Monday, August 24, 2020

 

एक कारोबारी के आत्‍म-संघर्ष की अंतर्कथा         

·        नन्‍द भारद्वाज

ज की लोकतांत्रिक समाज-व्‍यवस्‍था के दौर में उन्‍हीं जीवन मूल्‍यों, आदर्शों और सामाजिक न्‍याय के नियम-कायदों को मानने वाला मध्‍यवर्गी समाज और देश का श्रमिक-किसान-कारीगर एक बेहतर जीवन-व्‍यवस्‍था की उम्‍मीद आखिर किससे करे? खास तौर से उस अवस्‍था में जब  देश की राजनैतिक व्‍यवस्‍था, आर्थिक प्रक्रियाओं, और सार्वजनिक जीवन की आम सुविधाओं‍ पर पूंजवादी सत्‍ता-तंत्र का एकाधिकारवादी निरंकुश नियंत्रण लोकतांत्रिक मूल्‍यों में विश्‍वास रखने वाले देशवासियों के सामने एक गंभीर चुनौती बना हुआ हो। निश्‍चय ही ऐसी अलोकतांत्रिक सत्‍ता और उसके साये में पनपने वाले पुलिस-प्रशासन तंत्र से किसी सुरक्षा, सुविधा या सामाजिक न्‍याय की उम्‍मीद रखना एक बांझ खुशफहमी पालने के अलावा क्‍या है? लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था की आधारभूत शक्ति वह लोक ही है, जिसका अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होना और संगठित रहना ही उसकी सुरक्षा और सुव्‍यवस्‍था की गारंटी है। उसी लोकशक्ति के मौलिक अधिकारों, जीवन-निर्वाह की सुविधाओं और सामुदायिक हितों के लिए संघर्ष करने जागरूक घटकों में शिक्षकों, शिक्षार्थियों, लेखकों, पत्रकारों, दलितों, सजग स्त्रियों, बुद्धिजीवियों और संस्‍कृतिकर्मियों का ऐसा विवेकशील वर्ग अवश्‍य मौजूद रहता है, जो समय आने पर उस अलोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था और भ्रष्‍ट प्रशासनिकतंत्र को सही मार्ग पर लाता है। हिन्‍दी के मौजूदा सर्जनात्‍मक साहित्‍य लेखन में उभर रही इस नयी ऊर्जा और उन्‍मेष को जब मैं सकारात्‍मक बदलाव की इस प्रक्रिया से जोड़कर देखता हूं तो हिन्‍दी और भारतीय भाषाओं के बहुत से सृजनशील रचनाकारों का रचनात्‍मक लेखन सहज ही हमारा ध्‍यान आकर्षित करता है। हिन्‍दी की प्रतिभाशाली कथाकार अलका सरावगी ऐसे ही सक्रिय रचनाकारों एक तेजी से उभरता हुआ नाम है, जिसने समकालीन कथा-लेखन में अपनी अलग पहचान बनाई है। बेशक वे कोई घोषित क्रान्तिकारी या प्रगतिशील लेखक न मानी जाती हों, लेकिन उनके लेखन में स्‍वाधीनता, समानता, सामाजिक न्‍याय और सामाजिक सौहार्द्र जैसे लोकतांत्रिक जीवन-मूल्‍यों और मानव अधिकारों के प्रति जो लगाव और तड़प स्‍पष्‍ट दिखाई देती है, जिसे कतई अनदेखा नहीं किया जा सकता।    

    कोलकाता के मारवाड़ी परिवार में नवंबर, 1960 में जन्‍मी अलका सरावगी के अब तक चार उपन्‍यास और दो कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके है। उनका पहला उपन्‍यास ‘कलि-कथा : वाया बाइपास’ सऩ 1998 में प्रकाशित होकर आया था। उस वर्ष का हिन्‍दी का साहित्‍य अकादमी पुरस्‍कार और श्रीकान्‍त वर्मा पुरस्‍कार भी इसी कृति को प्रदान किया गया। इसके तीन वर्ष बाद आया उनका दूसरा उपन्‍यास ‘शेष कादंबरी’ (2001) स्‍त्री-स्‍वातंत्र्य और सामाजिक न्‍याय के प्रति यथार्थवादी दृष्टिकोण की एक नयी सोच के रूप में देखा गया, जिसकी युवा कथानायिका कादंबरी अपनी सत्‍तर वर्षीया नानी रूबी दी के तथाकथित ‘सोशल वर्क’ पर सवाल उठाते हुए उन्‍हें सोचने पर मजबूर करती है कि ऐसे सतही सामाजिक सुधारों और अखबारी प्रचार से सामाजिक न्‍याय के वास्‍तविक उद्देश्‍य को हासिल कर पाना कतई असंभव है। एक ऐसी बेबाक नातिन जो अपनी नानी रूबी दी के व्‍यक्तित्‍व पर गर्व करते हुए कहती है कि “यदि मैं आपके जितनी बड़ी हुई तो ठीक आपके जैसी होना चाहूंगी। एकदम स्‍वतंत्र। कोई भावुकता नहीं, बैलैन्‍स्‍ड।" लेकिन उसी नानी के लिए यह कहने में भी कोई संकोच नहीं करती कि “रूबी दी को अपनी कथा को बचाने के‍ लिए अपने अहंकार का ध्‍वंस करना होगा और यह तभी होगा जब वे इसे पहचानेंगी, अपना मजाक उड़ा सकेंगी, इसका आयरनी के साथ वर्णन कर सकेंगी। तब होगा एक विशेष सत्‍य का उदय-दीप्तिमान और व्‍यापक सत्‍य।" (शेष कादंबरी, पृष्‍ठ 162-163) यह कादंबरी के उठाए गये सवालों की ही परिणति होती है कि‍ रूबी दी समाज कल्‍याण के ताउम्र कमाए अपने नियमों को तोड़कर सविता नाम की लड़की का सचमुच कल्‍याण करने को अपने शेष जीवन का लक्ष्‍य बना लेती हैं और ऐसा करना दुनिया का सबसे सही और एकदम ठीक काम लगता है। उनकी सोच में आए इसी बदलाव को रेखांकित करते हुए कथाकार उनकी मन:स्थिति का विश्‍लेषण करते हुए  लिखती है, “क्‍या कादम्‍बरी की बातों से प्रभावित होकर वे इतिहास और वर्तमान से ईमानदारी बरतने चली थीं? या उम्र के एक मुकाम पर आकर आदमी सचमुच अपने को ढीला छोड़ देता है – क्‍योंकि उसमें अपने जीवन भर की मानी हुई सारी मान्‍यताओं और सारे उसूलों की कमाई को पकड़े रहने लायक ऊर्जा नहीं बची रह जाती? या उनके अकेलेपन ने उन्‍हें इस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है कि वे एक अदना-सी लड़की के लिए अपने को सठियाया हुआ प्रमाणित करने के लिए तैयार हो गई हैं।" (शेष कादंबरी, पृ 57) और इस रूप में यह कृति नारी चेतना और स्‍त्री-मन की अनेक गुत्थियों को गहराई में जाकर खोलती है। 


    ‘शेष कादंबरी’ के चौदह साल बाद सन् 2015 में आया अलका सरावगी का तीसरा उपन्‍यास ‘जानकीदास तेजपाल मैनशन’ भूमंडलीकरण के इस दौर में नयी प्रौद्योगिकी के विकास,  महानगरीय जीवन के आधारभूत ढांचे में आते नये बदलाव, बदलती आर्थिक प्रकि‍याओं और देश की राजनीति, प्रशासन, पुलिस और जनसंचार के बदले हुए परिदृश्‍य में पनप रहे नये बिचौलिया तंत्र द्वारा समाज के आर्थिक रूप से कमजोर तबकों को उनके बीच से बेदखल किये जाने की निर्मम सचाई से रूबरू कराता है। यह एक ऐसे कारोबारी के आत्‍म-संघर्ष की अंतर्कथा है, जिसमें आज के समय का निर्मम महानगरीय यथार्थ अपनी अद्यतन शक्‍ल-सूरत के साथ खुलकर सामने आता है। इस बीच उनका चौथा उपन्‍यास ‘एक सच्‍ची झूठी गाथा’ भी 2018 में प्रकाशित होकर आया है, जिस पर प्रासंगिक चर्चा फिर कभी। अलका सरावगी के कथा-लेखन की एक उल्‍लेखनीय बात यह भी है कि‍ उनके कथा-लेखन में मुख्‍यत: बंगाल (और उसमें भी कोलकाता महानगर) का परिवेश और वहां के मारवाड़ी समाज के विलक्षण चरित्रों का जीवन-संघर्ष और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थितियां अपने पूरे वैविध्‍य और समग्रता के साथ व्‍यक्‍त होती हैं। अपने इस आलेख में मैं उनके तीसरे उपन्‍यास ‘जानकीदास तेजपाल मैनशन’ पर केन्द्रित रहकर बात करना चाहूंगा, जो मेरी दृष्टि में आजादी के बाद बदलते महानगरीय जीवन यथार्थ और भ्रष्‍ट पूंजीवादी तंत्र के अन्‍तर्विरोंधों को प्रभावशाली ढंग से प्रस्‍तुत करने वाली एक महत्‍वपूर्ण कथा-कृति है।   

     उपन्‍यास की कथा-संरचना इस अर्थ में वाकई दिलचस्‍प है कि यह एक साथ दो स्‍तरों पर चलते हुए अपनी भीतरी संरचना में एक-दूसरे की पूरक है – यानी कथा के भीतर एक और आत्‍म -कथा और उससे जुड़ी अंतर्कथाएं। ये कथाएं एक ऐसा विलक्षण वतुल कोलाज बनाती हैं कि पाठक जिस प्रस्‍थान बिन्‍दू से कथा में प्रवेश करता है, घूम-फिरकर वापस वहीं आ खड़ा होता है।  अलका सरावगी अपने कथा-लेखन में कथानक के स्‍थूल ब्‍यौरों की बजाय मानवीय चरित्रों के‍ मानसिक अंतर्द्वद्व और कथा के बारीक ब्‍यौरों को बहुत कौशल से सहेजती हैं। इस दोहरे उपन्‍यास का कथानायक जयगोविन्‍द 1970 के‍ दशक में अमेरिका से पढ़कर अपनी कर्मभूमि कलकत्‍ता लौट आया एक ऐसा कम्‍यूटर इंजीनियर है, जो तकनीकि और प्रोफैशनल काबिलियत के बावजूद अपने व्‍यावहारिक जीवन में उतना ‘कामयाब’ नहीं है, जितनी कामयाबी की अपेक्षा  विदेश से शिक्षित होकर आये व्‍यक्ति से की जाती है। इस कारोबारी समाज में सहज बने रहने और अपने आत्‍मसम्‍मान को बचाए रखने के लिए जीवन-निर्वाह की प्रक्रिया में उसे काफी कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। कुछ अनचाहे समझौते भी करने पड़ते हैं, जो शायद सहज सामान्‍य परिस्थितियों में वह न करता। नये कारोबार में कई बार असफल भी होता है, लेकिन संयम और समझदारी से वह अपने को उस विचलन से अवश्‍य बचा लेता है।

      कथानायक जयगोविन्‍द इसी कथा में अपना एक जीवन जयदीप के रूप में अपने अधूरे उपन्‍यास में जीता है और दूसरा जीवन नक्‍सलबाड़ी आन्‍दोलन से लेकर भारत के एक बड़े बाजार में बदलने या ‘नेशन स्‍टेट’ से ‘रीयल इस्‍टेट’ बनने के यथार्थ में जीता है। इसी जद्दोजहद की मूल कथा का केन्‍द्रीय स्‍थल है जानकीदास तेजपाल मैनशन नामक वह सौ साल पुरानी इमारत, जो कलकत्‍ता महानगर के प्रमुख व्‍यापारिक केन्‍द्र सैंट्रल एवेन्‍यू और बड़ाबाजार के बीच स्थित एक ऐसी इमारत है, जिसमें रहनेवाले पुराने वाशिन्‍दों के प्रतिनिधि जयगोविन्‍द और उस संपत्ति के नये मालिकों के‍ बीच के टकराव को कथाकार ने शीर्ष कथा के रूप में प्रस्‍तुत किया है। इसी टकराव में टूटते बिखरते मानवीय चरित्रों के प्रतिनिधि जयगोविन्‍द के निजी जीवन की वह त्रासद कहानी है, जिसे इसी मूल कथा के ताने-बाने के भीतर वह अपने इच्छित जीवन के आत्‍मसंघर्ष की अंतर्कथा के‍ रूप में लिखता है और उससे संतुष्‍ट भी नहीं है। इस असंतोष की एक बड़ी वजह वे सामाजिक और निजी जीवन के अन्‍तर्विरोध भी हैं, जो उसे अवस्‍था में लाकर छोड़ देते हैं।  

      दरअसल जानकीदास तेजपाल मैनशन के साथ जयगोविन्‍द का एक भावनात्‍मक रिश्‍ता इस रूप में भी था कि प्रथम विश्‍व-युद्ध के बाद सैंट्रल एवेन्‍यू और बड़ाबाजार के रूप में विकसित होते इस क्षेत्र में राजस्‍थान के मारवाड़ी कारोबारियों को जमीनें दिलवाने और उस पर कोठियां बनवाने में जयगोविन्‍द के पिता एडवोकेट बाबू की अहम भूमिका रही थी। उन्‍हीं की सलाह पर सेठ जानकीदास ने यह चार मंजिला इमारत बनवाई, जिसके दूसरे तल का एक भाग उन्‍होंने तभी एडवोकेट बाबू को रहने के लिए दे दिया था। सेठ जानकीदास जब तक जिन्‍दा रहे, एडवोकेट बाबू के प्रति उनके सम्‍मान में कभी कमी नहीं आई। जयगोविन्‍द और उसके भाई बहनों का बचपन इसी मैनशन के प्रांगण में व्‍यतीत हुआ। यहीं रहते हुए एडवोकेट बाबू के बड़ाबाजार के कारोबारी जगत से प्रगाढ़ संबंध बने रहे और अमेरिका से कंप्‍यूटर इं‍जीनियरिंग की शिक्षा पाकर लौटे जयगोविन्‍द को पिता के इन्‍हीं संपर्कों के आधार पर बिड़ला समूह की हिन्‍द मोटर कंपनी में अपना पहला रोजगार मिला।

       अपनी ईमानदार एवं संवेदनशील प्रकृति के बावजूद जयगोविन्‍द में वह वस्‍तुपरक और व्‍यावहारिक सोच पूरी तरह प्रतिफलित नहीं हो पाई थी, जो उन्‍हें हर तरह की परिस्थिति में सम्‍यक निर्णय लेने में सक्षम बनाती। यही वजह थी कि वे इतने शिक्षित, संवेदनशील और मानव अधिकारों के प्रति सजग होने के बावजूद अपना प्रभाव बढ़ाने और कामयाब होने के लिए जब मिंटू चौधरी जैसे दोगले चरित्रवाले बिचौलिये पत्रकार की संगत करने लगे और उन्‍हीं में अपनी कामयाबी ढूंढ़ने लगे, तो उसकी आत्‍मसजग पत्‍नी दीपा तक तिलमिला उठी। वह अपने पति की मूल प्रकृति, उसकी कार्य-क्षमता, आत्‍म-सम्‍मान और अपने अधिकारों के प्रति सजगता के साथ उसकी सीमाओं और अन्‍तर्विरोधों को बखूबी जानती थी, इसके बावजूद वह अपने पति का कमतर इन्‍सान बनना नहीं सह सकती थी। वह उसे बेबाक ढंग से बता देने में भी कोई संकोच नहीं करती कि‍ वह गलत रास्‍ते पर है। जब उसी घर में रहते हुए वह सीधे तौर पर नहीं कह पाती तो उसके सामने पत्र के माध्‍यम से अपनी पीड़ा और चिन्‍ता व्‍यक्‍त करती है। वह लिखती है, “दुनिया तुम्‍हें जयदीप से कुछ और बना दे, यह दुनिया की ताकत नहीं। यह तुम्‍हारी गलती है। मैं सब कुछ सह सकती हूं, पर तुम कुछ और बन जाओ, यह नहीं सह सकती। यदि तुम्‍हें जानकीदास तेजपाल मैनशन में ही रहना है या अपने हक की लड़ाई जारी रखनी है तो मैं तुम्‍हारे साथ हूं। हम हर मुसीबत झेलेंगे। देखेंगे कि वे हमें कितना डरा सकते हैं। पर तुम मिंटू चौधरी जैसे लोगों के फंदे में फंसकर कुछ और बन जाओ, यह मैं नहीं सह सकती।" (पृष्‍ठ 81) जयगोविन्‍द और दीपा के इतने प्रगाढ़ प्रेम के बावजूद मुझे यह देखकर आश्‍चर्य हुआ कि अलका जी ने इस उपन्‍यास में दीपा के व्‍यक्तित्‍व को कहीं भी बेहतर ढंग से उभरने का मौका नहीं दिया। अगर जयगोविन्‍द पुरुषवादी मानसिकता का व्‍यक्ति होता तो दीपा को घर की चहारदीवारी तक रखने की बात समझ में आती, वह तो स्‍वयं इंजीनियर थी, हर काम को अपने बूते करने में समर्थ, फिर क्‍या कारण रहा कि जय की काम-काजी दुनिया में उसकी कोई भूमिका नहीं दिखाई देती? जबकि‍ हर कठिन परिस्थिति में वही उसका मनोबल बनाए रखती है, वही जय की अपने पिता के प्रति भावनाओं का आदर करते हुए उन कठिन दिनों में भी जानकीदास तेजपाल मैनशन में उसके साथ डटी रहती है। मेरी नजर में यह इस उपन्‍यास का सबसे कमजोर पक्ष है।    

      कथाकार अलका सरावगी ने अपनी इस कृति के विभिन्‍न चरित्रों के माध्‍यम से ने न केवल उस मध्‍यवर्गीय सामाजिक ढांचे की रूढ़ियों, दिखावों और उसकी महत्‍वाकांक्षाओं को उजागर किया, बल्कि कारोबारी वर्ग की एकाधिकारवादी जनविरोधी नीतियों, उसकी कुटिल चालों और सार्वजनिक जीवन के तमाम व्‍यवस्‍थाओं को अपने हित में इस्‍तेमाल करने की प्रवृत्तियों को खुलकर बेनकाब किया है। देश-दुनिया के बड़े शहरों, महानगरों और उत्‍पादन के ठिकानों पर काबिज यह कारोबारी वर्ग अपने व्‍यावसायिक हितों की पूर्ति के लिए जिस तरह देश की अर्थ-व्‍यवस्‍था, सामाजिक जीवन और पूरी उत्‍पादन-प्रक्रिया पर अपनी पकड़ मजबूत बनाये रखने के लिए देश की राजनैतिक व्‍यवस्‍था, उसके प्रशासनिक तंत्र, जनसंचार के माध्‍यमों और लंपट बिचौलिया वर्ग का खुलकर इस्‍तेमाल करता है, वह अब कोई रहस्‍य की बात नहीं रह गई है। कलकत्‍ता के सैंट्रल एवेन्‍यू इलाके से भूमिगत रेल मैट्रो परियोजना के कारण उस क्षेत्र बहुत सी पुरानी इमारतें या तो मुआवजा देकर खाली करवा ली गई या उन्‍हें मैंट्रो के भूमिगत पथ में बाधा मानकर हटा दिया गया। बरामदों, खंभों और पेड़ों को उस विकास अभियान से निर्ममता पूर्वक हटाने की इस प्रक्रिया में जानकीदास तेजपाल मैनशन की जो खंडहर नुमा दशा हुई वह दशा महज उस हवेली की नहीं थी, बल्कि एक भरी पूरी संस्‍कृति और जीवन-शैली को नष्‍ट कर दिये जाने की प्रतीक थी। और यह विनाश किसी सकारात्‍मक नवनिर्माण के लिए नहीं था, बल्कि मैट्रो परियोजना की आड़ में उस सैंट्रल एवेन्‍यू की बेशकीमती भूमि को नये शॉपिंग मॉलस, पांच सितारा होटलों, क्‍लबों या आधुनिक सुविधाओं वाली बहुमंजिला इमारतों में तब्‍दील कर एक नया पूंजी बाजार खड़ा करना था और वह हजारों मध्‍यवर्गीय परिवारों और लाखों कामगारों के काम-धंधों को उजाड़ कर। जानकीदास तेजपाल मैनशन इमारत इसी नष्‍ट-निर्माण प्रक्रिया की अगली कड़ी थी। उसके मालिक सेठ जानकीदास के बेटे इस प्रक्रिया के सामने असहाय थे। वे समय रहते इस भवन को लेकर चल रहे अदालती विवादों और अस्‍सी किरायेदार परिवारों के झूलते भविष्‍य को अंधकार में छोड़ उसे एस वी बिल्‍डर नामक कंपनी को बेचकर खुद निरापद हो गये। बहुत से किरायेदार तो पहले ही निकल गये थे, बचे हुए परिवारों में एक परिवार एडवोकेट बाबू और उनके बेटे जयगोविन्‍द का भी था, जो अपने पिता की प्रतिष्‍ठा, स्‍वयं की ईमानदार छवि और सामाजिक न्‍याय के लिए संघर्ष करने की अपनी महत्‍वाकांक्षा के चलते मैट्रो पीड़ित बंधु एसोसिएशन के प्रेसीडेंट के रूप में इन किरायेदारों की ओर से केस लड़ने को तैयार हो गये थे। एस वी बिल्‍डर कंपनी ने उन अदालती कार्रवाइयों से निपटने और किरायेदारों से इमारत खाली करवाने का ठेका आफताब हुसैन नामक एक बाहुबली व्‍यापारी को सौंप दिया था। यही आफताब हुसैन जयगोविन्‍द को डराता भी है और खुद उसके बढ़ते प्रभाव से डरता भी है। इसी सचाई को और खुले शब्‍दों में बयान करते हुए अलका सरावगी लिखती हैं, “कोई शख्‍स किसी पार्टी का हो - चाहे जनसंघी या लालू यादव की आरजेडी या कि कांग्रेस को वोट देने वाला – मारवाड़ी पहले मारवाड़ी है। आफताब हुसैन के असली आका भी मारवाड़ी हैं। जाने किस किस ने सेठ जानकीदास के बेटों-पोतों को कितना रुपया देकर इस मकान के भविष्‍य में अपना पैसा लगा रखा है। आफताब हुसैन कितना ही बड़ा व्‍यापारी क्‍यों न हो, उसके पास इतने पैसे नहीं हो सकते कि वह पूरा मकान खरीद ले। वह सिर्फ सामने आनेवाला चेहरा है, जो डराने-धमकाने के लिए काम में लिया जा रहा है। शायद उसे यह सब भी उसके आकाओं ने बोलने के‍ लिए कहा है, जो वह बोल रहा है।" (वही, पृ 58-59) बेशक जयगोविन्‍द बाहुबली बिचौलिये आफताब से भयभीत न हुआ हो, बल्कि एक स्‍तर पर तो उसने अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए तो उसे अपना बगलगीर ही बना लिया हो। हैरत की बात तो यह कि‍ उसने मैट्रो पीड़ित बंधु ऐसोसिएशन के अध्‍यक्ष के दायित्‍व से जैसे अपने को मुक्‍त सा ही मान लिया। यही नहीं, उसने तो थाने के ओ सी वगैरह से भी अपने स्‍तर पर सांठ-गांठ सी कर ली, मिंटू चौधरी, समर शुक्‍ला, राजाराम बाबू, प्रीतम भंसाली जैसे लोगों की संगत उसे रास आने लगी। ऐसे में मैनशन के अदालती मामलों का जो हश्र होना था, वही हुआ। 

      इसी कारोबार की दुनिया में काम करते हुए जयगोविन्‍द को अपने पहले रोजगार में जो कटु अनुभव हुए और वह इस सचाई से रूबरू हुआ कि यहां कोई किसी का अपना नहीं है, किसी की काबिलियत देखकर कोई खुश नहीं होता बल्कि उसे अजीब सी प्रतिस्‍पर्धा अपने लिए खतरे के रूप में देखता है। इसी कटु अनुभव ने उसे अपने निजी व्‍यवसाय की ओर प्रेरित किया। हिन्‍द मोटर्स से अलग होकर उसने आयरन पाउडर की फैक्‍ट्री डाली, उसके लिए बैंक ॠण भी लिया और उसका बीमा भी करवाया। लेकिन वह फैक्‍ट्री कामयाब नहीं हुई। फैक्‍ट्री खोल लेने से कुछ नहीं होता, जब तक उसके उत्‍पाद की मांग का सही जायजा लेने और माल को खपाने का पुख्‍ता इंतजाम निश्चित नहीं होता, ऐसे नये कार्यों की सफलता संदिग्‍ध ही रहती है। हुआ यह कि फैक्‍ट्री आरंभ होने के कुछ अरसे बाद ही सरकार ने आयरन पाउडर के इंपोर्ट से रोक हटा दी तो जयदीप का माल विदेशी माल से महंगा हो गया और उसे अपनी फैक्‍ट्री बंद कर देनी पड़ी। उसे बैंक ॠण लौटाने और अपनी साख बचाने के लिए बहुत जद्दोजहद करनी पड़ी। निराश भी हुआ, उसके‍ बाद उसने फैक्‍ट्री के नाम से ही तौबा कर ली। ऐसे में उसकी पत्‍नी दीपा ही थी, जिसने यह कहकर उसके मनोबल को बनाए रखा कि “आदमी की अपनी असफलता सिर्फ उसी की जिम्‍मेदारी नहीं होती, यह पूरे ‘सिस्‍टम’ की नाकामी है।" (पृ 71) उसी की सलाह पर उसने कंप्‍यूटर बेचने और चलाने के ‘सिस्‍टम कन्‍सल्‍टैंट’ के रूप में अपना काम शुरू किया, जिसमें उसे पहले ही महारत हासिल थी। कलकत्‍ता की जूट मिलों को अपने एकाउंट्स और सूचनाओं को प्रॉसेस करने के लिए इस परामर्श की खूब जरूरत भी थी और उसमें जयदीप की यह एजेन्‍सी पर्याप्‍त सहायक थी। इस नये काम से जयदीप ने बाजार में अपनी साख तो जरूर जमा ली, लेकिन इससे होने वाली आमदनी कामचलाऊ भर थी, वह अपने आप में कोई व्‍यवसाय नहीं था। इस साख और नये संपर्क बनाने में उसे अपने उसूलों के साथ जिस तरह समझौते करने पड़े, वे न दीपा को रास आए और न स्‍वयं के लिए ही लाभकारी सिद्ध हुए। कन्‍सल्‍टैंन्‍सी के इसी काम में बेहतर अवसर के लिए जब उसने टाटा स्‍टील की सलाहकार फर्म बाटलीवाला कंपनी में आवेदन किया तो उसके एवरेस्‍ट हाउस में इंटरव्‍यू लेने वाले शख्‍स देवनाथ मुखर्जी को अपने सामने बैठा देख वह हैरान रह गया था, जो उसके कॉलेज जमाने का सहपाठी था और उस समय के नक्‍सली आन्‍दोलन का एक सक्रिय कार्यकर्त्‍ता भी।

    देवनाथ मुखर्जी और जयगोविन्‍द करीबी दोस्‍त के रूप में जादवपुर विश्‍वविद्यालय में सहपाठी तो रहे ही, उस जमाने में बंगाल के धनी-मानी घरों के‍ बहुत से लड़कों की तरह देवनाथ  नक्‍लवाड़ी मूवमेंट में खूब उत्‍साह से भाग लेता था। इसी देवनाथ के कारण जयगोविन्‍द भी वामपंथी विचारधारा के संपर्क में आया। उसने आन्‍दोलन की गतिविधियों में तो भाग नहीं लिया, लेकिन इस वाम विचार के प्रति उसकी जिज्ञासा अवश्‍य बढ़ी और बहुत सा साहित्‍य भी उसने पढ़ा और वह भी अपने पिता से छिपकर। इस क्रान्तिकारी आन्‍दोलन के प्रति गहरा रुझान के कारण वह अपने साथियों के‍ छोटे-मोटे काम भी कर देता था, लेकिन उसमें इन्‍वाल्‍व होने से बराबर बचता रहा। बरसों बाद जब इसी देवनाथ, शान्‍तनु बनर्जी, असीम चटर्जी जैसे लोगों को कारोबार की दुनिया में प्रभावशाली पदों पर बदली हुई भूमिका में देखा तो वह न केवल हतप्रभ रह गया, बल्कि अपनी नाकामियों पर अफसोस भी हुआ।  

     जयगोविन्‍द इस बात को याद करके भी अपने भीतर आश्‍चर्य से भर उठता है कि इसी विचार से अपनी करीबी के कारण जब अमेरिका पढ़ने गया तो वहां वियतनाम युद्ध के खिलाफ मिशिगन विश्‍वविद्यालय के छात्र आन्‍दोलन से जुड़े छात्रों के समूह में वह भी शामिल हो गया था। लेकिन एक निश्चित दूरी बनाकर। वहीं उसे मिशेल जैसी दबंग और तेज-तर्रार लड़की से प्रेम हुआ, जो उस छात्र समूह में बेहद सक्रिय थी। मिशेल के कारण जयगोविन्‍द उस छात्र समूह से जुड़ा तो जरूर लेकिन‍ एक सीमा से अधिक वह उसमें कभी इन्‍वाल्‍व नहीं हुआ, मिशेल से प्रेम करते हुए भी वह निश्चित नहीं था कि वह उसे अपनी जिन्‍दगी में शामिल कर पाएगा। वह उसे प्‍यार से जैग कहकर संबोधित करती थी। जब अमेरिका में इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर वह अपने देश लौटने लगा और उसने मि‍शेल को इसकी जानकारी दी तो वह निराश तो जरूर हुई, लेकिन आजादी और सामाजिक न्‍याय के उसके उसके कमजोर पड़ते इरादों की सही समीक्षा जरूर कर दी। उसने कहा था, “मुझे अफसोस है जैग कि तुम जरा भी नहीं बदले। वैसे के वैसे ही रह गए। तुम्‍हारे जैसे लोग हमेशा अपने को बचाने के बारे में सोचते हैं। लेकिन तुम देखना कि जीवन में अपने को बचाने की कोशिश में तुम फेल हो जाओगे और हम न जीते तो भी जीत जाएंगे क्‍योंकि हम कभी हार नहीं मानेंगे। हम लड़ते रहेंगे।" (पृ 111) बेशक मिशेल जैसी स्‍त्री के इस सोच और संकल्‍प का जयगोविन्‍द तत्‍काल कोई उत्‍तर नहीं दे पाया, लेकिन वह अपने तईं आश्‍वस्‍त था कि‍ अमेरिकी सरकार अपनी सीमा के अंदर उन्‍हें पनपने नहीं देगी और इस संघर्ष के बावजूद उनको कुछ भी हासिल नहीं होगा। अपने देश लौटने के वर्षों बाद भी जयगोविन्‍द की  स्‍मृतियों में ये बातें बराबर गूंजती रहीं, वह कभी उसे भुला नहीं पाया।  

    मिशेल और दीपा जैसी कर्मठ स्त्रियों ने जयगोविन्‍द को अपने उसूलों और सरोकारों से एक सीमा से अधिक विचलित नहीं होने दिया, वे सदा उसके करीब बनी रहीं। हालांकि‍ अमेरिका से लौटने के बाद उसके जीवन में मिशेल की भूमिका समाप्‍त हो गई, लेकिन‍ उसकी स्‍मृतियां अरसे तक बनी रही। दीपा उसकी पत्‍नी थी और स्‍वयं पढ़ी लिखी इंजीनियर भी, इस नाते दीपा की भूमिका अधिक महत्‍वपूर्ण थी। उसी की प‍रवरिश और सलाह से उनके दोनों बेटे बेहतर शिक्षा प्राप्‍त कर अच्‍छे जॉब में लग गये – बड़ा बेटा रोहित अमेरिका में बैंक मैनेजर था और छोटा सुमित मुंबई की बड़ी फर्म में अच्‍छे पद पर। कारोबारी दुनिया की कूटनीति, भ्रष्‍ट प्रशासन तंत्र और बिचौलिया वर्ग की संयुक्‍त चालों के चलते जयगोविन्‍द जब जानकीदास तेजपाल मैनशन का केस हार गया तो वह अपनी पत्‍नी के साथ कोलकाता में ही एक किराये के फ्‍लैट में रहने लगा था, लेकिन दो वर्ष बाद दीपा भी हृहयाघात के कारण चल बसी और कंप्‍यूटर सिस्‍टम कन्‍सल्‍टैंसी के काम में उसकी अधिक दिलचस्‍पी नहीं रह गई थी तो ऐसे में अपनी अधूरी आत्‍मकथा को पूरी करने के संकल्‍प-विकल्‍प में उलझे जयगोविन्‍द के सामने बेहतर विकल्‍प यही था कि वह अपने छोटे बेटे सुमित के पास मुंबई पहुंच जाए और शेष जीवन उसी के साथ व्‍यतीत करे, इसी संकेत के साथ यह दो स्‍तरों पर चलती यह कथा बिना किसी अलग नाटकीय बदलाव के अपने विराम पर पहुंचती दिखाई देती है।

    अंत में इस उपन्‍यास के बारे में किताब के बैक-कवर पर अंकित अशोक सेकसरिया जी की ये पंक्तियों मुझे बहुत प्रासंगिक लगती हैं, जो इस विकट समस्‍या पर कई कोणों से विचार करने पर बल देती है। वे लिखते है : “जो सतह पर दिखता है, वह अवास्‍तविक है। कलकत्‍ता के सैंट्रल एवेन्‍यू पर ‘जानकीदास तेजपाल मैनशन’ नाम की अस्‍सी परिवारों वाली इमारत सतह पर खड़ी दिखती है, पर उसकी वास्‍तविकता मैट्रो की सुरंग खोदने से ढहने और ढहाए जाने में है। …..यह गैरकानूनी ढंग से धन कमाने, सौदेबाजी और जुगाड़ की दुनिया है। इस दुनिया के ढेर सारे चरित्र हमारे जाने हुए हैं, पर अक्‍सर हम नहीं जानते कि वे किस हद तक हमारे जीवन को चलाते हैं और कब हमें अपने में शामिल कर लेते हैं। तब अपने बेदखल किये जाने की पीड़ा दूसरों को बेदखल करने में आड़े नहीं आती।"

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