Saturday, September 5, 2015


हमारी लोकभाषाएं और राजभाषा हिन्दी
·        नंद भारद्वाज

      स्वाधीन भारत में राजभाषा के रूप में हिन्दी का जीवन-निर्वाह कभी आसान नहीं रहा।  आजादी के साढ़े छह दशक के बाद भी न वह ठीक से संपर्क भाषा बन पाई है, न स्कूल-कॉलेज में शिक्षा का प्रभावी माध्यम और न इस बहुजातीय राष्ट् के सामाजिक, सांस्कृतिक और भावनात्मक एकता के विकास का ठोस आधार। उल्टे राजभाषा के रूप में उसकी दुश्‍वारियां और बढ़ी हैं। ऐसे में उसे राष्ट्भाषा या विश्‍व-भाषा बनाने के दावे करना कितना व्यावहारिक और यथार्थपरक है, इस पर अलग से कोई टिप्पणी न करना ही बेहतर है। भाषा को लेकर राज्य-व्यवस्था के स्तर पर हमेशा एक ढीला-ढाला और टाल-मटोलू रवैया अक्सर देखने को मिला है। विभिन्न भारतीय भाषाओं के साहित्य, संस्कृति और जन-संचार के क्षेत्र में काम करने वाले लेखकों और संस्कृतिकर्मियों के भी अपने-अपने भावनात्मक आग्रह रहे हैं। इन आग्रहों से ऊपर उठकर हिन्दी को एक संपर्क भाषा बनाने का संकल्प और संजीदा प्रयत्न कम ही दिखाई देते हैं। इस सबके बावजूद इस देश के सामाजिक और सांस्कृतिक विकास की दृष्टि से यह जान लेना आवश्‍यक है कि हम अपने बहुजातीय राष्ट् की विशिष्टताओं और उनमें अन्तर्निहित एकता के सूत्र को कितना महत्‍व देते हैं?  इस सचाई को जाने बगैर राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में हम एक प्रभावशली संपर्क-भाषा की कल्पना नहीं कर सकते। साहित्य, संस्कृति और लोकजीवन में व्‍याप्‍त अनेकता में एकता के इस सूत्र को अनदेखा करके तो हम शायद ही किसी मकसद में कामयाब हो पाएं।
     इस अनिवार्य राजभाषा के संबंध में मुझे डॉ रामविलास शर्मा का नजरिया बहुत सही और सटीक लगता है। वे कहते हैं - ‘‘मैं हिन्दी को संपर्क भाषा बनाने के पक्ष में हूं, लेकिन दूसरी भाषाओं के क्षेत्र में राजकीय और शिक्षा-संबंधी कार्यो में हिन्दी के व्यवहार के पक्ष में नहीं हूं। मैं किसी भी प्रदेश की इच्छा के विरुद्ध उसके लिए हिन्दी को संपर्क भाषा बनाने का भी समर्थन नहीं करता, लेकिन मैं यह भी कहता हूं, अंग्रेजी-प्रेमियों को हिन्दी-भाषी प्रदेशों पर अंग्रेजी लादने का कोई अधिकार नहीं है। --- ये अंग्रेजी प्रेमी और अहिन्‍दी भाषी प्रदेशों के नेता हिन्दीभाषियों को बाध्य नहीं कर सकते कि लोकसभा, राज्यसभा तथा केन्द्रीय राजकाज में वे भी अंग्रेजी का व्यवहार करें।’’
      इसी तरह भारत की भाषा समस्या और हिन्दी की सहवर्ती लोक-भाषाओं के अन्तर्संबंधों पर विचार करते हुए रामविलास जी ने बरसों पहले कहा था, ‘‘जो लोग राष्ट्र का यह अर्थ लगाते हैं कि उसमें एक ही भाषा बोलने वाले लोग रहते हैं, वे भारतीय राष्ट्रीयता के विकास को आंखों से ओझल कर देते हैं। शताब्दियों से यहां विभिन्न भाषाएं बोलने वाले लोग रहते आये हैं।  ...इन जातियों की सीमा रेखाएं कोई मिटाना भी चाहे तो वह सफल नहीं होगा। उनकी समानता, भाईचारे, पारस्परिक सहयोग और एकता के बल पर ही राष्ट्रीय एकता दृढ़ हो सकती है।’’
     कुछ इसी तरह के विचार डॉ. ग्रियर्सन के भाषा-विवेचन और भाषा संबंधी एक चलताऊ सोच पर करारी टिप्पणी करते हुए डॉ सत्यकाम ने व्यक्त किये हैं। वे कहते हैं कि ‘‘ग्रियर्सन ने हिन्दी की बोलियां कहकर जो पूर्वी हिन्दी, पश्चिमी हिन्दी, पहाड़ी हिन्दी, बिहारी हिन्दी, राजस्थानी का विभाजन हमारे सामने परोसा था, उसे आज तक हम वैसे ही चिपकाए हुए हैं, जैसे बंदरिया अपने मरे हुए बच्चे को उसके जीवित रहने के भ्रम में देर तक चिपकाए घूमती है। ये न तो हिन्दी की उपभाषाएं हैं और न बोलियां। ये हिन्दी क्षेत्र में प्रयुक्त लोक भाषाएं हैं, जिन्हें उचित मान मिलना चाहिये। अब इन्हें हिन्दी की बोलियां कहना छोड़ देना चाहिये, क्योंकि यह भाषा-वैज्ञानिक दृष्टि से भी गलत है।’’
     इसी प्रसंग में डॉ धीरेन्द्र वर्मा के उस भाषा-विवेचन को भी हवाले में रखना बेहतर होगा, जिसमें उन्होंने शौरसेनी अपभ्रंश से विकसित हिन्दी की जिन 14 उपभाषाओं का उल्लेख किया है, उनमें राजस्थानी या उसकी कोई बोली शामिल नहीं है, बल्कि उन्होंने उस ऐतिहासिक विवेचन में इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया है कि राजस्थानी और गुजराती मूलतः गुर्जरी अपभ्रंश विकसित भाषाएं हैं, विडंबना यह है कि अपनी इसी स्वतंत्र पहचान के चलते जहां गुजराती संविधान की आठवीं सूची में एक स्वतंत्र भाषा के रूप में मान्य है, वहीं राजस्थानी आज भी संवैधानिक मान्यता के लिए संघर्षरत है। 
     हिन्दी के साथ-साथ अपनी मातृभाषा राजस्थानी का लेखक होने के नाते मैं पिछले चालीस सालों से ऐसे भाषाई और साहित्यिक आयोजनों में भाग लेता रहा हूं, और मुझे यह देखकर हैरत  होती है कि ऐसे आयोजनों में जहां सृजन के सरोकारों और रचनाशीलता के बुनियादी सवालों पर अधिक संजीदगी से विचार करने का वातावरण बने, या उसकी सहज-समीक्षा और उसके प्रचार-प्रसार पर चर्चा हो, उसकी बजाय अगर रचनाकारों की सारी ऊर्जा सृजन के इतर सवालों पर ही खर्च होती रहे, तो भाषा का मसला सुलझे या न सुलझे साहित्य और रचनाशीलता के असली सवाल जरूर पीछे छूट जाते हैं।  
      अपनी बात को यहां हिन्दी और लोकभाषा राजस्थानी के अन्तर्संबंध पर केन्द्रित करने के पीछे मेरा मूल मकसद यही है कि हम अपने हक से वंचित इन लोकभाषाओं से जुड़े ऐतिहासिक और व्यावहारिक तथ्यों को अवश्‍य जान लें और इस बात को गंभीरता से लें कि इस मसले पर अपने विचार रखते हुए हम इन दोनों भाषाओं के बीच किसी तरह का विरोध या अन्तर्विरोध नहीं देखते। उत्तर भारत में अपभ्रंश से उपजी इन सभी लोकभाषाओं की जननी संस्कृत रही है और उसी की तत्सम शब्दावली और व्याकरण संबंधी समानताओं के कारण इन लोक-भाषाओं की बहुत-सी विशेषताएं एक-दूसरी से इतना मेल खाती हैं, कि हम कई बार उनकी अपनी स्वतंत्र पहचान को अनदेखा कर जाते हैं या कि कई बार इन सहवर्ती लोक-भाषाओं को हिन्दी की प्रतिस्पर्धा में देखने लगते हैं।
     इस समस्या के मूल में जाते हुए यह बात याद दिलानी जरूरी लगती है कि आजादी मिलने के बाद राजपुताना की सभी रियासतों को उनकी भाषा और संस्कृति के आधार पर जिस राजस्थान प्रान्त का गठन किया गया, उसके साथ सबसे बड़ी विडंबना यह रही कि उसके वाशिन्दों को अपने काम-काज, व्यक्तित्व-विकास, शिक्षा और राज्य-व्यवस्था के साथ संचार-संवाद के लिए अपनी मातृभाषा के व्यवहार का अधिकार और सुविधा नहीं प्रदान की गई। उन्हें यह समझाने की कोशिश की गई कि शिक्षा, विकास और राज-काज में अपनी भागीदारी बनाने के लिए उन्हें उस संपर्क भाषा को ही अपनी मातृभाषा के रूप में स्वीकार कर लेना चाहिए, जिसका देश की राजभाषा के रूप में वे सदा आदर-सम्मान करते रहे और उसे आगे बढ़ाने में सदा प्रयत्नशील रहे, लेकिन वे यह नहीं समझ पाए कि उस प्रक्रिया में उनकी मातृभाषा कहां बाधा बन रही थी और उससे राषट्रीय विकास में कहां-क्या अंतर पड़ रहा था, इस बात का संतोषप्रद उत्तर उन्हें कहीं से नहीं मिला। उन्हें इस बात का गहरा अफसोस रहा कि उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत और देशी राजाओं के जुल्म के खिलाफ लड़ते समय और अपनी जीवनचर्या के लिए जिस भाषा पर अथाह भरोसा रखा - आजादी से पहले तक उनका इतिहास, संस्कृति, रीति-रिवाज, साहित्य, गीत-संगीत, वाणिज्य-व्यापार और चिट्ठी-पत्री सब-कुछ अपनी भाषा में ही संभव हो जाता था, वह भाषा आजादी मिलते ही राज्य-व्यवस्था की नजर में इतनी अवांछित और अनसुहाती कैसे हो गई? नयी राज्य-व्यवस्था की इस नीति का आशय भला कौन तो पूछता और किससे पूछता, जब ऐसा फैसला लेने वालों में उनके अपने ही अगुवा लोग साथ हामी भरने वाले रहे हों। हालांकि यह बात गौरतलब है कि उस समय की राष्‍ट्रीय राजनीति में राजस्थान के अगुवा नेताओं की भूमिका उतनी निर्णयकारी थी भी नहीं, जबकि उसी राष्‍ट्रीय राजनीति में गांधी जी और सरदार पटेल की निर्णायक भूमिका के चलते उसी गुर्जरी अप्रभ्रंश परिवार से निकली गुजराती एक स्वतंत्र भाषा के रूप में बिना किसी एतराज के संविधान की आठवीं सूची में शामिल कर ली गई, जबकि सन् 1857 की क्रान्ति से भी पहले से एक पूर्ण विकसित भाषा राजस्थानी को केवल इसलिए संवैधानिक मान्यता नहीं दी गई कि इससे हिन्दी का भौगोलिक क्षेत्र सीमित हो जाएगा।   
    जिस भाषा में सात सौ वर्षों की समृद्ध साहित्य-परम्परा मौजूद रही हो - कविता, कथा, नाटक और गद्य की कई विधाओं में समुचित सृजन उपलब्ध हो, हजारों हस्त-लिखित पाण्डुलिपियां और प्रकाशित ग्रंथ मौजूद रहे, लोक-कथाओं, लोक-नाटकों, लोकगीतों और कहावतों-मुहावरों का अकूत भंडार जीवन-व्यवहार का अमिट हिस्सा हो, जो आजादी से पहले इन्हीं रियासतों की राजभाषा रही हो, जिसके प्रमाण-स्वरूप आज राजस्थान अभिलेखागार उन पट्टों-परवानों और ऐतिहासिक दस्तावेजों से अटा पड़ा हो, जो इतिहास-लेखन, कारोबार, शिक्षा और श्रमजीवी आम जनता के बोलचाल का आधार रही हो, उस सजीव और समर्थ भाषा को स्वाधीन लोकतांत्रिक भारत के संविधान में स्वतंत्र भाषा का सम्मान न देना, निश्‍चय ही एक ऐसी ऐतिहासिक चूक है, जिसे आजादी के छह दशक बीत जाने के बावजूद नहीं सुलझाया जा सका है और जो आज भी इस विशाल प्रदेश  के वाशिन्दों के जीवन-व्यवहार का अनिवार्य अंग है। 
     ऐसा कहा जाता है कि राजभाषा के रूप में हिन्दी (खड़ी बोली) की दावेदारी सुनिश्चित  करने के लिए उसे दिल्ली, उत्तरप्रदेश, हिमाचल प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश और राजस्थान जैसे बड़े राज्‍यों की मुख्य भाषा (मातृभाषा) मानकर एक व्यापक हिन्दी प्रदेश का भौगोलिक आधार तैयार किया गया और उसी के बल पर हिन्दी को राष्ट्र की राजभाषा या संपर्क-भाषा का दर्जा दिया गया, जो कि राष्ट्रहित में एक जरूरी फैसला था, जबकि एक कड़वी सच्चाई यह है कि नौकरशाही, सेना और सत्ता की राजनीति में अंग्रेजी के हिमायती इस कदर हावी रहे कि अंग्रेजी देश के किसी भू-भाग की मातृभाषा तो क्या कभी जीवन-व्यवहार की भाषा भी न होने के बावजूद वह हिन्दी और सारी भारतीय भाषाओं पर भारी पड़ी है। वह केन्द्रीय स्तर पर और समूचे देश में राजकाज, कारोबार, सेना, उच्च शिक्षा और मीडिया की पहली पसंद बन गई। कैसी विडंबना है कि हिन्दी को अभी तक राजभाषा और संपर्क-भाषा के रूप में अपने ही देशवासियों के विरोध का सामना करना पड़ता है, जबकि अंग्रेजी बिना किसी विरोध के समूचे मुल्क पर राज करती है। जो लोग हिन्दी या किसी भारतीय भाषा के विकास में दूसरी भारतीय भाषाओं और हिन्दी-प्रदेश की लोक-भाषाओं को बाधक मानते हैं, उन्हें अंग्रेजी के हिमायतियों की यह महीन राजनीति समझ में आना आसान नहीं है। इसी उथली लोक-विरोधी समझ के कारण कई भारतीय भाषाएं और खासकर राजस्थानी, भोजपुरी आदि आज तक अपने न्यायसंगत अधिकार से वंचित है।
     अंत में मैं इस बात को फिर से याद दिलाना आवश्‍यक समझता हू कि चाहे राजभाषा के रूप में हिन्दी की व्यापक स्वीकृति का मसला हो या संवैधानिक मान्यता के लिए विचाराधीन  कतिपय भारतीय भाषाओं का मसला, वास्तविकता यही है कि किसी क्षेत्र-विशेष की भाषा और संस्कृति से जुड़े जो सवाल राजनीति की जाजम पर आगे कभी सुलझाने के लिए टाल दिये जाते हैं, निर्मोही समय और बदलते हालात उन्हें उस रूप में सुलझने का संयोग और अवसर कम ही देते हैं। उस समाज की चेतना और सरोकारों में अगर वे सवाल बरसों बाद भी किसी न्याय की उम्मीद में जागते दीख जाएं, तो उनका कोई निराकरण हो या न हो, उस समाज का अस्तित्व और सृजन अवश्‍य संकट में पड़ जाता है।  इसलिए स्‍वस्‍थ लोकतंत्र के समग्र विकास के लिए यह आवश्‍यक है कि उसकी राजभाषा के रूप में हिन्‍दी का व्‍यवहार तो प्रभावी हो ही, उसकी राष्‍ट्रीय भाषा-नीति सभी भारतीय भाषाओं के लिए समान, स्‍पष्‍ट और लोकहितकारी अवश्‍य बनी रहनी चाहिये। 

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