राजस्थानी भाषा की वयोवृद्ध लेखिका रानी लक्ष्मीकुमारी चूंडावत का आज 24 मई 2014 को हमारे बीच से विदा हो गई। वे एक महीने बाद 98 वर्ष की अवस्था पूर्ण करने वाली थीं, उनका जन्म 24 जून 1916 को देवगढ़ (मेवाड़) में हुआ था। जीवन-पर्यन्त अपने रचनात्मक लेखन और राजस्थानी साहित्य-संस्कृति में गहरी रुचि के अनुरूप उन्होंने कथा साहित्य और पारंपरिक वात साहित्य के क्षेत्र में अमूल्य योगदान दिया। वे सन् 1957 से राजस्थान विधान सभा की तीन सत्रों में सदस्य रहीं, सन् '72 से 478 तक राज्यसभा की सदस्य रहीं और 11 वर्ष तक राष्ट्रीय कांग्रेस दल की प्रदेश अध्यक्ष भी रहीं। एक सुप्रसिद्ध लेखिका के रूप में उनकी 50 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं, जिनमें मांझळ रात, अमोलक वातां, मूमल, कै रे चकवा बात, राजस्थानी लोकगाथा, बगड़ावत देवनारायण महागाथा विशेष रूप से विख्यात रहीं। इसके अलावा उन्होंने रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कहानियों, रूसी कथाओं और विश्व की अनेक प्रसिद्ध कृतियों के अनुवाद भी किये। अपने जीवनकाल में अनेक देशों की यात्राएं कीं और साहित्य तथा संस्कृति के क्षेत्र में अमूल्य योगदान के लिए उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर अनेक पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए। राजस्थानी साहित्य और संस्कृति के उन्नयन में उनका योगदान सदा याद किया जाता रहेगा। उनके निधन से निश्चय ही राजस्थान ने एक अमूल्य रत्न खो दिया है। प्रस्तुत है उन्हीं की एक चर्चित राजस्थानी कहानी का अनुवाद - 'हुुंकार की कलंगी'
हुंकार की कलंगी
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रानी लक्ष्मी कुमारी चूंडावत
“"इन मराठों ने तो पूरा घेरा डाल रखा है।" उदयपुर के महलों में बैठे राणाजी अपने सामने बैठे प्रधान और सरदारों की ओर देखते हुए बोले। उनके ललाट पर चिन्ता की सलवटें थीं। आंखों में गहरे चिन्तन के भाव।
“घेरा क्या डाल रखा है, अन्नदाता, सारी मेवाड़ तबाह हो रही है। लूटमार के सिवा वे तो कुछ करते ही नहीं, गांवों में आग लगाते हुए आगे बढ़ रहे हैं।" पास में बैठा एक सरदार बोला।
“ऐसी दुर्दशा तो बादशाहों और मुसलमानों के हमलों से भी नहीं हुई, जैसी इन मराठों के उत्पात से हो गई है। वे लड़ते तो कायदे से थे, ये तो जानते हैं सिर्फ आग लगाना और लूटमार करना।" दूसरे सरदार ने हामी भरी।
राणाजी के मुख के भाव और गंभीर हो गये।
मराठों की फौज मेवाड़ में आग लगाती, लूटती आगे बढ़ रही थी, जिनसे मुकाबला करने की तैयारी को लेकर बातचीत जरूरी हो गई थी। रात आधी ढल गई थी, लेकिन सोने का यह समय थोड़े ही था। खास खास काम देखने वाले सरदारों को बुलाकर बन्दोबस्त के लिए उनसे सलाह-मशविरा हो रहा था।
“खजाने में रुपये नहीं, रात-दिन के कष्टों और हमलों से लोगों में भय ऐसा जम गया कि मराठों का नाम सुनते ही गांव खाली करके लोग भाग रहे हैं। राजपूत भी पहले जैसे जोरावर रहे नहीं, जो अपने सीने पर हाथी के धक्के झेल सकें।" प्रधानजी सारी स्थित पर विचार कर समझाते हुए बोले।
करीब बैठा एक सरदार तड़प उठा, ““राजपूत क्या नहीं रहे? कभी पीछे रहे हों तो बताओ, बेटी के बापो। गाजर-मूली की तरह सर कटवा रहे हैं। पूरे पौने दो सौ वर्षों से मेवाड़ पर हमले होते आ रहे हैं, पहले मुसलमान और अब ये मराठे। रात-दिन के युद्धों से हमारे घरों की क्या दशा हो गई है, कभी गांवों में जाकर देखें तो पता लगे। एक एक घर में दस-दस विधवाएं हुई बैठी हैं।"
राणाजी सिर उठाकर गंभीरता से बोले, ““धरती के जो धणी कहलाते हैं, उन्हें सिर कटवाने ही पड़ते हैं। मालिक
बनना इतना आसान नहीं है। बाप-दादों की पीढ़ियों की पीढ़ियां इस धरती की इज्जत और
सम्मान के लिए काम आ गई, उस धरती को इन लुटेरों के हाथों यों लुटवा दें क्या?
औरतों के सिर की ओढ़नियां यों खेंचने दें क्या? बैठे बहस करनी है या काम करना है?
बोलो, सारे लोग यहां इकट्ठा हैं, क्या क्या करना है, इस पर विचार करो।“”
एक पल के लिए सारे चुप हो
गये। छाती पर सवार विपदा का भीषण रूप सब की आंखों के सामने आ गया। कहां कितनी
तोपें लगानी हैं, किसे फौज की क्या जिम्मेदारी सौंपनी है, रुपयों और धन का
बंदोबस्त कहां से हो, और किस तरह से करना है, फौज इकट्ठी करनी है, इन सारी बातों
पर विचार होने लगा।
मेवाड़ के सारे सरदारों के नाम हुक्मनामा
लिखा गया – सारे सरदार यह आदेश मिलते ही अपने
पूरे सैन्य–बल और अस्त्र–शस्त्रों के साथ उदयपुर पहुंच जाएं। देर न
करें। हुक्मनामे पर राणाजी ने अपने दस्तखत के साथ दो पंक्तियां और लिखीं, ‘जो
हाजिर नहीं होगा, उसकी जागीर तुरंत प्रभाव से जब्त कर ली जाएगी। इसमें किसी तरह
की रियायत नहीं की जाएगी। देश पर संकट के इस समय में राज्य के हुक्म पर हाजिर न
होना, हरामखोरी मानी जाएगी।'
घुड़सवारों को इस हुक्मनामे की प्रतियां
देकर दौड़ा दिया गया।
कोसीथल के कामदार के हाथों
सवार ने जाकर हुक्मनामा पकड़ाया और रसीद सही करवाई।
कामदार ने हुक्मनामा पढ़ा और पढ़ते ही चेहरा
उतर गया। कोसीथल चूंडावतों की छोटी-सी जागीर थी। वहां के ठाकुर दो-तीन वर्ष पहले
ही एक झगड़े में काम आ चुके थे। अपने पीछे दो वर्ष का बालक ठकुराइन के जिम्मे छोड़
गये थे। छोटा-सा ठिकाना और राणाजी का ऐसा सख्त हुक्म। ईश्वर ने अच्छी हालत
बनाई।
बालक-ठाकुर की मां, इस बालक पर आशा का दीपक
जगाए, अपना वैधव्य काट रही थी। कामदार ने जनानी ड्योढ़ी पर पहुंच संदेश भिजवाया कि
‘ठिकाने के कामदार ड्योढ़ी पर खड़े हैं। आपसे सम्मुख बात करने की अनुमति चाहते
हैं।'
मां की छाती धक-धक करने लगी, ‘फिर कोई नयी
विपदा न आ गई हो।' दासी को कहा, ‘दरवाजे पर पर्दा कर दें और उन्हें अन्दर बुला
लाएं।' खुद बेटे की अंगुली पकड़, पर्दे के पास अन्दर खड़ी हो गईं। कामदार और फौजदार
ठकुराइन को मुजरा कर बाहर पर्दे के पास खड़े हो गये। हाथ पसार कर राणाजी का हुक्मनामा
पर्दे के पीछे मांजी की ओर बढ़ाया।
“अब?” पढ़ते ही मांजी के मुंह से बस यही एक शब्द
निकला।
“अब आप जो हुक्म दें, वही करेंगे। ठाकुर सा तो
पूरे पांच वर्ष के ही नहीं हुए, चाकरी में ले जाएं तो किस तरह ले जाएं।" मां
की नजर अंगुली पकड़े खड़े बेटे की काली-काली भोली आंखों से जा टकराई। मां की ममता जग
गई। रोम-रोम खड़ा हो गया, छाती में दूध उतरने का सा अहसास हुआ। पीछे ‘जो हाजिर नहीं
होगा, उसकी जागीर जब्त कर ली जाएगी’ हुक्म की पंक्ति जलते अंगारों की तरह आंखों
के आगे चमक गई।
मन में एक-साथ कई तरह के विचार आए। ‘जागीर
जब्त हो जाएगी? मेरा बेटा बाप-दादा की के राज से बाहर हो जाएगा। उसकी पांच भाइयों
में क्या इज्जत रह जाएगी? उसके पिता नहीं रहे, लेकिन मैं तो हूं। मेरे जीते-जी
बेटे का हक छूटे, धिक्कार है मेरे मनुष्य होने पर। मैं इतनी नाजोगी हूं क्या,
जो पीढ़ियों की भूमि को यों गुमा दूं? क्या मेरे वंश पर दाग नहीं लगेगा?’
उसकी आंखों के आगे एक तस्वीर-सी आ गई, मानो
उसका जवान बेटा उसके सामने खड़ा है, सगे-सम्बन्धी परिहास में ताने मार रहे हैं, ‘ये
लड़ाई में नहीं पधारे जी, सो कोसीथल को राणाजी ने छीन लिया। हें हें हें। इन
चूंडावतों को अपनी वीरता पर बड़ा धमंड है।' दूसरे ही पल दांतों को भींचकर अपना सिर
नीचा करते बेटे की नजर झुकती-सी लगी।
मां के
सिर में चक्कर-सा आ गया। जवान होने पर कल को बेटा ही मां को जितना धिक्कारे, उतना
थोड़ा। उसे याद आ गई, अपने पिता के मुंह से सुनी हुई वे पुरानी कहानियां कि औरतें
कितनी वीरता से अपने सम्मान की लाज रखती थी। इस खानदान में पत्ता जी चूंडावत की
ठकुरानी अकबर की फौज से लड़ी, गोलियों की बौछार कर दी। फिर मैं क्यों न जाऊं?
इन विचारों से उनके अस्थिर मन में
स्थिरता-सी आ गई। आंखों में चमक लौट आई। जीव में आराम आ गया। बहुत गंभीरता से
पर्दे की ओट से वे बोलीं, “राणाजी
का हुक्म सिर-आखों पर। करो, जमीत की तैयारी करो। घोडों और अपने बहादुर आदमियों को
तैयार होने का हुक्म दो।"
“वह तो ठीक बात है, परन्तु मालिक बिना फौज कैसी?”
“क्यों, मैं हूं न मालिक, मैं जाउंगी रणक्षेत्र में।"
“आप।" आश्चर्य से कामदार और फौजदार दोनों के मुंह से एक साथ यही
निकला।
“हां मैं। इसमें आश्चर्य की क्या बात है। तुम्हारे ही घरानों में
कितनी ही ठकुराइनें युद्ध में जूझी हैं या नहीं? आप लोग क्या जानते नहीं? मैंने
कोई अनहोनी बात कही क्या? पत्ता जी की मां और उनकी ठकुराइन अकबर से युद्ध करते
हुए वीरगति को प्राप्त हुई थी या नहीं? मैं उसी घराने से आई हूं। मैं क्यों नहीं
जाऊं?”
सेना सज गई। नक्कारों पर कूच का डंका बज
गया। निशान की फर्रियां खोल दी गईं। जीन कसा घोड़ा आ खड़ा हुआ। सिर पर सिरस्त्राण,
जिरह-बख्तर के काले लौह से ढंके हाथों से बेटे की नर्म-नर्म बाहों को पकड़ गोद में
उठाने को आगे बढ़ी। बच्चा सहम गया। बोली तो मां की सी और ये अजीब वेषभूषा का आदमी
कौन। गालों पर अपने होठ रखते रखते मां की आंखें नम हो गई, “बेटा, ये सब तेरे लिए, तेरी इज्जत के लिए।"
एक ठंडी सांस के साथ उनके होठ हिले।
आगे आगे घोड़े पर भाले झलकाता फौज का मांझी
और पीछे पीछे आती सैन्य जमात, उदयपुर आकर हाजरी में अपना नाम दर्ज कराया, “कोसीथल के फलाणसिंह चूंडावत अपनी सेना सहित हाजिर।"
हमला हुआ। हरावल दस्ता चूंडावतों का। हमला हो
तो पहले हरावल दस्ता ही आगे बढे और शत्रुओं के हमले का जवाब दे। अर्थात् हरावल
दस्ते पर ही जोर आना था। सिंधुराग गाया जाने लगा। हरावल के अधबीच, चूंडावतों के
पाटवी सलूंबर रावजी खड़े होकर बोले, “मर्दो,
दुश्मनों पर घोड़े उड़ेल दो। प्राण बेशक चले जाएं, पर कदम वापस नहीं करने हैं। ये
हरावल में रहने की इज्जत का सवाल है, हम पीढ़ियों से इस प्रण को निभा रहे हैं, आज
भी अपनी जिम्मेदारी को पूरी तरह निभाना है, देश के लिए मरना, अमर हो जाने जैसा
है। हां, खींच लो लगामें।"
एक हाथ से लगाम खैंची और दूसरे हाथ में
तलवारें तुल गईं।
हरावल वालों के घोड़ों ने उड़ान भरी, जिनके
बीच मां जी ने भी अपना घोड़ा बढ़ा दिया। युद्ध की खचाखच आरंभ हो गई। तलवारों के
टुकड़े होने लगे और योद्धाओं के सिर झटकों के साथ देह से अलग।
मांजी
की तलवार चमक उठी, एक जने पर तलवार का प्रहार किया, उसने फुरती से वार को ढाल पर
झेलकर, वापस अपने भाले से प्रहार किया, जो पसली को बेधता हुआ आर-पार निकल गया।
मांजी की रान ढीली पड़ गई, साथ ही वे घोड़े की पीठ से नीचे लुढ़क गईं।
सांझ पड़ी। युद्ध बंद हुआ। रणक्षेत्र में
घायलों की सार-संभाल आरंभ हुई। घायलों को उठा-उठाकर उनकी मरहम-पट्टी होने लगी। तभी
एक घायल योद्धा पर नजर पड़ी, जिसके शिरस्त्राण से लंबी केशराशि की लटें बाहर आ रही
थीं। मरहम-पट्टी के लिए देह हो पलटकर देखा, तो वीरांगना को देखकर आश्चर्यचकित रह
गये - “ये कौन
और क्यों?”
राणाजी को अर्ज की गई, “घायलों
में एक स्त्री पूरे वीर-वेष में मिली है। नाम-पता पूछने पर बता नहीं रहीं।"
राणाजी स्वयं गये उसके पास। टोप के नीचे केश
लटक रहे थे, रक्त से लथ-पथ और देह पर और भी कितने ही घाव। जख्मी, लेकिन पूरी तरह
सचेत। राणाजी ने पूरा मान-सम्मान करते हुए परिचय पूछा, “सच सच
बताइये। आपका नाम ठिकाना। छिपाइये मत। दुश्मन होंगी तो भी मैं आपका आदर करता हूं।
आप मेरी बहन जैसी हैं।"
“मैं कोसीथल ठाकुर की मां हूं, अन्नदाता।"
मांजी अपनी पीड़ा को कंठों में रोकते हुए बोलीं।
“हैंअ ---।" राणाजी आश्चर्य से उछल पड़े। “आप लड़ाई
में क्यों आईं?”
“अन्नदाता का हुक्म था। जो लड़ाई में हाजिर नहीं
होगा, उसकी जागीर जब्त हो जाएगी, मेरा बच्चा छोटा है अन्नदाता। हाजिर न होना,
मालिक की हुक्म-उदूली होती और मेवाड़ के साथ हरामखोरी।"
राणाजी की आंखों में करुणा और गर्व के आंसू
छलक आए। “धन्य
है आपका त्याग और आपकी तपस्या।" राणाजी गदगद् हो गये, “ये
मेवाड़ बरसों से जो आन बनाकर रखे हुए है, वह आप जैसी देवियों का ही पुण्य-प्रताप
है। आप जैसी देवियों ने हमारा और मेवाड़ का सिर हमेशा ऊंचा किये रखा है। जब तक आप जैसी मांएं हैं, अपना
देश कभी पराधीन नहीं हो सकता।"
“इस वीरता के
बदले, मैं आपको सम्मान देना चाहता हूं, आपकी जो भी इच्छा हो, हमें पूरा करके
खुशी होगी।"
मांजी सोच में पड़ गई। क्या मांगे, कोई इच्छा हो तो मांगे।
उनकी
आंखों के आगे बेटे की वे काली काली भोली आंखें तैर गईं। मां की ममता झटका खाकर
जगी। “अन्नदाता,
अगर खुशी हो और मेहरबान हों तो कोई ऐसी चीज बख्शीश के रूप में दें, जिससे मेरा
बेटा पांच लोगों में सिर ऊंचा करके बैठ सके।"
“हुंकार की कलंगी
आपको बख्शी जाती है। जो आपका बेटा ही नहीं, उसकी पीढ़ियां तक ये कलंगी पहनकर ऊंचा सिर किये आपकी वीरता की याद दिलाती रहेंगी।"
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ReplyDeleteBahut achhi kahani.
DeleteIt is nice story.This story is in the book of class-8.
ReplyDeleteThanks for the response!
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