ग्रहण नहीं कर पाई है। 
      यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि औरत की आजादी और स्‍त्री-प्रश्‍नों पर चल रही विश्‍व-व्‍यापी बहस तकरीबन इकतरफा-सी होती रही है। कुछ धार्मिक जमातें आज भी आश्‍वस्‍त हैं कि उनके मजहब में औरत सब से अधिक महफूज है, उसे वे सारे हक और सहूलियतें हासिल हैं, जो उनके मुल्‍क या मजहब के सभी लोग अपने जीवन-व्‍यवहार में बरत रहे हैं, पर उस पर बहस या ऐतराज उठाने की इजाजत किसी को नहीं है। कुछ धर्मावलंबियों ने महिमा-मंडन का ऐसा मिथ्‍या आडंबर गढ़ लिया कि उसमें सचाई पर बात करना और मुश्किल हो गया। ऐसे दौर में औरत की आजादी की एक मुखर पैरोकार और हिन्‍दी-उर्दू की जानी-मानी लेखिका नूर ज़हीर का नया उपन्‍यास ‘अपना खुदा एक औरत’ इस ज्‍वलंत मसले पर नये सिरे से हमारा ध्‍यान आकर्षित करता है। अपनी इस बेबाक दास्‍तान में वे बेलिहाज कहती हैं – औरत की आजादी की गुत्‍थी इतनी उलझी हुई इसीलिए है कि मर्दो ने इसको देने या न देने की जिम्‍मेदारी अपने ऊपर ले ली है और औरतों ने मर्दों को, सबसे बुनियादी चीज अगवा करने दिया है – आजादी की परिभाषा और कैसे उसे हासिल किया जाये, क्‍यों कर उसे जिया जाये।" (पृष्‍ठ 279) स्‍त्री–प्रश्‍नों पर ऐसी बेबाक राय रखने वाली कथाकार नूर ज़हीर के इस उपन्‍यास को पढ़ना निश्‍चय ही ज़िन्‍दगी के एक रोमांचकारी अनुभव के बीच से गुजरना है। यह उपन्‍यास मूल रूप से ‘माई गॉड इज ए वूमन’ शीर्षक से अंग्रेजी में लिखा था, जिसे स्‍वयं लेखिका ने हिन्‍दी में अनुदित किया है।
       कथा का आरंभ ही इतना दिलचस्‍प और दो-टूक है कि एक बार पढ़ना शुरू करने के बाद उससे अलग हटना आसान तो कतई नहीं – वह लोकेल, समय और किरदार सब एक साथ सजीव हो उठते हैं और कथा के प्रवाह में पाठक को बहा ले जाते हैं। मसलन, यह शुरुआत कुछ इस तरह सामने आती है - वह लंबी और दुष्कर यात्रा थी। झुलसते थार रेगिस्‍तान से गंगा के मैदानों की सघन सरस घनी हरियाली तक। सफिया पूरी रात सो नहीं पाई थी। --- उसकी शादी ऐसे खानदान में तय हुई, जिसमें दो अदद ‘सर’ की उपाधियां, पांच खानबहादुर और नौ बैरिस्‍टर मौजूद थे। उसका शौहर (अब्‍बास जाफरी) भी बैरिस्‍टर था और उसके ससुर अवध हाई कोर्ट के जज। --- इस रिश्‍ते पर बहुतों को हैरानी हुई थी, क्‍योंकि उसके पिता (सैयद मुर्तजा मेंहदी) तो एक मामूली-से स्‍कूल इंस्‍पैक्‍टर थे। अमीरों की दुनिया। उसने नजर चुराकर अपने शौहर को देखा। उसकी एक किताब छप चुकी थी, जो काफी विवादास्‍पद हुई थी। शरीफ़ मुसलमान घरानों में उसका जिक्र तक मना था।" (पृष्‍ठ 7) और इस तरह अपने आप में मुकम्‍मल इस सार-संक्षिप्‍त जानकारी के साथ सफिया के संघर्षपूर्ण जीवन जो कथा आरंभ होती है, वह आगे के सफों में पर्त-दर-पर्त और गहरी, गुरूतर और व्‍यापक होती जाती है। 
    एक मध्‍यवर्गीय शिक्षक परिवार में जन्‍मी और इंटरमीडिएट तक शिक्षित सत्रह वर्षीय सफिया जब बैरिस्‍टर अब्‍बास जाफरी से शादी कर ज़िन्‍दगी के नये सफ़र पर निकली, तो वह कई तरह की आशंकाओं से घिरी थी। ग्‍यारह सेर जेवर और जरी की भारी-भरकम पोशाक में दुबकी उस नयी-नवेली दुल्‍हन के सामने ज़िन्‍दगी जिस तरह के सवाल और शंकाएं लिये खड़ी थी, वह नहीं जानती थी कि आने वाला कठिन समय उसे किस मुकाम पर ले-जाकर छोड़ेगा। तसल्‍ली थी तो बस इतनी कि उसका शौहर एक पढ़ा-लिखा ज़हीन इन्‍सान है, जो अपनी शरीके़-हयात को ज़िन्‍दगी में बराबरी का हिस्‍सेदार मानता है – वह न केवल उसे घर-परिवार की चहारदीवारी तक सीमित नहीं रखता, बल्कि उसे तर्क की बिनह पर अपने से असहमत होने की पूरी आज़ादी देता है। इस अर्थ में अब्‍बास वाकई अपवाद रहे कि वे न केवल उस ज़माने की मजहबी पाबंदियों के खिलाफ चुनौती बन गये थे, बल्कि सामाजिक बदलाव की हिमायत करने वाली क्रान्तिकारी पार्टी के लिए भी उसका समर्थन करना आसान नहीं रह गया था। वह पार्टी जिसके लिए उन्‍होंने ज़िन्‍दगी की सारी सुख-सुविधाएं ठुकरा दीं। अपने क्रान्तिकारी विचारों और उन पर लगे मजहबी फतवों की वजह से न केवल उन्‍हें अंग्रेजी हुकूमत के दौर में जेल जाना पड़ा, आज़ाद मुल्‍क  की धर्मनिरपेक्ष सत्‍ता के लिए भी वे उलझन का कारण ही बने रहे। बेशक प्रदेश और देश के सिरमौर सियासतदां निजी तौर पर उनके विचारों की कद्र करते रहे हों, लेकिन जहां भी मजहबी दबाव आया, उन्‍होंने सचाई और न्‍याय का पक्ष लेने की बजाय अपने सियासी हितों को ही अहमियत दी। अब्‍बास के चरित्र की सबसे बड़ी खूबी यही थी कि वे न केवल सार्वजनिक जीवन में सचाई और न्‍याय के पक्ष में लड़ते रहे, बल्कि अपने घर में, वाल्‍दा जीनत बेगम की उन बातों के भी सख्‍त खिलाफ रहे, जो गरीब लड़कियों को गुलाम बनाकर रखने या मजहबी पाबंदियों को अपनी बहू और परिवार के लोगों पर लागू करने की आकांक्षा रखती थी। जब उन्‍हें यह जानकारी मिली कि उनकी अम्‍मी किसी मजहबी दलाल के जरिये सस्‍ते दामों पर नयी गरीब लड़कियां बतौर गुलाम खरीदना चाहती हैं, तो वे उनके सख्‍त खिलाफ हो गये और जब मां अपनी ज़िद पर अड़ी रहीं तो वे और सफिया अपने घर सफ़दर मंज़िल से अलग हो गये और उसी हवेली के अहाते में नौकरों के लिए बने रिहायशी हिस्‍से सागर पेशे की कोठरियों में रहने को चले गये।  
     सफ़दर मंज़िल से अलग होते ही अंग्रेज हुकूमत के लिए अब्‍बास को गिरफ्‍तार करना आसान हो गया और उन्‍हें जेल भेज दिया गया। ऐसे में अब्‍बास को यह जरूरी लगा कि इस दौरान सफिया अपनी ग्रेजुएशन की तालीम पूरी कर जल्‍द-से-जल्‍द अपने पांवों पर खड़ी हो जाए। उन दिनों अब्‍बास के वालिद जज सफ़दर अली जाफरी हाई कोर्ट से अपने रिटायरमेंट के बाद वकालत करने इलाहाबाद चले गये थे, इसलिए सफिया भी अपने हमदर्द ससुर की सेवा के बहाने इलाहाबाद पहुंच गई और दो साल में अपनी ग्रेजुएशन की तालीम पूरी कर ली। इन्‍हीं दो सालों में मुल्‍क भी आज़ाद हो गया, अब्‍बास जेल से छूटकर सफिया के पास आ गया और वे वापस लखन लौट आये। आज़ाद हिन्‍दुस्तान मे देश की नयी पौध को ज़रूरी तालीम मुहैया करवाने के लिए हर शहर-कस्‍बे और समुदाय मे लड़के-लड़कियों के लिए नये नये स्‍कूल खुल रहे थे, इसी प्रक्रिया में लखनमें भी मुस्लिम लड़किेयों के लिए बेहतर तालीम के इरादे से एक नेक मुसलमान बुजुर्ग मुज्‍तबा हुसैन ने अपनी बड़ी-सी कोठी को ‘साजिदा हुसैन मुस्लिम गर्ल्‍स  स्‍कूल’ में तब्‍दील कर दिया और उन्‍होंने सफिया के सामने यह प्रस्‍ताव रखा कि वे एक बतौर शिक्षिका के उनकी स्‍कूल से जुड़ जाएं। सफिया को काम की जरूरत भी थी और वह इस स्‍कूल से जुड़ गई। इन लड़कियों को पढ़ाने के दौरान ही उसने यह जाना कि मुसलमान घरों में आमतौर पर लड़कियां कमजोर रह जाती हैं, इसलिए इनके शारीरिक विकास के लिए उन्‍हें व्‍यायाम की शिक्षा देना उसे जरूरी लगा। जब मजहबी लोगों तक यह बात पहुंची तो उन्‍हें यह बहुत नागवार लगी। इसी बात को लेकर एक मौलवी और सफिया में तीखी तककरार भी हो गई और इस मामले ने इतना तूल पकड़ लिया कि शहर के पेशे-इमाम और मौलवी सफिया-अब्‍बास से जवाब-तलबी करने सफ़दर-मंजिल तक आ पहुंचे। इधर स्‍कूल संचालक मुज्‍तबा हुसैन पर भी कई तरह के दबाव आने लगे और इस तरह सफिया-अब्‍बास और मजहबी लोगों के बीच एक खुली जंग-सी शुरू हो गई।
      उनके बीच बढ़ते विवाद का एक कारण यह भी रहा कि सफिया उन स्‍कूली लड़कियों में आत्‍म-सजग बनने का नया हौसला पैदा कर रही थी, ताकि वे अपने साथ होने वाले अन्‍याय को चुपचाप बर्दाश्‍त न करें। ऐसी ही एक लड़की निगार एक दिन सफिया के पास अपनी तकलीफ लेकर आई कि उसके वालिद उसकी शादी एक ऐसे उम्रदराज अमीर से करने पर तुले हैं जो उसके अपने ही आशिक का बाप है। सफिया और अब्‍बास ने मामले की नजाकत को समझकर उसे यह सलाह दी कि वह अभी उसका सीधे विरोध न करे, बल्कि ऐन  निकाह के मौके पर जब उसकी रजामंदी पूछी जाए तो वह कबूल करने से इन्‍कार कर दे, क्‍योंकि शरीअत औरत को यह हक़ देता है कि अगर उसे कोई इन्‍सान कबूल न हो तो वह निकाह के वक्‍त इन्‍कार कर सकती है। सफिया और अब्‍बास उस वक्‍त बतौर गवाह मौके पर मौजूद रहे, ताकि बेवजह उसे दबाया न जा सके। और इस तरह उन्‍होंने एक मासूम के साथ हो रही नाइन्‍साफी से उसे बचा लिया। इसी प्रसंग ने पहली बार सफिया को यह सोचने पर विवश कर दिया कि कुछ अलग क्‍यों नहीं सोचती औरतें? सारे पैगंबर पुरुष हुए हैं, क्‍यों हमेशा खुदा मर्द माना जाता है? दूर, अछूता, अदृश्‍य बने रहने के‍ लिए? क्‍यों ज्ञान की खोज में मैत्रेयी और गार्गी तक को भी अपने पतियों के पीछे चलना पड़ा, क्‍योंकि वे दूसरी दिशा में नहीं गर्इं? (पृ 66)  
     सफिया का संघर्ष उसके लिए इस अर्थ में और कठिन हो गया कि उसे समाज या मजहबी लोगों से ही नहीं, अपनी सास ज़ीनत बेगम से लड़ना पड़ा और यह परिस्थिति तब और विकट हो गई जब अब्‍बास मजहबी फतवे के कारण पहले तो गिरफ्‍तार कर लिये गये और बाद को कट्टरपंथी हमले में अपनी जान गंवा बैठे, ऐसे कठिन समय में घर के लोगों से हमदर्दी पाने की बजाय सफिया और उसकी नवजात बच्‍ची को जीनत बेगम ने यह कहकर बेघर कर दिया कि जब उसका बेटा ही नहीं रहा तो इस औरत से उनका कोई रिश्‍ता नहीं बचा और उससे वह रिहाइश भी छीन ली, जिसमें वह किसी तरह अपना गुजारा कर रही थी। सफिया ने इस अन्‍याय के‍ खिलाफ कानूनी लड़ाई भी लड़ी, लेकिन शरीअत के कमजोर कायदों की वजह से उसे न्‍याय नहीं मिल पाया। आखिरकार उसे अपना ठिकाना बदलकर दिल्‍ली आना पड़ा, जहां उसे अपने हमदर्द साथी की मदद से एक संगीत संस्‍थान गंधर्व कला केन्‍द्र में नौकरी और सर छुपाने को जगह मिली। राजनैतिक हलकों में अब्‍बास की बेहतर साख और एक पढ़ी-लिखी सजग स्‍त्री के रूप में सफिया को दिल्‍ली में अपनी जगह बनाने में विशेष कठिनाई नहीं हुई। उसे संगीत नाटक अकादमी में उसकी योग्‍यता के अनुरूप अच्‍छा काम और रहने का ठिकाना भी मिल गया, लेकिन गंधर्व केन्‍द्र की मालकिन अमृता की त्रासद जिन्‍दगी के प्रति भी उसके मन में गहरी हमदर्दी बनी रही। सफिया जानती थी कि अमृता का पति गोविन्‍दराम एक ऐय्‍याश किस्‍म का व्‍यक्ति है और वह अपनी बीबी और अपाहिज बच्‍ची के साथ अच्‍छा सुलूक नहीं करता, उन्‍हें शारीरिक प्रताड़नाएं देता है, तो उसके संघर्ष का दायरा और बड़ा हो गया। उसे लगा कि स्‍त्री किसी भी धर्म या मजहब के दायरे में बेहतर हालत में नहीं है, वह हर जगह दोयम दर्जे की ज़िन्‍दगी जीती है। सफिया इससे पहले अपने ससुराल में सिल्विया जैसी ईसाई स्‍त्री को उसके ससुर सफ़दर अली द्वारा रखैल बनाकर रखने और बंगाल से लाई उन लड़कियों की गुलामी भी देख चुकी थी। यही नहीं, उसकी पीड़ा तब और बढ़ गई जब उसकी अपनी ही जवान बेटी सितारा ने उसके उसूलों के खिलाफ एक ऐसे मुस्लिम नौजवान को पसंद किया जो बुनियादी रूप से न केवल एक कट्टर मजहबी सोच वाला व्‍यक्ति था, बल्कि विदेश में गरीब बच्‍चों को बेचने का गैर-कानूनी कारोबार भी करता था और जब वहां उसके गिरफ्‍तार होने की आशंका बनी तो वह भागकर हिन्‍दुस्‍तान आ गया। संयोग से उन्‍हीं दिनों सफिया दिल की मरीज के रूप में अस्‍पताल में भर्ती थी, सितारा के पति वसीम ने सफिया के इस तरह बीमार होने को भी अपने बचाव में इस्‍तेमाल किया और धोखे से अपनी बीबी की आड़ में सफिया के घर और उसकी संपत्ति पर कब्‍जा करके बैठ गया।
      सफिया की इस संघर्षगाथा को एक नाटकीय मोड़ देते हुए नूर ज़हीर ने इसे उस दौर के चर्चित प्रसंग शाहबानो केस से जोड़ दिया। यानी बरसों पहले सफिया ने अपने हक की जिस लड़ार्इ को लखनहाई कोर्ट में अधूरा  छोड़ दिया था, उसे अंतिम परिणति मिली, शाहबानो केस में, जहां देश की सबसे बड़ी अदालत ने प्राकृतिक न्‍याय से वंचित मुस्लिम महिलाओं को उनका जायज हक़ देने के पक्ष में फैसला दिया था। न्‍यायालय के इस फैसले के खिलाफ यही कट्टरपंथी समुदाय सड़कों पर उतर आया और उस न्‍याय से वंचित औरत के मसले को ‘मुसलमान बनाम अन्‍य’ के विवाद मे तब्‍दील कर संसद में सरकार को विशेष विधेयक पास करने पर मजबूर कर दिया। और इस तरह बरसों बाद मिले उस सही फैसले का अमल रुकवा दिया। अपनी जिन्‍दगी की लड़ाई हार चुकी सफिया के सामने बस यही एक सार्थक विकल्‍प बच गया था कि वह इन्‍दौर पहुंचकर शाहबानो के साथ खड़ी हो और इस न्‍यायिक संघर्ष को अन्तिम परिणति तक पहुंचाने में भागीदार बने। सफिया ने अपने शौहर से धोखा खा चुकी बेटी सितारा और पति गोविन्‍दराम से प्रताड़ित अमृता से भी उसके साथ चलने का आग्रह किया, लेकिन वे अंतिम क्षणों तक यह नहीं तय कर पाई कि उन्‍हें किसका साथ देना चाहिये। ऐसी हालत में बीमार सफिया ने अकेले ही इन्‍दौर जाने का फैसला किया और वहां पहुंचते पहुंचते उसकी सांसों ने उसका साथ छोड़ दिया। इन्‍दौर स्‍टेशन पर वहां के बुजुर्ग और नेक मुस्लिम स्‍टेशन मास्‍टर इम्तियाज ने अंतिम क्षणों में उसकी देखरेख की और जब उसने वहीं प्राण त्‍याग दिये तो उसका अंतिम संस्‍कार सम्‍पन्‍न करवाया। सफिया की बेटी सितारा और अमृता को उसके जाने के बाद जब अपनी गलती का अहसास हुआ तो वे उसकी खोज में इन्‍दौर पहुंची और उन्‍हें सफिया के ऐसे दुखद अंत की जानकारी मिली। स्‍टेशन मास्‍टर इम्तिायाज ने उन्‍हें सफिया का बचा-हुआ सामान और एक डायरी सुपुर्द कर दी, जिसमें उसने अपनी लड़ाई को जारी रखने की इच्‍छा व्‍यक्‍त की थी। सितारा और अमृता को सफिया की विरासत सुपुर्द करते हुए उस नेक मुसलमान की पीड़ा कुछ इस तरह व्‍यक्‍त हुई है – मैं कौन होता हूं तुमसे सवाल करने वाला? सवाल तो तुमसे तुम्‍हारा ज़मीर करेगा और तुम्‍हें उसका जवाब देना पडे़गा। --- तुम चाहती थोड़े ही थी कि वे मर जाएं, लेकिन तुमने उन्‍हें जीने का मौका भी तो नहीं दिया। वे ज़िन्‍दा रहतीं अगर उनके मकसद को सहारा मिलता। आप लोगों के स्‍टेटस की एक भी औरत अगर उनका साथ देतीं, तो वे जरूर ज़िन्‍दा रहतीं। शायद शारीरिक तौर पर नहीं, पर उस अकेली पढ़ी-लिखी, बाशऊर मुसलमान औरत की तरह, जिसमें हिम्‍मत थी कि ग़लत को ग़लत कह सके।" (पृष्‍ठ 276)   
     निश्‍चय ही नूर ज़हीर का यह उपन्‍यास औरत की आजादी और उसकी अपनी खुदाई के जरूरी मसले पर फिर से विचार करने की जरूरत का गहरा अहसास कराता है।
***
-         नन्‍द भारद्वाज
71/247, मध्‍यम मार्ग, मानसरोवर, जयपुर – 302020
nandbhardwaj@gmail.com , मोबा – 09829103455

अपना खुदा एक औरत (उपन्‍यास) – नूर ज़हीर, प्रकाशक – हार्परकालिन्‍स पब्लिशर्स इंडिया, नई दिल्‍ली।
                          संस्‍करण 2011, पृष्‍ठ 286, मूल्‍य - 199 /-


4 comments:

  1. कल स्वतंत्रता दिवस है और ऐसे समय में नन्द भारद्वाज द्वारा नूर जहीर के उपन्यास "अपना खुदा एक औरत" की समीक्षा पढना अच्छा लगा ... देश की आजादी से पहले से चली यह कहानी आज भी स्त्री की परतंत्रता की गाथा है जो बताती है की सामाजिक धार्मिक सोच कुछ इस तरह का मिथ्या महिमा मंडन और स्त्री की परिवार और समाज में भूमिका बांधती है कि स्त्री को आजाद नहीं होने देती.. खुद इस पुस्तक में नूर जहिर का कथन कि “औरत की आजादी की गुत्‍थी इतनी उलझी हुई इसीलिए है कि मर्दो ने इसको देने या न देने की जिम्‍मेदारी अपने ऊपर ले ली है और औरतों ने मर्दों को, सबसे बुनियादी चीज अगवा करने दिया है – आजादी की परिभाषा और कैसे उसे हासिल किया जाये, क्‍यों कर उसे जिया जाये।" बहुत कुछ कह जाता है .. इस उपन्यास में साफिया जैसी महिला ने तमाम विरोधों को झेलते हुए समाज का सामना किया .. यही नहीं उसका जहीन पति जो क्रांतिकारी विचारों का पुरुष होता है और अपनी पत्नी की पढाई और अधिकारों को सामान नजरों से देखता है... उसके खिलाफ फतवा जारी होता है ...बाद में वह मारा जाता है.. और खुद उसकी बेटी सितारा जिसको कट्टरपंथी पति द्वारा धोखा दिया जाता है, वह और अमृता जैसा किरदार भी साफिया का साथ नहीं देता ... यह समाज की स्तिथि को दर्शाता है की महिलायें कितनी भी पीड़ित हो वह अपनी आजादी के लिए अभी भी कदम उठाने से कतराती है ... नन्द जी के द्वारा की गयी इस उपन्यास की समीक्षा से जान पड़ता है की निश्चय ही यह उपन्यास स्त्री विमर्श के प्रश्नों को उठाती है और समाज का दर्पण है ... सादर

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  2. एकदम मुकम्मल समीक्षा. न सिर्फ किताब का पूरा स्वाद पाठक तक पहुंचता है, उसकी अहमियत भी बखूबी उजागर होती है.ऐसी ही होनी चाहिए समीक्षा! हार्दिक बधाई!

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  3. इस पोस्ट की चर्चा, शुक्रवार, दिनांक :-18/10/2013 को "हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच}" चर्चा अंक -27 पर.
    आप भी पधारें, सादर ....नीरज पाल।

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