Saturday, March 7, 2015



(महिला दिवस पर अपनी एक कविता) 

कामिनी

तू मेरे होने का आधार
आधी सामर्थ्य
आधी निबलाई   
जीवन का आधा सार -
                          
तुम पसरी सुकोमल माटी
भीगे ताल में उमगती कच्ची दूब
पेड़ों पर खिलती हरियाली की आब
आसमान की परतों में
           तिरती कजरारी बादली,
घिरती घटाओं के में 
दमकती दामिनी साकार -
धोरों और चारागाहों पर
धारो-धार बरसती ठंडी  फुहार 
तुम नेह में  छलकती तलैया  बावड़ी


तुम विगतों और गीतों की आधी बात
वह आधे बुलावे से पहले
आ खड़े होने का अचूक अभ्यास
वह ममता की गहरी सलोनी सीख
अग्नि की ज्‍वाला में तपी नव कंचन-कामिनी  
उछाव में सहेजती अजानी जि़न्दगी का बोझ
रेतीले टीलों को उलांघती 
आई साजन के  चौबार
थामी जीवन की ढीली डोर
हिम्मत बंधाई अजानी राहों पर -
अंधेरे में जगाए रखी आस
पोखती रही बिखरते कुटुम्‍ब के कायदे

गुजरे बरसों की उलझी पहेली की आड़ 
तू कहां को सिधाई सोरठ-सोहनी
कहां अदीठ हो गया तुम्हारा
               वह आधा सहकार

क्यों लगती  इतनी अनमनी  उदास
            इस तरुणाई में तीजनी !

क्यों बढ़ता हुआ-सा लग रहा है
पांव तले की धरती पर अधिभार
यह भीतर उतरती धीमी अनसहनी-सी  मार -
             तुम क्‍यों कर ऐसी बन गई हो कामिनी !


धर्म की पोथियां कहतीं
तुम हो मन्दिर में मूरत-सी   
श्रद्धा और भक्ति में
अजाने बुझ गई वह अन्‍तर्मन की  ज्‍योति 
माली-पन्नों में छुप गई
तुम्हारे चेहरे की पहचान
ख्यातों में खोजा तो
     मिली अलग ही साख
रीत के गीतों में चर्चित रूठना !


किस दावे पर सहेजूं तुम्हारी आन
किस तरह बचा लूं उघड़ती आबरू -
मेरी बाहों तक आ पहुंच
तुम कहां अदृश्‍य हो गई,
                  ओ मानिनी !

कहां अदृश्‍य हो गया तुम्हारा
वह आधा सहकार,
तुम्हें खोजता फिरता हूं
उजाड़ में दिशाहीन  उदभ्रान्‍त !


यह चारों दिशा में
हलचलों से भरा-पूरा संसार
यह समन्दर में हिलोरें खाती
             बे-पतवारी नाव,
ये बालू रेत की थाह में
उतरता दुर्गम पंथ -
यह अकाल और आंधियों से
लुटी-पिटी धरती
ये बूंद बूंद गहराता जुल्मी अंधेरा
ये सांय-सांय करती-सी काली रात
ये आंधी और बग्गूलों से
हथ-भेड़ी करता मैं !


कदम-दर-कदम पहुंचती आओ 
                    जीवन-संगिनी !
अंतस में सहेज  गहरी दाझ -
                        और दहाड़ 
कि बदल जाय
इस उजाड़ का आगोतर
जीवन का सुरीला बजे साज
सिरजें सांसों में नई जीवारी !


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