Tuesday, December 22, 2020

 


कथा समीक्षा : अशोक सक्‍सेना की कहानियां

माई का लाल : कस्‍बाई संवेदना की मार्मिक कहानियां

·         नंद भारद्वाज

मकालीन हिन्‍दी कथा-लेखन में नवें दशक के बाद आए नये कथाकारों में अशोक सक्सेना एक सजग जनवादी कथाकार के रूप में अपनी अलग पहचान रखते हैं  उस दौर की साहित्यिक पत्रिकाओं में उनकी कहानियां छपती रही हैं और उन्‍हीं कहानियों का पहला संग्रह 'उसका मरना' सन् 1994 में प्रकाशित होकर सामने आया था। उनका दूसरा संग्रह 'अब्बू'  उसके ठीक बीस वर्ष बाद उद्भावना प्रकाशन से 2014 में प्रकाशित हुआ। पत्रिकाओं के अलावा कुछ संपादित कथा-संकलनों में भी उनकी कहानियां बराबर स्‍थान पाती रही हैं और इस तरह एक समर्थ कथाकार के रूप में उनकी उपस्थिति को बराबर अनुभव किया जाता रहा है। राजस्थान के पूर्वी अंचल के प्रमुख शहर भरतपुर में रहते हुए अशोक सक्‍सेना ने पिछले चार दशकों में अपनी विशिष्‍ट आंचलिक शैली और गहरी लोक-संवेदना से रची कहानियों के माध्‍यम से हिन्‍दी कथा-जगत में अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज कराई है। कथा लेखन के इसी क्रम में उनकी कहानियों का नया संग्रह ‘माई का लाल’ हाल ही में अनुज्ञा बुक्‍स, दिल्‍ली से प्रकाशित होकर आया है, जिसमें उनकी सोलह कहानियां संग्रहीत हैं। 

    अशोक सक्‍सेना की कहानियों में अपने समय की सामाजिक विसंगतियों, रूढ़ियों, शोषित-पीड़ित स्त्रियों, बच्‍चों और वंचितों की पीड़ा मुखर रूप में व्‍यक्‍त होती रही है। सामाजिक वैमनस्‍य, प्रशासनिक भ्रष्‍टाचार, साम्‍प्रदायिकता की समस्‍या और श्रमिकों के आर्थिक शोषण को लेकर भी उनकी कहानियां पाठकों का ध्‍यान आकर्षित करती रही हैं। ऐसी कहानियों को उनके तीनों संग्रहों में सहज ही रेखांकित किया जा सकता है। उनके कथा-लेखन की आंचलिक रंगत, भाषा की ताजगी, लोक-जीवन के बारीक ब्‍यौरे और पात्रों के अन्तर्मन में गहरे उतर कर उनके अन्तर्द्वन्‍द्व और मनोभावों को उकेर पाने की अनूठी खूबियों के कारण ये कहानियां अपनी अलग पहचान बनाती हैं।

    अपने रचनात्‍मक लेखन के माध्‍यम से हर तरह के अन्याय का विरोध करना एक संजीदा  रचनाकार को किस तरह का आत्मिक सुख और सार्थकता प्रदान करता है, इसे अशोक सक्‍सेना जैसे कथाकार की कहानियेां के माध्‍यम से समझा जा सकता है।  देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम हो जाने के बावजूद जो लोग जीवन के मौलिक अधिकारों, बुनियादी सुविधाओं और आत्‍मसम्‍मान से जीने के हक़ से वंचित हैं, क्या उनके प्रति हमारे मन में कोई चिन्‍ता, संवेदना या सहानुभूति नहीं आकार लेती ? एक सजग नागरिक के रूप में क्‍या हम उनके जीवन-संघर्ष में कहीं कोई भागीदारी निभाते हैं? ग्रामीण क्षेत्रों और आम शहरी हलकों में श्रमिकों और निम्न-मध्यवर्ग के व्यक्ति की आज जो हालत है,  किसानों और श्रमिकों की जो दशा है, अपने परिवार के गुजर-बसर के लिए वे जिस तरह दिन-रात एक किये रहते हैं और उन्‍हें उनकी उपज और श्रम  का सही मूल्‍य नहीं मिलता,  अन्याय से लड़ते हुए वे हर बार जख्मी होते हैं, बाजार की शक्तियों के हाथों बार-बार ठगे जाते हैं, लेकिन हार नहीं मानते - क्या हमने कभी जानने का प्रयत्न किया कि वह श्रम-शक्ति हमारे लिए क्‍या मायने रखती है? उन श्रमिक-किसानों का अपना मनोबल और जीवन-विवेक, उन्‍हें लड़ने की हिम्मत देता है, किसी की मेहरबानी या अहसान लेकर जीना उन्‍हें कभी रास नहीं आता, अपनी नेक-नीयति, स्वाभिमान और नैतिक-बल उनका सबसे बड़ा संबल होता है, जिससे वे हर कठिनाई का धीरज से सामना करते हैं।

     कथाकार अशोक सक्‍सेना की कहानियों के अधिकांश पात्र इसी उसी आंचलिक परिवेश और मध्यवर्गीय शहरी जीवन से आते हैं,‍ जिनसे वे स्‍वयं भीतर तक जुड़े रहे हैं। ये कहानियां उनके उसी अनुभव-संसार से हमें रूबरू कराती हैं, जो हिन्दी कहानी के लिए अछूता रहा है। कुछ नये-पुराने शहरी रचनाकारों ने बेशक अपनी कहानियों में इसे उकेरने का प्रयत्न किया हो, लेकिन उनके ये आयातित अनुभव हर बार किन्हीं नाटकीय अतियों में उलझकर रह गये हैं, अपनी स्‍वाभाविक परिणति तक कम ही पहुंच पाए हैं। इन कहानियों का ताना-बाना कुछ इस तरह का है कि इनके माध्यम से कथाकार ने निम्‍न मध्‍यवर्गीय शहरी जीवन के निर्मम यथार्थ को संयम के साथ सीमित संवादों में साकार करने का प्रयत्‍न किया है। उन संवादों में जिस भाषा-शैली और बयानगी का रूप निखर कर सामने आया है, वह उस कस्‍बाई जीवन से सीधा संबंध रखनेवाले रचनाकार से ही आना संभव है। कथाकार ने जिस करुणा, बेबसी और जिजीविषा को उकेरने का प्रयत्न किया है, वह अनायास ही इन्हें हिन्दी की उल्लेखनीय कहानियों की श्रेणी में पहुंचा देता है। परिवेश के इन सूक्ष्म ब्यौरों को उन्‍होंने जिस बारीकी और सघनता के साथ उकेरा है, वह कहीं भी अतिरंजित या अति-नाटकीय नहीं है और यही अशोक सक्‍सेना के कथा-लेखन की सबसे बड़ी विशेषता रही है।

    इसी कस्‍बाई परिवेश और निम्‍न मध्‍यवर्गीय शहरी जीवन के अनुभवों पर आधारित अशोक सक्‍सेना की क‍हानियों के नये संग्रह ‘माई का लाल’ की कहानियों के बीच से गुजरना एक अलग तरह की ताजगी और तसल्‍ली का अहसास कराता है। ये कहानियां जिस निम्न-मध्यवर्गीय शहरी परिवेश में जीने वाले लोगों की रोजमर्रा की जिन्दगी से ताल्लुक रखती हैं, उनमें स्त्रियों की स्थिति और उनका संघर्ष विशेष रूप से आकर्षित करता है। इस पुरुष-प्रधान समाज में हर स्‍त्री को अपने अस्तित्‍व और अस्मिता के लिए संघर्ष करना पड़ता है, चाहे उन विरोधी स्थितियों में उसकी बात मानी जाए या न मानी जाए, वह अपने जीवन-विवेक और आत्‍मनिर्णय को महत्‍व अवश्‍य देती है - वह चाहे एक चुटकी नमककी नायिका किरण और उसकी भाभी हो, ‘आखिरी दांवकी नायिका जुआरी की पत्‍नी हो, ‘माई का लाल’ की अम्‍मा या माई हो, या सदा सुहागनके कथानायक रामेश्‍वर की पत्‍नी हो अथवा उसकी बूढ़ी अम्‍मा - इन स्‍त्री-चरित्रों की सोच और उनका संघर्ष एक दृष्टान्त की तरह सामने आता है।

       माई का लाल’ इस संग्रह की एक मार्मिक और महत्‍वपूर्ण कहानी है, जिसका कथानायक अपने बचपन से ही कठिन संघर्ष के दौर से गुजरा है। वह बाड़ी-धौलपुर के एक सवर्ण शिक्षक ज्ञानेन्‍द्र मिश्रा का बेटा था, जिसे लालची पिता ने उसकी छह साल की उम्र में मूलचंद जाटव नामक ऐसे निस्‍संतान दलित अधिकारी को गोद दे दिया, जिसके पास अच्‍छी-खासी जमीन-जायदाद थी, अधिकारी होने का रुतबा था और दलित होने के कारण लड़के का कैरियर बनने की बेहतर संभावनाएं थीं। बच्‍चे की मां पति के इस निर्णय से कतई सहमत नहीं थी और उसने इसका विरोध भी किया, लेकिन उसे अनदेखा कर दिया गया। ज्ञानेन्‍द्र मिश्रा इस खुशफहमी में था कि बड़ा होने पर उसका बेटा उस सारी संपत्ति का मालिक होकर वापस उसके पास लौट आएगा। लेकिन वह यह नहीं जानता था कि बच्‍चे के मनोवैज्ञानिक विकास की एक संवेदनशील मानवीय प्रक्रिया है, वह जिस भावनात्‍मक परिवेश में बड़ा होता है, उसी के अनुरूप सीख, संवेदन और समझ ग्रहण करता है। मूलचंद जाटव डेगाना के नजदीक नवासर गांव का निवासी था, जहां उसका पुश्‍तैनी घर और जमीन-जायदाद थी। उसकी पत्‍नी ने इस गोद लिये बच्‍चे को मातृत्‍व का ऐसा आत्‍मीय प्‍यार और बेहतर परवरिश दी कि समय गुजरने के साथ उसने उन्‍हीं को अपना मां-बाप मान लिया। उसे नागौर शहर में अच्‍छे स्‍कूल में शिक्षा दिलवाई गई। जब वह दसवें दर्जे में स्‍कूल की छुट्टियों में मां-बाप के पास आया और एक दिन उन्‍हें बिना बताए दोस्‍तों के साथ फिल्‍म देखने चला गया। उसे रात को घर पहुंचने में कुछ देरी हो गई, जिसकी वजह से मां-बाप का चिन्तित और नाराज होना स्‍वाभाविक था। अगले दिन उसे पिता की डांट-डपट के साथ हल्‍की-सी मार भी पड़ी। इसी दौरान खेत के कुएं पर बच्‍चे की ताई ने उसे जब यह बताया कि वह गोद लिया हुआ बच्‍चा है, इसीलिए उसके साथ इस पिता ने ऐसा बरताव किया है। ऐसा कहने के साथ उसने बच्‍चे को वास्‍तविक पिता का नाम-पता भी बता दिया। अगले ही दिन माई-बापू से नाराज राजकुमार उन्‍हें बिना कुछ बताए बाड़ी-धौलपुर पहुंच गया। वहां पहुंचने पर उसे असली मां से तो स्‍नेह-प्‍यार मिला, लेकिन घर के बाकी लोगों का व्‍यवहार उसे बदला सा लगा। उसे तुरंत अपनी भूल का अहसास हुआ और वह वापस अपने पालक माता-पिता के पास नवासर लौट आया जो उसके इस तरह चले जाने से चिन्तित और व्‍याकुल थे। इस घटना से मूलचंद को भी अपनी भूल का अहसास हो गया और वह बच्‍चे की परवरिश के प्रति और संवेदनशील हो गया। पढ़ाई में अव्‍वल रहने के कारण राजकुमार का आईआईटी में चयन हो गया और पिता ने उसका दिल्‍ली आईआईटी में दाखिला भी करवा दिया। बेटे के इसी परिश्रम, लगन और उसके सफल भविष्‍य की कामना करते हुए उस दलित पिता ने उसे यही सीख दी कि “एक बात याद रखना बेटा। आदमी धन-दौलत या जात-बिरादरी से बड़ा-छोटा नहीं होता। बड़ा या छोटा होता है अपनी सोच से और सोच बनती है कर्म से, जैसी जिसकी सोच वैसे उसके कर्म।" राजकुमार ने पिता की इस सोच को अपने आचरण का अंग बना लिया और लगन से अपनी पढ़ाई में लग गया। साल भर बाद जब पिता के देहान्‍त की सूचना मिली तो वह अपने गांव लौट आया। वह तो माई के पास ही रहना चाहता था, लेकिन माई ने उसे यही सलाह दी कि वह अपनी पढ़ाई जारी रखे और पिता का सपना पूरा करे। आईआईटी की पढ़ाई पूरी होने के बाद राजकुमार ने आईएएस की परीक्षा दी और वह उसमें कामयाब रहा। उसे राजस्‍थान कैडर में एडीएम (सिटी), सीकर के रूप में पहली नियुक्ति ‍मिली। ज्ञानेन्‍द्र मिश्रा ने राजकुमार को वापस अपने पास लौट आने का बहुत आग्रह किया, लेकिन राजकुमार ने उस लालची पिता को हमेशा के लिए त्‍याग दिया था, अब माई ही उसकी असली मां थी। और यही ‘माई का लाल’ अपने समय-समाज के सामने एक मिसाल बनकर सामने आया। अशोक सक्‍सेना ने इस कहानी को जिस मनोयोग से सूक्ष्‍म मनोवैज्ञानिक ब्‍यौरों और मार्मिक प्रसंगों के साथ लिखा है वह उनके व्‍यापक सामाजिक सरोकारों और कथा-लेखन के प्रति आत्मिक लगाव का ही परिचायक है।

       ग्रामीण परिवेश और मध्यवर्गीय शहरी जीवन की कश्मकश से आगे बढ़ते हुए अशोक सक्‍सेना ने अपनी कहानियों के माध्यम से उस राजनीतिक दृष्टिकोण के औचित्य और उसकी क्रान्तिकारी गतिविधियों को भी अपनी कथा-प्रक्रिया में शामिल किया है, जिसे कहानी के पाठ में शामिल करते ही कला-आग्रही लोगों को अक्सर उसमें राजनीतिक प्रचार की बू आने लगती है और साहित्य की स्वायत्तता खतरे में नजर आती है। लेकिन लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था और मानवीय दृष्टिकोण में विश्‍वास रखनेवाला व्‍यक्ति अपने समय और देश-दुनिया के हालात से बेखबर कैसे  रह सकता है? अगर थोड़ा भी संवेदनशील हो तो उस विभाजनकारी राजनीति को कैसे अनदेखा कर सकता है, जो अपने स्‍वार्थों के लिए लोगों को बांटने और उनके बीच वैमनस्‍य पैदा करने वाली गतिविधयों में जुटी रहती है? इस विभाजनकारी राजनीति के दुष्‍परिणाम हम आजादी की लड़ाई के अंतिम वर्षों से आज तक देखते भोगते आए हैं और लोकतंत्र में आस्‍था रखने वाले सजग लोग बराबर आगाह भी करते रहे हैं। अशोक सक्‍सेना ने इस साम्‍प्रदायिक राजनीति को बेनकाब करने वाली कई प्रभावशाली कहानियां अपने पहले के संग्रहों में भी प्रस्‍तुत की हैं, जिनमें पहले संग्रह की शीर्ष कहानी ‘उसका मरना’ और दूसरे संग्रह की भी शीर्ष कहानी ‘अब्‍बू’ को पाठक भूले नहीं होंगे। उनके मौजूदा संग्रह ‘माई का लाल’ में ऐसी ही दो प्रभावशाली कहानियां हैं – ‘लाश’ और ‘फरिश्‍ता’, जो उत्‍तरोत्‍तर गहराती साम्‍प्रदायिक राजनीति पर करारा प्रहार करती हैं। चिन्‍ता की बात यह है कि अब इस साम्‍प्रदायिक राजनीति का जहर सुदूर ग्रामीण इलाकों तक फैलने लगा है, जहां शताब्दियों से अलग अलग मजहबों और आस्‍थाओं को मानने वाले लोग आपसी सद्भाव से साथ रहते आए हैं, वे एक-दूसरे के मजहबी कायदों की इज्‍ज्‍त करते हैं, उस सद्भाव को बर्बाद करने वाली प्रवृत्तियां आज पूरे आक्रामक मोड में हैं। अच्‍छी बात यह है कि अशोक जी की राजनीतिक चेतना वाली कहानियां अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति में भी उतनी ही प्रभावशाली बन पड़ी हैं। इस दृष्टि से ‘लाश’ और ‘फरिश्‍ता’ वाकई बेजोड़ कहानियां हैं, जो असंगतियों पर करारा व्‍यंग्‍य भी करती है और गहरा प्रभाव छोड़ती हैं। इन कहानियों के आधार पर उनके सामाजिक सरोकारों के बारे में यह बात निस्संकोच कही जा सकती है कि वे जीवन-मूल्यों और लोकतांत्रिक व्यवस्था को सर्वोपरि महत्व देते हैं। उनकी व्यापक सहानुभूति सदा अन्याय से पीड़ित उन संघर्षशील लोगों के साथ दिखाई देती है, जो अपने आप में एक शुभ-संकेत है और उनकी भविष्य की कथा-यात्रा के प्रति आशावान भी बनाती है।

    इन कहानियों के माध्यम से कथाकार ने अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने वाले लोगों के प्रति जहां गहरी सहानुभूति उत्‍पन्‍न करने की कोशिश की है, वहीं अपने अधिकारों और न्याय के लिए हिंसा के रास्ते से बचने की भी सलाह दी है। कई बार अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए किये जाने वाले प्रदर्शन और प्रतिरोध हिंसक रूप धारण करने लगते हैं और इससे  श्रमिकों, खेतिहर  मजदूरों और युवाओं का बड़ा तबका अनजाने ही कानून-व्‍यवस्‍था की शातिर कार्यवाहियों का शिकार हो जाता है। ‘फितरत’, ‘हरामी का पिल्‍ला’, ‘कौआ कांड’ आदि ऐसी ही उल्‍लेखनीय कहानियां हैं। कुलमिलाकर ‘माई का लाल’ संग्रह में शहरी निम्‍न मध्‍यवर्ग की पीड़ित स्त्रियों, श्रमिकों, वंचितों के दुख-दर्द और कस्‍बाई संवेदना की ऐसी मार्मिक कहानियां हैं, जो एक संवेदनशील पाठक पर गहरा प्रभाव छोड़ जाती हैं और यही एक संजीदा रचनाकार की सबसे बड़ी सफलता है। 



* इस समीक्षा को आप राजस्‍थान साहित्‍य अकादमी की मुख-पत्रिका 'मधुमती' के दिसंबर, 2020 अंक में भी पढ़ सकते हैं। 

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·         चर्चित पुस्‍तक : माई का लाल (कहानी संग्रह), लेखक – अशोक सक्‍सेना, प्रकाशक : अनुज्ञा बुक्‍स, वैस्‍ट गोरख पार्क, शाहदरा, दिल्‍ली – 110032, पृष्‍ठ – 188, मूल्‍य - 550 रुपये। 

Email : nandbhardwaj@gmail.com

Sunday, August 30, 2020

 




राग-विराग की कविता का अंतरंग

·         नन्‍द भारद्वाज

    किसी रचनाकार के सर्जनात्मक वैशिष्ट्य की पहचान और उसके साहित्यिक अवदान का सम्यक मूल्यांकन आसान काम नहीं है। इसमें सबसे बड़ी कठिनाई उन रचनाकारों की ओर से ही आती है, जो रचनाकार होने के साथ स्वयं अपने समय की कविता के मुखर आलोचक भी होते   हैं। कविता को देखने-समझने के उनके मानदंड और जीवन के बारे में उनका नजरिया कई बार उन्हीं की कविता के आस्वाद और संप्रेषण में दुविधाएं खड़ी कर देता है। कवि जिस अछूती ज़मीन और निजी अनुभव के आधार पर अपनी कविता का ताना-बाना बुनता है, उसका सौन्दर्य-बोध और वैचारिक आग्रह कई बार उसकी अपनी रचना से मेल नहीं भी खाते। निराला, मुक्तिबोध, अज्ञेय, शमशेर, रघुवीरसहाय, विजयदेवनारायण साही जैसे कितने ही पुरोधा कवि ऐसे हैं, जिनकी कविता और कविता संबंधी सोच के उत्स और सरोकार अगर एक ही मान लिये जाएं, तो संभव है, उनकी कविता के साथ सही न्याय न हो पाए। हिन्दी के वरिष्ठ कवि नंदकिशोर आचार्य की कविता पर विचार करते हुए मुझे इसी सावधानी पर बल देना जरूरी लग रहा है, जो अपनी काव्य-सर्जना और कविता संबंधी सोच को लेकर अलग तरह के आग्रह रखते हैं। उनकी कविता और सोच को एक-रेखीय मान लेना, शायद हमें सही नतीजों तक न पहुंचने दे और संभव है उनकी कविता का मूल्यांकन करते हुए हम अपने को असमंजस में पाएं।  

    कवि-आलोचक नंदकिशोर आचार्य की कविता और उनकी सौन्दर्य-चेतना पिछले चार दशकों से हिन्दी के बड़े पाठकवर्ग का ध्यान आकर्षित करती रही है, जिनकी महत्‍वपूर्ण काव्‍य-कृति ‘छीलते हुए अपने को’ वर्ष 2019 के साहित्‍य अकादमी पुरस्‍कार के लिए चुना गया है। उनकी कविताएं  मरूस्थलीय लोकजीवन, उनकी अपनी जमीन, जीवनशैली, प्रकृति, नगरों के स्थापत्य, लोक व्‍यवहार और आपसी रिश्‍तों का  एक आत्‍मीय संसार रचती हैं एक चिन्‍तनशील तत्‍वदर्शी कवि के रूप में उनकी अस्तित्वबोधी आत्मचिन्तनपरक कविताएं भी मनुष्‍य के राग विराग को नये दृष्टिकोण के साथ गहने समझने का अवसर प्रदान करती हैं। उनकी भाषा संबोधन की संप्रेषणीय भाषा तो है ही, जहां वह अपने होने को इस तरह देखना और निरंतर देखते रहना भी है, जहां दूसरे का उतना ही साझा हो सके, जितना उसका अपना है। उनके काव्‍य संग्रह ‘छीलते हुए अपने को’ की कविताएं आत्‍मानुभूति और प्रेमानुभूति की निश्‍छल अभिव्‍यक्ति हैं। वे जो कविता रचते हैं, वह भारतीय आधुनिकता का ऐसा काव्‍य रूप हैं, जहां स्‍वतंत्रता की मूल्‍य चेतना और आत्‍मोपलब्‍ध का स्‍वप्‍न परम्‍परा की सृजनात्‍मकता के एक नये रूप में विन्‍यस्‍त हैं।  

     संयोग से मैं  नंदकिशोर आचार्य की कविताओं का नियमित पाठक रहा हूं और अपने तंई इन कविताओं के मर्म को समझने का प्रयत्न भी करता रहा हूं। उनकी वे कविताएं, जो मरूस्थलीय लोक-जीवन, लोक-व्यवहार और आपसी रिश्तों को आधार बनाकर रची गई हैं, मुझे विशेष रूप से आकर्षित करती रही हैं। इनसे इतर वे कविताएं जो किन्हीं जीवन-सत्यों, आत्म-सत्यों, मूल्यों, मिथकों, पुरा-प्रसंगों, काल, मृत्यु, रहस्यमयी प्रकृति या किन्हीं लोकोत्तर संदर्भों-संकेतों की ओर इशारे करती हैं, वे भी महत्‍वपूर्ण कविताएं हैं और वे मेरी उत्‍सुकता और जिज्ञासा का कारण अवश्य रही हैं। उनके कलात्मक वैशिष्ट्य और संप्रेषण के प्रति आश्वस्ति के बावजूद इन कविताओं के संदर्भ-संकेत कई बार रहस्य ही बने रह जाते हैं। रूप के प्रति उनके अतिरिक्त आग्रह के बावजूद मैं उनकी पांच दशक की काव्य-यात्रा के रचना-विन्‍यास में कोई बुनियादी अन्तर नहीं देख पाता, बल्कि कई बार रचना और वैचारिक आग्रहों में उन्हें अपने को दोहराते भी पाता हूं। सामयिक संदर्भ और देशकाल में घटित होने वाली बड़ी घटनाएं उन्हें अपनी रचनात्मक अभिव्यक्ति के लिए वैसे भी कम उपयुक्त लगती हैं, इसलिए उनके काव्‍य की अन्तर्वस्तु में यह पक्ष प्रायः अलक्षित ही रह जाता है - वही आत्म (अस्तित्व) की खोज, वही बहुरंगी प्रकृति और वही ऐन्द्रिक/अंतरंग राग-विराग उनकी कविता के प्रिय विषय बनते रहे हैं, जो उनके पहले काव्‍य संग्रह ‘जल है जहां’ से लेकर अब तक निर्बाध चले आ रहे हैं। यद्यपि वय, विचार और अनुभव की प्रक्रिया में आये बदलाव के अनुरूप इन विषयों के वरण-विन्‍यास में जरूर अन्‍तर आया है, खास तौर से रागात्मकता को देखने का उनका नजरिया और मनोभाव अब काफी बदल गया लगता है।

    अज्ञेय द्वारा संपादित ‘चौथा सप्‍तक’ के कवि नंदकिशोर आचार्य के अब तक करीब सोलह  काव्‍य-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं  और अपनी सोच-शैली के रचनाकारों के बीच प्रकृति, प्रेम और सूक्ष्‍म अनुभूतियों के प्रति विशिष्‍ट आग्रह रखने वाले कवि के रूप में उनकी अलग पहचान है। आचार्य के कवि-कर्म पर बहुत से समकालीन रचनाकारों और आलोचकों ने मन खोलकर लिखा भी है। इसके बावजूद उनकी कविताओं और आलोचनाओं के बीच से गुजरते हुए मैं यह भी अनुभव करता रहा हूं कि आचार्य की काव्य-प्रकृति, उनकी काव्य-भाषा, संरचना और काव्य-संवेदना के स्रोत-संदर्भ और सरोकारों को समग्रता में समझने और व्याख्यायित करने का काम अच्‍छे खासे संयम की अपेक्षा रखता है।

    निस्संदेह आचार्य हमारे समय की कविता और साहित्य के एक गंभीर अध्येता, तत्‍वदर्शी  और संवेदनशील सर्जक हैं। समकालीन कविता और रचनाशीलता के विविध पक्षों पर समय-समय पर वे अपना गहन चिन्तन-विवेचन सामने लाते रहे हैं। उनकी राय और निष्कर्षों से सहमत-असहमत हुआ जा सकता है, लेकिन उनके बिना समकालीन साहित्य की कोई चर्चा अधूरी ही कही जाएगी।

    नंदकिशोर आचार्य की कविताओं पर केन्द्रित चर्चा के लिए सन् 2008 में प्रकाशित उनके एक महत्‍वपूर्ण काव्‍य-संग्रह चांद आकाश गाता है को आधार बनाकर थोड़ी तफ़सील से बात की जा सकती है। उनकी कविताओं का अपना अस्तित्वबोधी आत्मचिन्तनपरक स्‍वर तो हमारा ध्यान आकृष्ट करता ही है, वह प्रकृति और प्रेम की विरल भाव-स्थितियों और जीवन के प्रति कवि के बदलते राग-विराग को नये दृष्टिकोण के साथ गहने-समझने का अवसर भी उपलब्ध कराता है।   

    इस संग्रह की कविताओं को उन्‍होंने अन्तर्वस्तु और भाव-प्रकृति के अनुरूप तीन खण्डों में विभाजित कर प्रस्तुत किया गया है और यही पैटर्न लगभग उनके अन्‍य कविता संग्रहों का भी रहा है। अपनी इस काव्‍य यात्रा के दौरान प्रकाशित काव्‍य-संग्रहों के व्यंजनापरक शीर्षक और उप-शीर्षक उनकी काव्‍य-प्रकृति और अंतर्वस्‍तु को एक आन्‍तरिक अनुशासन में संयोजित भी करते रहे हैं। मिसाल के लिए उनके पहले काव्‍य संग्रह ‘जल है जहां’ (1980) के तीन खंड थे ‘थरथराता जल’, ‘बांसुरी नहीं रहा’ और ‘एक गमला ही सही’ तो सन् 2016 में प्रकाशित सोलहवें संग्रह ‘हवा की मंजिल नहीं कोई’ के तीन खंड ‘कुआं होकर भी’, ‘गूंगा होकर ही’ और ‘आखिर पेड़ ठहरा वह’ सरीखे उप-शीर्षकों में प्रस्‍तुत हुए हैं, इसी तरह विवेच्‍य संग्रह ‘चांद आकाश गाता है’ की कविताएं भी ‘अक्स में डूब कर’, आवाज ने जब छुआ’ और ‘होगा ही हंस’ नामक तीन खंडों में विभाजित हैं। आचार्य अपनी हर रचना में एक भाव-सूत्र या भाषिक युक्ति को केन्द्र में रखकर उसी के इर्द-गिर्द अपनी कविता का ताना-बाना बुनते हैं और अभीष्ट पूरा होते ही उसे वहीं विराम दे देते हैं। बिम्ब और रूपक उनकी इस काव्य-प्रक्रिया को रूपायित करने में सबसे कारगर और आजमाए हुए उपकरण हैं। यह अनायास नहीं है कि उनकी अधिकांश कविताएं इन्हीं बिम्बों-रूपकों में विन्यस्त रही हैं।

    यह देखना वाकई दिलचस्प है कि नंदकिशोर आचार्य अपनी कविता में जो काव्य-भाषा बरतते रहे हैं, वह उनकी विचारशील प्रकृति के अनुरूप तो होती ही है, अपने व्यक्त रूप में स्मृति की ओस-भीगी आत्मीयता लिये भी होती है। विचार वहां एक सूक्ष्म संवेदन और कभी-कभी ऐन्द्रिक स्पंदन की तरह आता है। अक्सर वे अपनी बात को बेहद तरल लहजे में कहना पसंद करते हैं, हालांकि यह उनकी कविता का मूल स्वभाव नहीं है। वे अपने चिन्तन और तर्क-शैली में जहां किसी के लिए हाशिया नहीं छोड़ते, कविता के पाठ में वे इस तरह का अतिरिक्त आग्रह शायद अनदेखा भी करते हैं। अपने प्रिय के साथ नाटकीय संवाद में तो अक्सर वे उसी का मान और मन रख लेना बेहतर समझते हैं, वह बात दूसरी है कि उस संवाद-सूत्र के नियंता अन्ततः वही होते हैं।

     आचार्य अपनी कविता में एक ऐसे सर्जक यात्री की परिकल्पना करते हैं, जिसने न पहले कोई गंतव्य चुना है, न अपना रास्ता और न ही यात्रा का कोई प्रयोजन, फिर भी वह यात्रा में है। वैसे तो व्यक्ति का दुनिया में आना और जीवन यात्रा में शामिल होना कोई अनायास या आकस्मिक घटना नहीं होती। वही देशकाल और परिस्थिति उसकी यात्रा का प्रस्थान-बिन्दु और रास्ता भी तय कर देती है गंतव्य और प्रयोजन में बेशक थोड़ी हेर-फेर कर ले, लेकिन यात्रा में बने रहना ही उनके यहां पथिक के अस्तित्व और कर्म की सार्थकता मानी जाती है। अपनी तालिकाकविता में कवि ऐसी ही रेल-यात्रा का अनुभव बयान करता है, जहां वह अपनी स्मृति में साथ चलते और पीछे छूटते स्टेशनों की चिन्ता करते अपने आप से यही प्रश्न करता है :  

मैं जो उनसे गुजरता हूं  

क्या छूट जाता हूं

थोड़ा-सा वहां  

या वे कुछ-कुछ   

साथ हो जाते हैं मेरे ?

                                               (तालिका, पृ. 13)

    हम अपने अनुभव से यह बात जानते हैं कि व्यक्ति जिस किसी जीवन-प्रक्रिया या स्थल से गुजरता है, उसके साथ एक अन्तर्संबंध स्वतः ही बनता चलता है, कुछ वह गुजरते हुए दृश्य में छूट जाता है तो कुछ दृश्य को भी अपनी स्मृति में साथ लिये चलता है। इसी द्वंद्वात्मक प्रक्रिया से एक सार्थक यात्रा अपने गंतव्‍य तक पहुंचती है। यही बात बुनने उधेड़ने की प्रक्रिया और दुनिया को बनाने या उसी में खुद के बनने की प्रक्रिया पर भी लागू होती है। यहां कवि कविता के अन्त में एक सार्थक टिप्पणी करता है :  

कितना बेमानी हूं

मैं भी  जिसने

यह दुनिया बनाई

पर जो

अपनी दुनिया का न हुआ।

                           (एक दुनिया है, पृ. 15)

 

    जिस दुनिया ने उसे बनाया या जो दुनिया उसने बनाई, कवि उससे गहरा लगाव रखता है - उसके नदी-नाले, झील-समंदर, जंगल, पहाड़, मरुथल, सूखा, हरियाली, शीत, ताप सभी कुछ उसके जीवन के अभिन्न अंग हैं। और सिर्फ पांवों तले की ज़मीन ही नहीं, जिसमें वह जीता है, उसे तो सूरज, चांद, सितारे और सारा आकाश जैसे अपनी ही जीवन-चर्या का हिस्सा लगते हैं। सूरज इस सृष्टि को जीने की शक्ति देता है, चांद उसे समूचा आकाश गाता दीखता है - सितारे जिसकी संगत में तल्लीन, जिसे देखकर उसके मन में यह आकांक्षा जागती है :

          मैं भी गाना चाहता हूं /  रात का यह राग

          संगत मिलेगी मुझको? / कहो तो दोनों  

           मिलकर साथ गाएं / सृष्टि सारी संगत हो जाए!

                                                           (संगत, पृ. 72)

प्राकृतिक उपादानों के साथ इस तरह की उदात्त परिकल्पनाएं, जो छायावादी दौर की एक प्रमुख प्रवृत्ति मानी जाती थी, थोड़ी बदली हुई भाषिक-संवेदना में नंदकिशोर आचार्य की कविता की अपनी खूबी बन गई हैं। इन उदात्त परिकल्पनाओं के बावजूद उन्होंने प्रकृति को अलौकिक रूप में प्रस्तुत करने का उपक्रम प्रायः नहीं किया है और न उसे उत्सवधर्मी ही बनने दिया है। प्रकृति के साथ गहरा रागात्मक रिश्ता आचार्य की कविता को उन वृहत्तर सरोकारों से अनायास ही जोड़ देता है। प्रकृति के ऐसे मानवीय बिम्बों की छटा हिन्दी की इधर की कविता में बिरले ही देखने को मिलती है :  

         1.   तलाई की बाहों में / बेसुध / होता जाता चांद

            घने झुरमुट में / मुंद जाती हैं पलकें

            आकाश को / अब जहां जाना हो /  जाए!

                                      (चला जाए, पृ. 104)

         2.   अंधेरा ओढ़ कर /  सोए हुए उसकी / औचक उड़ाती नींद

            कुरजां गुजर जाती हैं / अभी तक सिहरता / आकाश।

                                                     (सिहरता आकाश, पृ. 106) 

 

    बावजूद इन टटके बिम्बों, उदात्त परिकल्पनाओं और मानवीय करुणा की सृष्टि के मनुष्य के जीवन-संघर्ष में प्रकृति की गहरी साझेदारी और परिवर्तनकामी सोच या मानवीय चिन्ता का वह वृहत्तर रूप, जो कभी राग मरुगंधाकी कुछ कविताओं में दिखाई दिया था, यहां कुछ क्षीण होता-सा नजर आता है।

    प्रकृति के ही एक अन्य दृष्टान्त से उपजी कवि की एक महत्वाकांक्षी और मनोहारी कविता है - लहरा रही है बस’, जिसमें कलाकृति के फ्रेम में किसी ऊंचाई वाले पेड़ से विच्छिन्न एक लहराती हुई पत्ती के चित्र के माध्यम से कवि ने किसी बड़े जीवन-सत्य की ओर ध्यान आकृष्ट करने का मंतव्य दर्शाया है :  

पेड़ के या धरती के होने के  

कुछ मानी नहीं अभी

पूरी है पत्ती लहराते हुए   

तनिक भी बिना यह सोचे

कहां से आ रही है वह  

कहां को जा रही है

वह है  पत्ती है  

और लहरा रही है  

 बस।

                                            (लहरा रही है बस, पृ. 28)

 

      जीवन के प्रति नंदकिशोर आचार्य का यह नजरिया मुझे विचारणीय लगता है। यहां सारी व्याख्या उस विच्छिन्न एकाकी पत्ती की तरह इकहरी है। अपनी स्‍वायत्‍त इकाई के बावजूद पत्ती का अस्तित्व और सार्थकता इसी में निहित है कि वह अपने मूल से अविच्छिन्‍न रहे। वहीं उसकी आब और अस्मिता सुरक्षित रह सकती है। उसका अपनी डाल/टहनी से टूटकर गिरना या हवा के साथ किसी दिशा में लहराते हुए असहाय बहते चले जाना उसकी सद्गति नहीं हो सकती। उसका इस तरह लहरा कर गिरना किसी कौतुहल का नहीं, विषाद का ही हेतु हो सकता है। उसकी इस परिणति को कोई संवेदनशील दर्शक/पाठक संतुष्ट या निर्विकार रहकर कैसे ग्रहण कर सकता है?  इसी संग्रह में एक और अस्तित्वबोध वाली कविता है - जब नहीं रहूंगा। जरा इस पर भी गौर करें। इस कविता में कवि ने ऐसे समय की परिकल्पना की है, जब वह इस असार संसार में नहीं रहेगा, लोग उसे याद करने का कोई औपचारिक उपक्रम कर रहे होंगे और वह सारा उपक्रम उसे एक बनावटी आयोजन की तरह लगेगा :

 

            होगा किसी का द्वेष / किसी की नफरत

            किसी का भय / किसी का प्रतिशोध

                    ....    ....

            मेरे बहाने सब / करेंगे याद अपने को -

            कैसा लगता है उन्हें / क्या खो गया उनका?

                                                      (जब नहीं रहूंगा, पृ. 29)

 

यहां भी अपनी तरह की एक अतिवादी प्रतिक्रिया नजर आती है। प्रत्येक व्यक्ति, अगर वह थोड़ा भी सामाजिक प्राणी रहा है, इस संसार से विदा हो जाने के बावजूद कुछ अरसे तक अपनी यश-काया में जीवित अवश्य रहता है। जो बड़े और महान् होते हैं, उनके योगदान को तो लोग सदियां बीत जाने के बाद भी उसी तरह याद करते हैं, लेकिन साधारण व्यक्ति भी अपने सत्कार्यों के लिए जीवन में यथेष्ठ सम्मान अवश्य पाता है और न रहने पर भी लोगों की अपेक्षित श्रद्धा का पात्र बना रहता है। इसके विपरीत जो बुरे कामों के लिए जाना जाता है, वह भी याद तो जरूर किया जाता है, लेकिन ऐसे उदाहरण के रूप में, जिस रूप में याद किया जाना शायद साधारण से साधारण मनुष्य भी न पसंद करे। इस कविता के काव्य-नायक को जाने क्यों यह चिन्ता आ घेरती है कि उसके न रहने की अवस्था में ‘क्या खो दिया होगा  / क्या पा लिया होगा / कितना दुःख कितनी राहत / मैंने न रहने पर / कौन जानेगा - कहेगा कौन?

      नंदकिशोर आचार्य मुख्‍यत: प्रकृति और प्रेम के कवि माने जाते हैं और उनकी कविताएं इसकी गहरी साख देती हैं। वे अपनी कविताओं में उस ऐन्द्रिक प्रेम के लिए बहुधा प्रकृति को ही आलंबन के रूप में चुनते हैं। उनके पूर्व के संग्रहों में ऐसी कितनी ही कविताएं हैं, जो उसी उद्दाम प्रेम की उत्कट छवियां प्रस्तुत करती हैं। यहां इस संग्रह के दूसरे खण्ड आवाज ने जब छुआमें सन् 1987 के दौर की कुच उदग्र हो जाएंगे कपोल रक्तिम/ ....उमड़ेंगी दुकूल में बंधी/ नदिया-सी सोनल जंघाएंजैसी ऐन्द्रिक कविताएं तो नहीं दीखतीं, लेकिन वे अब भी अपने प्रिय को समुद्र की उपमा देते हुए उसमें डूब जाने का अंतरंग भाव यथावत बनाए हुए हैं। अन्तर यही आया है कि प्रिय की तार्किक प्रतिक्रिया यहां काव्य-नायक को नाटकीय-संवाद में ला खड़ा करती है :

 

समुद्र हो तुम  

जिसमें डूब जाना चाहता हूं मैं -

मैंने कहा

नहीं रखता अपने पास

समुद्र सब लौटा देता है -

लहराते हुए तुमने दिया

यह उत्तर,  

लौटा देना चाहे मुझे

जैसे समुद्र लौटा देता है  

पर उछालकर

अपनी लहरों पर

कर अपने जल से तर-ब-तर

                                  (लौटा देना चाहे, पृ. 43)

     आचार्य की अधिकांश प्रेम कविताओं में काव्य-नायक कुछ अधीर-संशयग्रस्त और नायिका विरक्त-सी दिखाई देती है। उन्हें एक-दूसरे से कुछ अंतरंग-सी की शिकायतें भी हो गई हैं। जैसे - मैं क्या वही होता हूं/ तुम्हारे उजालों में/ जब आता हूं/ खुद के अंधेरों मेंया आवाज ही रहना है जब/  तुमको/  दृश्य क्यों कर दिया/  मुझको?’ जबकि काव्य-नायक उसे हर तरह से अपने लगाव के प्रति आश्वस्त करना चाहता है - जैसे रखना चाहे, वैसे ही रह लेने का वास्ता देता है :

 

1.      न दो अपने शब्दों में चाहे/  जगह थोड़ी-सी मिल जाय  

उनके बीच/ वहीं रह लूंगा/ आंख भर के देख लेना बस  

कभी चुपचाप/ सहारे उसके/ मैं सारा जीवन  खामोशी सह लूंगा

                                                                     (शब्दों के बीच, पृ. 54)

2.      नहीं चाहिए मुझे कोई नाम/ तुमसे वह मुझको अलग कर देगा

             रहा अनाम तो सब/ तुम्हारे नाम से पहचानेंगे मुझको

             और मैं/ तुम्हारी दुनिया का हिस्सा हो जाऊंगा

             तुम्हें अपनी दुनिया कहने का वाजिब हक पा जाऊंगा

                                                         (रहा अनाम तो, पृ. 82)

     आचार्य की परवर्ती कविताओं में कहीं यह स्वर भी निकलता है कि कवि का अब इस प्रेम-जाल से मोहभंग हो गया है। एक खास किस्म की थकान और हताशा इन कविताओं की टोन का हिस्सा हो गई लगती हैं। कविताओं के बीच इस तरह का पद पाकर तो वाकई हैरत होती है कि क्या हालत इस हद तक आ पहुंची है :  

 

             हंसी गर नहीं भाग्य में मेरे  

             रो तो लूं  

             तुम्हारी गोद में सर रखकर -

             हंसने नहीं देती तुम

              रोने भी नहीं देतीं

                                        (देख रहे हैं सपना, पृ. 66)

यह ठीक है कि अपने इस अंतरंग रिश्ते को कवि ने बेहद आत्मीय लहजे और अच्छे दिनों की स्मृतियों को खूबसूरत बिम्बों में पिरोकर प्रस्तुत किया है, एक-दूसरे के सपनों में बने रहने का भाव उन्हें अब भी सुकून और तसल्ली देता है, लेकिन यही भाव जब मोहभंग की इस अवस्था तक आ पहुंचता है, तो हैरत होती है :  

 

तराशा जिसको खुद के लिए

उसी से छुपा-छुपी

            अब रहती है छाया

            प्रेम की क्या अजब माया!

                                        (छुपी-छुपी छाया, पृ. 59)

हकीकत नहीं हो

मेरी दुनिया की तुम

खयाल हो बस!

            मैं भी क्या खयाल ही हूं तुम्हारा?

                                         (खयाल गर वह, पृ. 88)

 

     ‘चांद आकाश गाता है’ के तीसरे खंड की कविताएं प्रकारान्तर से पहले दो खंडों की कविताओं में उत्तरोत्तर क्षीण होते प्रेम और अकेलेपन के अवसाद का विस्तार-सा दिखाई देती हैं। इस व्यथा-कथा का शेष रूपक भी कुछ इसी तरह बनता है, जैसे अपनी बसाई दुनिया और अपने रागात्मक रिश्तों से निराश काव्य-नायक किसी बूढ़े हंस की तरह एक ऐसे एकाकी परिवेश में आ बसा है, जहां पहुंचते-पहुंचते उसकी उड़ान की सारी क्षमताएं सीमित हो गई हैं और उसकी पूरी जीवन-चर्या ही जैसे बदल गई है :

एक अकेला  

जंगल के सन्नाटे को  

सुनता है बूढ़ा हंस।

                                                  (बूढ़ा हंस, पृ. 99)

उसके परिवेश के बाकी उपादान भी अब उसे अपनी ही तरह बूढ़े और थके हुए नजर आते हैं - बूढ़ा चांद, बूढ़े पहाड़, बूढ़ी सलाइयां जैसी शीर्षक कविताएं इसी अवस्था की ओर संकेत करती हैं। यात्रा के इसी अंतिम पड़ाव की ओर इंगित करती ये कविताएं क्‍या यही कुछ नहीं कहतीं? :

 

(1)                

अंधकार में नदी किनारे  

जाने किसकी यादों में

डूबा है बूढ़ा चांद!

(2)                             

थके हुए चुपके-से बैठे हैं

दो पहाड़  ताकते हुए एक-दूजे को

काश! पिला देता कोई  आकर  

बस थोड़ी-सी चाय!       (पृ. 96)

(3)                           

पक कर झर गये हैं  

सभी पत्ते  

हरे थे जो कभी

पेड़ पेड़-सा खड़ा है निस्संग वैसा ही।    

                        (वसंत ही नहीं है केवल, पृ. 108)

 

     अपनी काव्य-सर्जना की अन्तर्वस्तु और उनके भाव-संवेदन में आये इस अन्दरूनी बदलाव के बावजूद उनके वैचारिक आग्रह और रूप-रचना का विधान यथावत है। उनकी भाषा और तकनीक में भी कोई बड़ा परिवर्तन नहीं आया हो, ऐसा भी नहीं है। काव्‍य संरचना की बुनावट और बंदिश में कसावट उनकी अपनी खूबी है। जहां जरूरी होता है, वहां वे ब्यौरों में भी जाते हैं, लेकिन भाषा को उतनी ही सहज और आम बोल-चाल के नजदीक बनाए रखने में कोई गुरेज नहीं करते। यह देखना वाकई दिलचस्‍प है कि अपने ही अक्‍स में डूबी कविता का ऐसा अंतरंग रचाव करते हुए कवि किस तरह रूप-रचना के अपने सारे आग्रह एकबारगी भूल जाता है। पहले के संग्रहों में कुछ पारिवारिक प्रसंगों वाली आत्मीय कविताओं में जो जरूरी नैरेशन मिल जाते थे,  बाद की कविताओं में उन्होंने अपने पर कुछ अंकुश लगाया दीखता है। वैसे उन्होंने जब कभी नैरेटिव फॉर्म का उपयोग किया है, उससे कुछ और बेहतर कविताएं सामने आई हैं। ऐसी ही बेहतरीन कविताओं में मां और पिता की स्‍मृति को सहेजती उनकी वे मर्मस्‍पर्शी कविताएं अनायास ही स्‍मृति में कौंध जाती हैं :

एक मरोड़-सी उठती रुलाई 

जिसे वह एक बेबस मुस्‍कुराहट से

ढंककर दबा देते 

कसारियों से खा लिये गये

धोती-कुर्ते और दुपट्टे के साथ

और झेंपते हुए

हमारी ओर देखते

कहीं देख तो नहीं लिया हमने उन्‍हें

उन तार-तार कपड़ों को 

सहलाते-सहेजते हुए।

           (पिता के न रहने पर / शब्‍द भूले हुए, पृष्‍ठ 31)

उसने वह लील ली है

मुस्‍कुराहट

धरते हुए मेरी कठौती में

गर्म फुलका

जो हौले से उभर आती है

मां के थके-तपे चेहरे पर।

                  (मां के चेहरे की छाया/ शब्‍द भूले हुए, पृ 32)

 

     आचार्य जी की इन आत्‍मीय कविताओं में पारिवारिक और मानवीय रिश्‍तों तथा जीवन के व्‍यापक सरोकारों के प्रति गहरे लगाव के बावजूद उनकी काव्‍य-प्रक्रिया में रूप-रचना के आग्रह अपनी जगह हैं और जीवन-जगत और रचना का सच अपनी जगह, जिसे रचनाकार की संपूर्ण साहित्यिक प्रक्रिया में जाकर ही समझा जा सकता है।

     और यह अंतिम बात मैं बल देकर कहना चाहता हूं कि यह कहना नंदकिशोर आचार्य की कविता और उनकी काव्य-प्रक्रिया के महत्व को कतई कम करके आंकना नहीं है कि उनकी काव्य-संवेदना और रचना-शिल्प में वे तमाम प्रवृत्तियां और सूत्र साफ पहचाने जा सकते हैं, जो उनके काव्य-गुरू अज्ञेय की काव्यानुभूति और काव्य-तकनीक की मुखर खूबियां मानी जाती हैं - वही भाषा में मौन को साधने की साध, शब्दों के बीच की नीरवता, अंतर्लय के प्रति आग्रह, वही प्रश्नाकुल उक्तियां, वही सन्नाटा, खंडहर, अकेलापन, वही सागर, नदी, पहाड़ और मरुथल के नीचे बहती अन्तःसलिला का निनाद, वही शब्द-संयोजन, वही वाक्य-विन्यास और वही कहन की भंगिमा। इस हद तक अपने अनुकरणीय का अनुगमन खुद अपने आप में एक दृष्टान्त हो जाना है। इस तरह अपनी परम्परा और अतीत को वर्तमान करती कवि नंदकिशोर आचार्य की काव्य-यात्रा आज जिस मुकाम पर आ पहुंची है, उससे आगे वह क्या मोड़ लेगी, यह जानना खुद मुझ जैसे पाठक के लिए एक नया ही अनुभव होगा।

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