Monday, October 31, 2011

एक कविता - बरसों बाद

बरसों बाद
                 

बरसों बाद
किसी बदले हुए मौसम की
कोख से आती गंध
और अंतस की गहराई में
बजती     धीमी दस्तक के बुलावों पर
जब भी खोलता हूं
अपने भीतर के दरवाजे
खिड़कियां    रौशनदान -
कोई नहीं होता वहां
             उत्सुक
   अपने ही पीड़ित सन्नाटों के सिवाय,

जाने कब से खड़ा हूं
एक गुजरती हुई उम्र के किनारे
उस अन्तहीन अंधेरे की
            गिरफ्त में गुमसुम !

बरसों बाद
किन्हीं अधूरे पड़े सपनों की
बिखरी चिन्दियों के बीच
इस बेचैन सितारों से भरी रात के
गूंगे आसमान से उतर कर
कभी तो आओगे मेरी मुक्ति के उल्लास -
सहेज लूंगा मैं
तुम्हें अपने बिखरे हुए संसार में !


** 

Monday, August 22, 2011

कुछ और नयी कविताएं

पीढ़ियों का पानी

इस सनातन सृष्टि की
उत्पत्ति से ही जुड़ा है मेरा रक्त-संबंध
अपने आदिम रूप से मुझ तक आती
असंख्य पीढ़ियों का पानी
दौड़ रहा है मेरे ही आकार में

पृथ्वी की अतल गहराइयों में
संचित लावे की तरह
मुझमें सुरक्षित है पुरखों की आदिम ऊर्जा
उसी में साधना है मुझे अपना राग

मेरे ही तो सहोदर हैं
ये दरख्त  ये वनस्पतियाँ
मेरी आँखों में तैरते हरियाली के बिम्‍ब
अनगिनत रंगों में खिलते फूलों के मौसम
अरबों प्रजातियां जीवधारियों की
खोजती हैं मुझमें  अपने होने की पहचान.

आदिम बस्तियों के बीच

एक बरती हुई दिनचर्या
अब धीरे धीरे
छूट रही है आंख से बाहर
उतर रही है आसमान से गर्द
                 बेआवाज,
दूर तक दिखने लगा है
रेत का विस्तार
उड़ान की तैयारी से पहले
जैसे पंछी फिर से दरख्तों की डाल पर!

जानता हूं,
ज्वार उतरने के साथ
यहीं किनारे पर ही
छूट जाएंगी किश्तियां
      शंख-घोंघे-सीपियों के खोल
अवशेषों में अब कहां जीवन ?

जीवनदायी हवाएं
बहती हैं आदिम बस्तियों के बीच
उन्हीं के आगोश में रचने का
               अपना सुख
अपनी रागिनी,
कोसों पसरे थार के आकाश में
रंग-बिरंगे पंछियों का गूंजता कलरव
ये दरख्‍तों की हरियाली में
विकसता जीवन।

इससे पहले कि अंधेरा आकर
ढाँप ले फलक तक फैले
दीठ का विस्तार,
मुझे पानी और मिट्टी के बीच
बीज की तरह
बने रहना है इसी जीवन की कोख में!

होगी कोई और भी सूरत

अभी अभी उठा है जो अलसवेरे
रात भर की नींद से सलामत 
देख कर तसल्ली होती है उसे
कि दुनिया वैसी ही रखी है
उसकी आँख में साबुत
जहाँ छूट गई थी बाहर
पिछले मोड़ पर अखबार में !

किन्हीं बची हुई दिलचस्पियों
और ताजा खबरों की उम्मीद में
पलटते हुए सुबह का अखबार -
          या टी.वी. ऑन करते
कोई यह तो नहीं अनुमानता होगा
कि पर्दे पर उभरेगी जो सूरत
                 पहली सुर्खी
वही बांध कर रख देगी साँसों की संगति

फिर वही औचक,
अयाचित होनियों का सिलसिला:
सड़क के ऐन् बीचो-बीच बिखरी
अनगिनत साँसें  बिलखता आसमान
हवा में बेरोक बरसता बारूदी सैलाब
सहमी बस्तियों में दूर तक दहशत

दमकलों की घंटियों में
डूब गई चिड़ियों की चीख-पुकार
सनसनीखेज खबरों की खोज में
भटक रहे हैं खोजी-छायाकार
दृश्‍य को और भी विद्रूप बनाती
            सुरक्षा सरगर्मियां -
औपचारिक संवेदनाओं की दुधारी मार !

हर हादसे के बाद
अरसे तक डूबा रहता हूं
इसी एक संताप में –
होगी कोई और भी सूरत
इस दी हुई दुनिया में
        दरकती दीठ से बाहर ?
           
बाकी बची जो मैं                     

जब से होने का होश संभाला है,
अपने को इसी धूसर बियाबान में
जीने की जिद में ढाला है! 

बरसों पहले
जिस थकी हुई कोख में
आकार लिया था मैंने
नाभि-नाल से निर्बंध हुई थी देह,    
कहते हैं, मां की डूबती आंखों में
फकत् कुछ आंसू थे
और पिता की अधबुझी दीठ में
                गहराता सूनापन,
सिर्फ दाई के अभ्यास में बची थी
एक हल्की-सी हुलसती उम्मीद
कि जी लेगी अपना जोखिम
और बदहवासी में बजते बासन
जचगी की घुटती रुलाई पर
देर तक बजते रहे थे
गांव के गुमसुम आकाश में!

दिनों जैसे दिन थे
और रातों जैसी रात
जीवन का क्या है
वह तो गुजार ही लेता है
अपनी राह -
जो मिला सो गह लिया
कौन जाने कहां हो गई चूक
उल्टा-सीधा जो हुआ बरताव
             बेमन सह लिया,

जैसा भी बना-बिखरा-सा घर था अपना
उसी को साधा     सहेजा
गांव-गली की चर्चाओं से रही सदा बेसूद
अपने होने के कोसनों को नहीं लिया मन पर
गिरते-सम्हलते हर सूरत में
अपना आपा साध लिया!

गांव-डगर में
कहीं नहीं थी मोल-मजूरी 
कहीं नहीं था कोई अपना बल

मंझला भाई बरसों पहले
निकल गया परदेस
और नहीं लौट पाया
सलामत देस में।
बाकी बची जो मैं
इसी दशा के द्वार
मात-पिता पर जाने कब तक
रखती अपना बोझ

बस उलट-पलट कर देखसमझ ली दुनिया
उनकी टूटन, उनके सपने - उनका बिखरापन
और जान लिया है
ताप बदलता अपना अंतर्मन.

अपने आंसुओं को सहेजकर रखो माई!
(पाकिस्तान में सरेआम बदसलूकी और जुल्‍म की शिकार उस मजलूम स्त्री मुख्‍तार माई
  के लिएजिसे मुल्क की सब से बड़ी अदालत भी इन्साफ न दिला सकी)

अपने शाइस्ता आँसुओं को यहीं सहेजकर थाम लो माई !
मत बह जाने दो उन्‍हें बेजान निगाहों की सूनी बेबसी में
जो देखते हुए भी कहाँ देख पाती हैं
रिसकर बाहर आती पीड़ा का अवसाद 
कहां साथ दे पाती है उन कुचली मुस्‍कानों का
जो बिरले ही उठती है कभी इन्साफ की हल्‍की-सी उम्मीद लिये

उन बंद दरवाजों को पीटते
लहू-लुहान हो गये अपने हाथों को
और जख्मी होने से अभी रोक लो माई
इन्हीं पर तो एतबार रखना है अपनी आत्मरक्षा में

ये जो धड़क रहा है न बेचैनी में
अन्दर-ही-अन्दर धधकती आग का दरिया
उसे बचा कर रखो अभी बहते लावे से

अफसोस सिर्फ तुम्हीं को क्यों हो माई
सिर्फ तुम्हारी ही आँखों से क्यों बहें आँसू
कहाँ हैं उन कोख की वे जिन्‍दा खुली आँखें
जिनमें किन्‍हीं बदनुमा कीड़ों की तरह
आकार लिया था उन वहशी दरिन्दों ने
शर्मसार क्यों न हो वह आँगन,  माटी 
वह देहरी
जहाँ वे पले बढ़े और लावारिस छोड़ दिये गये 
                          बनमानुषों की तरह, 
जहाँ का दुलार-पानी पीकर उगलते रहे जहर और ज़र्बत - 
शर्मसार क्‍यों न हो  वह आबो-हवा  हमज़ात 
अपनी ही निगाहों में डूबकर मर क्‍यों न गईं
वे इनसानी बस्तियाँ ?


Saturday, May 7, 2011

पेड़ प्रकृति और मनुष्‍य


बस्ती का पेड़

                               
बाहर से आने वाले आघात का
उलटकर कोई उत्तर नहीं दे पाता
                         पेड़
वह चलकर जा नहीं जा सकता
किसी निरापद जगह की आड़ में -

जड़ें डूबी रहती हैं
पृथ्वी की अतल गहराई में
वहीं से पोखता रहता है
वह हर एक टहनी और पत्ती में
                 जीवन संचार

ऐसा घेर-घुमेर छायादार  पेड़
हजारों-हजार पंछियों का
                रैन-बसेरा
पीढ़ियों की पावन कमाई
वह पानीदार पेड़
अब सूख रहा है भीतर ही भीतर
              जमीन की कोख में,

कुदरत के कई रूप देखे हैं
इस हरियल गाछ ने
कई कई देखे हैं
छप्पन-छिनवे के नरभक्षी अकाल -
बदहवास बस्ती ने
सूंत ली सिरों तक
       कच्ची सुकोमल पत्तियां
खुरच ली तने की सूखी छाल ,
उन बुरे दिनों के खिलाफ
पूरी बस्ती के साथ जूझता रहा पेड़
चौपाए आखिरी दम तक आते रहे
इसी की सिमटती छांह में !

पास की बरसाती नदी में
अक्सर आ जाया करता था उफान
पानी फैल जाया करता था
                समूचे ताल में
लोग अपना जीव लेकर दौड़ आते
इसी के आसरे
और वह समेट लेता था
अपने आगोश में
      बस्ती की सारी पीड़ाएं,


समय बदल गया
बदल गये बस्ती के कारोबार
नदी के मार्ग अब नहीं बहता जल
बारहों-मास,
बहुत संकड़ी और बदबूदार हो उठी हैं
कस्बे की गलियां
पुरानी बस्ती को धकेलकर
परे कर दिया गया है नदी के पाट में
और एक नया शहर निकल आया है
इस पुश्‍तैनी पेड़ के अतराफ,


ऊंचे तिमंजिलों के बीच
अब चारों तरफ से घिर गया है पेड़
जहां तहां से काट ली गई हैं
उस फैलती आकांक्षा के
          बीच आती शाखाएं

अखरने-सा लगा है
कुछ भद्र-जनों को पेड़ का अस्तित्व
उनकी नजर में
वे अच्छे लगते हैं सिर्फ उद्यान में !

जब शहर पसरता है
उजड़ जाती हैं पुरानी बस्तियां
सिर्फ पेड़ जूझते रहते हैं
अपनी ज़मीन के लिए
           कुछ अरसे तक .....

पेड़ आखिर पेड़ है
कुदरत का फलता-फूलता उपहार
वह झेल नहीं पाता
अपनों का ऐसा भीतरघात
रोक नहीं पाता
अपनी ओर आते हुए
         जहरीले रसायन -

नमी का उतरते जाना
जमीन की संधियों में मौन
जड़ों का एक-एक कर
         काट लिया जाना -
वह रोक नहीं पाता ......

पहले-पहल सूखी थी
कुछ पीली मुरझाई पत्तियां
फिर सूख गई पूरी की पूरी डाल
और तब से बदस्तूर जारी है
तने के भीतर से आती हुई
धमनियों का धीरे-धीरे सूखना -

इसी सूखने के खिलाफ
निरन्तर लड़ रहा है पेड़ -

क्या नये शहर के लोग
सिर्फ देखते भर रहेंगे
          पेड़ का सूखना ? !

                      ÛÛÛ

खेजड़ी   

बालू रेत की भीगी तहों में
एक बार जब बन जाते हैं उगने के आसार
वह उठ खड़ी होती है काल के
                  अन्तहीन विस्तार में,

तुम रोप कर देख लो उसे कहीं भी
वह सांस के आखिरी सिरे तक
बनी रहेगी सजीव उसी ठौर -
अपनी बेतरतीब-सी जड़ों के सहारे
थाम लेगी माटी की सामर्थ्य
उतरती चली जाएगी तहों  में
                 सन्धियों के पार
सूख नहीं जाएगी नमी के शोक में !

मौसम की पहली बारिश के बाद
जैसे उजाड़ में उग आती हैं
किसिम-किसिम की घास,  लताएं
पौध   कंटीली झाड़ियां
वह अवरोध नहीं बनती किसी आरोह में,

जिन कांटेदार पौधों को
करीने से सजाकर बिठाया जाता है
घरों की सीढ़ियों पर शान से
उनसे कोई अदावत नहीं रखती
अपनी दावेदारी के नाम पर -
वह इतमीनान से बढ़ती है
उमगती पत्तियों में शान्त   अन्तर्लीन ।

क्यारियों में सहेज कर उगाई जा सकती है
फूलों की अनगिनत प्रजातियां
नुमाइश के नाम पर पनपाए जा सकते हैं
गमलों में भांति-भांति के बौने बन्दी पेड़
उनसे रंच मात्र भी रश्‍क नहीं रखती
                     यह देशी पौध -
उसे पनपने के लिए
नहीं होती सजीले गमलों की दरकार
उसे तो खुले खेत की गोद या
सींव पर थोड़ी-सी निरापद ठौर
         सलामत चाहिए शुरुआत में !

और बस इतना-सा सदभाव -
कि अकारण कोई रौंद नहीं डाले
उन उगते दिनों में वह नन्हा आकार -
       काट नहीं डाले निराई के फेर में,


अपनी ज़मीन से बेदखल होने पर
कहीं नहीं पनपेगी इसकी साख
अनचाहे बंधन में बंध कर
नहीं जिएगी खेजड़ी !

Wednesday, May 4, 2011

अपनी कुछ प्रेम कविताएं


तुम्‍हारी याद

आज फिर आई तुम्‍हारी याद
तुम फिर याद में आई –
आकर समा गई चौतरफ
समूचे ताल में ।
रात भर होती रही बारिश
रह-रह कर हुमकता रहा आसमान
तुम्‍हारे होने का अहसास –
कहीं आस-पास
भीगती रही देहरी
आंगन-द्वार
मन तिरता-डूबता रहा
तुम्‍हारी याद में।

उसकी स्मृतियों में
जिस वक्त में यहाँ होता हूँ
तुम्हारी आँख में
कहीं और भी तो जी रहा होता हूँ
किसी की स्मृतियों में शेष
शायद वहीं से आती है मुझमें ऊर्जा
इस थका देने वाली जीवन–यात्रा में
फिर से नया उल्लास
एक सघन आवेग की तरह
आती है वह मेरे उलझे हुए संसार में
और सुगंध की तरह
समा जाती है समय की संधियों में मौन
मुझे राग और रिश्तों के
नये आशय समझाती हुई।
उसकी अगुवाई में तैरते हैं अनगिनत सपने
सुनहरी कल्पनाओं का अटूट एक सिलसिला
वह आती है इस रूखे संसार में
फूलों से लदी घाटियों की स्मृतियों के साथ
और बरसाती नदी की तरह फैल जाती है
समूचे ताल में
उसी की निश्छल हँसी में चमकते हैं
चाँद और सितारे आखी रात
रेतीले धोरों पर उगते सूरज का आलोक
वह विचरती है रेतीली गठानों पर निरावेग
उमड़ती हुई घटाओं के अन्तराल में गूँजता है
लहराते मोरों का एकलगान
मन की उमंगों में थिरक उठती है वह
नन्हीं बूँदों की ताल पर।
उसकी छवियों में उभर आता है
भीगी हुई धरती का उर्वर आवेग
वह आँधी की तरह घुल जाती है
मेह के चौतरफा विस्तार में
मेरी स्मृतियों में
देर तक रहता है उसके होने का अहसास
सहेज कर जीना है
उसकी ऊर्जा को अनवरत।

मैं जो एक दिन
मैं जो एक दिन
तुम्हारी अधखिली मुस्कान पर रीझा,
अपनों की जीवारी और जान की खातिर
तुम्हारी आंखों में वह उमड़ता आवेग -
मैं रीझा तुम्हारी उजली उड़ान पर
जो बरसों पीछा करती रही -
अपनों के बिखरते संसार का,
तुम्हारी वत्सल छवियों में
छलकता वह नेह का दरिया
बच्चों की बदलती दुनिया में
तुम्हारे होने का विस्मय
मैं रीझा तुम्हारी भीतरी चमक
और ऊर्जा के उनवान पर
जैसे कोई चांद पर मोहित होता है -
कोई चाहता है -
नदी की लहरों को
बांध लेना बाहों में !
ÛÛÛ

तुम्हारा होना
तुम्हारे साथ
बीते समय की स्मृतियों को जीते
कुछ इस तरह बिलमा रहता हूं
अपने आप में,
जिस तरह दरख्त अपने पूरे आकार
और अदीठ जड़ों के सहारे
बना रहता है धरती की कोख में ।
जिस तरह
मौसम की पहली बारिश के बाद
बदल जाती है
धरती और आसमान की रंगत
ऋतुओं के पार
बनी रहती है नमी
तुम्हारी आंख में -
इस घनी आबादी वाले उजाड़ में
ऐसे ही लौट कर आती
तुम्हारी अनगिनत यादें -
अचरज करता हूं
तुम्हारा होना
कितना कुछ जीता है मुझ में
इस तरह !
ÛÛÛ
तुम यकीन करोगी
तुम यकीन करोगी -
तुम्हारे साथ एक उम्र जी लेने की
कितनी अनमोल सौगातें रही हैं मेरे पास:
सुनहरी रेत के धोरों पर उगती भोर
लहलहाती फसलों पर रिमझिम बरसता मेह
कुछ नितान्त अलग-सी दीखती हरियाली के बिम्ब
बरसाती नदियों की उद्दाम लहरें
और दरख्तों पर खिलते इतने इतने फूल…….
कोसों पसरे रेतीले टीबों में
खोए गांवों की उदास शामें -
सूनी हवेलियों के
बहुत अकेले खण्डहर,
सूखे कुए के खम्‍भों पर
प्यासे पंछियों का मौन
अकथ संवाद,
कुलधरा-सी सूनी निर्जन बस्तियां
मन की उदासी को गहराते
कुछ ऐसे ही दुर्लभ दरसाव
हर पल धड़कती फकत् एक अभिलाषा -
जीवन के फिर किसी मोड़ पर
तुम्हारी आंख और आगोश में
अपने को विस्मृत कर देने की चाह
और यही कुछ सोचते सहेजते
मैं थके पांव लौट आता हूं
बीते बरसों की धुंधली स्मृतियों के बीच
गो कि कोई शिकायत नहीं है
अपने आप से -
फकत् कुछ उदासियां हैं
अकेलेपन की !
ÛÛÛ
एक आत्मीय अनुरोध
कहवाघरों की सर्द बहसों में
अपने को खोने से बेहतर है
घर में बीमार बीबी के पास बैठो,
आईने के सामने खड़े होकर
उलझे बालों को संवारो -
अपने को आंको,
थके हारे पड़ौसी को लतीफा सुनाओ
बच्चों के साथ सांप-सीढ़ी खेलो -
बेफ़िक्र     फिर जीतो चाहे हारो,
कहने का मकसद ये कि
खुद को यों अकारथ मत मारो !
जरूरी नहीं
कि जायका बदलने के लिए
मौसम पर बात की जाए
खंख किताबों पर ही नहीं
चौतरफ    दिलो-दिमाग पर
अपना असर कर चुकी है -
खिड़की के पल्ले खोलो
और ताजा हवा लेते हुए
कोलाहल के बीच
उस आवाज की पहचान करो
जिसमें धड़कन है ।
आंख भर देखो उस उलझी बस्ती को
उकताहट में व्यर्थ मत चीखो,
बेहतर होगा -
अगर चरस और चूल्हे के
धुंए में फ़र्क करना सीखो !
- नंद भारद्वाज
ÛÛÛ