Friday, August 7, 2020

 

कहानी अपने आप में पूर्ण और समर्थ विधा है: भीष्म साहनी

(कथा और आलोचना के संबंधों पर भीष्म साहनी से नंद भारद्वाज की बातचीत)

 

हिन्दी में कथा-साहित्य की स्थिति और उसके स्वरूप को लेकर कथाकारों के बीच एक ठंडी बहस अरसे से चली आ रही है - वरिष्ठ कथाकारों ने कुछ अरसे बाद इस मुद्दे को गौण और गैर- जरूरी मानकर जहां अपने को रचनाकर्म और पाठकवर्ग की अपेक्षाओं पर केन्द्रित कर लिया, वहीं कुछ नये और युवा कथाकारों ने कथा-आलोचना की हालत पर असंतोष प्रकट करते हुए कथा-आलोचना के काम को स्वयं अपने हाथ में लिया और उसे एक नयी दिशा देने का प्रयास किया। नई कहानी के जमाने में राजेन्द्र यादव और कमलेश्‍वर जैसे कथाकारों ने कथा-साहित्य की उपलब्धियों और उसके विभिन्न पहलुओं पर गहराई से विश्‍लेषण किया और उस जमाने में लिखी जा रही कहानियों और उपन्यासों की संवेदना और शिल्प को समझने का प्रयास किया। हालांकि उसी दौर में देवीशंकर अवस्थी, रामविलास शर्मा और नामवरसिंह जैसे समर्थ आलोचकों ने कथा-आलोचना के व्यापक परिप्रेक्ष्य में आलोचना का एक आधारभूत ढांचा भी तैयार किया और उस समय की महत्वपूर्ण कथा-कृतियों के समग्र मूल्यांकन का कार्य भी यथासंभव हुआ, लेकिन उनका वह प्रयत्न भी नये कथाकारों में अपेक्षित स्वीकृति और विश्‍वास पैदा नहीं कर सका, जो उस उद्यम को सार्थक बना पाता।

    ऐसे हालात में कथा-आलोचना के रचनात्मक स्वरूप का कैसे विकास हो, समूची कथा-परंपरा के साथ हम आज के कथा-साहित्य को किस तरह जोड़कर देखें, अतीत में बदलते हुए समय का कथा की अन्तर्वस्तु और रचना-शिल्‍प पर क्या असर रहा, या कि स्वयं कथा ने हमारे समय पर किस तरह का प्रभाव डाला, ऐसे ही कुछ सवाल कहानियां और उपन्यास पढ़ते हुए या कि अपने समय के कथाकारों और आलोचकों से संवाद करते हुए अक्सर मेरे जेहन में उभरते रहे हैं।

    अपने दिल्ली प्रवास के दौरान दिसंबर 1992 में अचानक एक दिन हिन्दी के वरिष्ठ कथाकार भीष्म साहनी से ऐसे ही एक संवाद का सुखद अवसर निकल आया। कोई बहुत सोची-बूझी तैयारी  नहीं थी, सिर्फ कथा-आलोचना की दशा-दिशा को लेकर कुछ जिज्ञासाएं थीं और उन पर भीष्म जी ने जो राय जाहिर की, उससे अनायास ही कथा-आलोचना के रचनात्मक स्वरूप पर कुछ बातें बहुत साफ तौर पर उभर कर सामने आईं। 

     8 अगस्त, 1915 रावलपिंडी में जन्मे भीष्म साहनी हिन्दी के उन प्रगतिशील कथाकारों में अग्रणी स्थान रखते हैं, जो भारतीय समाज और अपने समय की केन्द्रीय चिन्ताओं पर सन् 1944 से बराबर लिखते आ रहे थे - विभाजन की त्रासदी पर लिखा उनका उपन्यास तमसभारतीय कथा-साहित्य की एक उपलब्धि माना जाता है। बसन्ती’, ‘कडि़यां’, ‘झरोखेऔर मय्यादास की माड़ीउनके अन्य महत्वपूर्ण उपन्यास हैं। इतने उपन्यासों के बावजूद उनकी ख्याति एक कहानीकार के रूप में अधिक मुखर रही है - भाग्य रेखा’, ‘भटकती राख’, ‘पटरियां’, ‘वांग्चू’, ‘शोभायात्रा’, ‘निशाचर’, ‘पालीआदि उनके चर्चित कहानी-संग्रह हैं। इनके अलावा उन्होंने हानूश’, ‘कबीरा खड़ा बाजार मेंऔर माधवीजैसे नाटकों के माध्यम से हिन्दी रंगमंच को एक नया विश्‍वास दिया है। उनकी प्रमुख कहानियों में चीफ की दावत’, ‘अमृतसर आ गया हैपर टेली फिल्म भी बन चुकी हैं। उनकी रचनात्मक प्रतिभा के अनुरूप उन्हें राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय  स्तर के अनेक पुरस्कार प्राप्त हुए हैं, जिनमें पंजाब सरकार का शिरोमणि लेखक पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, लोटस पुरस्कार, सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार आदि प्रमुख हैं।

    भीष्म जी बहुत विनम्र और संकोची स्वभाव के रचनाकार रहे हैं, अपनी ठोस राय को भी वे बहुत नर्म और सूफी शब्दों में सामने रखते रहे हैं, लेकिन उनकी सोच और बयानगी में जो साफगोई और खुलापन व्यक्त होता था, वह अद्भुत था। प्रस्तुत संवाद उसी सच्चाई और साफगोई की एक बानगी है -

नंद भारद्वाज - भीष्म जी, हिन्दी की साहित्यिक आलोचना को लेकर अक्सर हमारे कथाकारों को यह शिकायत रही है कि वह हिन्दी की कथा-परम्परा को, कथा के विकास को इतनी गंभीरता से नहीं ले पाई है। कथाकारों के रचनात्मक विकास में भी आलोचना ने उस तरह हिस्सेदारी नहीं निभाई, जो उससे अपेक्षित थी और यह शिकायत हिन्दी कथाकारों को ही नहीं, बल्कि अन्य विधाओं के रचनाकारों को भी कुछ इसी रूप में व्यक्त हुई है। आप हिन्दी के वरिष्ठ कथाकार हैं, हम जानना चाहेंगे कि हिन्दी आलोचना का आज जो रूप है, वह कथा-परम्परा के विकास में, कथा के मूल्यांकन में कहां तक आपको मददगार जान पड़ता है?

भीष्म साहनी - मुझे कहानी संबंधी आलोचना पढ़ने का मौका कम मिलता है। जब किसी पुस्तक या कहानी-संग्रह की आलोचना हो या किसी लेखक की कहानी पर विचार किया जा रहा हो, उससे जो मुद्दे सामने आते हैं, जिन पर मेरी जो प्रतिक्रिया होती है और दोस्तों की जो होती है, कभी कभी हम बहस करते हैं, लेकिन नियमित रूप से मुझे कहानी संबंधी आलोचनाएं पढ़ने का मौका नहीं मिलता। यों मोटे तौर पर मैं यह समझता हूं कि एक प्रवृत्ति जो कहानी में बहुत पहले आरंभ हुई थी, मूल रूप में वह प्रवृत्ति अब भी चल रही है। उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में, अंतिम दो-तीन दशकों में हमारे साहित्य में एक मोड़ आया था और वह था समाजोन्मुखता का और उसके साथ ही साथ यथार्थ को सामने लाने का। जब हम भारतेन्दु हरिश्‍चन्द्र की रचनाएं पढ़ते हैं या बंगाल के हमारे बंकिमचन्द्र की रचनाएं पढ़ते हैं तो ये लक्षित करती हैं कि किस तरह जो सामाजिक स्थिति थी, उसके प्रति लेखक का ध्यान अधिक जाने लगा था। या तो यह रहा हो कि विदेशी शासन के कारण हम अंग्रेज प्रताड़न के कारण सचेत हुए हों, या विदेशी  पाश्‍चात्य साहित्य का जो प्रभाव रहा हो, या हमारे अन्दर एक नयी तरह की चेतना जागने लगी हो, पर इसका, इसकी अभिव्यक्ति निश्‍चय ही  इस प्रकार के साहित्य में आने लगी, जिसमें समाज के प्रति अधिक ध्यान दिया जाता, समाज से जुड़ना अधिक जान पड़ता था। जो हमारे छोटे-छोटे कहानी और उपन्यास उन दिनों लिखे जाते थे, भले ही वह स्त्रियों की स्थिति रही हो या हमारे पिछड़ेपन की चर्चा रही हो। हम क्यों पिछड़े हुए हैं? और उसका निष्कर्ष निकाला गया कि हमें व्यक्ति का आचार-व्यवहार, उसका चरित्र सुधारना चाहिये था। प्रेमचंद ने सामाजिक समस्याओं को अधिक गंभीरता से लिया, इससे दृष्टि-क्षेत्र और विशाल हुआ। गरीबों की समस्या सामने आई, किसानों की समस्या सामने आई। इस तरह से यथार्थ चित्रण और सामाजिक सरोकार बढ़ते रहे। इसके बाद वामपंथी विचारधारा आई, मार्क्सिज्म का प्रभाव आया, हमारे देश में यशपाल आये और बहुत से लोग आये। तो इस तरह का सिलसिला चलता रहा। वर्ग-संघर्ष की बात बढ़ने लगी। यह प्रवृत्ति जो है, सामाजिक सरोकार और यथार्थ-चित्रण की, मैं समझता हूं कि मूल रूप में आज भी हमारे सामने है। मूल प्रवृत्ति मैं यही समझता हूं पलायन वाली या पलायन शब्द कहना ग़लत है, लेकिन आत्म-केन्द्रित या व्यक्ति-केन्द्रित, समूचे तौर पर व्यक्ति पर केन्द्रित साहित्य के स्थान पर बहुआयामी दृष्टि या साहित्य का विकास पाने का मौका मिला। साथ-साथ हम यह भी देखते हैं कि सन् 50 के बाद हमारे यहां कथा साहित्य में उनके आन्दोलन भी चले - आन्दोलन शब्द कहना भी शायद सही न हो, लेकिन अनेक प्रवृत्तियां सामने आने लगीं। नई कहानी, जिसकी बहुत चर्चा की जाती है और उसके साथ दो-तीन नाम जुड़ते हैं, कमलेश्‍वर, मोहन राकेश और राजेन्द्र यादव के। या फिर सचेतन कहानी आई, अकहानी आई और कुछ एक। इसके पीछे मैं नहीं समझता कि कोई मूल दृष्टि का अंतर हो, जिसे हम अंग्रेजी में कहेंगे एम्फेसिस का फर्क है या नहीं, यानी कि इस पहलू पर ज्यादा दबाव डाला जाता है, उजागर किया जाता है। मैं नहीं समझता कि दृष्टि-भिन्नता पाई जाती हो और उसके साथ-साथ आलोचना आती गई, बल्कि मैं तो कहूंगा कि प्रत्येक लहर के साथ कुछ आलोचक जुड़े हुए थे। 

नंद - कविता के साथ जिस तरह उसका काव्य-शास्त्र बनता गया, कथा के साथ उसका, उस तरह का कथा-शास्त्र अगर बनता तो शायद आधुनिक काल में जो कहानियां लिखी जा रही थीं, उनमें जो परिवर्तन आ रहे थे, क्या इस तरह के शास्त्र और आलोचना पद्धति के विकास की जरूरत या संभावना आपको कभी बनती दिखाई दी है?

भीष्म - कविता और कहानी में एक अंतर यह है कि कविता में जो तब्दीली आई अभिव्यक्ति के क्षेत्र में, बहुत बड़ी तब्दीली थी। जिस प्रकार की कविताएं लिखी जा रही थीं, हमारे छायावादी कवियों के बाद, अज्ञेय से जो सिलसिला शुरू हुआ, उसकी शैली भी बदली, उसका स्वरूप बदला, उसकी टर्मिनोलॉजी बदली, शब्दावली भी बदली। ऐसा बड़ा परिवर्तन कहानी में नहीं आया। जनवादी कहानी भी लिखी जाने लगी और तरह-तरह के प्रयोग उसमें किये गये, लेकिन प्रयोग करने वाले भी किसी-न-किसी तरह से जुड़े हुए थे। मसलन दूधनाथसिंह ने जिस तरह कुछेक कहानियां लिखीं। अब दूधनाथसिंह, जिस समाजोन्मुख प्रवृत्ति का मैंने जिक्र किया है, उसके साथ जुड़े हुए थे। परन्तु अभिव्यक्ति का माध्यम, अभिव्यक्ति का फर्क, जो उनका बदला हुआ था, जैसे रीछकहानी या उनकी अनेक कहानियां इस तरह हमारे सामने हैं। दूधनाथ के साथ और अन्य लेखकों ने भी ऐसा लिखा, प्रयोग किये, परन्तु वह एक अलग प्रवृत्ति न समझूं या लहर न समझूं, ऐसा मैं नहीं समझता। वह उसके अन्तर्गत ही आ जाती है।

नंद - अच्छा, जैसे नई कहानी का आपने जिक्र किया, उसके साथ जो कहानी से जुड़े हुए लोग हैं, उन्होंने आलोचना के क्षेत्र में भी हस्तक्षेप किया है, तो उसी के समानान्तर आलोचना के क्षेत्र में पहले से सक्रिय जो लोग थे, चाहे रामविलास शर्मा रहे हों, या नामवरसिंह हों, उनका कथा-आलोचना से जिस तरह का रिश्‍ता बना, बल्कि नामवर जी ने तो जिस तरह कथा-आलोचना में सीधे हस्तक्षेप किया - उन्होंने कहानी : नयी कहानीजैसी किताब के जरिये उस समय की कहानी पर तफसील से बात की, उसमें कथा-आलोचना का जो स्वरूप बनता हुआ दिखाई देता है, क्या वह कथा-आलोचना के विकास की द़ष्टि से आप पर्याप्त मानते हैं?

भीष्म - पर्याप्त कहना तो उचित न होगा, क्योंकि मैं समझता हूं कहानी को इतनी गंभीरता से लिया ही नहीं गया, जिस गंभीरता से साहित्य की दूसरी विधाओं को और खासतौर से कविता को जिस तरह से लिया गया। यह सही है कि कहानी का आकार छोटा होता है, लेकिन उपन्यास और कहानी में बड़ा अंतर होता है। कहानी अपने आप में एक पूर्ण विधा है और समर्थ विधा है। इसमें ऐसे लेखक हुए हैं, जिन्होंने विश्‍व-साहित्य की एक-से-एक सुन्दर कहानियां लिखी हैं।

नंद - जब हम कथा-आलोचना की बात करते है तो उपन्यास भी उसका एक हिस्सा है, जहां प्रेमचंद जैसे समर्थ उपन्यासकार हमारे सामने हैं, जिन्होंने कहानी और उपन्यास दोनों ही विधाओं में अनेक महत्वपूर्ण कृतियां दी हैं।

भीष्म - यह सही है, लेकिन इस रूप में कहानी को नहीं लिया गया। उसे उपन्यास के साथ भी नहीं जोड़ा गया। एक अलग विधा के रूप में ही उस पर चर्चा हुई और यह सोचकर कि यह एक कम महत्व की विधा है अन्य विधाओं के मुकाबले - चाहे कलेवर की दृष्टि से, चाहे विषय-चयन और गठन की दृष्टि से। हालांकि हमारे दौर के कई आलोचकों ने इसमें रुचि दिखाई है, लेकिन मैं समझता हूं, गंभीरता से यह काम कुछ एक ने ही किया है। कहानी सब से अधिक लिखी जाती है और हमारे यहां बड़े उत्कृष्ट कोटि के कहानीकार हुए हैं - रेणु हुए, मोहन राकेश हुए, जिन्होंने बहुत सुन्दर लिखा, जैनेन्द्र जी ने बड़ी अच्छी कहानियां लिखी हैं, लेकिन क्या इस विधा को उतना गंभीरता से लिया गया, उस पर विचार हुआ? यह मेरे लिए कहना कठिन है।

नंद - एक तो हम इस तरह से भी विचार करें कि जैसे कमलेश्‍वर ने या राजेन्द्र यादव ने, या मोहन राकेश ने या आपकी पीढ़ी के बहुत से कथाकार हैं, जिन्होंने आलोचना के क्षेत्र में काम किया है, कहानी का विश्‍लेषण करने की दृष्टि से, कहानी का मूल्यांकन करने की दृष्टि से, क्या उसमें कथा-आलोचना के पक्ष को कुछ बेहतर बनाने की कोशिश हुई है?

भीष्म - बात यह है कि एक लेखक से यह अपेक्षा करना कि वह आलोचना भी करे, यह एक तरह से ग़लत है और इस रूप में उसके साथ अन्याय करना है। दूसरे एक लेखक जब किसी चीज को शिद्दत से महसूस करता है, गहरे में महसूस करता है और समझता है कि मैं एक नयी लीक पर चलूंगा और लिखूंगा तो उसकी दृष्टि संतुलित नहीं होती, क्योंकि वह अपने भावनात्मक कहिये या विचारों के स्तर पर बहुत उत्कृष्टता से किसी चीज को महसूस करता है, उसके अनुरूप अपना लेखन करता है, लेकिन साहित्य की जो एक वस्तुगत स्थिति है, हमारे काल की, उस पर उसकी नजर रही है, ऐसा नहीं होता। कई बार वह अपना ही जो नजरिया होता है, उसी को सामने लाने की कोशिश करता है, तो कई एक बातें उससे छूट जाती हैं।

नंद - लेकिन क्या हम उसे इस तरह से नहीं देख सकते कि अगर एक रचनाकार ऐसी चीजों को देखता है, तो वह ज्यादा गहरी संवेदना से, ज्यादा गहरी आत्मीयता से देखता है, क्योंकि वह उस समूची प्रक्रिया में शामिल रहता है?

भीष्म - शामिल तो होता है और इसमें संदेह नहीं कि इस तरह से जो घात-प्रतिघात होता है उसमें अच्छी कहानियां भी लिखी जाती हैं। लेकिन आम तौर पर यह भी संभव होता है कि वह अन्याय करता हो, किसी दूसरी प्रवृत्ति के साथ, जिससे उसका मतभेद हो, जिसे वह तंग नजरिये से लिखा गया साहित्य मानता हो - अब अगर मैं समाजोन्मुख काम में जुटता हूं, तो मुझे उन कहानियों में दोष नजर आएगा, जो समाजोन्मुख नहीं हैं, मै समझूंगा कि इनमें यह कमजोरी पाई जाती है, यह सही नहीं है। आलोचक जो है, वह अपने काल के साहित्य को एक समग्रता में देखता है और फिर परोक्ष दृष्टि के साथ निष्पक्षता से उसको आंकता है, इसी में उसके कर्म की सार्थकता है, इसी में वह अपने युग के रचनाकारों का सही मार्ग-दर्शन भी कर सकता है। यह सही है कि आलोचक के जरिये हम अधिक गंभीर मूल तत्वों का उद्घाटन कर पाते हैं, एक रोशनी देता है आलोचक, नयी समझ देता है और इस दृष्टि से वह स्वयं व्यक्तिगत स्तर पर रचनात्मक लेखन से जुड़ा नहीं भी होता, फिर भी वह ज्यादा सफाई के साथ, ज्यादा सूक्ष्मता से अपने काल की प्रवृत्तियों का मूल्यांकन कर सकता है।

नंद - जी, ठीक कह रहे हैं, लेकिन इधर एक प्रवृत्ति और भी विकसित होती हुई दिखाई दे रही है, वह चाहे कविता में हो या साहित्य की दूसरी विधाओं में, जो सीधे रचनाकार हैं उनकी आलोचनाएं इधर लोगों को ज्यादा आकर्षित करती हैं और लोग यह भी कहने लगे हैं कि वे रचना की आत्मा को या उसकी अन्तर्वस्तु को ठीक तरह से समझकर विश्‍लेषण कर पा रहे हैं। इस दृष्टि से इधर आठवें-नौवें दशक में जो नये रचनाकार-आलोचक उभरकर आए हैं, उनमें यह प्रवृत्ति साफ उभरती हुई दिखाई देती है, यह किस बात का लक्षण है, किस तरह का संकेत है?

भीष्म - यों तो कभी-कभी एक कवि बहुत बड़ा आलोचक भी बन सकता है, बनते रहे हैं, ऐसा विश्‍व-साहित्य में हम पढ़ते रहे हैं। मेरा संपर्क अंग्रेजी साहित्य से रहा है और मैं जानता हूं कि अनेक कवि बहुत ऊंचे दर्जे के आलोचक भी रहे हैं। एक तो यह व्यक्तिगत बात हो सकती है कि हमारे बीच ऐसे प्रतिभा-सम्पन्न लेखक उभरकर आए हों, जो रचना के स्तर पर भी और आलोचना के स्तर पर भी उत्कृष्ट नजरिया रखते हों और कइयों का शायद क्षेत्र भी बहुत विस्तृत रहा हो - रचना के क्षेत्र में, पठन-पाठन के क्षेत्र में उनका बड़ा अनुभव हो, क्योंकि वे अपने उसी अनुभव से, कविता कैसे लिखी जाती है या कहानी कैसे बन पाती है, ऐसे अनुभव में से गुजरने के बाद जब एक बात कहते हैं तो उसमें एक तरह की सचाई भी होती है, ईमानदारी भी होती है और गहरे में किसी चीज को महसूस करना और उसे स्पष्ट रूप से व्यक्त करना, तो मुमकिन है कि हमारे युवा लेखकों में से कुछ बहुत अच्छे आलोचक बनकर सामने आएं।

नंद - भीष्म जी, इसी तरह की अपेक्षा अगर आपसे की जाए तो आपको कैसा लगेगा?

भीष्म - मैं तो नहीं कर पाउंगा, क्योंकि मैं इस काम के लिए अपने आपको सक्षम नहीं मानता। हालांकि मेरा मन रचना के साथ-साथ अच्छी रचनाओं को पढ़ने में जरूर लगता है। आलोचना को भी मैं एक तरह की रचनात्मक विधा ही समझता हूं, सतही आलोचना में मेरा विश्‍वास नहीं है, जिसमें केवल नाम गिनाए जाते हों, लेकिन आलोचना से मुझे मार्ग-दर्शन मिलता है, पर अपनी-अपनी सामर्थ्‍य है,  क्षमता है,  मैं अपने को इसके योग्य नहीं समझता।   

***

- नंद भारद्वाज

 Email : nandbhardwaj@gmail.com  

No comments:

Post a Comment