Sunday, November 1, 2015

स्‍मृति-शेष : पारस अरोड़ा की कविताएं -
अनुवादक - नंद भारद्वाज 

आग की पहचान 

आग सिर्फ वही तो नहीं होती
जो नजर आती है  
दिपदिपाती हुई अग्नि
जो दिखती नहीं  
लेकिन रेत पर बिछ जाती है
धर दें अनजाने तो सिक जाते हैं पांव।


आग के उपयोग से पहले  
उसकी पहचान जरूरी है
कार्य-सिद्धि के लिए वह  
पूरी है कि अधूरी
यह जानना बेहद जरूरी।

समय आने पर आग  
उपार्जित करनी पड़ती है
न मिले तो यहां-वहां से लानी पड़ती है 
बर्फ के पहाड़ के नीचे  
दबकर मरने से पहले
आग अर्जित कर 
बर्फ को पिघलाना पड़ता है।

जहां नजर आती है आंख में ललाई
नस-नस चेहरे पर तनी हुई 
बंधी हुई मुट्ठियां  
फनफनाते नथुने
और श्वास-गति बढ़ी हुई -
समझ लीजिए, उस जगह आग सुलग चुकी है।

कहते हैं कि राग से आग उपजती थी
शब्दों से प्रकट होती 
अग्नि को देखा है 
झेली है 
बरसों से पोषित आग
दबी हुई यह आग  
बाहर लानी है तुम्हें
जहां आग लग गई  
बुझानी है तुम्हें
बुझ गई तो सोच लो  
फिर से लगानी है तुम्हें
जान लो कि आग की पहचान पानी है तुम्हें।

कितनी अजीब बात है
लोग हथेली पर हीरै की तरह आग धर
उसका सौदा कर लेते हैं
आग को  
लाग की तरह काम लेकर 
अपना समय काटने के लिए
पीढियों की गर्मी को  
गिरवी धर देते हैं। 

मरते-खसते रहने के बावजूद
न मिले तुम्हें अगर 
कहीं कोई चिनगारी दबी हुई -
कैसे वह पैदा होती है?
सोच-समझकर वह समझ
     समझानी है तुम्हें।

पर सबसे पहले  
आग से तुम्हें
अपनी परख-पहचान जरूर पा जानी है। 

लाओ दो माचिस

लो यह माचिस और सुनो
    कि तुम इसका कुछ नहीं करोगे 
सिवाय इसके  
कि अपनी बीड़ी सुलगा लो 
तीली फूंक देकर वापस बुझा दो
और डिबिया मुझे वापस कर दोगे।

लो यह माचिस
पर याद रखना  
कि इससे तुम्हें
   चूल्हा सुलगाना है  
रोटियां बनानी हैं
कारज सार डिबिया मुझे वापस कर देनी है।

यह लो, इससे तुम स्टोव सुलगाकर 
दो चाय बना सकते हो  
घर-जरूरत की खातिर 
दो-चार तीलियां रख भी सकते हो
पर डिबिया वापस देनी है मुझे, यह याद रखना है।

अंधेरा हो गया है, दिया-बत्ती कर लो
दो-चार तीलियां ही बची हों  
तो डिबिया तुम्हीं रख लेना 
अब तो तुम भी जानते हो -
     तुम्हें इसका क्या करना है 
मुझे जाना है
और नई माचिस का सरंजाम करना है। 

हां, लाओ, दो माचिस !
मैं विश्‍वास दिलाता हूं
   कि मैं इसका कुछ नहीं करूंगा और।
बीड़ी सुलगाकर दो कस खींचूंगा
एक आप ही खींच लेना 
फिर सोचेंगे  
हमें इसका क्या करना है
आपकी डिबिया आपको वापस दूंगा।

लाओ, दो माचिस
पहले चूल्हा सुलगा लूं 
दो टिक्कड़ बनाकर सेक लूं 
एक आप खा लेना  
एक मैं खा लूंगा
फिर अपन ठीक तरह से सोचेंगे
कि अब हमें 
क्या कैसे करना है।

मैं करूंगा और आप देखोगे 
तीली का उपयोग अकारथ नहीं होगा
दो कप चाय बनाकर पी लें
फिर सोचें 
कि क्या होना चाहिए 
समस्याओं का समाधान
माचिस से इस समय तो इतना ही काम।

ठीक है कि जेब में इस वक्त
पैसे नहीं हैं  
माचिस मेरे पास भी मिल जाती 
बात अभी की है  
और बात दीया-बत्ती की है
उजाला होने पर सब-कुछ दीखेगा साफ-साफ।

आपकी इस माचिस में तो
चार तीलियां हैं 
मुझे तो फकत एक की जरूरत है
तीन तीलियों सहित
आपकी माचिस आपको वापस कर दूंगा।

लाओ, दो माचिस
मैं विश्‍वास दिलाता हूं 
    कि मैं इसका कुछ नहीं करूंगा और।

मेरी मैं जानूं

अचानक   
थोथी हो गई
पांव तले की जमीन
पांव घुटनों तक  
धंस गये जमीन में
आस-पास खड़े  
लोगों को पुकारा,
आश्‍चर्य कि वे सारे
माटी की पुतलियों में तब्दील हो
माटी में धंस गये  
शायद
किसी का अभिशाप फल गया उन्हें -
लाखों के लोग  
कौड़ियों के हो गये।

मैं धरती के कांधे पर हाथ रख 
आ गया बाहर  
अब वे 
गले तक धंसे हुए लोग  
बुला रहे हैं मुझे।

मेरे दो हाथों में से
एक मेरा है  
दूसरा सौंप रहा हूं उन्हें
यह जानते हुए  
कि बाहर आकर वे 
यही हाथ  
काटने लगेंगे 
पर उनकी वे जानें 
मेरी मैं जानूं ! 


          ***
पारस अरोड़ा  : सन् 1937 में रक्षाबंधन के दिन अजमेर में जन्‍म। मूल गांव पीपाड़सिटी जिला-जोधपुर के वाशिन्‍दे। बरसों जोधपुर वि वि में कंपोजीटरी के साथ राजस्‍थानी में काव्‍य-लेखन और  राजस्‍थानी की चर्चित पत्रिकाओं जांणकारी, अपरंच इत्‍यादि का संपादन-प्रकाशन किया। कई बरसों तक राजस्‍थानी मासिक माणक में संपादन सहयोग।
प्रकाशन  : झळ, जुड़ाव और काळजै में कलम लागी आग री (तीनों काव्‍य संग्रह), खुलती गांठां, राजस्‍थानी उपन्‍यास का प्रकाशन।
सम्‍मान  : विष्‍णुहरि डालमिया पुरस्‍कार और राजस्‍थान भाषा साहित्‍य एवं संस्‍कृति अकादमी से  विशिष्‍ट साहित्‍यकार सम्‍मान।
पता : अ-360, सरस्‍वतीनगर, बासनी, जोधपुर 342005