उलझन
में अकेले
काफी गहरा गई थी रात और बाहर बढ़ती सर्दी के तेवर उत्तरोत्तर तीखे होते जा रहे थे।
तिबारी के बीचो-बीच जलते अलाव की लपटें फिर मंद पड़ने लगी थीं। कुछ पल पहले जलावन की
जिन लकड़ियों को अंगारों पर रखा था, वे
अब जलकर खुद अंगारे बन गई थीं और अंगारे फिर नयी आहुति मांग रहे थे। कुछ छोटे
कुन्दों को मैंने अंगारों पर रखा और एक लंबी फूंक दी – फूंक के उकसावे से आग फिर
सचेतन हो गईं। उन सचेतन अग्नि-शिखाओं में अपने ठंडे पड़ते सवालों को मन ही मन
सहलाते फिर मैंने एक बार जीसा की ओर उम्मीद भरी नजर से देखा, जो अलाव के उस पार अब
भी किसी उलझन में डूबे, अपने ही भीतर कुछ खोज रहे थे।
मैं तय नहीं कर पा रहा था कि जीसा से कैसे
बात शुरू की जाए, क्योंकि
बात जो करनी थी वह तो पहले ही उन तक पहुंच चुकी थी और अब जो कहना था, उन्हीं को
कहना था, मुझे
तो फकत् इतना ही बताना था कि मेरे सामने फिलहाल दूसरा कोई रास्ता खुला नहीं है। यह
एक अच्छा अवसर हाथ आया है और मैं एक बार इस जमींन पर पांव टिकाना चाहता हूं, लेकिन वे समझने को
तैयार हों तब न!
एक सहमी-सी नजर से मैंने उनके चेहरे की ओर
देखा - वे अभी तक वैसे ही गुमसुम बैठे आग की लपटों को अपलक ताक रहे थे। मैं फिर कुछ
क्षण जलती लकड़ियों को आगे-पीछे करने में बिलम गया। प्रतीक्षा कर रहा था कि वे ही
कुछ बात शुरू करें – कुछ पूछें।
मन में कई
तरह की शंकाएं उठ रही थी कि जीसा शायद नाराज हों और यही उलाहना दे बैठें कि “जब
मां-बाप की दी हुई कोई सीख माननी ही नहीं, तो अकारथ यह पूछताछ की रीत क्यों
रखनी... मनमानी ही करनी है तो करो फिर..., कौन-कहां बाधा देने आता है...?” लेकिन वे कुछ बोलें तब न, एक ठहरी हुई दीठ
जलते अलाव पर टिकाए वे तो फकत् बैठे थे...गहरे सोच में डूबे...अबोले और उदास!
भाभू (मां) बता रही थी, ‘‘पिछले डेढ़-दो महीने
से तुम्हारे जीसा की तबियत कुछ ठीक नहीं है। यों आठ-पहर खाट तो नहीं पकड़ी, लेकिन बुखार, खांसी और दमे के
कारण जीव में आराम कम ही रहता है। कितनी ही झाड़-फूंक करवा ली, दवाई-फाकी भी देकर
देख ली, लेकिन
जीव में आराम तो आता ही नहीं। रोटी जीमने के नाम पर फकत् टंक टालते हैं, मुश्किल से एकाध
रोटी या थोड़ा-बहुत खीच-दलिया ले लेते हैं। चिकनाई के लिए वैद्यजी ने यों भी मनाही
करवा दी। अफीम, चाय
और तंबाखू की मात्रा जरूर बढ़ गई है। कोई आया-गया भी आजकल कम ही सुहाता है। किसी को
बरजने-डांटने का स्वभाव तो जाने कहां चला गया?’’
एक ही सांस में इतना कुछ बताकर भाभू चुप-सी हो गई। मुझे जाने
क्यों लगता रहा कि उन्होंने कुछ बातें मुझसे छुपा कर अपने पास रख ली हैं, शायद असली वजह जीसा
से बात करने के बाद ही पता लग पाए!
‘‘आपने
कभी इस बारे में कुछ पूछा नहीं?’’ मैंने
भाभू से पूछा।
‘‘बताते
कहां है? ज्यादा
जोर देते हैं, तो
खारी मींट से देखते रहते हैं, या
फिर बोलेंगे तो फकत् इत्ती-सी बात कि ‘तुम्हें
क्या करना है – कोई दूसरा काम नहीं है घर में?’
और हमें चुप रह जाना पड़ता है।’’
क्या कारण हो सकता है, मेरा पूरा दिन इसी
उधेड़बुन में बीत गया। दिन में तिबारी सूनी पड़ी थी। जीसा घर में नहीं थे, ‘शायद अपनी अफीम की खुराक के लिए किसी ठेकेदार
की ओर गये होंगे!’ पूछने पर, भाभू
ने यही बताया था।
“तो
किसी को साथ ले जाते, या किसी को भेजकर मंगवा लेते। तबियत ठीक न हो तो यों अकेले
जाना तो ठीक नहीं है न।“
“किसी
को बताएं तब न। यह तो मुकना रबारी ने अभी थोड़ी देर पहले खबर दी कि बाबोसा सवेरे
मूंडसर के मार्ग जा रहे थे। मूंडसर में जगमाल और दो-एक जने अफीम का धंधा चोरी-छिपे
करते हैं। यों हरेक पर विश्वास भी तो नहीं कर सकते। लोग बताते हैं कि आजकल अफीम
पर सरकार की ओर से पाबंदी लगी है। मैं तो तुम्हारे जीसा को बहुत समझाती हूं, एक
बार हिम्मत करके इससे पिंड छुड़ाओ न, इतने-से कतरे के लिए कितने लोगों की ग़रज
करनी पड़ती है?”
‘‘यह व्यसन ऐसा ही
होता है, भाभू!
और वह इस अवस्था में छूटना तो और भी मुश्किल है। एकबार शुरू हो जाने के बाद तो
अच्छे-भले जवानों के होश जवाब दे जाते हैं,
इन्होंने तो सत्तर पार
कर लिये हैं!’’
‘‘अरे बेटा, ये तो
मुंह ही नहीं लगाते थे, ये तो शिवदान के
दुख में टूट गये! ऐसे जवान बेटे का यों अकस्मात् उठ जाना, क्या कोई सही जा
सकने वाली बात है.. औलाद बूढ़े मां-बाप के जीने का सहारा होती है....और जब वह सहारा
ही हाथ से छिन जाए...तो जीना बोझ हो जाता है !’’
कहते हुए भाभू का गला
भर आया और आंखों से टलक-टलक आंसुओं की धारा-सी फूट पड़ी।
शिवदानसिंह मेरे बड़े भाई थे। वे बी.एस.एफ.
में सूबेदार-मेजर थे। तीन बरस पहले पड़ौसी मुल्क से झगड़ा हुआ तब वे अखनूर के हल्के
में कहीं मोर्चे पर थे। युद्ध शुरू होता है तो फौज तो बाद में मोर्चा सम्हालती है, पहला मुकाबला तो
अमूमन इन अर्ध-सैनिक बलों को ही सम्हालना होता है। शिवदान तो मोर्चा लेने में वैसे
ही उस्ताद गिने जाते थे। उनकी टुकड़ी ने मोर्चा जीत भी लिया था, पर कौन जाने ईश्वर
की क्या मर्जी थी, जब
गोली-बारी एकदम बंद हो गई, तब
वे बंकर से बाहर फकत् यह देखने आए थे कि कोई दुश्मन नजदीक-दूर तो नहीं है, और उसी वक्त किसी घायल
दुश्मन ने तक कर ऐसा निशाना साधा कि उसकी
गोली शिवदान की छाती को आर-पार बींध गई। फिर तो उसके साथियों ने उस अधमरे दुश्मन
को गोलियों से छलनी कर दिया, लेकिन
उससे शिवदान तो वापस सीधे नहीं हो पाए। दो दिन बाद काठ में बंधी उनकी मिट्टी ही
घरवालों के पास पहुंची और तब से जीसा तो जैसे जीते-जी मरे-समान हो गये। उनके सीने
में ऐसी बूज आई कि गले से चीख भी नहीं निकल पाई। भाभू और भाभीसा तो बेहाल थे ही, उन्हें संभालने में
हम सभी का जैसे धैर्य ही जवाब दे गया था। भाभी को तो तीन दिन बाद जाते होश आया, लेकिन एक बार होश
आने के बाद उन्होंने जल्दी ही अपने को संभाल लिया और खुद को इस असह्य वेदना का
मुकाबला करने के लिए तैयार भी कर लिया। धन्य है उनकी हिम्मत को! उन्होंने अपनी
चिन्ता छोड़, मुझे
बुलाकर यह हिदायत दी कि ‘‘नरपत
बना, आप
मेरी चिन्ता छोड़ें, आप
जीसा का ध्यान रक्खें, उनका
आपके भाई पर बहुत जीव था! वे अपनी तकलीफ किसी को नहीं बताएंगे!’’ उस दिन से मेरी नज़र
में भाभी की इज्जत बहुत बढ़ गई थी।
*
बाहर की आग को भले कितना ही सचेतन रक्खें, वह ज्यादा देर तक
अंधेरे का सामना नहीं कर पाती, लेकिन
यह भी कहावत है कि अंधेरा भले कितना ही घना क्यों न हो, सजग और सचेत आदमी
आसानी से हार नहीं मानता। तो कौन है हमारे भीतर सही अर्थों में सजग और सचेतन -
जीसा, भाभू, भाभी या मैं? शायद पूरे अर्थों
में कोई नहीं या थोड़े-बहुत सभी।
जीसा ने अपनी इकहत्तर वर्षों की उम्र में
कठिन समय देखा है। खुद बदलते समय और दुनियादारी की अच्छी सूझ-समझ रखते हैं। हो
सकता है कि उनका वक्त थोड़ा दूसरा रहा हो, लेकिन
चारण के घर में जन्म लेने भर से उन्हें अपने हलके या समाज में ज्यादा मान-सम्मान
मिल जाएगा, इसकी
तो उन्होंने कभी आस भी नहीं रखी। लोकहित और न्याय की बात करनेवाले एक नेक इंसान के
रूप में आस-पास के गांवों में पाबूदानसिंह का नाम किसी से अनजाना नहीं था। अपने
जमाने की पोसाल में पढ़ाई भी कर रखी थी। घर में कथा-भागवत, माताजी की स्तुतियां,
तुलसीदासजी की रामायण और कितनी ही पौराणिक गाथाएं उनसे सुनने के लिए दूर-दराज के
गांवों के लोग उनके पास आते थे। कभी कोई तिलकधारी पंडित विवाद में झिल जाता तो
अगले को कान पकड़वा कर ही पीछा छोड़ते। भर जवानी से लेकर साठ साल की अवस्था पार करने
तक, अपना हर काम हाथ से करने में ही विश्वास रक्खा। खेत और जीव-जानवर अपनी मेहनत
से ही सहेजे। क्या हो, किसी ने लिहाज में या बाबोसा पर अपनी डाई चढ़ाने के निमित्त
किसी काम में हाथ बंटा दिया हो, उससे चौमासे की पूरी खेती थोड़े पार पड़ती? उनके
पुरखों ने न किसी दरबार में हाजरी भरी और न किसी जागीरी में कोई ओहदा संभाला।
उल्टे जागीरी जुल्म के विरोध में अपने भाई-संबंधियों से लड़ते ही रहे। मेरे दादाजी
कभी गंगा रिसाले में अपनी टुकड़ी के मुखिया हुआ करते थे, उन्हीं के नाम आई यह
सौ बीघा जमीन है, जो
पिछले बरसों में परिवार की जीवारी का आधार रही है।
हाथ के काम के लेखे तो मेरी भाभू भी कम नहीं
थीं। वे तो जीसा से भी दो कदम आगे रहतीं। घर में चार-चार दूध देनेवाली गायें थीं।
उन गाय-बछड़ों और ढोर-डांगरों की पूरी सार-संभाळ उनके ही जिम्मे रहती थी। फकत् एक
गोरधन राईका और उसकी घरवाली उनके घर-बाहर के काम में थोड़ा हाथ बंटा देते, जो गरीब थे और उनकी
ही शरण-सहारे से अपना पेट पालते थे, लेकिन
यह धीणा और धान किस तरह अंवेरना है, यह
देखने का काम तो भाभू का ही होता था। आगे चलकर भाभी ने भी कुछ अपना आपा और मन मिला
दिया था। इस बार भाभू से बात करते हुए मुझे इस बात का अचंभा हुआ कि उन्होंने एक
बार भी किसी बात में भाभी का जिक्र नहीं किया। यह बात मुझे पूछने पर ही पता लगी कि
वे अपने पीहर जयपुर गई हुई हैं, उन्हें
सरकार की तरफ से शहीद की विधवा के नाम पर कोई बडी इमदाद मिलने वाली है।
फौज में एक सिपाही या हवलदार की कितनी-सी
वक़त होती है, यह
बात खुद घर के बड़े बेटे शिवदान ने अपनी उन्नीस बरस की नौकरी में अच्छी तरह जान ली
थी। बारहवीं पास करने के बाद वे एक हवलदार के रूप में भर्ती हुए थे और इतने बरसों
की नौकरी में फकत् सूबेदार-मेजर के ओहदे तक पहुंच सके। सो तो नौकरी में रहते हुए
उन्होंने प्राइवेट बी.ए. कर ली थी। खुद भाभी दसवीं पास थी, लेकिन दोनों घर के
किसी काम में पीछे नहीं रहे। वे कहतीं, अपने
घर और खेत में काम करते किस बात की शर्म! उनकी दो बेटियां हैं और दोनों अच्छी पढ़ाई
कर रही हैं। बड़ी बेटी सुगन पिछले साल पी.एम.टी देकर मेडिकल में दाखिला लेने में
कामयाब रही। उससे छोटी मेघा भी कम नहीं। आठवीं बोर्ड में वह भी अपनी स्कूल में सबसे
से अव्वल रही। शिवदान का बारहवां दिन बीतने के बाद भाभी के पिता और भाइयों ने उनके
बहुत निहौरे किये कि वे उनके साथ पीहर में रहें और दोनों बेटियों को शहर में रखकर
पढ़ाएं, लेकिन उस वक्त भाभी ने साफ मनाही कर दी। कहा, “भाभोसा,
यह मेरा अपना घर है और ये सास-ससुर ही अब मेरे मां-बाप हैं, मैं इन्हें छोड़कर
कहीं नहीं जाउंगी।“ जीसा ने जब यह बात सुनी तो उन्हें
अपनी बहू पर बहुत गुमान हुआ और पहली बार उनकी आंखें खुशी से नम थीं।
असल में शिवदान पर जीसा की बढ़ती उम्मीदों की
एक बड़ी वजह खुद शिवदान की अपनी नयी सोच और घर को उस पुराने ढर्रे से बाहर निकाल
लाने की उनकी जिजीविषा थी। गांव में बिजली आते ही उन्होंने सबसे पहले कोशिश करके
घर में बिजली लगवाई। खेत की जमीन के नीचे गहराई में अथाह पानी था, उन्होंने सरकार और
बैंक से मदद लेकर गांव में सबसे पहले अपने खेत में ट्यूब-वैल खुदवाया और खेती के
लिए नये साधन-तरीके अपनाए। ट्रैक्टर का भी बंदोबस्त करवा लिया। उन्हें छुट्टी भले
ही कम मिलती हो, लेकिन
दूर बैठे ही वे घर की व्यवस्था सुधारने में पूरी रुचि लेते थे। उनकी देखा-देखी
गांव के और लोगों की भी हिम्मत बंधी। सिंचाई की सुविधा होने से इस रेतीले हलके में
खेती की पूरी तस्वीर ही बदल गई। एक ही बरस में वही जमीन तीन-तीन फसल देने लग गई।
नये साधनों और तकनीक के कारण खेती की उपज भी चौगुनी हो गई। खुद शिवदान नौकरी से
रिटायरमेंट लेकर घर की व्यवस्था संभालने के लिए आने के बारे में सोच रहे थे और इसी
की खातिर उन्होंने अपने परिवार को गांव में ही बनाए रखा। खुद भाभी ने अपने इस
योजना को खूब बढ़ावा दिया और पति की गैर-मौजूदगी में वे सारी जिम्मेदारियां निभाने
को तैयार रहतीं, जो
इस बदलाव के लिए जरूरी थीं।
इस घर की माली हालत में रातों-रात तब्दीली आ
गई और खुद मुझे भी बड़े शहर में रहकर अपनी सी.ए. की पढ़ाई करते हुए कभी तंगी महसूस
नहीं हुई। वे कोई मैनेजमेंट का कोर्स किये हुए आदमी नहीं थे, लेकिन उनकी
व्यावहारिक बुद्धि अच्छे-अच्छे मैनेजमेंट किये हुओं को पीछे छोड़ देती। खुद मेरी
पढ़ाई के खर्चे पर भी उनकी पूरी नज़र रहती। उन्हें भरम में रखकर कोई फिजूल-खर्ची कर
लेना असंभव था। उनकी इच्छा थी कि मैं किसी बड़ी कंपनी में चार्टेड अकाउण्टेंट बनूं
और वे इसके लिए मुझे ऐसी कई बड़ी कंपनियों की बातें बताते। इस मामले में जीसा की
राय शुरू से ही अलग थी। वे कहते थे कि मैं भले सी.ए. करूं या एम.बी.ए., कोई सरकारी या
प्राइवेट नौकरी की तजवीज करने की बजाय यदि अपनी खेती या घर के धंधे में रुचि लूं, तो वह किसी भी नौकरी
से ज्यादा फायदेमंद हो सकता है। लेकिन मुझे भाई की राय ही ठीक लगती थी। भाभी की भी
यही इच्छा थी कि मुझे किसी बड़े शहर में काम की तजवीज करनी चाहिए। जिस वक्त भाई के
साथ युद्ध में यह हादसा हुआ, मैं
बीकानेर में सी.ए. के दूसरे वर्ष में पढ़ रहा था। वह दिसंबर का महीना था और
अप्रेल-मई में मेरी परीक्षा होनी थी। भाई के साथ हुई इस दुर्घटना से मेरी सारी
दिनचर्या और घर का ढंग-ढाला बिखर गया। खुद मेरा भी पढ़ाई से जीव उचट गया। नतीजा यही
हुआ कि परीक्षा सिर पर आ गई और मेरी तैयारी कुछ भी नहीं थी। भाभू के जोर देने पर
मैं परीक्षा देने शहर आ तो गया, पर
किसी पेपर में मेरा मन नहीं लगा। बस गनीमत समझो कि परीक्षा में पास हो गया।
पिछले दो वर्षों में मैंने भी खूब मेहनत की
और उसी का नतीजा था कि बगैर एक भी साल गंवाए,
मैंने सी.ए. की डिग्री हासिल कर ली। कुछ कंपनियों को अपना
बायोडेटा भेजकर इंतजार करता रहा कि कहीं से कोई बुलावा आयेगा। पहली कोशिश यही थी
कि अपने प्रदेश में ही मन-रुचि का काम मिल जाए,
तो घर से ज्यादा दूर जाने की नौबत न आए। लेकिन अच्छे काम के
लिए मैं कहीं भी जाने को तैयार था। सी.ए. करने के दौरान मैं उसी कंपनी में बराबर काम करता रहा, जहां काम करते हुए
मैंने अपनी पढ़ाई पूरी की थी। कंपनी की साख अच्छी थी और देश के दूसरे शहरों में भी
इसकी अपनी शाखाएं थी। उसके मालिक तो यहीं के निवासी थे, लेकिन उसका हैड ऑफिस
मुंबई में था, जहां
मैं पहले भी कई बार जा चुका हूं। मैं कंपनी के नये प्रोजेक्ट पर काम कर ही रहा था
कि एक दिन मुझे मुंबई से इंटरव्यू के लिए
बुलावा आ गया। कंपनी से तीन-चार दिन का अवकाश लेकर मैं मुंबई निकल गया।
*
महीना
पूरा होने से पहले ही उस कंपनी के हैड-क्वार्टर से बुलावा आ गया। अब इस नये काम
पर जाने से पहले जीसा और भाभू से इजाजत लेना तो जरूरी थरा, क्योंकि भाई की अकाल
मौत के बाद जीसा ने अपनी सारी उम्मीदें मुझ पर टिका रखी थीं और उनसे बगैर पूछे कोई
कदम उठाना तो और बड़ी गलती होती। मैं उन्हें समझाना चाहता था कि जीवन में आगे बढ़ने
का यह एक अच्छा मौका है, खुद
भाई की भी यही राय थी कि मैं किसी बडी कंपनी से जुड़कर काम करूं।
“जीसा,
हमारे लिए यह खुशी की बात है कि मुझे मुंबई से एक बड़ी कंपनी में नौकरी के लिए
बुलावा आया है, मैं उसी के लिए आपकी इजाजत लेने आया हूं। इस तरह का अच्छा अवसर
सौभाग्य से ही हाथ आता है, आप कहें तो मैं कल ही उन्हें अपनी स्वीकृति भेज दूं।“
मैंने हिम्मत कर आखिर जीसा के सामने अपनी इच्छा व्यक्त कर दी। वे मेरी बात का
बिना कोई उत्तर दिये अलाव की ओर ताकते रहे, वे यह बात पहले ही जान चुके थे, मेरा
कहना तो औपचारिकता भर था, उन्होंने एक-बारगी मेरी ओर सूनी आंखों से देखा और फिर
अपने आप में जैसे खो गये।
उन्हें यों चुप और गुमसुम बैठे देखकर मुझे
चिन्ता भी हो रही थी। फिर यह भी लगा कि नौकरी के लिए इजाजत मांगना तो कोई दुविधा
का कारण नहीं होना चाहिए, मैं
खुद एकबारगी चिन्ता में पड़ गया और विचार करने लगा कि ऐसा क्या कारण हो सकता है? अगर बिना पूछे चला
जाता तो जीसा और घरवालों का उम्र भर का उलाहना रह जाता और पूछ रहा हूं तो यह हाल
है! मैं समझता हूं जीवन में इस तरह के अवसर कभी-कभार ही मिलते हैं, संयोग से इसबार
मुंबई जाने का बहाना निकल आया और काम बन गया... अन्यथा मुझ जैसे सी.ए. किये हुओं
की आज क्या कमी है... सी.ए.-एम.बी.ए. किये हुए आज अनेकों बेरोजगार घूमते हैं, कोई पूछता ही नहीं।
मुझे अपनी ओर एक-टक निहारते देखकर वे बोले,
‘‘बुलावा आ गया, वह
तो बड़ी बात है, लेकिन
यहां के घर-परिवार के बारे में क्या सोचा है?
इसे किसके भरोसे छोड़ने का इरादा है... मेरी उम्र इकहत्तर पार
कर गई है...इसी के आस-पास अपनी मां की जान लो...अब कोई दुबारा जवान तो होने से
रहे...पीछे रही तुम्हारी भाभी और उनकी दोनों बेटियां, तो उनकी रखवाली और
संरक्षण मुझे तो तुम्हारे ही जिम्मे दीखती है,
अब विचार कर लो कि तुम्हें क्या करना चाहिए...’’ जीसा ने संजीदा स्वर
में अपनी समझ से पूरी बात बता दी थी।
अपने पक्ष को और ठोस बनाते हुए उन्होंने फिर
आगे बात बढ़ाई, ‘‘मुझे
तो यही समझा दो कि इस घर में क्या आज तुम्हें अपने जिम्मे कोई काम नहीं दीखता, जो
सैकड़ों कोस दूर जाने को तैयार हो गये... अगर नौकरी का मकसद ऊंची कमाई करना है, तो हिसाब लगाकर देख
लो कि क्या कोई नौकरी इस घर के काम से बढ़कर कमाई दे सकती है? हो
सकता है, बडे़ शहर में रहने से कुछ सुख-सुविधाएं मिल जाएं... लेकिन अपने पुरखों की
कमाई और साख से बना यह घर, क्या इतना सुकून नहीं देता कि उसकी अनदेखी करके उन
सुख-सुविधाओं की ओर भागो... थोड़ा सोचकर फैसला करें नरपत बना, अब आप बालिग हो गये
हैं और आनेवाले दिनों में इस घर के मुखिया भी होंगे... मैं तो आज ही यह जिम्मेदारी
सौंपने को तैयार बैठा हूं...’’ इतना
कहकर वे चुप हो गये, जैसे
और कुछ कहने को बाकी न रहा हो।
थोड़ा अचरज हुआ मुझे कि जीसा बदले हुए हालात
से परिचित होते हुए भी जाने क्यों अनजान से बन रहे हैं। भाई के जाने के बाद इन
तीन सालों में भाभी की सोच में काफी फर्क आ गया था और मुझे तो वह स्वाभाविक ही
लगा। आने वाले दिनों में उनकी दोनों बेटियां अपना भविष्य किसी बड़े शहर के आश्रय
में ही खोजने में लगी हुई हैं... खुद भाभी को जयपुर में शहीद विधवा के नाम पर एक
पेट्राल पंप चलाने की सुविधा मिलने वाली है...। अचंभे की बात यह कि मुझे यह खबर भी
भाभी के बड़े भाई साहब के मुंह से मिली। कौन जाने उन्होंने यह बात मेरा मान रखने के
लिए कही या अपना प्रभाव दिखाने के लिए कि
उनकी बहन अब किसी और पर निर्भर नहीं है। जबकि हमारे घर में तो भाभी को लेकर कभी ऐसी
सोच रही ही नहीं कि वे किसी पर निर्भर हैं। मैंने तो हमेशा उन्हें जीसा, भाभू और बड़े भाई
जितना ही आदर-मान दिया है। मैं बहुत देर तक उनकी इस बात का अपने मन-बोध में अर्थ
खोजता रहा कि ‘‘नरपत
बना! अब इस काम-धंधे को असल में तो आपको ही संभालना है, हम तो फकत् कागजी
कारवाई तक के सहयोगी थे... धंधा जमाने और संभालने के लिए तो आप सरीखे होशियार आदमी
को ही वक्त निकालना पड़ेगा!’’ यह
सही है कि वे जयपुर में रहते हैं और उन्होंने कागजी-कार्यवाही में भाभी की मदद की
ही होगी, भाभी
खुद भी पढ़ी-लिखी हैं और घर में किसी को कोई काम सौंपती है तो सभी सहर्ष उनकी मदद
के लिए हरवक्त तैयार रहते हैं, ऐसे
में उनके भाई साहब को यह सब कहने-बताने की कहां गुंजाइश थी?
मैंने भाभू से यह बात कही तो उन्होंने हंसकर
टाल दी। खुद भाभू, जो
कई दुधारू गायों की मालकिन हुआ करती थीं, अब
एक गाय से ही संतुष्ट हैं और इतनी ही घर की जरूरत मानती हैं। पिछले तीन वर्षों से
खेती हिस्सेदारी पर हो रही है... खुद जीसा का यही सोच है कि अब इतनी ही पार पड़ जाए
तो बहुत है! इससे अधिक न घर की जरूरत है और न सम्हालनी ही संभव। खुद लोगों को कहते
हैं कि ‘यदि नरपत को इतनी ऊंची पढ़ाई करवाई है,
तो कोई एक जगह बांधकर बिठाने के लिए थोड़े ही करवाई है?’ मैं यह बात अच्छी
तरह समझता हूं कि आज सभी अपनी उलझन में निपट अकेले हैं, अपने सवालों के
उत्तर से वे अनजान नहीं हैं, लेकिन
आश्चर्य की बात है कि वे मुझसे ही इसका उत्तर और निराकरण मांग रहे हैं।
अपनी
बात पर और बल देते हुए वे बोले, ‘‘मुझे
तो यह बताओ नरपत बना कि कल को तुम्हारी शादी होगी, दुल्हन आएगी... दीखती बात है कि उसे तुम
अपने साथ ही रखना पसंद करोगे... यह भी हो सकता है कि जहां काम लगो, वहीं किसी के साथ घर
बसाने का संयोग बना लो....इस लिहाज से मुझे नहीं लगता कि तुम्हें इस घर में या इस
हलके में खुद के टिकाव की कोई गुंजाइश दीखती हो?’’
मैं अपनी जुबान पर आती यह बात कहना चाहता
था कि ‘जीसा, पंछी अपनी उड़ान के
जिस मुकाम पर किसी डाल पर अपना रातवासा लेता है, वह एक तरह से उसका घर ही हुआ करता है।
इतनी छूट तो उसे देनी ही होगी कि निर्णायक मोड़ पर वह अपना फैसला खुद कर सके। इनसान
की यह फितरत मानी जाती है कि वह भले ही दुनिया में कहीं किसी कोने में रहे-जीए, वक्त आने पर वह अपनी
जड़-ज़मीन ढूंढ़ ही लेता है।....” लेकिन
उन्हें ऐसा उत्तर देना छोटे-मुंह बड़ी बात होती,
इसलिए प्रत्यक्ष में कुछ भी कहना ठीक नहीं लगा।
मैं जानता था कि उनके सवालों के उत्तर उन्हीं
के धरातल पर खड़े होकर देना आसान नहीं था और अगर कोई निरपेक्ष उत्तर था भी तो उन्हें
मानसिक क्लेश देकर देना कतई वाजिब नहीं होता। इसी उलझन में एक-बारगी मैं खुद अपने
में अकेला-सा हो गया। जीसा, भाभू,
भाभीसा - सब की अपनी उलझनें थीं। खुद मुझे भी इन पर नये सिरे से सोचना था और किसी
के मन को ठेस पहुंचाए बगैर एक ऐसा हल खोजना था, जो उस पुश्तैनी घर की और मेरी अपनी
जिन्दगी की, ...दोनों
की मान-मर्यादा रख सके... ।
***
- नंद
भारद्वाज
71/247,
मध्यम मार्ग,
मानसरोवर,
जयपुर – 302020
वाह....
ReplyDeleteबहुत बढ़िया !!!
सादर
अनु
बहुत अच्छी कहानी है सर ...सच है ऐसी उलझनों में इंसान वाकई अकेला पढ़ जाता है ..विशेषकर आज का युवा वर्ग पारिवारिक परिस्थितियों और अपने सपनों में पिस सा जाता है ... आवश्यकता है की घर के बढे बुजुर्ग को , जो की अपनी जिन्दगी जी चुके होते है उन्हें अपनी आकांक्षा बच्चो पर नहीं लादनी चाहिए
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