इतने वहशी
धमाकों से थरथरा उठती है
आदमी के हाथ
आज वही खुरपी सम्हाले हाथ
आखिर किस तरह की
और बर्बर
कैसे हो उठते हैं आखिर
आदमी के हाथ
कैसे मार लेते हैं
अपने भीतर का आदमी ?
हाथ -
जो गिरते को सहारा देते हैं,
हाथ -
जो डूबते असहाय को
किनारा देते हैं,
हाथ -
जो सुहागन की मांग में
पूरते हैं सिन्दूर,
हाथ -
जो हजारों की हिफाजत में
अपने को होम देते हैं -
जिनके ईमान पर
टिका हुआ है आसमान
जिनके दीन पर
टिकी हुई है दुनिया,
जिनकी अंगुली को थाम कर
उठ खड़ी होती है
एक पूरी की पूरी कौम,
उस कौमियत की कोख में पलते
माटी की गंध में खिलते
सयाने हाथ -
आखिर कैसे उजाड़ लेते हैं
अपने ही आंगन की शान्ति
सुख-चैन,
कैसे जख्मी कर लेते हैं
अपनी ही देह को
और फिर रोमांचित होते हैं
अपने ही रिसते घावों से !
यह सभ्यता के
किस भयानक दौर में
आखिर पहुंचते जा रहे हैं हम
जहां आदमी-दर-आदमी की मौत
महज एक सूचना है
सुबह के अखबार की !
धरती की कोख -
यह किस तरह की
आत्मघाती आग में
घिरता-झुलसता जा रहा है
आदमी !
जो बंजर में
फूल खिलाते हैं
लहलहाते झूमते फलते
हजारों किस्म के
दिक्कालजीवी पेड़
आदमी के हाथ का
आशीष पाते हैं !
जब बढ़ते हैं आगे
जड़ों की ओर
पौधों की रूह कांपती है !
हविश और हैवानियत में
मुब्तिला हैं आदमी के हाथ
क्या वाकई जिन्दा है
इन हाथों के पीछे आदमी ?
आपकी की रचना पढ़ते समय मुझे मेरे संघर्ष विषय के ३०० चित्र याद आगये जो लाला काले रंग से बनाये गए है और सिर्फ हाथ को लेकर सारी बात कहने की कोशिश की है जैसे की आप की इस कविता मे आप ने कहने की कोशिश की है..साधू वाद ..
ReplyDeleteबहुत कुछ कहती है यह नज़्म.सटीक टिप्पणी है समय पर.पोस्ट करने के लिए शुक्रिया.
ReplyDeleteअत्यंत मार्मिक और विचारोत्तेजक ! कई प्रश्न उठाती। मनुष्य की अधोगति पर आहत, करूणा के भाव जगाती एक बहुत ही भावपूर्ण कविता।
ReplyDeleteआज के इस कठिन समय में आस्था जगाती कविता . सर आपको बहुत-बहुत बधाई !
Deletevartman samay ke aadhunik insan per kataksh karti hai ye kavita.
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