Wednesday, May 4, 2011

अपनी कुछ प्रेम कविताएं


तुम्‍हारी याद

आज फिर आई तुम्‍हारी याद
तुम फिर याद में आई –
आकर समा गई चौतरफ
समूचे ताल में ।
रात भर होती रही बारिश
रह-रह कर हुमकता रहा आसमान
तुम्‍हारे होने का अहसास –
कहीं आस-पास
भीगती रही देहरी
आंगन-द्वार
मन तिरता-डूबता रहा
तुम्‍हारी याद में।

उसकी स्मृतियों में
जिस वक्त में यहाँ होता हूँ
तुम्हारी आँख में
कहीं और भी तो जी रहा होता हूँ
किसी की स्मृतियों में शेष
शायद वहीं से आती है मुझमें ऊर्जा
इस थका देने वाली जीवन–यात्रा में
फिर से नया उल्लास
एक सघन आवेग की तरह
आती है वह मेरे उलझे हुए संसार में
और सुगंध की तरह
समा जाती है समय की संधियों में मौन
मुझे राग और रिश्तों के
नये आशय समझाती हुई।
उसकी अगुवाई में तैरते हैं अनगिनत सपने
सुनहरी कल्पनाओं का अटूट एक सिलसिला
वह आती है इस रूखे संसार में
फूलों से लदी घाटियों की स्मृतियों के साथ
और बरसाती नदी की तरह फैल जाती है
समूचे ताल में
उसी की निश्छल हँसी में चमकते हैं
चाँद और सितारे आखी रात
रेतीले धोरों पर उगते सूरज का आलोक
वह विचरती है रेतीली गठानों पर निरावेग
उमड़ती हुई घटाओं के अन्तराल में गूँजता है
लहराते मोरों का एकलगान
मन की उमंगों में थिरक उठती है वह
नन्हीं बूँदों की ताल पर।
उसकी छवियों में उभर आता है
भीगी हुई धरती का उर्वर आवेग
वह आँधी की तरह घुल जाती है
मेह के चौतरफा विस्तार में
मेरी स्मृतियों में
देर तक रहता है उसके होने का अहसास
सहेज कर जीना है
उसकी ऊर्जा को अनवरत।

मैं जो एक दिन
मैं जो एक दिन
तुम्हारी अधखिली मुस्कान पर रीझा,
अपनों की जीवारी और जान की खातिर
तुम्हारी आंखों में वह उमड़ता आवेग -
मैं रीझा तुम्हारी उजली उड़ान पर
जो बरसों पीछा करती रही -
अपनों के बिखरते संसार का,
तुम्हारी वत्सल छवियों में
छलकता वह नेह का दरिया
बच्चों की बदलती दुनिया में
तुम्हारे होने का विस्मय
मैं रीझा तुम्हारी भीतरी चमक
और ऊर्जा के उनवान पर
जैसे कोई चांद पर मोहित होता है -
कोई चाहता है -
नदी की लहरों को
बांध लेना बाहों में !
ÛÛÛ

तुम्हारा होना
तुम्हारे साथ
बीते समय की स्मृतियों को जीते
कुछ इस तरह बिलमा रहता हूं
अपने आप में,
जिस तरह दरख्त अपने पूरे आकार
और अदीठ जड़ों के सहारे
बना रहता है धरती की कोख में ।
जिस तरह
मौसम की पहली बारिश के बाद
बदल जाती है
धरती और आसमान की रंगत
ऋतुओं के पार
बनी रहती है नमी
तुम्हारी आंख में -
इस घनी आबादी वाले उजाड़ में
ऐसे ही लौट कर आती
तुम्हारी अनगिनत यादें -
अचरज करता हूं
तुम्हारा होना
कितना कुछ जीता है मुझ में
इस तरह !
ÛÛÛ
तुम यकीन करोगी
तुम यकीन करोगी -
तुम्हारे साथ एक उम्र जी लेने की
कितनी अनमोल सौगातें रही हैं मेरे पास:
सुनहरी रेत के धोरों पर उगती भोर
लहलहाती फसलों पर रिमझिम बरसता मेह
कुछ नितान्त अलग-सी दीखती हरियाली के बिम्ब
बरसाती नदियों की उद्दाम लहरें
और दरख्तों पर खिलते इतने इतने फूल…….
कोसों पसरे रेतीले टीबों में
खोए गांवों की उदास शामें -
सूनी हवेलियों के
बहुत अकेले खण्डहर,
सूखे कुए के खम्‍भों पर
प्यासे पंछियों का मौन
अकथ संवाद,
कुलधरा-सी सूनी निर्जन बस्तियां
मन की उदासी को गहराते
कुछ ऐसे ही दुर्लभ दरसाव
हर पल धड़कती फकत् एक अभिलाषा -
जीवन के फिर किसी मोड़ पर
तुम्हारी आंख और आगोश में
अपने को विस्मृत कर देने की चाह
और यही कुछ सोचते सहेजते
मैं थके पांव लौट आता हूं
बीते बरसों की धुंधली स्मृतियों के बीच
गो कि कोई शिकायत नहीं है
अपने आप से -
फकत् कुछ उदासियां हैं
अकेलेपन की !
ÛÛÛ
एक आत्मीय अनुरोध
कहवाघरों की सर्द बहसों में
अपने को खोने से बेहतर है
घर में बीमार बीबी के पास बैठो,
आईने के सामने खड़े होकर
उलझे बालों को संवारो -
अपने को आंको,
थके हारे पड़ौसी को लतीफा सुनाओ
बच्चों के साथ सांप-सीढ़ी खेलो -
बेफ़िक्र     फिर जीतो चाहे हारो,
कहने का मकसद ये कि
खुद को यों अकारथ मत मारो !
जरूरी नहीं
कि जायका बदलने के लिए
मौसम पर बात की जाए
खंख किताबों पर ही नहीं
चौतरफ    दिलो-दिमाग पर
अपना असर कर चुकी है -
खिड़की के पल्ले खोलो
और ताजा हवा लेते हुए
कोलाहल के बीच
उस आवाज की पहचान करो
जिसमें धड़कन है ।
आंख भर देखो उस उलझी बस्ती को
उकताहट में व्यर्थ मत चीखो,
बेहतर होगा -
अगर चरस और चूल्हे के
धुंए में फ़र्क करना सीखो !
- नंद भारद्वाज
ÛÛÛ

11 comments:

  1. यहां आकर सुखद लगा। 'हथाई' से 'नंद की हथाई' तक का सफर शानदार रहा है। आगे का सफर और भी साहित्‍यानंद लिए हुए होगा। निरंतर पढ़ते रहेंगे।
    नए ब्‍लॉग हेतु शुभकामनाएं।

    बधाई

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  2. "BLOG" k liye BADHAI tatha Subhkamanayen. Apki kavitayen padhkar achha laga Visheshkar 'TUMHARI YAD' ME JO EK DIN' 'EK AATMIYA ANURODH'. KAVITAYEN PADHTE HUE APKI MADHUR AWAZ BHI MAHSUS KI. ME BHAGYASHALI MANTA HU KI APKE SATH KAM KARNE KA MOUKA MILA.

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  3. ''रात भर होती रही बारिश
    रह-रह कर हुमकता रहा आसमान
    तुम्‍हारे होने का अहसास –
    कहीं आस-पास
    भीगती रही देहरी
    आंगन-द्वार
    मन तिरता-डूबता रहा
    तुम्‍हारी याद में ।''
    ...............अनमोल !!!

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  4. एक खूबसूरत अहसास से शुरू हो कर ज़िन्दगी की कडवी सचाई तक जाते हुए कविता के कदम .. समेटे हुए है जाने कितने रंगों के आभाष .. सारी कवितायेँ ज़िन्दगी का ताना बना बुनती हुई ...आपकी हर सुन्दर अभिव्यक्ति को नमन

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  5. हमारा सौभाग्य है कि अब हर नई रचना हमें शीघ्र ही पढ़ने को मिला करेगी बहुत बहुत धन्यवाद

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  6. sachchai jindgi ki dharro main vyasno mein bande log samz te nahin..koi kahne wala bhi nahin hai..aaj kal.
    aapki kavita se koi ek bhi samajh gaya to sarthak ho jayegi kavita..

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  7. सुन्दर अभिव्यक्ति, शुभकामनाएं.

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  8. काफी अच्छा लिखते है आप ,एक ताजगी महसूस होती है आप की रचनाओं में

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  9. "जीवन के फिर किसी मोड़ पर
    तुम्हारी आंख और आगोश में
    अपने को विस्मृत कर देने की चाह
    और यही कुछ सोचते सहेजते
    मैं थके पांव लौट आता हूं"
    मन की दशा को बखूबी बयां किया है आपने! कितनी चाहते बस चाहत बन रह जाती है !बहुत सुंदर भावाभिव्यक्‍ति !

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  10. नया कुछ पढ़ने की चाह "हथई" में ले आई। पहले पढ़ा हुआ पुन: पढ़ा और अंतस में ठहर गया -

    आती है वह मेरे उलझे हुए संसार में
    और सुगंध की तरह
    समा जाती है समय की संधियों में मौन
    मुझे राग और रिश्तों के
    नये आशय समझाती हुई।

    ...इस कस्तूरी को पाने हेतु ही तो मन अस्थिर हुआ जाता है....समय की संधियों में मौन समा ही तो जाती है वह.....अनमोल !

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