Sunday, June 26, 2016








आग की ग़रज़
  * नन्‍द भारद्वाज 

नहीं नहीं
आग बुझ नहीं सकती
यों ओटी हुई आग भी अगर
बुझने लगी तो क्या होगा ?!

फूंक मारो -
चूल्हे को और उकेरो,
बहुत बार ऐसा भी हुआ है कि
चिनगियां राख की सलवटों में
अदेखी छूट जाती हैं
और फिर तुम
गांव भर में आग मांगती 
              फिरती हो -
कई बार
मांगी हुई आग
चूल्हे तक पहुचने से पहले ही
                 बुझ जाती है !

अभी कुछ पल पहले
तुम्हें जो दो-एक चिनगियां दिखीं थीं -
               छोड़ क्यों दिया उन्हें ?
उन्हीं को फूस के बीच
जरा ठीक से रखतीं
और फूंक दी होती .......

अक्सर
चूल्हा ओटते
और उकेरते वक्त
तुम कहीं खो जाती हो,
आग जलने से पहले
उसके उपयोग को लेकर
      उदासीन हो जाती हो,
और तुम्हारी उस मारक उदासी का
मेरे पास कोई जवाब नहीं होता !

पारसाल
हमने जाड़े की वो सनसनाती रातें -
जिनमें उल्लुओं तक ने
      खामोशी अख्तियार ली थी -
उसी खलिहान पर
फटी गुदड़ी में लिपटे
आगामी अच्छे दिनों की आस में
बातें करते
    हंसते
    खिलकते गुजार दी थीं !

न दें दोष
हम किसी कुदरत को
लेकिन उससे क्या ?
कोई तो होगा आखिर
हमारी इस बदहाली के गर्भ में !

पड़ौसी रग्घा के सुभाव को
              सभी जानते हैं,
उसके भेजे में अगर जंच जाय
कि हमारी इस हालत के जिम्मेदार
किसी दिल्ली-आगरे-कलकत्ते या
            बंबई में छुपे बैठे हैं -
स्साला गंडासा लेकर
दूरियां पैदल नापने का
           हौसला रखता है !



मैं दिन को दिन
और रात को रात ही कहूंगा
अलबत्ता ये सुबह का वक्त है
और चूल्हा ठण्डा,
कुछ भी पकाने की सोच से पहले
जरूरी है कि चिनगियां बटोरी जायं -
उन्हें फूस-कचरे के बीच रख
               फूंक मारी जाय
आग को जगाया जाय -

यों हाथ झटक देने से
कुछ भी हाथ नहीं लगता,
आग की ग़रज़ तो
            आग ही साजती है !
***