महात्मा
बुद्ध के जीवन और दर्शन पर आधारित लघु नाटिका :
बोधि-सत्व
·
नन्द भारद्वाज
पार्श्व
स्वर : बात उस समय की है जब ईसा पूर्व की छठी शताब्दी में हिमालय की तराई के
नगर कपिलवस्तु में शाक्यवंशी राजा शुद्धोधन राज्य किया करते थे। उनके राज्य
में यों तो प्रजा सुखी और संतुष्ट दिखाई देती थी, लेकिन पौराणिक वैदिक धर्म के
कर्मकाण्ड और जीवन की विभिन्न व्याधियों के कारण मनुष्य के दैनिक जीवन में
आनंद और आत्म–संतोष का घोर अभाव था। महाराज शुद्धोधन के पुत्र सिद्धार्थ बचपन से
ही अत्यंत संवेदनशील और कोमल प्रकृति के बालक थे। उन्हें मनुष्य के जीवन में व्याप्त
इस असन्तोष का गहरा अहसास था और वे बचपन से ही राजमहल का सुख वैभव भूलकर इन
सांसारिक कष्टों के कारण चिन्तित रहते थे। महाराजा शुद्धोधन ने उनकी चिन्तनधारा
और मानवीय चिन्ताओं से ध्यान हटाने के लिए कई तरह के उपाय किये – युवावस्था में
प्रवेश करते ही उनका रूपवती और सुशील राजकुमारी यशोधरा के साथ विवाह कर दिया गया,
उन्हें सुख और आनंद प्रदान करने के लिए राजमहल में प्रतिदिन मनोहारी रंगशालाओं का
अयोजन किया जाता, जिससे समूचा राजमहल संगीत की स्वर-लहरियों में झूमता रहता ---
(पर्दे
के पीछे से संगीत की स्वर-लहरियां धीरे-धीरे उभरने लगती है और फिर मन्द पड़ जाती
हैं --- )
पार्श्व
स्वर : परन्तु युवराज सिद्धार्थ पर इन आयोजनों और संगीतमय वातावरण का कोई
प्रभाव नहीं पड़ता, वे और अधिक उद्विग्न और बेचैन रहने लगे – रंगशाला के राग-रंग
को बीच ही में छोड़कर वे पुन: अपने कक्ष में लौट आये –
(पार्श्व-सवर के अंतिम
वाक्य के दौरान ही धीरे धीरे पर्दा खुलता है और युवराज सिद्धार्थ अपने कक्ष में
बेचैनी से एक कोने से दूसरे कोने तक चहलकदमी करते नज़र आते हैं। इसी दौरान कुछ क्षण
पश्चात बाईं विंग से उनके बाल-सखा यज्ञदेव प्रवेश करते हैं और युवराज से पूछते
हैं - )
यज्ञदेव : क्या हुआ कुमार ! आज आप रंगशाला को बीच ही में
छोड़कर इस तरह क्यों लौट आए? क्या आपको राग-रंग रास नहीं आया ?
सिद्धार्थ
: हां देव, मुझे यह राग-रंग तनिक भी रास नहीं आता – कुछ भी अच्छा नहीं
लगता मुझे…… आप मेरे अंतरंग सखा हैं, इसलिए आपको अपने मन के
भाव प्रकट करने में संकोच नहीं है…… न जाने कौन-सी चिन्ता
मेरे मानस को भीतर ही भीतर व्यथित किये
रहती है, जिसे मैं ठीक से व्यक्त भी नहीं कर पाता……
यज्ञदेव : चिन्ता न करें युवराज, आप जल्दी ही सहज अनुभव करेंगे, अगर आपको यह गायन
रुचिकर न लगा हो तो कोई बात नहीं, आप देविका के नृत्य का अवलोकन करें, वे तो
हमारे राज्य की सब से कुशल नृत्यांगना हैं……
सिद्धार्थ
: नहीं देव, मेरी इस नृत्य या संगीत में कोई रुचि नहीं है, मुझे कुछ अच्छा
नहीं लग रहा …… कुछ मत पूछिये मुझसे, बस मुझे एकान्त चाहिए …… सिर्फ एकान्त …… और हो सके तो सारथि कौशल को भेज
दीजिये मेरे कक्ष में ……
यज्ञदेव : जैसी आपकी इच्छा कुमार ! मैं सारथी को अभी भिजवाता
हूं।
(कुमार यज्ञदेव सिर झुकाकर अभिवादन
करते हुए दांई विंग से निकल जाते हैं, और युवराज सिद्धार्थ फिर अपने कक्ष में
चहलकदमी करने लगते हैं। वे अब भी गहन चिन्ता में हैं। कुछ क्षण बाद सारथि कौशल उसी
विंग से मंच पर प्रवेश करता है - )
सारथी : (युवराज का अभिवादन करते हुए ) प्रणाम युवराज !
मेरे लिए क्या आज्ञा है देव !
सिद्धार्थ
: आओ सारथी कौशल ! क्या हमारा रथ तैयार है? मैं कुछ
समय के लिए नगर के मुख्य मार्गों पर भ्रमण करके आना चाहता हूं !
सारथी : अवश्य युवराज ! रथ आपकी सेवा में तैयार है, आप
अवश्य पधारें !
(युवराज सिद्धार्थ उसी
चिन्तित मनोदशा में दांई विंग से बाहर की ओर प्रस्थान करते हैं और सारथी कौशल
करबद्ध उनका अनुगमन करता है। पार्श्व संगीत के साथ मंच पर कुछ क्षण अंधेरा होता
है और पार्श्व स्वर उभरता है - )
पार्श्व
स्वर : राजसी वैभव, राग-रंग, सुन्दर सुशील जीवन-संगिनी और नवजात सुकुमार राहुल
सरीखे पुत्ररत्न के बावजूद युवराज सिद्धार्थ का चित्त उतना ही अशान्त बना रहता,
वे अक्सर नगर के उद्यानों और वीथिकाओं में भटकते रहते, पर कहीं चैन नहीं पाते।
महाराज शुद्धोधन इस बात का विशेष ध्यान रखते कि सिद्धार्थ जीवन की व्याधियों और
प्रजा की पीड़ाओं से दूर रहें, परन्तु आज वे अपने विश्वस्त सारथी कौशल के साथ
नगर के आम मार्गों और जीवन की वास्तविकताओं के बीच पहुंच ही गये……
(मंच पर पुन: प्रकाश होता है और सारथी कौशल के साथ युवराज सिद्धार्थ अपने रथ पर सवार
मंथर गति से चलते हुए दिखाई देते हैं। युवराज अपने सारथी से बातचीत करते हुए उसे
विशेष आग्रह करते हैं - )
सिद्धार्थ
: रथी कौशल, तुम मेरे सारथी ही नहीं, मेरे बचपन के सखा भी हो, तुम गुणवान
हो और जीवन की वास्तविकताओं से अच्छी तरह परिचित भी, तुम्हें साथ लेकर आज पहली
बार मैं अपने नगर के मुख्य मार्गों पर आया हूं, इसलिए मुझे तुमसे एक विशेष आग्रह
करना है –
सारथी : आप आज्ञा करें युवराज, आपके आदेश का पालन तो मेरा परम कर्तव्य है –
सिद्धार्थ
: वह बात ठीक है कौशल, मेरा बस इतना ही आग्रह है कि आज जिस किसी वास्तविकता
से मेरा साक्षात्कार हो उसके बारे में तुम निस्संकोच होकर मेरे प्रश्नों के सही
उत्तर देना, मुझसे कोई बात छुपाना नहीं –
सारथी : (थोड़ी चिन्ता के साथ झिझकते हुए) जी…… जी,
युवराज, ऐसा ही होगा, आश्वस्त रहें……
(इसी बातचीत के बीच रथ आगे बढ़ता है। कुछ
क्षण बाद बांईं विंग से एक वृद्ध पुरुष का प्रवेश होता है और युवराज रथ रोक देने
का संकेत करते हैं। इस बीच वृद्ध अपनी लाठी के सहारे धीरे धीरे चलता हुआ, दूसरी
विंग की ओर प्रस्थान करता है। युवराज उसे करीब से गुजरते हुए आश्चर्य से देखते
रहते हैं। वृद्ध के निकल जाने के बाद वे सारथि से पूछते हैं - )
सिद्धार्थ
: ये मानव आकृति कौन थी कौशल ?
सारथी : युवराज ! ये एक वृद्ध पुरुष थे, जो अब अपने जीवन के
अंतिम चरण में पहुंच गये हैं और वृद्धावस्था के कारण सामान्य गति से चल नहीं पा
रहे हैं।
सिद्धार्थ
: क्या प्रत्येक मनुष्य को इस अवस्था से होकर गुजरना होता है कौशल ?
सारथी : हां युवराज, मनुष्य जीवन की यह एक सहज अवस्था है, जिससे प्रत्येक
प्राणी को गुजरना ही होता है।
सिद्धार्थ
: तो क्या मुझे भी जीवन की इस अवस्था से होकर इसी तरह गुजरना होगा ?
सारथी : (हल्की सी झिझक के साथ) ऐसा संभव है युवराज ! पर हमारी कामना है कि आप दीर्घायु प्राप्त करें।
सिद्धार्थ
: अरे नहीं कौशल ! ऐसी कामना तो भय उत्पन्न करती
है।
(युवराज के इस कथन पर हल्का-सा पार्श्व
संगीत उभरता है और सारथी कौशल सिर झुकाकर रथ को आगे बढ़ाता है। मंच का डेढ़ चक्र
पूरा होते होते सिद्धार्थ फिर रथ को रोकने का संकेत करते हैं और तभी विंग से एक
रुग्ण व्यक्ति पेट के बल घिसटता हुआ दूसरी विंग की ओर बढ़ता है। सिद्धार्थ उसे देखते
हुए रथ से उतर कर उसकी सहायता के लिए बढ़ते हैं, लेकिन तभी सारथी कौशल उनके करीब
आकर उन्हें ऐसा करने से रोक देता है – )
सारथी : नहीं युवराज ! इसे मत छुइये, यह रोगी है।
(सिद्धार्थ उसे चिन्ता और आश्चर्य
से देखते हैं और वह उसी तरह घिसटते हुए दूसरी विंग की ओर निकल जाता है।)
सिद्धार्थ
: परन्तु इसे क्या व्याधि है रथी कौशल? इसकी ये ऐसी दशा क्यों हो गई?
सारथी : इस अभागे को कोढ़ का रोग हो गया है युवराज ! यह एक
भयानक व्याधि है और शायद मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप……
सिद्धार्थ
: नहीं कौशल, इसमें भाग्य का क्या दोष ? पर क्या यह रोग किसी भी व्यक्ति
को हो सकता है?
सारथी : भाग्य न सही, आप इसे संयोग कह लें युवराज ! लेकिन
यह सच है कि मनुष्य का जीवन कई तरह के
रोगों और व्याधियों से परिपूर्ण होता है, संसार में ऐसा व्यक्ति मिलना असंभव है,
जिसे जीवन में कोई रोग न हुआ हो, जिसे कभी किसी प्रकार का शारीरिक या मानसिक क्लेश
न हुआ हो !
सिद्धार्थ
: इसका तात्पर्य है कि मुझे भी किसी दिन ऐसे ही किसी रोग का शिकार होना पड़
सकता है।
सारथी : (अपनी भूल का अहसास करते हुए सिर झुकाकर) मुझे क्षमा करें युवराज ! भगवान न करे आपके साथ ऐसा कभी हो ---
सिद्धार्थ
: ओह !
(और इस अहसास के साथ सिद्धार्थ जैसे
एकाएक विचलित से हो उठते हैं। पार्श्व संगीत उभरता है और वे दोनों फिर से रथ की
ओर बढ़ते हैं। रथ में सवार होने के बाद दोनों फिर लयबद्ध ढंग से आगे बढ़ते हैं। मंच
का डेढ़ चक्र पूरा करने के बाद एकाएक सिद्धार्थ हाथ के संकेत से रथ रोकने का आदेश
देते हैं। मंच के पिछले भाग की विंग से कुछ लोग अपने कंधों पर एक अर्थी को उठाए
उनके करीब से गुजरते हैं। सारथी कौशल अर्थी को देखकर हाथ जोड़ लेता है, शवयात्रा के
लोग गति से चलते हुए दूसरी विंग की ओर निकल जाते हैं। सिद्धार्थ आश्चर्य और विस्फारित
नेत्रों से इस दृश्य को देखते हैं और उनके गुजर जाने के बाद सारथी से पूछते है -
)
सिद्धार्थ
: यह सब क्या था सारथि कौशल ?
सारथी : यह एक व्यक्ति की शवयात्रा थी युवराज ! मनुष्य
जीवन की अंतिम यात्रा ! प्रत्येक मनुष्य अपना जीवन व्यतीत
कर एक दिन इस असार संसार से परलोक सिधार जाता है और तब उसके परिजन और मित्र-बंधु
इसी तरह अर्थी सजाकर उसे अंतिम संस्कार
के लिए श्मशान घाट ले जाते हैं।
सिद्धार्थ
: तो क्या मृत्यु प्रत्येक मनुष्य की अनिवार्य नियति है ?
सारथी : मृत्यु राजा और रंक में कोई भेद नहीं करती युवराज ! प्रत्येक मनुष्य को एक-न-एक दिन इस संसार से अंतिम विदाई लेनी ही होती
है, यह प्रकृति का शाश्वत नियम है।
सिद्धार्थ
: (स्वगत) इसका तात्पर्य है कि एक दिन मैं भी…… ओह……
(सारथी कौशल एकाएक अपना सिर झुका लेता
है। यह मानसिक आघात युवराज सिद्धार्थ को जैसे बेचैन कर देता है और वे आंखें बंद कर
दोनों हाथों से अपना सिर पकड़ लेते हैं। पार्श्व संगीत एकाएक तेज हो उठता है और
धीरे धीरे मानसिक तनाव में कमी के साथ वे फिर से सामान्य अवस्था में लौट आते
हैं। रथ फिर लयबद्ध गति से धीरे धीरे आगे बढ़ता है। अभी एक चक्र पूरा होता ही है कि
तभी दायीं विंग से भगवा वस्त्रधारी एक साधु हाथों में खड़ताल और कमंडल लिये मस्ती
में झूमता गाता प्रवेश करता है और दूसरी विंग की ओर निकल जाता है। सिद्धार्थ आश्चर्य
और कौतुहल के भाव से उसे देखते रहने के बाद सारथी से पूछते हैं - )
सिद्धार्थ
: ये भाग्यशाली व्यक्ति कौन था कौशल, जो इतना सुखी और संतुष्ट है – क्या
इसे जीवन में किसी तरह का कोई कष्ट नहीं ?
सारथी : सो बात नहीं है युवराज ! हां, यह एक वैरागी साधु
था, जिसने अपनी समस्त इच्छाओं और कामनाओं को वश में कर लिया है। इसीलिए यह सुख
और दुख को समान भाव से ग्रहण करता है – यह कष्टों और व्याधियों से विचलित नहीं
होता, लेकिन उसका यह सुख और संतोष अपने तक ही सीमित है। जब तक यह अपने अनुभव और
ज्ञान को व्यापक जन-कल्याण के लिए अर्पित नहीं करता, इसकी यह साधना अधूरी है।
सिद्धार्थ
: वाह कौशल, तुम्हारे इसी अनुभव और साफगोई का मैं कायल हूं। मेरी इतनी सी
जिज्ञासा और है कि इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए क्या करना पड़तो होगा?
सारथी : यह मार्ग बहुत जटिल और कठिन है युवराज ! इसके लिए
व्यक्ति को बहुत त्याग करना पड़ता है, सारी सुख-सुविधाओं से विमुख होना पड़ता है।
पर यह आपके विचार का विषय नहीं है युवराज ! एक अच्छा राजा
ऐसे गुणी व्यक्तियों के माध्यम से अपनी प्रजा में अच्छे संस्कार और सुख-शान्ति
विकसित कर सकता है।
(सारथी कौशल के अंतिम शब्द बोलने तक
पार्श्व संगीत तेज हो उठता है और स्वयं सिद्धार्थ भी अपनी ही स्मृतियों में खो
जाता है। अपने गहन चिन्तन में डूबे वे सारथी को रथ वापस राजमहल की ओर ले चलने का
आदेश देते हैं। मंच पर धीरे-धीरे अंधेरा छाने लगता है। और उसी क्रम में पार्श्व
स्वर उभरता है - )
पार्श्व
स्वर : और उसी
रात युवराज सिद्धार्थ ने यह दृढ़ निश्चय कर लिया कि वे आनंद की इस परम अवस्था को
अवश्य प्राप्त करेंगे, जिसके सामने उनका यह राजसी वैभव और सुख सुविधाएं कुछ भी
नहीं हैं। भले उसके लिए उन्हें पारिवारिक जीवन का त्याग करना पड़े, कितने शारिरिक
और मानसिक कष्ट झेलने पड़ें, वे प्रकृति की गोद में छिपे इस परम सत्य को अवश्य
खोज लाएंगे, केवल अपने लिए ही नहीं समूची मानवता के लिए ! और
उसी रात वे अपनी पत्नी यशोधरा, नवजात शिशु राहुल और समस्त राजसी वैभव का परित्याग
कर सन्यास के कठिन मार्ग पर निकल पड़े। उस परम सत्य और आनंद की खोज में उन्होंने
सात वर्षों तक आत्मपीड़न, शारिरिक अनुशासन और कई कई दिनों तक निराहार रहते हुए
कठोर तपस्या की। इसी तपस्या के दौरान एक दिन बोधिवृक्ष के तले उन्हें यह आत्मज्ञान
हुआ कि दुख और तृष्णा ही जीवन का मूल तथ्य है, इसी भौतिक जीवन-जगत में रहते हुए
उन सभी दुखों और व्याधियों से छुटकारा पाना संभव है। उनके मन-मस्तिष्क में एक
नये ज्ञान का उदय हुआ और इसी ज्ञानमय अवस्था में पहुंचकर वे महात्मा गौतम बुद्ध कहलाए।
इसी आत्मचिन्तन से उन्होंने चार महान् सत्यों और आठ सम्यक मार्गों के माध्यम
से जिस बुद्धत्व और मध्यम मार्ग को अर्जित किया, वही कालान्तर में बौद्ध धर्म
के रूप में विकसित हुआ। इसी बोधिसत्व का अनुसरण करते हुए उनके हजारों, लाखों और करोड़ों
अनुयायी उन्हीं के बताए रास्ते पर चल पड़े – भारत भूमि से उपजा महात्मा बुद्ध का
यह महामंत्र शताब्दियों तक मध्य एशिया की हवाओं में अनवरत गूंजता रहा – ‘बुद्धं
शरणम् गच्छामि ! धम्मं शरणम् गच्छामि !! संघं शरणम् गच्छामि !!!’
***
Email : nandbhardwaj@gmail.com
Mobile : 9829103455
बेहतरीन
ReplyDeleteजी, आभार रौशन जयसवाल जी।
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