‘एक नये फॉर्म की तलाश में हैं नये कहानीकार’ –
स्वयं प्रकाश
(समकालीन हिन्दी कहानी पर एक अनौपचारिक संवाद)
नंद भारद्वाज – प्रकाश, आप सातवें और आठवें दशक की हिन्दी
कहानी में न केवल एक कथाकार के बतौर सक्रिय रहे, बल्कि अपने समय और उससे पहले की
कहानी को आपने करीब से जाना-समझा भी है, उस कथा-परंपरा में आये बदलाव में आपकी
हिस्सेदारी भी रही है। जिस दौर में ‘सारिका’, ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’
आदि पत्रिकाएं जैसी कहानियां प्रकाशित कर रही थीं, और उस दौर के जो प्रमुख
कहानीकार थे, उनमें से बहुत से लोगों ने उन पत्रिकाओं और उस तरह की कहानियों से
अपने को अलग कर जिस यथार्थवादी कथा-परम्परा से अपने को जोड़ा, और फिर उस दौर की
लघु पत्रिकाओं के माध्यम से जो कहानी सामने आई, वह बहुत हद तक बदली हुई कहानी थी,
जिसमें विषयवस्तु, शिल्प और यथार्थ का स्वरूप भी बदला हुआ दिखाई दिया, इन
कहानियों ने व्यावसायिक पत्रिकाओं में छपने वाली कहानियों से अपने को अलग भी
किया। आज संयोग से आप सामने हैं तो मेरी यह जिज्ञासा है कि हम पहले उसी पृष्ठभूमि
की थोड़ी चर्चा करें कि वो कौन-से मसले थे, कौन-सी ऐसी बातें थीं, जो आपको गंभीरता
से सोचने पर विवश कर रही थीं और उसमें से क्या निकलकर आया?
स्वयं प्रकाश – हुम्म, नंद बाबू, इसके उत्तर में तो थोड़ा
पीछे जाना पड़े और कुछ पिष्ट-पेषण भी हो जाए, तो चलेगा न?
नंद – हां हां, कोई चिन्ता की बात नहीं, आप इत्मीनान
से अपनी बात कहें।
प्रकाश - नयी कहानी
के आन्दोलन का बहुत बड़ा अवदान हिन्दी कहानी को मैं मानता हूं। उसने नये मुद्दे और नयी भाषा दी, नया मुहावरा
दिया और उसके अवसान के बाद कहानी के जो आन्दोलन आए, उन्होंने कहानी की शक्ल को
इतना बिगाड़कर रख दिया, कि कहानी से काम करने वाला आदमी, उसकी भाषा, नाद, संस्कार,
उसकी पहचान सब धीरे-धीरे लुप्त होती चली गई, यहां तक कि क्रियाएं भी लुप्त होती
चली गईं। उस समय की कहानी में आप देखेंगे कि संज्ञाएं तो फिर भी थोड़ी बहुत हैं,
क्रियाएं तो हैं ही नहीं, एक निकम्मे आदमी का आत्मालाप किस्म की चीज वह बनकर रह
गई। तो आठवें दशक की शुरुआत में एक बहुत बड़ी क्रान्ति इस प्रकार की हुई, जिसमें इन
चीजों को गंभीरता से देखा गया। थोड़ा व्यापक दृष्टि से सोचें तो साहित्य के बाहर
भी यह बदलावा दिखाई देता हैं। कहानीकारों ने विचार किया कि कहानी को यथार्थवाद और
प्रेमचंद से कैसे जोड़ा जाए? उस समय जैसा आपने कहा, लघु-पत्रिकाओं का एक ज्वार
जैसा आया था, अकेले अपने राजस्थान से बीस-बाईस पत्रिकाएं, एक-से-एक शानदार निकलती
थीं, इनका प्रसार ज्यादा नहीं होता था और आर्थिक कठिनाइयां भी थीं, इनकी उम्र भी
ज्यादा नहीं होती थीं, लेकिन एक बंद होती थी तो दो दूसरी निकलती थीं। मध्यप्रदेश
में भी ऐसा ही हुआ, उत्तरप्रदेश में ही ऐसा ही हुआ और सारे हिन्दी प्रदेशों ऐसा
ही हुआ। उससे क्या हुआ कि एक नये किस्म की कहानी ने जन्म लिया, जिसने मजदूर,
किसान और काम करने वाले श्रमजीवी वर्ग को, स्त्रियों को उन सामान्य पुरुषों को
नायक और नायिका बनाया और जमीन से जुड़ी हुई उन कहानियों की भाषा भी बदल गई। उससे
पहले समान्तर कहानी में जो एक वामपंथी रचाव बनाने की कोशिश की गई थी, उसे सही
दिशा देने की कोशिश भी हुई। वह महत्वपूर्ण इसलिए है कि फिर बाद में उसने जनवाद को
जन्म दिया हिन्दी कहानी में, जो पहले के प्रगतिवाद तक सीमित होकर रह गया था।
प्रगतिशीलता और प्रगतिवाद में भी अन्तर है। प्रगतिवाद में हर जगह एक नया सूरज
उगाया जाता है, जो लाल रंग का होता है, और उस प्रकार के सरलीकरण होते हैं, जो
वामपंथी विचारधारा के भी अनुकूल नहीं बैठते, उस मुहावरेबाजी से छुटकारा पाकर जो यथार्थपरक
कहानियां लिखी जाने लगीं, तो हमने देखा कि नयी कहानी आन्दोलन के भी जो रचनाकार इस
नये बदलाव में शामिल हो गये, जैसे काशीनाथसिंह, या दूधनाथसिंह और इन्होंने बहुत
अच्छी कहानियां लिखीं। अब उस कहानी का परवर्ती कहानी पर क्या प्रभाव पड़ा, ये
थोड़ा विस्तार से सोचने की जरूरत है, और ये आलोचकों का ही काम है।
नंद – उस
दौर की कहानी को जिस तरह जनवादी कहानी के रूप में व्याख्यायित किया गया, रमेश
उपाध्याय जैसे रचनाकार ने तो उस पर एक पूरी किताब लिखकर विस्तार से चर्चा की, उस
समय की जो लघु पत्रिकाएं या साहित्यिक पत्रिकाएं थीं, वे भी उसे इसी संज्ञा के साथ
प्रस्तावित कर रही थीं, तो रचना के स्तर पर उसकी मुख्य प्रवृत्तियां आपको क्या
दिखाई देती हैं, यानी कथ्य के स्तर पर और उसकी भाषा और रचना-शिल्प में जो बदलाव
आपको दिखाई देता है? जो भूमंडलीकरण की प्रक्रिया शुरुआत में जिस अवस्था में थी,
क्या वह उसमें कहीं प्रतिबिम्बित हो रही थी?
प्रकाश – सबसे पहला बदलाव तो यही समझिये, जो
मैंने संकेत किया कि पात्रों के नाम आ गये, पहचान आ गई और संस्कार आ गये और इसी
के अनुरूप उनके जीवन की भाषा भी आ गई। क्योंकि यह ध्यान देने की बात है कि नयी
कहानी के आन्दोलन के बाद जो अकहानी का आन्दोलन आया, उसने हिन्दी कहानी की सारी
विकास-प्रक्रिया को उलट दिया। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया की शुरुआत आम तौर पर सन्
’80 से मानी जाती है, जब आर्थिक सुधार शुरू हुए और उदारीकरण का दौर आरंभ हुआ,
लेकिन उससे पहले थोड़ा-सा यह लगने लगा था कि आजादी के बाद एक जो मोहभंग का दौर था,
उससे हम लोग उबर आये। आजादी के बाद जिस दूसरी पीढ़ी ने जन्म लिया था, वह इस निराशा
को यथावत स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थी और इसे झूठी आजादी मानकर नेताओं को
कोसने के लिए भी तैयार नहीं थी, उस युवा वर्ग में एक प्रकार का संकल्प था कि हम
अब भी चाहें तो इस देश को बना सकते हैं, बशर्ते कि हम अपनी जड़ों से जुड़ें। इसलिए
उन्होंने प्रेमचंद को अपने पुरखे के रूप में पहचाना और यथार्थवादी कहानी को पकड़ा
और जनवादी कहानी और उससे पहले की कहानी में जो सबसे बड़ा फर्क है वो यह है कि
जनवादी कहानी में आशा के स्वर सुनाई देते हैं, जबकि उससे पहले की कहानी केऑस की,
संत्रास की, घुटन की, और दुनिया के नष्ट हो जाने की निराशावादी बातें करती थी। अब
आप देखेंगे कि कामू, काफ्का, किर्केगार्ड और सार्त्र तक का अस्तित्ववादी प्रभाव
शून्य हो जाता है हिन्दी कहानी के ऊपर। फिर से मार्क्स और लेनिन की किताबें
पढ़ी जाने लगती हैं। अर्थात् एक आशावादी दृष्टि से इस नयी पीढ़ी में हिन्दी साहित्य
को पुनर्रचित किया।
नंद – और इससे आगे जो बदलाव दिखाई देता है,
उदयप्रकाश, रघुनंदन त्रिवेदी आदि की जो कहानियों सामने आईं, उन्हें आप किस तरह
देखते हैं?
प्रकाश – देखिये, ये
हर दौर में होता है कि जब कोई एक अच्छी चीज शुरू होती है, तो उसके साथ ही साथ
उसके अतिरेकी स्वर भी उभरने लगते हैं, एक पेंडुलम की तरह से यह हो जाता है, तो
उसमें बहुत कम आपको कोई ऐसी जगह दिखाई देती है जिसमें कोई सम्यक संतुलन दिखाई दे।
हुआ ये कि उस जनवादी कहानी में भी उस तरह के अतिरेक दिखाई देने लगे, और सीधे सीधे
जमींदार एक किसान से लड़ रहा है और उसे मार रहा है और उस तरह के महानायक पैदा होने
लगे, जैसे यथार्थ जीवन में नहीं होते, लेकिन कहानी में संभव हैं। जैसे एक उदाहरण
काफी है ‘टेपचू’, और दूसरा उदाहरण ‘देवीसिंह’, या तीसरा उदाहरण बलैत माखन भगत, ये
मैं बहुत अच्छे कहानीकारों की बहुत अच्छी कहानियों के उदाहरण दे रहा हूं, लेकिन
इस तरह के नायक सिर्फ फैंटेसी में ही हो सकते हैं, जीवन के संघर्ष में इस प्रकार
के नायक यकायक बन जाना, मनुष्य को फिर से यथार्थ से पलायन करके किसी कल्पना-लोक
में पहुंचाने जैसा हो जाता है। इस बात को ’80 के बाद आने वाली पीढ़ी ने समझ लिया। और
संयोग से उसी समय बहुत बडे बड़े तीन परिवर्तन इस दुनिया में हुए – एक, सोवियत संघ
का टूटना, दूसरा, संचार क्रान्ति और तीसरा, वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण। इन्होंने
हमारे जीवन को इतनी तेजी से और इतना बुनियादी तौर पर बदल दिया, कि अब चीजें या
समस्याएं स्थानीय रहीं, या देशज रहीं, न समाधान स्थानीय या देशज रहे, अब जो भी
होना था, ग्लोबल होना था। इसलिए जो पुरानी सोच है वह अप्रासंगिक हो गई।
नंद – एक बड़ा परिवर्तन जो इन पिछले सालों में आया,
खासतौर से ’80 और ’90 के बीच, और वह भी शिल्प के स्तर पर। यानी कहने की शैली बदल
रही थी, वह अमूर्तन की ओर जाती हुई दिखाई देती हैं, और वह अमूर्तन एक उपलब्धि के
बतौर लिया जा रहा था। वह अमूर्तन निर्मल वर्मा का अमूर्तन नहीं है। जैसे
गीतांजलिश्री की जो कहानियां और नये उपन्यास आये, उनकी भाषा और कथ्य की बुनावट
को आप गौर से देखें - वे मुद्दे उतनी ही गंभीरता से उठा रहीं हैं, खासतौर से स्त्री–प्रश्नों
को लेकर उनकी कहानियां और उपन्यास अलग से ध्यान आकर्षित करते हैं। दूसरी ओर वंचितों
और दलितों का जो यथार्थ है, बहुत से लेखकों ने उसे अपने लेखन का आधार बनाया, और इस
आग्रह के साथ कि उस सचाई को एक दलित लेखक ही बेहतर ढंग से लिख सकता है, यद्यपि इसी
दौर के जो दूसरे महत्वपूर्ण कथाकार हैं, उन्होंने भी स्त्रियों और दलितों की
समस्याओं पर पूरी संजीदगी से लिखा, और वो कहानियां, उस पिछले दौर की कहानी से एकदम
अलग दिखाई देती हैं और इसे आप किस नजरिये से देखते हैं?
प्रकाश – मुझे ऐसा
लगता है कि भारतीय मानसिकता को इन पिछले साठ सालों में सबसे बडे़ झटके जो लगे हैं,
वो दो बार लगे हैं – एक तो लगा 1962 में, और दूसरा लगा 1980 में। जनवादी और
प्रगतिशील कहानी की जिस दौर की हम चर्चा कर रहे थे, उसमें कहानीकार को यह खुशफहमी
हो गई कि वह जनता को जागरूक कर सकता है, लोगों को सिखा सकता है, पाठकों को ज्ञान
दे सकता है, इस झटके को सोवियत संघ के विघटन ने यकायक तोड़ दिया और जो तीन परिवर्तन
मैंने बताए, इसमें उसने ऐसी स्थिति कर दी, कि जैसे मैंने बताया कि पुराने
विचारधारात्मक ढांचे अप्रासंगिक भी हो गये, उसी तरह कहानीकार के सामने भी आशावादी
सोच का खोखलापन भी उजागर हो गया, तो आप पाएंगे कि ’80 के बाद के जो लोग हैं, जिसका
सबसे प्रतीकात्मक उदाहरण हम ले सकते हैं अखिलेश की कहानी ‘चिट्ठी’ या मनोज रूपड़ा
की कोई कहानी ले सकते हैं –
नंद – मनोज के संग्रह ‘टावर ऑफ सायलेंस’ में इस
तरह की कहानियां हैं शायद?
प्रकाश – हां उन्हें ले सकते हैं, तो यहां जो
अन्तर आपको दिखाई देता है कि जनवादी कहानी के आशावादी समय में कहानीकार ने
मजदूरों-किसानों की एक प्रकार से वकालत करना शुरू कर दिया और लगता था उनको कि हम
सारे देश को जागरूक करके ही छोड़ेंगे, क्योंकि हम उनसे ज्यादा जानकार हैं। हमारे
दशक में कहानीकारों को लगा कि अब संचार-क्रान्ति हो चुकी है, अब वैश्वीकरण हो
चुका है, अब पाठक को सीखने के लिए हमारी कहानी नहीं पढ़नी है और अब वो कई मामलों
में हमसे ज्यादा जानकार है, इसलिए उसकी अप्रोच भी बदल गई। और जब अप्रोच बदली तो
भाषा की संप्रेषणीयता और पठनीयता भी बदल गई। तो उसने अपनी कहानी कहने के लिए एक
नये तरह के मुहावरे की तलाश शुरू की, इसीलिए ये जो शिल्प का अतिरेक और आग्रह
दिखाई देता है, हमारे दशक के इन कहानीकारों में, दरअसल वह एक खोज है, अपने समय के
मुहावरों को पकड़ने की कोशिश वह कर रहा है, अपने तरीके से, कि ऐसे आदमी से किस लहजे
में बात की जाय, जो हमारे बराबर ही जानता हो, या हमसे अधिक भी जानता हो, समझदार से
बात करने का सलीका सीखने में कहानी को बहुत समय लगा। शायद वह अभी तक सीखने की
प्रक्रिया में ही है। इसलिए आप देखेंगे कि आज की कहानी के पास समाधान नहीं है,
बल्कि ठीक से देखा जाय तो आज की कहानी के सामने ठीक से प्रश्न भी नहीं हैं। क्योंकि
यह समय इतना तेजी से परिवर्तित होता चला जा रहा है, कि जब तक आप एक समस्या को
समझें, उसका स्वरूप ही बदल जाता है, तो इससे साहित्य की भूमिका भी बदल गई। अब
मनोरंजन के लिए कोई कहानी नहीं लिखता। कहानी गंभीर व्यक्ति पढ़ता है।
नंद – वो जो कहानी में किस्सागोई का तत्व महत्वपूर्ण
हुआ करता था, वह बिल्कुल गौण हो गया है, कथानक न हो तो भी चलेगा, एक चरित्र है जो
अपनी मनोदशा बयान किये जा रहा है, उसका कोई तारतम्य बना रहे, यह भी आवश्यक नहीं
रह गया है, वह अंत की बात पहले शुरू करता है और फिर कहीं से भी कोई प्रसंग उससे
जोड़ लेना, ये जो परिवर्तन आया है, एक तरह से कथा की संरचना का भीतर से बिखर जाना,
क्या यह आपको विचारणीय नहीं लगता?
प्रकाश – विचारणीय
है न। आप मुझे बताएं, आज कौन समाजशास्त्री, कौन राजनेता, कौन दार्शनिक, कौन अध्यापक,
कौन महापंडित आकर यह बता सकेगा कि चार दिन बाद दुनिया की क्या हालत होगी? यह
दुनिया इतनी ज्यादा अव्याख्येय या अनप्रिडिक्टिबल हो चुकी है, कि उसकी समस्याओं
को समझ पाना भी एक बहुत बड़ी चुनौती है। अगर कहानी कुछ सार्थक आज कर रही है, तो यही
कि इस जटिलता की पर्तों को साफ करने की कोशिश कर रही है।
नंद – एक और पक्ष पर आपका ध्यान आकर्षित कर रहा हूं,
जिस पर काफी चर्चा हो भी रही है - इधर कहानी में कहानीपन या कथा-तत्व जितना गौण
और कमजोर होता गया है, पता नहीं, ये कहानी का विकास है, उसकी कोई खूबी मानी जा रही
है या कहीं भीतर से वह बिखर रही है? मैं आश्वस्त नहीं हूं कि इसे जल्दी में
किसी निष्कर्ष के रूप में ग्रहण करूं। हां यह जिज्ञासा जरूर है कि आप और आपकी
पीढ़ी के महत्वपूर्ण कथाकार इसे किस तरह देखते हैं?
प्रकाश – एक और महत्वपूर्ण
बात इस बीच आई, जिसकी ओर आपने भी इशारा किया है, और वो ये कि अस्मितावादी विचार
साहित्य-चर्चा के केन्द्र में आया, जैसे स्त्री विमर्श या दलित विमर्श, और हमने
पाया कि बहुत-सी महिलाओं ने, जो आज मध्यवित्त वर्ग की सभ्रान्त महिलाएं हैं उन्होंने
अकुंठ भाव से अपनी बातें कहना शुरू किया, इसी तरह जो दलित हैं उन्होंने अपनी
बातें कहना शुरू किया। ये मराठी से शुरू हुआ और हिन्दी में भी आया। तो वहां कहानी
का शिल्प, कहानी की संरचना, उसका स्थापत्य, ये सब चीजें गौण हो गईं और अभिव्यक्ति
ही प्रमुख हो गई। तो आज की स्थिति में हम यह मान सकते हैं कि कहानी की जो पारंपरिक
संरचना है वह विखंडित हो चुकी है, और कहानी का कोई परिमार्जित स्वरूप हमारे सामने
नहीं है, जैसा कि हम मास्टर्स में देखते हैं। आज आप मोपासां, ओ हैनरी या चेखव
जैसी कहानी हिन्दी क्या किसी भी भाषा में मुश्किल से ही पाएंगे। तो इसे हम एक
तलाश के रूप में देख सकते हैं, संभव है कि इसमें से अच्छी चीज निकलकर आ सकती है,
लेकिन पुरानी चीजें अब काम नहीं आएंगी, ये तय हो गया है। जैसे फ्लैशबैक - आप
कहेंगे ये फ्लैशबैक कहां चला गया, उसके लिए फ्लैश-ब्रेक हो गया है, तो ये नयी
नयी संभावनाएं उभर कर सामने आ रही हैं और नंद बाबू आप शायद यह जानते हैं कि हिन्दी
के अतिरिक्त दूसरी भाषाओं में, जैसे अंग्रेजी में, जिसका मैं थोड़ा-बहुत ज्ञान
रखता हूं, इस सिलसिले में दस गुना ज्यादा प्रयोग हुए हैं। भाषा, शिल्प और लिपि
तक के स्तर पर ये देख सकते हैं – मसलन वे बहुत-सी चीजें इटैलिक्स में लिखते हैं,
और बहुत-सी चीजों में संकेतों का प्रयोग करते हैं। हमारे यहां भी गीत चतुर्वेदी
जैसे कुछ नये कहानीकारों ने कम्प्यूटर की प्रणाली के पारिभाषिक शब्दों को बहुत
सहज रूप से इस्तेमाल करना शुरू किया है और वह स्वीकार्य भी हो गया है।
नंद – आपने
ठीक याद दिलाया, जैसे गीत चतुर्वेदी की कहानियां, खासतौर से ‘सावंत आंटी की लड़कियां’
और ‘पिंक स्लिप डैडी’, महानगर के मेहनतकश लोगों की रोजमर्रा की जिन्दगी के बारीक
प्रसंगों और उनके निर्मम यथार्थ को सामने लेकर आती है, कारपोरेट लाइफ भी उनकी
कहानियों में विस्तार से बिम्बित होती है, लेकिन उनमें कहानी-तत्व भी अच्छा-खासा
है, उसमें वह कहीं कमजोर या गौण नहीं हुआ है, गीत की कहानियों में एक खूबी यह भी
है कि वे बात में से बात निकालते हुए किसी एक सवाल पर, एक जगह पर केन्द्रित जरूर
नहीं होने देते बल्कि उसको बहुत छितरा-उलझा भी देते हैं, अगर उसको कनक्लूड करना
चाहें तो वे सारे घटना-प्रसंग, वे सारे मसले, जिनको उभारती हुई कहानी आगे बढ़ती है,
उनको समेटना मुश्किल लगता है। इसी तरह मनोज रूपड़ा की इधर एक कहानी आई है ‘आमाजगाह’,
जिसमें वे रेगिस्तान की पृष्ठभूमि पर एक तिलस्मी कथा बुनने का प्रयास करते
दिखाई देते है, जिसका नायक रेगिस्तान में एक ऐसे स्थान की तलाश में जा रहा है,
जहां पता नहीं उसे किसी बहुत चमत्कार की उम्मीद है, जहां जाकर सब कुछ बदल जाएगा
जैसे, और एक अलग तरह का यथार्थ उसमें से उभारने का प्रयास दिखाई देता है, पता नहीं
उसे कोई जादुई यथार्थ कहना पसंद करे, लेकिन एक फैंटेसी उसमें जरूर है और वह कतई
विश्वसनीय नहीं है, बल्कि परिवेश के चित्रण में भी तमाम तरह की असंगतियां हैं।
आशचर्य है कि इस तरह की फैंटेसीज इधर खूब लिखी जा रही है, नये लोगों में विमलचनद्र,
प्रत्यक्षा आदि जिस तरह की कहानियां लिख
रहे हैं, बल्कि गौरव सोलंकी जैसे युवा जिस तरह की कहानियां इधर लिख रहे हैं, इन
कहानियों में कथ्य, कथानक, जीवन-मूल्य आदि जैसे बहुत गौण बातें होकर रह गई हैं।
प्रकाश – नहीं नहीं,
एकदम ऐसा तो नहीं लगता मुझे, और इसलिए नहीं लगता कि जब भी मैं मनोज रूपड़ा की कहानी
पढ़ता हूं, या अनिल यादव की कहानी पढ़ता हूं, सत्यनारायण की या चरणसिंह पथिक की
कहानी पढ़ता हूं, तो मुझे लगता है कि ये लोग सारे परिवेश और सरोकारों से जुड़े हुए
हैं और ढंग से बात कर रहे हैं। अमूर्तन अवश्य है, कारण यह कि जब दिशाएं स्पष्ट
नहीं हैं समाज के सामने, तो आप क्या करेंगे, कहानीकार कहां से एकदम एक निश्चित स्वरूप
भविष्य का या वर्तमान का आपके समक्ष प्रस्तुत करेगा? कलाकारी और फनकारी तो तभी
होगी न जब आप जानते हों अच्छी तरह से इसकी बुनियाद क्या है? यहां तो बुनियाद का
ही पता नहीं है। मैं आपको दो कहानियों के उदाहरण देता हूं – और संयोग से दोनों
कहानियां अनिल यादव नाम के कहानीकार की हैं, उनकी अभी एक किताब आई है, ‘नगरवधुएं
अखबार नहीं पढ़तीं’, ये शीर्षक कहानी लगभग पचास पृष्ठ की एक कहानी है, और उसी
संग्रह में एक कहानी है ‘दंगा भेजियो मौला’, अद्भुत कहानियां हैं। यद्यपि पुराने
वैश्या-जीवन पर कई अच्छी कहानियां लिखी गई हैं, चाहे कमलेश्वर की कहानियों को
याद कर लें, लेकिन ‘नगरवधुएं अखबार नहीं पढ़तीं’ कहानी में राजनेता हैं, पत्रकार भी
हैं, बहुराष्ट्रीय सौदागर भी हैं, वैश्याएं भी हैं, भूमाफिया भी हैं और सामान्य
लोग भी हैं, इन सबको मिलाकर जब वो दिखाते हैं कि इनमें से किसी एक को भी छोड़ दिया
जाता तो यह सम्पूर्ण चित्र बन ही नहीं सकता था, इसी तरह उनकी दूसरी कहानी है,
‘दंगा भेजियो मौला’, मुसलमानों या अल्पसंख्यकों पर हिन्दी में बहुत कहानियां
लिखी गई हैं, लेकिन वे हमें थोड़ा विगलित या द्रवित करने के अलावा कोई खास काम नहीं
कर पाती हैं, उनके प्रति हमारी सोच को परिवर्तित नहीं कर पाती हैं, और यहां एक ऐसी
कहानी है जो बिल्कुल यह आग्रह नहीं करती कि आप अपने सोच को बदलें, वो सिर्फ आपको
दिखाती है एक दृश्य और वह दृश्य इतना भयानक है कि जिसको देखकर आप पहले जैसा रह
ही नहीं पाते, ताकत ये है इस कहानी कि ये कहती नहीं, ये बोलती है। और पहले की
कहानी बोलती नहीं थी, कहती थी। हम लोगों के जमाने की कहानियां बहुत कहती थीं,
लेकिन बोलती कम थीं। इस भाषा को साधने के लिए हो सकता है, थोड़े अभ्यास की आवश्यकता
हो, और सत्तर अस्सी प्रतिशत तो यह भी हो सकता है अभी कहानीकार अभ्यास ही कर रहे
हों, इसीलिए जब कभी साल के अंत में आपसे पूछा जाता है कि आपने इस साल कोई यादगार
कहानी पढ़ी क्या, तो आप एकाएक याद नहीं कर पाते। यह ठीक है, एक परिवर्तन के दौर से
गुजरने वाली संक्रमणशील रचना ये है, इसलिये इसमें एक यादगार कहानी की खोज कर पाना,
शायद थोड़ी ज्यादती हो, लेकिन मुझे विश्वास है कि इसमें से ही अच्छी कहानियां
निकलेंगी, जो अपने समय को ठीक से प्रतिबिम्बित कर पाएंगी।
नंद – आपने पिछले अरसे में ‘वसुधा’ के दो अंक
संपादित किये थे, समकालीन कहानी पर केन्द्रित करके, और उनमें ज्यादातर सब नये
कहानीकार ही हैं, आपकी पीढ़ी के कहानीकार उसमें लगभग नहीं हैं, शायद आपने सोचकर ही
ऐसा किया होगा, उन कहानियों का क्या प्रभाव महसूस आप महसूस करते हैं, खासतौर से
इधर की कहानी के बनते हुए स्वरूप पर?
प्रकाश – नंदजी,
पहली बात तो यह कि उन दोनों अंकों का संपादन मैंने नहीं किया था, लेकिन पत्रिका के
संपादक के रूप में हमारी जवाबदेही निश्चित रूप से जुड़ी रही है। उस योजना में
जानबूझकर नयी पीढ़ी के रचनाकारों का चुनाव किया गया था, और कोशिश यही थी कि जो ये
लोग क्या कहना चाह रहे हैं और कैसे कहना चाह रहे हैं, उसे समझा जाय। तो हमने पाया
कि उसमें कोइ्र एक-सा-पन बिल्कुल नहीं है। आज भी बहुत से कहानीकार ऐसे हैं जो
प्रेमचंद की पारंपरिक यथार्थवादी शैली में अपनी बात कहने की कोशिश कर रहे हैं और
कह भी पा रहे हैं, लेकिन बहुत से ऐसे कहानीकार हैं जो एक नये प्रकार के फार्म की
तलाश में हैं। कभी उनको वह मिल जाता है, कभी नहीं मिलता। और बहुत से ऐसे हैं जो
किसी विचारधारा के आग्रही भी नहीं हैं, और जिनको किसी विचारधारा में आस्था भी
नहीं है। शायद उनको इन्सानियत के भविष्य में भी कोई आस्था नहीं है, वे बिल्कुल
अनीश्वरवादी, नकारवादी, और निहलिस्ट सब प्रकार के लोग हैं, उन्हीं का एक संचयन
‘वसुधा’ के दोनों अंकों में था, मैं उससे कोई सामान्य निष्कर्ष नहीं निकालना
जरूरी नहीं समझता।
नंद – उसी दौर में कुछ कहानी केन्द्रित
पत्रिकाओं जैसे ‘कथादेश’, ‘हंस’, ‘नया ज्ञानोदय’, ‘परिकथा’ आदि ने नवलेखन
अंक या कथा प्रतियोगिताएं भी आयोजित कीं, और उसके माध्यम से इस दौर के श्रेष्ठ
कहानी कौन-सी कही जाए, इस तरह की प्रक्रियाओं से गुजरते हुए कुछ कहानियां रेखांकित
भी कीं, इसमें मैं खास तौर से ‘कथादेश’ की कहानी-प्रतियोगिता की ओर आपका ध्यान
आकृष्ट कराना चाहूंगा, जिसने तीन कहानियां पहले, दूसरे और तीसरे पुरस्कार के लिए चुनीं – उनमें प्रेमनिरंजन
अनिमेष की कहानी थी, दूसरे क्रम में गौरव सोलंकी की कहानी थी और तीसरी सुभाषचंद्र
कुशवाह की कहानी। मैंने उन तीनों कहानियों को देखा-पढा है, उनमें प्रेमरंजन और
सुभाषचंद्र कुशवाह की कहानियां तो हमारा जिस तरह का देहात है, उसमें जिस तरह के
चरित्र हैं, उनकी अपनी जीवन-शैली की कठिनाइयां हैं, और यही चरित्र जब महानगरीय
जीवन में आते हैं, तो किस तरह अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करते हैं, उस पर
केन्द्रित कहानियां हैं, जबकि गौरव सोलंकी की कहानी उनसे नितान्त भिन्न है, इन
कहानियों को कन्क्लूड करके अगर मैं एक समय के कहानीकारों के कहानी-लेखन की मुख्य
प्रवृत्ति को पहचानने की कोशिश करूं, तो जैसा आपने कहा, वह मुझे वहां नहीं दिखाई
देता, तो हमारे समय की कहानी की मुख्य प्रवृत्तियों को जानने की कोशिश करें तो क्या
दिखाई देता है।
प्रकाश – देखिये एक
बात तो बिल्कुल स्पष्ट है, आज के अधिकांश कहानीकार गांवों के बारे में और
किसानों के बारे में कुछ नहीं जानते, दूसरी बात यह स्पष्ट है कि वे उस यथार्थ के
प्रति बहुत उत्सुक भी नहीं हैं।
नंद – हां, पर जो
उनके बीच से आए हैं, या उन्हीं के बीच रहते हैं, जैसे शिवमूर्ति हैं, महेश कटारे
हैं, चरणसिंह पथिक हैं तो वे उस यथार्थ से गहरे स्तर पर जुडे रहे हैं।
प्रकाश – ऐसे लोग
इक्का-दुक्का हैं, आज महानगरीय जीवन से आने वाले लोगों में एक फैशनेबुल
प्रवृत्ति यह दिखाई दे रही है, कि आप इंटरनेट से कहानी बनाते हैं, सारे आंकड़े,
सारी जानकारियां, सुचनाएं आप इंटरनेट से इकट्ठी कर लो, और बीच बीच में एक कथा-तत्व
घुसेड़कर एक कहानी बना लो। जिस संवेदना की हम अपेक्षा करते हैं कहानी से, पात्रों
के साथ एकाकार होकर कहानी लिखने की जरूरत है, मैंने एक जगह लिखा था कि आज की कहानी
में पसीने की कोई कमी नहीं है, आंसुओं की कमी है। लेकिन इससे कोई निष्कर्ष
निकालना शायद थोड़ी जल्दबाजी होगी, हमें अभी बहुत-कुछ देखना बाकी है, कहानी धीरे
धीरे रूप ले रही है। आपको एक बात याद दिलाना चाहता हूं, जब परसाईजी ने लिखना शुरू
किया, किसी को समझ में नहीं आया कि इसे कहें क्या? निबंध कहें या कहानी कहें, क्या
कहें और अंत में उन्होंने उसे व्यंग्य कहना शुरू किया। आज की कहानी में कहीं
कविता घुस जाती है, कहीं निबंध घुस जाता है और कहीं सामाजिक विश्लेषण, इसका स्वरूप
इतना बदल गया है और विधाओं का सम्मिश्रण इतना तेज है कि इसको कोई नया नाम देना पड़े
कालान्तर में।
नंद – ये सवाल भी आता है कि इधर विधाओं के बीच इतना
आदान-प्रदान बढ़ रहा है, या यों कहें कि विधाओं की दीवारें टूट रही हैं, जैसे आपने
कहा कहानी में थोड़ी कविता भी है, उपन्यास भी, उसमें थोड़ा संस्मरण भी है, और इसी
तरह दूसरी विधाओं में भी बहुत-कुछ है, ऐसे में रचनाकार और पाठक दोनों के ही लिये
इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिये कि उस रचना की विधा का नाम क्या है?
प्रकाश – इसलिये कि
जब हम कहानी की बात करते हैं तो हमारे दिमाग में एक नक्शा होता है, जो क्लासिक
कहानी का नक्शा होता है। और उसके अनुसार नापने की कोशिश करते हैं कि कहां की
कहानी उसके माकूल बैठ रही है। तो कभी कभी उसकी जरूरत उस स्तर पर पड़ जाती है।
नंद – जो नये कथाकार
हैं, उनको यह शिकायत है, और यह शिकायत उन्होंने कई जगह मुखर रूप से व्यक्त भी
की है, उनको ठीक से नहीं समझा जा रहा है, उनकी रचनाशीलता को सही महत्व नहीं दिया
जा रहा है, उन्हें पहचाना नहीं जा रहा है और उन पर बात ठीक से नहीं की जा रही है।
तो इस शिकायत पर आप क्या कहेंगे?
प्रकाश – इसके मुझे लगता है, दो पहलू हैं, एक,
कुछ तो हमारे आलोचकों का आलस्य है सचमुच, वे पढ़ते नहीं हैं, उसके पास पढ़ने का समय
नहीं है, उन्हें भाषण देने से ही फुरसत नहीं है, और कुछ हमारे कहानीकार भी बहुत
जल्दी में मालूम पड़ते हैं, एक कहानी-संग्रह छपते से ही अमर क्यों हो जाना चाहते
हैं? थोड़ा पांच-सात कहानी-संग्रह आ जाने दें, तभी अपेक्षा करें कि मेरी बात को
समझा या नहीं समझा। थोड़ा उन्हें जल्दबाजी से बचना चाहिये, ऐसा मेरा खयाल है, और एक आश्वासन मैं कहानी लिखने वाले अपने
छोटे भाइयों जरूर देना चाहूंगा कि यदि उन्होंने कोई उल्लेखनीय चीज कभी लिखी है,
तो वह हमेशा के लिए अलक्षित कभी नहीं रह सकती।
नंद – कोई और बात जो आपको इधर की कहानी को लेकर
विचारणीय या महत्वपूर्ण लगती हो, खास तौर से मीडिया के बदलते परिदृश्य में?
प्रकाश – कई बार तो मुझे
लगता है कि कहानी का यह रूप भी रहेगा या नहीं, इसको लेकर मैं निश्चिन्त नहीं हूं।
क्योंकि जिस तरह से कहानियों का टी वी सीरियल्स की तरह एपिसोडिकरण होने लगा है,
तो लगता है कि कल कहानी सुनने-सुनाने की चीज भी हो सकती है और देखने-दिखाने की चीज
भी हो सकती है। कुछ लोगों ने ऐसे प्रयोग किये भी हैं, एकबार मैंने खुद अपनी कहानी
इंटरनेट पर किसी जगह किसी कलाकार के मुंह से सुनी, ‘क्या तुमने कभी सरदार भिखारी
देखा है’ और लगा कि ये भी एक बहुत अच्छा तरीका संप्रेषण का हो सकता है, फिर मुझे
एक किताब याद आई जो बीबीसी के एक मशहूर सीरियल ‘यस मिनिस्टर’ और ‘यस प्राइम
मिनिस्टर’ के आधार पर लिखी गई थी, जिसमें उस मिनिस्टर के नोटबुक के पन्नों की
प्रति प्रकाशित की गई थी एक तरफ उसी की हस्तलिपि को प्रस्तुत करते हुए, तो मुझे
लगा कि इसका एक और चाक्षुस स्वरूप भी हो सकता है, जैसा मैं आपसे थोड़ी देर पहले कह
रहा था कि अंग्रेजी में ऐसे प्रयोग हुआ है, जहां कई जगह इटैलिक्स में लिखा जाता
है, या कई जगह भाषा और लिपि की जकड़बंदियों को तोड़ने के नये नये प्रयास किये जाते
हैं। हिन्दी अभी उस दौर में है जहां इस प्रकार के परिवर्तन होना शेष हैं, लेकिन
मैं तो इनका भरपूर स्वागत ही करूंगा।
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