(महिला दिवस पर अपनी एक कविता)
कामिनी
तू मेरे होने का आधार
आधी सामर्थ्य
आधी निबलाई
जीवन का आधा सार -
तुम पसरी सुकोमल माटी
भीगे ताल में उमगती कच्ची दूब
पेड़ों पर खिलती हरियाली की आब
आसमान की परतों में
तिरती कजरारी बादली,
घिरती घटाओं के में
दमकती दामिनी साकार -
धोरों और चारागाहों पर
धारो-धार बरसती ठंडी फुहार
तुम नेह में छलकती तलैया
बावड़ी
तुम विगतों और गीतों की आधी बात
वह आधे बुलावे से पहले
आ खड़े होने का अचूक अभ्यास
वह ममता की गहरी सलोनी सीख
अग्नि की ज्वाला में तपी नव कंचन-कामिनी
उछाव में सहेजती अजानी जि़न्दगी का बोझ
रेतीले टीलों को उलांघती
आई साजन के चौबार
थामी जीवन की ढीली डोर
हिम्मत बंधाई अजानी राहों पर -
अंधेरे में जगाए रखी आस
पोखती रही बिखरते कुटुम्ब के कायदे
गुजरे बरसों की उलझी पहेली की आड़
तू कहां को सिधाई सोरठ-सोहनी
कहां अदीठ हो गया तुम्हारा
वह आधा सहकार
क्यों लगती इतनी अनमनी
उदास
इस
तरुणाई में तीजनी !
क्यों बढ़ता हुआ-सा लग रहा है
पांव तले की धरती पर अधिभार
यह भीतर उतरती धीमी अनसहनी-सी मार -
तुम क्यों कर ऐसी बन गई हो कामिनी !
धर्म की पोथियां कहतीं
तुम हो मन्दिर में मूरत-सी
श्रद्धा और भक्ति में
अजाने बुझ गई वह अन्तर्मन की ज्योति
माली-पन्नों में छुप गई
तुम्हारे चेहरे की पहचान
ख्यातों में खोजा तो
मिली अलग ही
साख
रीत के गीतों में चर्चित रूठना !
किस दावे पर सहेजूं तुम्हारी आन
किस तरह बचा लूं उघड़ती आबरू -
मेरी बाहों तक आ पहुंच
तुम कहां अदृश्य हो गई,
ओ
मानिनी !
कहां अदृश्य हो गया तुम्हारा
वह आधा सहकार,
तुम्हें खोजता फिरता हूं
उजाड़ में दिशाहीन
उदभ्रान्त !
यह चारों दिशा में
हलचलों से भरा-पूरा संसार
यह समन्दर में हिलोरें खाती
बे-पतवारी नाव,
ये बालू रेत की थाह में
उतरता दुर्गम पंथ -
यह अकाल और आंधियों से
लुटी-पिटी धरती
ये बूंद बूंद गहराता जुल्मी अंधेरा
ये सांय-सांय करती-सी काली रात
ये आंधी और बग्गूलों से
हथ-भेड़ी करता मैं !
कदम-दर-कदम पहुंचती आओ
जीवन-संगिनी
!
अंतस में सहेज गहरी दाझ -
और दहाड़
कि बदल जाय
इस उजाड़ का आगोतर
जीवन का सुरीला बजे साज
सिरजें सांसों में नई जीवारी !