Tuesday, December 22, 2020

 


कथा समीक्षा : अशोक सक्‍सेना की कहानियां

माई का लाल : कस्‍बाई संवेदना की मार्मिक कहानियां

·         नंद भारद्वाज

मकालीन हिन्‍दी कथा-लेखन में नवें दशक के बाद आए नये कथाकारों में अशोक सक्सेना एक सजग जनवादी कथाकार के रूप में अपनी अलग पहचान रखते हैं  उस दौर की साहित्यिक पत्रिकाओं में उनकी कहानियां छपती रही हैं और उन्‍हीं कहानियों का पहला संग्रह 'उसका मरना' सन् 1994 में प्रकाशित होकर सामने आया था। उनका दूसरा संग्रह 'अब्बू'  उसके ठीक बीस वर्ष बाद उद्भावना प्रकाशन से 2014 में प्रकाशित हुआ। पत्रिकाओं के अलावा कुछ संपादित कथा-संकलनों में भी उनकी कहानियां बराबर स्‍थान पाती रही हैं और इस तरह एक समर्थ कथाकार के रूप में उनकी उपस्थिति को बराबर अनुभव किया जाता रहा है। राजस्थान के पूर्वी अंचल के प्रमुख शहर भरतपुर में रहते हुए अशोक सक्‍सेना ने पिछले चार दशकों में अपनी विशिष्‍ट आंचलिक शैली और गहरी लोक-संवेदना से रची कहानियों के माध्‍यम से हिन्‍दी कथा-जगत में अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज कराई है। कथा लेखन के इसी क्रम में उनकी कहानियों का नया संग्रह ‘माई का लाल’ हाल ही में अनुज्ञा बुक्‍स, दिल्‍ली से प्रकाशित होकर आया है, जिसमें उनकी सोलह कहानियां संग्रहीत हैं। 

    अशोक सक्‍सेना की कहानियों में अपने समय की सामाजिक विसंगतियों, रूढ़ियों, शोषित-पीड़ित स्त्रियों, बच्‍चों और वंचितों की पीड़ा मुखर रूप में व्‍यक्‍त होती रही है। सामाजिक वैमनस्‍य, प्रशासनिक भ्रष्‍टाचार, साम्‍प्रदायिकता की समस्‍या और श्रमिकों के आर्थिक शोषण को लेकर भी उनकी कहानियां पाठकों का ध्‍यान आकर्षित करती रही हैं। ऐसी कहानियों को उनके तीनों संग्रहों में सहज ही रेखांकित किया जा सकता है। उनके कथा-लेखन की आंचलिक रंगत, भाषा की ताजगी, लोक-जीवन के बारीक ब्‍यौरे और पात्रों के अन्तर्मन में गहरे उतर कर उनके अन्तर्द्वन्‍द्व और मनोभावों को उकेर पाने की अनूठी खूबियों के कारण ये कहानियां अपनी अलग पहचान बनाती हैं।

    अपने रचनात्‍मक लेखन के माध्‍यम से हर तरह के अन्याय का विरोध करना एक संजीदा  रचनाकार को किस तरह का आत्मिक सुख और सार्थकता प्रदान करता है, इसे अशोक सक्‍सेना जैसे कथाकार की कहानियेां के माध्‍यम से समझा जा सकता है।  देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम हो जाने के बावजूद जो लोग जीवन के मौलिक अधिकारों, बुनियादी सुविधाओं और आत्‍मसम्‍मान से जीने के हक़ से वंचित हैं, क्या उनके प्रति हमारे मन में कोई चिन्‍ता, संवेदना या सहानुभूति नहीं आकार लेती ? एक सजग नागरिक के रूप में क्‍या हम उनके जीवन-संघर्ष में कहीं कोई भागीदारी निभाते हैं? ग्रामीण क्षेत्रों और आम शहरी हलकों में श्रमिकों और निम्न-मध्यवर्ग के व्यक्ति की आज जो हालत है,  किसानों और श्रमिकों की जो दशा है, अपने परिवार के गुजर-बसर के लिए वे जिस तरह दिन-रात एक किये रहते हैं और उन्‍हें उनकी उपज और श्रम  का सही मूल्‍य नहीं मिलता,  अन्याय से लड़ते हुए वे हर बार जख्मी होते हैं, बाजार की शक्तियों के हाथों बार-बार ठगे जाते हैं, लेकिन हार नहीं मानते - क्या हमने कभी जानने का प्रयत्न किया कि वह श्रम-शक्ति हमारे लिए क्‍या मायने रखती है? उन श्रमिक-किसानों का अपना मनोबल और जीवन-विवेक, उन्‍हें लड़ने की हिम्मत देता है, किसी की मेहरबानी या अहसान लेकर जीना उन्‍हें कभी रास नहीं आता, अपनी नेक-नीयति, स्वाभिमान और नैतिक-बल उनका सबसे बड़ा संबल होता है, जिससे वे हर कठिनाई का धीरज से सामना करते हैं।

     कथाकार अशोक सक्‍सेना की कहानियों के अधिकांश पात्र इसी उसी आंचलिक परिवेश और मध्यवर्गीय शहरी जीवन से आते हैं,‍ जिनसे वे स्‍वयं भीतर तक जुड़े रहे हैं। ये कहानियां उनके उसी अनुभव-संसार से हमें रूबरू कराती हैं, जो हिन्दी कहानी के लिए अछूता रहा है। कुछ नये-पुराने शहरी रचनाकारों ने बेशक अपनी कहानियों में इसे उकेरने का प्रयत्न किया हो, लेकिन उनके ये आयातित अनुभव हर बार किन्हीं नाटकीय अतियों में उलझकर रह गये हैं, अपनी स्‍वाभाविक परिणति तक कम ही पहुंच पाए हैं। इन कहानियों का ताना-बाना कुछ इस तरह का है कि इनके माध्यम से कथाकार ने निम्‍न मध्‍यवर्गीय शहरी जीवन के निर्मम यथार्थ को संयम के साथ सीमित संवादों में साकार करने का प्रयत्‍न किया है। उन संवादों में जिस भाषा-शैली और बयानगी का रूप निखर कर सामने आया है, वह उस कस्‍बाई जीवन से सीधा संबंध रखनेवाले रचनाकार से ही आना संभव है। कथाकार ने जिस करुणा, बेबसी और जिजीविषा को उकेरने का प्रयत्न किया है, वह अनायास ही इन्हें हिन्दी की उल्लेखनीय कहानियों की श्रेणी में पहुंचा देता है। परिवेश के इन सूक्ष्म ब्यौरों को उन्‍होंने जिस बारीकी और सघनता के साथ उकेरा है, वह कहीं भी अतिरंजित या अति-नाटकीय नहीं है और यही अशोक सक्‍सेना के कथा-लेखन की सबसे बड़ी विशेषता रही है।

    इसी कस्‍बाई परिवेश और निम्‍न मध्‍यवर्गीय शहरी जीवन के अनुभवों पर आधारित अशोक सक्‍सेना की क‍हानियों के नये संग्रह ‘माई का लाल’ की कहानियों के बीच से गुजरना एक अलग तरह की ताजगी और तसल्‍ली का अहसास कराता है। ये कहानियां जिस निम्न-मध्यवर्गीय शहरी परिवेश में जीने वाले लोगों की रोजमर्रा की जिन्दगी से ताल्लुक रखती हैं, उनमें स्त्रियों की स्थिति और उनका संघर्ष विशेष रूप से आकर्षित करता है। इस पुरुष-प्रधान समाज में हर स्‍त्री को अपने अस्तित्‍व और अस्मिता के लिए संघर्ष करना पड़ता है, चाहे उन विरोधी स्थितियों में उसकी बात मानी जाए या न मानी जाए, वह अपने जीवन-विवेक और आत्‍मनिर्णय को महत्‍व अवश्‍य देती है - वह चाहे एक चुटकी नमककी नायिका किरण और उसकी भाभी हो, ‘आखिरी दांवकी नायिका जुआरी की पत्‍नी हो, ‘माई का लाल’ की अम्‍मा या माई हो, या सदा सुहागनके कथानायक रामेश्‍वर की पत्‍नी हो अथवा उसकी बूढ़ी अम्‍मा - इन स्‍त्री-चरित्रों की सोच और उनका संघर्ष एक दृष्टान्त की तरह सामने आता है।

       माई का लाल’ इस संग्रह की एक मार्मिक और महत्‍वपूर्ण कहानी है, जिसका कथानायक अपने बचपन से ही कठिन संघर्ष के दौर से गुजरा है। वह बाड़ी-धौलपुर के एक सवर्ण शिक्षक ज्ञानेन्‍द्र मिश्रा का बेटा था, जिसे लालची पिता ने उसकी छह साल की उम्र में मूलचंद जाटव नामक ऐसे निस्‍संतान दलित अधिकारी को गोद दे दिया, जिसके पास अच्‍छी-खासी जमीन-जायदाद थी, अधिकारी होने का रुतबा था और दलित होने के कारण लड़के का कैरियर बनने की बेहतर संभावनाएं थीं। बच्‍चे की मां पति के इस निर्णय से कतई सहमत नहीं थी और उसने इसका विरोध भी किया, लेकिन उसे अनदेखा कर दिया गया। ज्ञानेन्‍द्र मिश्रा इस खुशफहमी में था कि बड़ा होने पर उसका बेटा उस सारी संपत्ति का मालिक होकर वापस उसके पास लौट आएगा। लेकिन वह यह नहीं जानता था कि बच्‍चे के मनोवैज्ञानिक विकास की एक संवेदनशील मानवीय प्रक्रिया है, वह जिस भावनात्‍मक परिवेश में बड़ा होता है, उसी के अनुरूप सीख, संवेदन और समझ ग्रहण करता है। मूलचंद जाटव डेगाना के नजदीक नवासर गांव का निवासी था, जहां उसका पुश्‍तैनी घर और जमीन-जायदाद थी। उसकी पत्‍नी ने इस गोद लिये बच्‍चे को मातृत्‍व का ऐसा आत्‍मीय प्‍यार और बेहतर परवरिश दी कि समय गुजरने के साथ उसने उन्‍हीं को अपना मां-बाप मान लिया। उसे नागौर शहर में अच्‍छे स्‍कूल में शिक्षा दिलवाई गई। जब वह दसवें दर्जे में स्‍कूल की छुट्टियों में मां-बाप के पास आया और एक दिन उन्‍हें बिना बताए दोस्‍तों के साथ फिल्‍म देखने चला गया। उसे रात को घर पहुंचने में कुछ देरी हो गई, जिसकी वजह से मां-बाप का चिन्तित और नाराज होना स्‍वाभाविक था। अगले दिन उसे पिता की डांट-डपट के साथ हल्‍की-सी मार भी पड़ी। इसी दौरान खेत के कुएं पर बच्‍चे की ताई ने उसे जब यह बताया कि वह गोद लिया हुआ बच्‍चा है, इसीलिए उसके साथ इस पिता ने ऐसा बरताव किया है। ऐसा कहने के साथ उसने बच्‍चे को वास्‍तविक पिता का नाम-पता भी बता दिया। अगले ही दिन माई-बापू से नाराज राजकुमार उन्‍हें बिना कुछ बताए बाड़ी-धौलपुर पहुंच गया। वहां पहुंचने पर उसे असली मां से तो स्‍नेह-प्‍यार मिला, लेकिन घर के बाकी लोगों का व्‍यवहार उसे बदला सा लगा। उसे तुरंत अपनी भूल का अहसास हुआ और वह वापस अपने पालक माता-पिता के पास नवासर लौट आया जो उसके इस तरह चले जाने से चिन्तित और व्‍याकुल थे। इस घटना से मूलचंद को भी अपनी भूल का अहसास हो गया और वह बच्‍चे की परवरिश के प्रति और संवेदनशील हो गया। पढ़ाई में अव्‍वल रहने के कारण राजकुमार का आईआईटी में चयन हो गया और पिता ने उसका दिल्‍ली आईआईटी में दाखिला भी करवा दिया। बेटे के इसी परिश्रम, लगन और उसके सफल भविष्‍य की कामना करते हुए उस दलित पिता ने उसे यही सीख दी कि “एक बात याद रखना बेटा। आदमी धन-दौलत या जात-बिरादरी से बड़ा-छोटा नहीं होता। बड़ा या छोटा होता है अपनी सोच से और सोच बनती है कर्म से, जैसी जिसकी सोच वैसे उसके कर्म।" राजकुमार ने पिता की इस सोच को अपने आचरण का अंग बना लिया और लगन से अपनी पढ़ाई में लग गया। साल भर बाद जब पिता के देहान्‍त की सूचना मिली तो वह अपने गांव लौट आया। वह तो माई के पास ही रहना चाहता था, लेकिन माई ने उसे यही सलाह दी कि वह अपनी पढ़ाई जारी रखे और पिता का सपना पूरा करे। आईआईटी की पढ़ाई पूरी होने के बाद राजकुमार ने आईएएस की परीक्षा दी और वह उसमें कामयाब रहा। उसे राजस्‍थान कैडर में एडीएम (सिटी), सीकर के रूप में पहली नियुक्ति ‍मिली। ज्ञानेन्‍द्र मिश्रा ने राजकुमार को वापस अपने पास लौट आने का बहुत आग्रह किया, लेकिन राजकुमार ने उस लालची पिता को हमेशा के लिए त्‍याग दिया था, अब माई ही उसकी असली मां थी। और यही ‘माई का लाल’ अपने समय-समाज के सामने एक मिसाल बनकर सामने आया। अशोक सक्‍सेना ने इस कहानी को जिस मनोयोग से सूक्ष्‍म मनोवैज्ञानिक ब्‍यौरों और मार्मिक प्रसंगों के साथ लिखा है वह उनके व्‍यापक सामाजिक सरोकारों और कथा-लेखन के प्रति आत्मिक लगाव का ही परिचायक है।

       ग्रामीण परिवेश और मध्यवर्गीय शहरी जीवन की कश्मकश से आगे बढ़ते हुए अशोक सक्‍सेना ने अपनी कहानियों के माध्यम से उस राजनीतिक दृष्टिकोण के औचित्य और उसकी क्रान्तिकारी गतिविधियों को भी अपनी कथा-प्रक्रिया में शामिल किया है, जिसे कहानी के पाठ में शामिल करते ही कला-आग्रही लोगों को अक्सर उसमें राजनीतिक प्रचार की बू आने लगती है और साहित्य की स्वायत्तता खतरे में नजर आती है। लेकिन लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था और मानवीय दृष्टिकोण में विश्‍वास रखनेवाला व्‍यक्ति अपने समय और देश-दुनिया के हालात से बेखबर कैसे  रह सकता है? अगर थोड़ा भी संवेदनशील हो तो उस विभाजनकारी राजनीति को कैसे अनदेखा कर सकता है, जो अपने स्‍वार्थों के लिए लोगों को बांटने और उनके बीच वैमनस्‍य पैदा करने वाली गतिविधयों में जुटी रहती है? इस विभाजनकारी राजनीति के दुष्‍परिणाम हम आजादी की लड़ाई के अंतिम वर्षों से आज तक देखते भोगते आए हैं और लोकतंत्र में आस्‍था रखने वाले सजग लोग बराबर आगाह भी करते रहे हैं। अशोक सक्‍सेना ने इस साम्‍प्रदायिक राजनीति को बेनकाब करने वाली कई प्रभावशाली कहानियां अपने पहले के संग्रहों में भी प्रस्‍तुत की हैं, जिनमें पहले संग्रह की शीर्ष कहानी ‘उसका मरना’ और दूसरे संग्रह की भी शीर्ष कहानी ‘अब्‍बू’ को पाठक भूले नहीं होंगे। उनके मौजूदा संग्रह ‘माई का लाल’ में ऐसी ही दो प्रभावशाली कहानियां हैं – ‘लाश’ और ‘फरिश्‍ता’, जो उत्‍तरोत्‍तर गहराती साम्‍प्रदायिक राजनीति पर करारा प्रहार करती हैं। चिन्‍ता की बात यह है कि अब इस साम्‍प्रदायिक राजनीति का जहर सुदूर ग्रामीण इलाकों तक फैलने लगा है, जहां शताब्दियों से अलग अलग मजहबों और आस्‍थाओं को मानने वाले लोग आपसी सद्भाव से साथ रहते आए हैं, वे एक-दूसरे के मजहबी कायदों की इज्‍ज्‍त करते हैं, उस सद्भाव को बर्बाद करने वाली प्रवृत्तियां आज पूरे आक्रामक मोड में हैं। अच्‍छी बात यह है कि अशोक जी की राजनीतिक चेतना वाली कहानियां अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति में भी उतनी ही प्रभावशाली बन पड़ी हैं। इस दृष्टि से ‘लाश’ और ‘फरिश्‍ता’ वाकई बेजोड़ कहानियां हैं, जो असंगतियों पर करारा व्‍यंग्‍य भी करती है और गहरा प्रभाव छोड़ती हैं। इन कहानियों के आधार पर उनके सामाजिक सरोकारों के बारे में यह बात निस्संकोच कही जा सकती है कि वे जीवन-मूल्यों और लोकतांत्रिक व्यवस्था को सर्वोपरि महत्व देते हैं। उनकी व्यापक सहानुभूति सदा अन्याय से पीड़ित उन संघर्षशील लोगों के साथ दिखाई देती है, जो अपने आप में एक शुभ-संकेत है और उनकी भविष्य की कथा-यात्रा के प्रति आशावान भी बनाती है।

    इन कहानियों के माध्यम से कथाकार ने अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने वाले लोगों के प्रति जहां गहरी सहानुभूति उत्‍पन्‍न करने की कोशिश की है, वहीं अपने अधिकारों और न्याय के लिए हिंसा के रास्ते से बचने की भी सलाह दी है। कई बार अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए किये जाने वाले प्रदर्शन और प्रतिरोध हिंसक रूप धारण करने लगते हैं और इससे  श्रमिकों, खेतिहर  मजदूरों और युवाओं का बड़ा तबका अनजाने ही कानून-व्‍यवस्‍था की शातिर कार्यवाहियों का शिकार हो जाता है। ‘फितरत’, ‘हरामी का पिल्‍ला’, ‘कौआ कांड’ आदि ऐसी ही उल्‍लेखनीय कहानियां हैं। कुलमिलाकर ‘माई का लाल’ संग्रह में शहरी निम्‍न मध्‍यवर्ग की पीड़ित स्त्रियों, श्रमिकों, वंचितों के दुख-दर्द और कस्‍बाई संवेदना की ऐसी मार्मिक कहानियां हैं, जो एक संवेदनशील पाठक पर गहरा प्रभाव छोड़ जाती हैं और यही एक संजीदा रचनाकार की सबसे बड़ी सफलता है। 



* इस समीक्षा को आप राजस्‍थान साहित्‍य अकादमी की मुख-पत्रिका 'मधुमती' के दिसंबर, 2020 अंक में भी पढ़ सकते हैं। 

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·         चर्चित पुस्‍तक : माई का लाल (कहानी संग्रह), लेखक – अशोक सक्‍सेना, प्रकाशक : अनुज्ञा बुक्‍स, वैस्‍ट गोरख पार्क, शाहदरा, दिल्‍ली – 110032, पृष्‍ठ – 188, मूल्‍य - 550 रुपये। 

Email : nandbhardwaj@gmail.com