लोक और साहित्य में बिज्जी का अवदान
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नन्द भारद्वाज
अपने आत्मीयजनों और परिचित पाठकों के बीच
‘बिज्जी’ नाम से विख्यात राजस्थानी के अग्रणी कथाकार विजयदान देथा का निधन
अप्रत्याशित घटना बेशक न हो और पिछले साल भर से वे जिस तरह के वार्धक्य और रुग्ण
अवस्था से गुजर कर रहे थे – अपने घर से बाहर निकलना लगभग बंद-सा हो गया था, न कुछ
पढ़-लिख पाना संभव था और न ठीक से कह-सुन पाना ही, ऐसे में उनकी पूरी दिनचर्या अपने
कक्ष तक सीमित होकर रह गई थी, इसके बावजूद अपने घर-गांव बोरूंदा में उनकी उपस्थिति, हिन्दी के प्रकाशन जगत
में नित-नयी किताबों की आमद और साहित्यिक हलकों में उनकी हलचल इस बात की तसल्ली अवश्य
देती थी कि हमारे बीच विजयदान देथा जैसा समर्थ लेखक विद्यमान है। बीते चालीस बरसों
का उनसे मेरा निजी तौर पर भी गहरा वास्ता रहा है और मैंने हमेशा उन्हें साहित्य-कर्म
के प्रति संजीदा ही पाया। अपनी छह दशक की अथक साहित्य-यात्रा में उन्होंने विपुल
साहित्य की रचना की – ‘बातां री फुलवाड़ी’ के 14 खण्ड, हिन्दी में अनूदित कथाओं के कोई दर्जन भर संग्रह,
भारतीय भाषाओं में उनकी कृतियों के अनुवाद, अंग्रेजी और विश्व की कई भाषाओं में
कथाओं के अनुवाद, छह भागों में प्रकाशित ‘राजस्थानी-हिन्दी कहावत कोश’, साहित्य
की अनेक विधाओं में सर्जन और देश-दुनियां में असंख्य कद्रदान उनकी इसी सक्रियता
का प्रमाण हैं।
राजस्थानी आख्यान की
परम्परा को लेखन और प्रकाशन के माध्यम से संरक्षित करने और उसे आधुनिक समाज में
प्रतिष्ठा दिलाने के गुरुतर कार्य को विजयदान देथा ने जिस मौलिक सूझ-बूझ से सम्पन्न
किया, उसी के चलते राजस्थानी और हिन्दी जगत में एक अलग तरह के स्वभाव वाले
रचनाकार के रूप में उनकी निजी पहचान लोगों का ध्यान आकर्षित करती रही है।
लोक-विरासत से बनी उनकी आंचलिक भाषा और लेखन-शैली का अनूठा आकर्षण जिज्ञासू पाठकों
के लिए निश्चय ही नया और विस्मयकारी रहा है। यही कारण है कि उनके लोकधर्मी लेखन
का साहित्य-जगत में व्यापक स्वागत हुआ।
विजयदान देथा यों तो
सन् 1949 से ही अपने विद्यार्थी जीवन के दौरान एक लेखक के रूप में सक्रिय हो चुके
थे, लेकिन अपनी भाषा की पारम्परिक लोक-कथाओं को लिखित रूप देने के का काम सन्
1960 में अपने मूल गांव बोरूंदा लौटकर ही आरंभ किया। इसके लिए उन्होंने कोमल
कोठारी के साथ ‘रूपायान संस्थान’ की नींव रखी और अपने गांव में ही छापेखाने की व्यवस्था
की, जहां से अनेक महत्वपूर्ण राजस्थानी कृतियों का प्रकाशन संभव हो सका। एक ओर
जहां वे राजस्थानी लोक-कथाओं के पहले सफल लिपिकर्ता और संग्राहक रहे, वहीं दूसरी
ओर सन् 1973 में प्रकाशित अपनी मौलिक कहानी ‘अलेखूं हिटलर’ के माध्यम से वे एक
नये तेवर वाले कथाकार के रूप में सामने आए। बाद में (सन् 1984 में) इसी शीर्षक से
हिन्दी के जाने-माने प्रकाशक राजकमल प्रकाशन ने पहली बार मूल राजस्थानी में किसी
लेखक की किताब प्रकाशित की। इस संग्रह की कहानियां इस बात का साक्ष्य हैं कि
विजयदान देथा ने बेशक बातां री फुलवारी के माध्यम से राजस्थानी लोक-कथाओं के
संग्रहण और पुनर्लेखन का महत्वपूर्ण काम किया हो, लेकिन एक मौलिक कथाकार के रूप
में भी वे बराबर सक्रिय रहे। यहां उनकी कथा-संवेदना में एक उल्लेखनीय अंतर यह
अवश्य दिखाई देता है कि लोक-कथाओं के लेखन में वे जितने लोकोन्मुख और यथार्थ के
प्रति आग्रहशील रहे, अपनी इन मौलिक कहानियों में उतने ही भावुक और रूमानी दिखाई
देते हैं। सन् 1972 में जब ‘बातां री फुलवाड़ी’ का दसवां खंड प्रकाशित होकर सामने
आया, कुछ कहानियों के हिन्दी अनुवाद हुए और अन्य जनसंचार माध्यमों का भी ध्यान
आकर्षित हुआ। इससे इस बात की संभावनाएं
प्रबल हो गईं कि वे कहानियां संग्रह के रूप में प्रकाशित होकर हिन्दी पाठकों का
ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने लगी। सन् 1979 में राजकमल प्रकाशन ने ‘दुविधा’ और उसी
क्रम में ‘उलझन’ संग्रह प्रकाशित कर हिन्दी जगत में एक नयी हलचल उत्पन्न कर दी।
इसके बाद जिस तरह एक के बाद एक उनकी राजस्थानी कहानियों के हिन्दी अनुवाद
‘सपनप्रिया’, ‘उजाले के मुसाहिब’, ‘अन्तराल’, ‘महामिलन’, ‘प्रिय मृणाल’ आदि
संग्रहों और उन्हीं कहानियों के प्रतिनिधि कथा संकल के रूप में जिस तरह प्रकाशित
होकर सामने आते रहे, (यद्यपि इनमें ज्यादातर वही लोक-कथाएं हैं, जिन्हें विजयदान
देथा ने अपनी कहन-शैली और भाषाई फेर-बदल के साथ प्रस्तुत किया है, जिनको लेकर
राजस्थानी साहित्य जगत में इस बात की व्यापक चर्चा रही कि इन्हें राजस्थानी
की लोक-कथाएं कहा जाय या बिज्जी की मौलिक कहानियां। निश्चय ही हिन्दी और दूसरी भारतीय भाषाओं में जिस तरह विजयदान
देथा के नाम के साथ राजस्थानी की ये कथाएं अनूदित होकर सामने आती रहीं, उससे अखिल
भारतीय स्तर पर एक अलग तरह के कथाकार के रूप में उनकी चर्चा बराबर जोर पकड़ती रही
है। इसी दौरान जहां उन कहानियों के अंग्रेजी और अन्य विदेशी भाषाओं में अनुवाद
प्रकाशित हुए, बिज्जी स्वयं भी एक लेखक के रूप में दुनिया के कई देशों – रूस,
चीन, जर्मनी, बेल्जियम, सूरीनाम आदि की यात्राएं कर आए, जहां वे इन कथाओं को अपनी
मौलिक कहानियां और स्वयं को मौलिक कथाकार के रूप में ही प्रस्तुत करते आए हैं। गोकि
लोक कथा-लेखन बनाम मौलिक लेखन की यह बहस अपनी जगह बराबर विवादास्पद बनी रही।
राजस्थानी लोक कथाओं के संकलन और लोक-संपदा के
संरक्षण को लेकर राजस्थानी लोक-जीवन और संस्कृति में रुचि रखने वाले लोगों की
अपनी चिन्ताएं रही हैं। मुझे भी यह सोच और सरोकार उन्हीं से विरासत में मिले हैं
और यह बात तथ्यों से प्रमाणित है कि विजयदान देथा ने पांच दशक पूर्व (सन् 1960
में) रूपायन संस्थान के माध्यम से राजस्थान में सदियों से वाचिक-परम्परा में चला
आ रही लोक कथाओं को लिखावट में ढालकर संग्रहीत करने का जो बीड़ा उठाया था, वह तब भी
महत्वपूर्ण था और बाद के वर्षों में भी, जबकि ‘बातां री फुलवाड़ी’ श्रृंखला के चौदह
भाग प्रकाशित हो चुके हैं, उनके साहित्य-कर्म और व्यक्तित्व का यही पक्ष
सर्वाधिक समर्थ और सार्थक दिखाई देता है। इसका मुख्य कारण यह है कि लोक-गीतों,
गाथाओं और पारंपरिक लोक-कथाओं के रूप में राजस्थानी समाज की जो सांस्कृतिक संपदा
आजादी के बाद हमारे जीवन-व्यवहार में तेजी से आते बदलावों के कारण विलुप्त होती
जा रही थी, उसे व्यवस्थित ढंग से सुरक्षित रख लेना निश्चय ही एक गुरुतर कार्य
था, जिसे विजयदान देथा और कोमल कोठारी सहित रानी लक्ष्मीकुमारी चूंडावत, कन्हैयालाल
सहल, गोविन्द अग्रवाल, डॉ मनोहर शर्मा, देवीलाल सामर, भवानीशंकर उपाध्याय आदि लोक-कथाविदों
ने बखूबी समझा और अपने निजी प्रयत्नों से इस धरोहर को लिपिबद्ध कर प्रकाशित करने
का जतो ऐतिहासिक कार्य आरंभ किया, उसमें रूपायन के माध्यम से विजयदान देथा और
कोमल कोठारी का कार्य अधिक व्यवस्थित, योजनाबद्ध और सर्वाधिक महत्वपूर्ण साबित
हुआ। यह योजना अपने आप में कितनी महत्वपूर्ण और प्रभावकारी थी, यह बात ‘फुलवाड़ी’
के पहले भाग के तीसरे संस्करण में प्रकाशित संस्थान के अध्यक्ष चंडीदान देथा की
भूमिका से स्पष्ट है – “गांवां में साहित्य, कला अर संस्कृति री चेतना बापरै,
इण खयाल सूं म्हारै गांव में ‘रूपायन संस्थान’ री थापना करी। गांव में संस्थान
रौ छापौखानौ लगायौ। कदीमी लोक साहित्य अर नवा साहित्य नै प्रकासित करणौ, औ संस्थान
रौ मोटौ ध्येय है। संस्थान री तरफ सूं लोक कथावां रै प्रकासण सारू ‘वाणी’ नांव
रौ मासिक छापौ चालू करियौ। आज दिन तक करीब सात सौ लोक कथावां अर छह उपन्यास संस्थान
री सूं प्रकासित व्हिया है। --- पण बगत परवांण बैगा सूं बैगा अैड़ा बीस भाग
प्रकासित करण री योजना जिण दिन संपूरण व्हैला, उण दिन आज रौ औ हरख पूरण रूप सूं
सार्थक व्हैला।“ लेकिन आठवें दशक के अंत तक आते आते इस योजना को बीच ही में छोड़
दिया गया, क्योंकि न उस रूप में रूपायन संस्थान सक्रिय रह सका और कालान्तर में
उससे जुड़े लोगों की भी प्राथमिकताएं बदल गईं।
‘बातां री फुलवाड़ी’ के दसवें भाग से स्वयं विजयदान
देथा का आग्रह इस बात को लेकर बढता गया कि उन्होंने राजस्थानी की इन लोक कथाओं
को बीज रूप में आधार बनाकर अपनी नयी कथाएं लिखने का उपक्रम किया है और इस अर्थ में
उनकी ये कथाएं अब लोक-कथाएं नहीं रही गई हैं, बल्कि ये उनकी अपनी मौलिक कथाएं हैं।
‘फुलवाड़ी’ की पूर्व-घोषित योजना में कथाओं के चयन, लेखन और प्राकाश्न को लेकर कोई
तयशुदा वर्गीकरण नहीं रखा गया था। दसवां भाग प्रकाशित होने तक इस योजना में ‘लोक
कथाओं को नये रूप में ढालने’ जैसा कोई अतिरिक्त आग्रह भी नहीं था, बल्कि इस भाग
की भूमिका में कोमल कोठारी ने योजना के मूल उद्देश्य और संकल्प को दोहराते हुए
यही लिखा था कि “बातां री फुलवाड़ी’ के द्वारा यही प्रयत्न किया जा रहा है कि
वर्तमान समाज से लोक कथाओं को संग्रहीत किया जाय और उनके परिप्रेक्ष्य में
वर्तमान सामाजिक मूल्यों एवं स्थितियों का मूल्यांकन किया जाय। ---‘बातां री
फुलवाड़ी’ में प्रकाशित कथाओं का एक निश्चित रूप बन जाने के बाद ही हम यह प्रयत्न
करेंगे कि उसे भारत के भौगोलिक क्षेत्रों एवं इतिहास के कालमान के परिप्रेक्ष्य
में पुन: परखें और उनसे निर्मित मूल्यों एवं निर्णयों का पृथक अध्ययन प्रस्तुत
करें।" कोमल कोठारी की इस भूमिका के बावजूद सन् 1972 में प्रकाशित यह दसवां
भाग विजयदान देथा की लोक-कथा-लेखन शैली में महत्वपूर्ण बदलाव की सूचना देता है।
इसी भाग की कथाओं को मौलिक साहित्य का दर्जा देते हुए केन्द्रीय साहित्य अकादमी
ने इस पर सन् 1974 में अकादमी पुरस्कार प्रदान किया और यहीं से राजस्थानी में
अकादमी पुरस्कारों की शुरुआत हुई। स्वयं कोमल कोठारी तब साहित्य अकादमी में
राजस्थानी भाषा के संयोजक थे।
राजस्थानी लोक कथाओं
के अन्य संग्रहों की कथाओं से ‘बातां री फुलवाड़ी’ की कथाओं का एक मौलिक अंतर यह
है कि अन्य लोगों ने जहां राजाओं, राजवंशों, सवर्ण जातियों, शूरवीरों, की कथाओं
और प्रेमाख्यानों के माध्यम से स्वामिभक्ति, वीरता, दानशीलता, बलिदान, पतिव्रत
धर्म, सतीत्व जैसे सामंती मूल्यों को महिमा-मंडित करने का प्रयास किया, वहीं
विजयदान देथा ने आज के जनतांत्रिक समाज की नयी आकांक्षाओं के अनुरूप स्वाधीनता,
समानता, लोकतंत्र, सामाजिक न्याय, नारी-स्वातंत्रय और आत्म-सम्मान जैसे मानवीय
मूल्यों और मानव अधिकारों को पुष्ट करने वाली जीवंत और प्रेरणादायी लोक-कथाओं का
चयन कर उन्हें अपनी प्रवाहमयी भाषा में राजस्थानी पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत
किया।
राजस्थानी भाषा और
साहित्य में इन लोक-कथाओं के माध्यम से पहली बार पद और पेशे की प्रभुता के सम्मुख
श्रम की प्रतिष्ठा और नारी के आत्म-सम्मान का प्रभावशाली स्वर उभरा। सामंती
समाज में अछूत और उपेक्षित समझी जाने वाली मेहनतकश जातियों (नायक, बनजारे, भील,
जोगी, कालबेलिया, राईके, कुम्हार, लुहार, नाई, तेली आदि) के कर्मठ पात्रों को
पहली बार उस तथाकथित सवर्ण समाज के शूरवीर और चतुर समझे जाने वाले पात्रों के
मुकाबले ज्यादा धीर-गंभीर और व्यवहारकुशल बना कर प्रस्तुत करना कोई आसान काम
नहीं था। यही नहीं, ‘फुलवाड़ी’ की इन कथाओं के माध्यम से ग्रामीण समाज में व्याप्त
अंध-विश्वासों, रूढ़िवादिता और धार्मिक आडंबर की जैसी धज्जियां उड़ाई गई, वह राजस्थानी
लेखन के क्षेत्र में नयी चेतना के उद्घोष की जीती जागती मिसाल थी। निश्चय ही
विजयदान देथा के उस आरंभिक दौर के लेखन में इस वैज्ञानिक और प्रगतिशील दृष्टिकोण
के पीछे उनके गंभीर अध्ययन, मध्यमवर्गीय जीवन-अनुभव, ग्रामीण समाज के प्रति सहज
सहानुभूति मेहनतकश लोगों से भावनात्मक लगाव और नारी के प्रति अखूट अनुराग और सम्मान
की भावना का गहरा असर रहा। यह भी उल्लेखनीय है कि आज अगर राजस्थानी लोक कथाओं को
जो राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त है या उनके मंचन, फिल्मांकन,
प्रसारण और प्रचार-प्रसार की व्यापक संभावनाएं बनी हैं, उनके पीछे निश्चय ही
विजयदान देथा और कोमल कोठारी के सतत श्रम और सूझ-बूझ की निर्णायक भूमिका रही है।
‘बातां री फुलवाड़ी’
के क्रमिक प्रकाशन के साथ हिन्दी में ‘दुविधा’, ‘उलझन’ और अन्य संग्रहों के माध्यम
से प्रकाशित इन राजस्थानी लोक-कथाओं के महत्वपूर्ण और चर्चित होने का दूसरा बड़ा
कारण यह है कि लोक की मौखिक परंपरा में शताब्दियों से प्रचलित इन लोक कथाओं को
लिखावट की प्रक्रिया में ढालते समय विजयदान देथा ने जिस रचनात्मक कौशल, कल्पनाशीलता,
आधुनिक भावबोध और साहित्य-विवेक का जैसा परिचय दिया, वह लोक-सम्पदा के रचनात्मक
संग्रहण की एक मिसाल है। इसकी एक वजह यह भी है कि विजयदान देथा इस कार्य की
प्रकृति, कठिनाइयों और इसकी प्रक्रिया से भली-भांति परिचित रहे हैं। ‘फुलवाड़ी’ के
पहले भाग की प्रस्तावना में उन्होंने लिखा भी है – “लोक कथावां रा वाणी रूप नै
लिखावट में ढाळती वगत केई समस्यावां सांमी आवै। ---कदीमी बातां नै सुणावण री बात
एकदम न्यारी है। बात में घटना रौ बीज रूप खास बात है। पछै बातपोस री उपज, उणरी
कल्पना, उणरी कैवत, उणरी अकल, उणरी याददास्त रा मेळ सूं घटना रौ बीज संवरै अर
निखार पावै। बात रौ मिठास अर उणरी कळा बातपोस री उपज लारै है।“
लोक-सम्पदा के इस
संग्रहण का एक और महत्वपूर्ण पहलू यह भी रहा कि ‘फुलवाड़ी’ के प्रत्येक भाग की
भूमिका में कोमल कोठारी ने लोक-कथाओं की विषय-वस्तु, वर्गीकरण, उनके परम्परागत
स्वरूपों, स्रोतों, विधायी तत्वों और मनोवैज्ञानिक पहलुओं की विशद व्याख्या
प्रस्तुत की। लेखक और संग्रहकर्ता को जिन लोक-मर्यादाओं के प्रति चौकस रहना पड़ा,
उनका हवाला देते हुए ‘फुलवाड़ी’ के आठवें खंड की भूमिका में वे लिखते हैं – “बार
बार यह प्रश्न भी उठा करता है कि कथाओं के लेखन में लेखक को कितनी स्वतंत्रता
बरत लेनी चाहिये। इस प्रश्न का उत्तर केवल यही हो सकता है कि लिखित साहित्य और
मौखिक साहित्य के बीच जो विवेकपूर्ण संबंध बन सकता है, उसी संबंध की परिधि के बीच
कथाओं को लिखने का प्रयत्न किया जाय। इन कथाओं के लेखन में न इस परिधि का
अतिक्रमण किया गया है और न लिखित स्वरूप को निष्प्राण और प्रयोगवादी ही बनने
दिया गया है।“
विजयदान देथा के
लोक-कथा लेखन की लोकप्रियता का एक बड़ा कारण यह भी रहा कि पिछले चालीस वर्षों में
कुछ उभरते फिल्मकारों का राजस्थान की इस लोक-संपदा की ओर ध्यान आकृष्ट हुआ और
मणि कौल ने इसी दसवें भाग की ‘दुविधा’ कथा पर जहां पहली कला-फिल्म बनाई, इसी कथा
को आधार बनाकर अमोल पालेकर के निर्देशन में शाहरूख खान ने ‘पहेली’ जैसी सफल व्यावसायिक
फिल्म भी बनाई, जो बॉक्स ऑफिस पर कामयाब रही। उधर हबीब तनवीर जैसे विख्यात मंच
निर्देशक ने दसवें की भाग की एक और कथा ‘खांतीलौ चोर’ का ‘चरणदास चोर’ के रूप में
प्रभावशाली नाट्य-रूपान्तर कर उसे देश के विभिन्न भागों में प्रस्तुत किया और
अपूर्व ख्याति अर्जित की।
हिन्दी के कुछ नये
आलोचकों ने ‘दुविधा’ और ‘उलझन’ की कथाओं के आधार पर उन्हें प्रेमचंद और मुक्तिबोध
की लोकोन्मुख परम्परा से जोड़ने की पेशकश की है, उस पर थोड़ा गहराई से विचार
अपेक्षित है। समीक्षक रवीन्द्र वर्मा को यह दुर्भाग्यपूर्ण लगता रहा है कि
“विजयदान देथा की कहानियों को हिन्दी कथा-परम्परा से जोड़कर नहीं देखा गया, अन्यथा
पिछले दशक से जिस गतिरोध की चर्चा हम सुन रहे हैं, उसका कोई औचित्य न होता। जिस
मुकाम पर हिन्दी कहानी अवरुद्ध हुई है, देथा की श्रेष्ठ कहानियां वहीं से नये
रास्ते तलाशती है।“ (आलोचना–82, पृष्ठ 85) हिन्दी कहानी की अवरुद्ध दशा पर कोई
और टिप्पणी न करते हुए मेरी जिज्ञासा यह जरूर है कि ऐसी धारणा बिज्जी की आखिर
किन कहानियों के आधार बनाई गई है? ‘दुविधा’ और ‘उलझन’ की अधिकांश कहानियां
प्रकारान्तर से राजस्थानी की चिर-प्रचलित लोक-कथाएं ही हैं, जिन्हें विजयदान
देथा ने अपनी रोचक शैली में शब्दबद्ध किया है। ‘अलेखूं हिटलर’, ‘फाटक’, ‘अदीठ’ या
‘राजीनामा’ जैसी मौलिक कथाएं निश्चय ही हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं, हालांकि
‘अदीठ’ के बारे में रवीन्द्र वर्मा का मानना है कि वह मूलत एक भावुक कहानी है और
ऐसी कहानियां हिन्दी में सन् 53-54 के दौर में लिखी जाती थीं। ‘प्रिय मृणाल’ और
‘अलगाव’ (जिसे बिज्जी ने ‘दूरी’ शीर्षक से पुन विस्तार देकर लिखा) क्रमश पहली
बार हिन्दी की साहित्यिक पत्रिका ‘साक्षात्कार’ और ‘पहल’ में प्रकाशित हुई थीं,
उन पर हिन्दी-जगत में काफी मिश्रित और परस्पर विरोधी प्रतिक्रियाएं रहीं। बहरहाल
जो लोग राजस्थानी में प्रेमचंद की परम्परा का विस्तार देखने में दिलचस्पी रखते
हैं, उनसे मेरा आग्रह है कि वे राजस्थानी के वरिष्ठ कथाकारों में अन्नाराम
सुदामा और नृसिंह राजपुरोहित की कहानियों को थोड़ा धैर्य से जरूर पढें-समझें
(बशर्ते कि वे ऐसा कर सकें।) और लोक-कथा और मौलिक कथा के भेद को भी राजस्थानी के
प्रसंग में साफ-साफ समझ लेना आवश्यक है। ‘बातां री फुलवाड़ी’ के 13 खंडों में
लोक-कथाओं को नये रूप में ढालने के सीमित प्रयास के बावजूद मुख्यतया उनमें राजस्थानी
की पारम्परिक लोक कथाओं का ही संग्रह किया गया है। राजस्थानी में मौलिक कहानियों
का उनका एक संग्रह सन् 1984 में ‘अलेखूं हिटलर’ राजकमल से जरूर प्रकाशित हुआ,
लेकिन उसके बाद की उनकी मौलिक कहानियां हिन्दी अनुवाद के रूप में बाद के संग्रहों
में प्रकाशित हुई हैं, सन् 2007 में नेशनल बुक ट्रस्ट ने भी उनकी राजस्थानी
कहानियों का एक चयन ‘विजयदांन देथा री सिरै कथावां’ शीर्षक से प्रकाशित किया है,
जिसमें अलेखूं हिटलर और बाद के हिन्दी संग्रहों की कुछ कथाएं शामिल की गई हैं।
इसी तरह एक संग्रह पैंगुइन इंडिया से हिन्दी में ‘दोहरी जिन्दगी’ शीर्षक से 2007
में प्रकाशित हुआ। निश्चय ही आज हिन्दी ही नहीं भारतीय कथा-जगत और विश्व साहित्य
जगत के लिए विजयदान देथा का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है, मीडिया-चर्चा और
मान-सम्मान की दृष्टि से भी उन्होंने पर्याप्त ख्याति अर्जित की है, साथ ही
राजस्थानी भाषा के विकास और उन्नयन में उनकी ऐतिहासिक भूमिका से भाषाई मान्यता
के दावे को बल मिला है।
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