Monday, October 31, 2011

एक कविता - बरसों बाद

बरसों बाद
                 

बरसों बाद
किसी बदले हुए मौसम की
कोख से आती गंध
और अंतस की गहराई में
बजती     धीमी दस्तक के बुलावों पर
जब भी खोलता हूं
अपने भीतर के दरवाजे
खिड़कियां    रौशनदान -
कोई नहीं होता वहां
             उत्सुक
   अपने ही पीड़ित सन्नाटों के सिवाय,

जाने कब से खड़ा हूं
एक गुजरती हुई उम्र के किनारे
उस अन्तहीन अंधेरे की
            गिरफ्त में गुमसुम !

बरसों बाद
किन्हीं अधूरे पड़े सपनों की
बिखरी चिन्दियों के बीच
इस बेचैन सितारों से भरी रात के
गूंगे आसमान से उतर कर
कभी तो आओगे मेरी मुक्ति के उल्लास -
सहेज लूंगा मैं
तुम्हें अपने बिखरे हुए संसार में !


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13 comments:

  1. जाने कब से खड़ा हूं
    एक गुजरती हुई उम्र के किनारे
    उस अन्तहीन अंधेरे की
    गिरफ्त में गुमसुम !

    उद्वेलित करते शब्द चित्र!

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  2. जयशंकर प्रसाद ने सत्य की अनुभूति को ही कविता माना है....और ये भी सत्य है कि संसार के सुख-दुख से परे कविता का मधुर और अनूठा संसार मनुष्य को सुख सन्तोष प्रदान करता हैं....एक बहुत अच्छी कविता पढ़वाने के लिए आभार...प्रणाम.

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  3. very nice. really touched to my heart. gives voice to my thoughts too. lovely.

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  4. resp.sir,aapne kalam ke dhar se kavya ko ek nai dhadkan de hai.ek aur achchi kavita ke liyehardik badhaiya.aage bhi intjar rahega....

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  5. एक खूबसूरत अहसास के साथ होने का आनंद महसूस कर रहा हूँ .....बधाई

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  6. बेचैन कर रही है आपकी कविता....

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  7. कभी तो आओगे मेरी मुक्ति के उल्लास -
    सहेज लूंगा मैं
    तुम्हें अपने बिखरे हुए संसार में !


    सुखद अहसास..

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  8. अच्छी कविता !आत्मा तृप्त हो गई !

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  9. इस बेचैन सितारों से भरी रात के
    गूंगे आसमान से उतर कर
    कभी तो आओगे मेरी मुक्ति के उल्लास -
    सहेज लूंगा मैं
    तुम्हें अपने बिखरे हुए संसार में.......waah ! bahut khub...

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  10. बहुत ही सुंदर भाव और सुखद कल्पना लिये एक सुंदर कविता! व्यथा, कसक और टीस लिये किन्तु आशा का संचार करती एक सुंदर रचना।

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