साहित्य-संवाद :
साहित्य सामाजिक बदलाव का एक महत्वपूर्ण माध्यम है
:
( वरिष्ठ
साहित्यकार नंद भारद्वाज से रेवतीरमण शर्मा की बातचीत)
नंद
भारद्वाज – रेवती बाबू, ये बात सही है कि मैं मूलत: गांव से
आता हूं, मेरा जन्म बाड़मेर जिले के एक छोटे-से गांव माडपुरा गांव में हुआ। मेरा
पूरा बचपन यहीं व्यतीत हुआ, मेरी प्रारंभिक शिक्षा भी इसी गांव के निकट एक बड़े
कस्बे कवास में सम्पन्न हुई, जहां ग्राम पंचायत थी, स्कूल थी और कुछ बुनियादी
सुविधाएं भी थीं, जहां से मैंने आठवें दर्जे तक शिक्षा प्राप्त की। उस क्षेत्र के
ज्यादातर लोग ढाणियों में बसते हैं, गांव में कम ही लोग रहना पसंद करते हैं, यही
कारण है कि उन दिनों वे बहुत-सी बुनियादी सुविधाओं से वंचित रह जाते थे। चूंकि मैं
एक बड़े कस्बे से जुड़ा रहा, तो मेरी प्रारंभिक शिक्षा ठीक से हो गई, हालांकि कुछ
कठिनाइयां भी रहीं, घर के बड़े लोग पिताजी भाई वगैरह ज्यादा इच्छुक नहीं थे कि मैं आठवें दर्जे के बाद अपनी
शिक्षा जारी रखूं। मुझे शहर भेजकर पढ़ाई का खर्चा वहन करने की गुंजाइश भी नहीं थी
उनके पास। लेकिन मेरी इच्छा थी आगे पढ़ने की, मेरे कुछ शिक्षकों ने भी बराबर उत्साहित
किया कि मै पढ़ाई जारी रखूं। मैंने आठवां
दर्जा फर्स्ट डिजीजन, फर्स्ट पोजीशन से पास किया था। अपनी उस प्रारंभिक शिक्षा
के दौरान ही मैं पढ़ाई के अलावा बहुत सी गतिविधियों में भाग लेता था। पिताजी के
संपर्क में ही संगीत में गहरी रुचि पैदा हुई, उनके साथ रात्रि जागरणों में भाग
लेता था और उन्हीं के मुख से रामायण, महाभारत, गीता और बहुत सी पौराणिक कथाओं से
परिचित हुआ। कबीर, तुलसी, मीरा के भजन भी जाने समझे, उन्हें खूब गया भी। इस तरह
पौराणिक साहित्य और काव्य से मेरा गहरा रिश्ता शुरू से ही बन गया, जो आगे की
पढ़ाई के दौरान भी जारी रहा। असल में पिताजी का जिस तरह ज्योतिष और पौराणिक साहित्य
के प्रति रुझान था और उस वाचिक परंपरा की बहुत सी बातें जिस तरह उन्होंने मुझे
बताई, इससे अपनी पढ़ाई के दौरान मेरा दो तरह से अच्छा शिक्षण हुआ – एक तो पिताजी
के माध्यम से उस वाचिक परंपरा का ज्ञान और दूसरी स्कूली पाठ्यक्रम के जरिए नये
आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की व्यवस्थित शिक्षा। प्रारंभिक शिक्षा पूरी कर जब मै हाई
स्कूल की पढ़ाई के लिए पास के शहर बाड़मेर आया तो फिर आगे कॉलेज शिक्षा का भी संयोग
बन गया। मेरी हायर सैकेण्डरी पूरी होते ही उसी साल वहां कॉलेज खुल गया तो मेरा बी
ए करना आसान हो गया। स्कूल और कॉलेज में संयोग से शिक्षक भी अच्छे मिले। संगीत और
साहित्य के प्रति मेरे रुझान देखते हुए शिक्षकों ने मुझे खूब बढ़ावा दिया। शायद
उसी की वजह से साहित्य और लेखन के प्रति मुझमें वह रुझान पैदा हुआ। शायद उसी रुझान की वजह से
मुझमें ग्रामीण भावबोध और संस्कार सहज रूप से विकसित हो पाए – बाद में जब मैं
कॉलेज की शिक्षा पूरी कर उच्च शिक्षा के लिए जयपुर आ गया तो यहां अखबारों और
रेडियो के संपर्क में भी आया। अखबारों और पत्रिकाओं में मेरी रचनाएं छपने लगी थीं,
तो इस तरह धीरे-धीरे लेखन के साथ जुड़ाव गहरा होता गया। इसी प्रक्रिया में शहरी
जीवन-शैली से संपर्क भी बढ़ता गया और उसी का असर शायद रचनाओं में भी आने लगा था।
शहर और गांव दोनों के वातावरण का असर तो मुझ पर रहा ही, लेकिन शायद गांव का असर
इसलिए भी ज्यादा है कि मैं मूलत: ग्रामीण बोध का व्यक्ति
हूं। अपने बचपन को मैं कभी नहीं भूलता, क्योंकि उसका असर ज्यादा गहरा रहा है। मैंने
गांव के लोगों को ज्यादा तकलीफ वाला जीवन जीते देखा है और वही अनुभव मुझे लिखने
के लिए प्रेरित भी करते रहे हैं।
रेवतीरमण - आपका
कहना है कि मेरा मन हिन्दी से ज्यादा राजस्थानी में रमता है, अपनी मातृभाषा के
प्रति लेखक का लगाव स्वाभाविक भी है। राजस्थानी भाषा की संवैधानिक मान्यता के
मसले से भी आप जुड़े रहे हैं, मेरी जिज्ञासा है कि भाषा और संस्कृति के विकास में
संवैधानिक मान्यता के सवाल को आप कितना महत्वपूर्ण मानते है?
नंद - जब
मैं अपनी उच्च शिक्षा के दौरान हिन्दी और राजस्थानी दोनों में लिखने लगा, तो
उसके पीछे एक दृष्टिकोण यह था कि उस आंचलिक परिवेश में रहने की वजह से उस भाषा के मैं
ज्यादा नजदीक रहा हूं, निश्चय ही एक भावनात्मक लगाव उस भाषा और संस्कृति से
मुझे आरंभ से ही रहा है, लेकिन मेरी औपचारिक शिक्षा हिन्दी माध्यम से ही हुई है।
हमने उत्साह से हिन्दी सीखी है और इस कारण हिन्दी मेरे लिए उतनी ही सहज हो गई,
जितनी कि राजस्थानी सहज है। लेकिन उस शिक्षा के दौरान ही मुझमें यह समझ भी विकसित
हुई कि अपनी मातृभाषा किसी भी व्यक्ति की पहचान और उसके विकास में कितनी अहम
भूमिका निभाती है, तब एक लेखक के रूप में मुझे लगा कि अपनी मातृभाषा राजस्थानी की
मान्यता और उसके विकास के लिए हमें संजीदगी से प्रयत्न करने चाहिए। जिस भाषा का
हजार साल का साहित्य है, जीवन के हर क्षेत्र में उसका प्रभावशाली व्यवहार रहा
है, यहां तक कि हिन्दी साहित्य के इतिहास में उसके आदिकाल, भक्तिकाल और रीतिकाल की
पहचान में राजस्थानी साहित्य का बहुत बड़ा योगदान है - आप पृथ्वीराज रासो, ढोला
मारू रा दूहा, मीरा के पद या सूर्यमल्ल मीसण की वीर सतसई के बिना कैसे साहित्य
इतिहास की कल्पना करते हैं? यानी उन्नीसवीं शताब्दी तक तक जो साहित्य बराबर महत्वपूर्ण
बना रहा, वह आधुनिक काल शुरू होते ही एकाएक महत्वहीन कैसे हो गया? तब हमें लगता
है कि हम जिस बड़ी परम्परा से जुड़े रहे हैं, उससे इस तरह काटकर अलग कर देना न्यायसंगत
नहीं है। अगर आजाद भारत में अन्य भारतीय भाषाओं के साथ ऐसा बरताव नहीं हुआ, तो
राजस्थानी के साथ ऐसा क्यों हुआ? इसलिए हम चाहते हैं कि हमारी भाषा के साथ न्याय
हो और उसे संवैधानिक भाषा के रूप में महत्व दिया जाना चाहिए।
रेवतीरमण - मैं
आपसे साहित्य रचना के सरोकारों के बारे में बात करना चाहता हूं – आप साहित्य-कर्म
को लेकर क्या सोचते हैं, हमारी शास्त्रीय परम्परा में साहित्य के जो प्रयोजन
बताए गये है, वे किस तरह आज के जटिल समय में कविता या कहानी में सिद्ध होते दीखते
हैं?
नंद – मैं अमूमन यह बात कहता हूं कि साहित्य-कर्म
मेरे जीने का तरीका है और इसे मैं किसी विशिष्ट कर्म की तरह नहीं करता, जैसे जीवन
के अन्य कार्य है, – जिस तरह किसान खेती करता है, कारीगर कोई उपकरण बनाता है या
एक शिक्षक शिक्षण का कार्य करता है, उसी तरह साहित्य-कर्म मेरा अपना कार्य है। एक
आम धारणा यह भी है कि ‘साहित्य समाज का दर्पण है’, जैसा समाज होगा, वही तो साहित्य
में प्रतिबिम्बित होगा। मैं इस धारणा को इस तरह नहीं ग्रहण कर पाता और न साहित्य
को दर्पण ही मानता। मैं साहित्य को सामाजिक बदलाव के एक महत्वपूर्ण माध्यम रूप
में देखता हूं और लेखक को एक सजग व्यक्ति के रूप में। लेखक के रूप में वह अपने
समय और समूह के एक प्रतिनिधि के रूप में काम करता है, उसकी बात केवल अपनी अकेले
की बात नहीं होती, उसमें समान सोच और समान अनुभव वाले बहुत-से लोगों का साझा होता
है। हमारी शास्त्रीय परम्परा में साहित्य के प्रयोजन के रूप में
यश-अर्थ-काम-मोक्ष की धारणा को अक्सर
दोहराया जाता है, वह धारणा आज प्रासंगिक नहीं रह गई हैं। साहित्य एक ओर जहां हमारे
आत्मिक संवाद का माध्यम है, वहीं दूसरी ओर वह सामाजिक रूपान्तरण की प्रक्रिया
में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला एक विश्वसनीय माध्यम भी है। उस माध्यम से लेखक
अपने श्रोता-दर्शक-पाठक को संबोधित करता है, ऐसी अवस्था में यह स्वाभाविक है कि
लेखक की बात उसके व्यापक हित से जुड़ी हो। लोक-संवदेना या लोक-संस्कार से बड़ा कुछ
नहीं होता। इसलिए लेखक उस बड़े मानव-समुदाय में एक जिम्मेदार प्रतिनिधि के तौर पर
सक्रिय रहें, यही साहित्य का व्यापक सामाजिक सरोकार है, इससे भिन्न किसी सरोकार
या प्रयोजन की मैं कल्पना नहीं करता।
रेवतीरमण - आप अच्छे कथाकार भी हैं। आपकी कई कहानियां
मैंने पढ़ी हैं और पसंद भी हैं, लेकिन हाल के कुछ कथाकारों की कहानी से कहीं कथा ही
गायब है और जहां कथा चलती है, वहां प्रेमचंद की कहानियों जैसा बतकहीपन लुप्त हुआ
है, इसे किस तरह लिया जाए?
नंद - दरअसल हमारी जो कथा-परम्परा है, वह
बहुत बड़ी है, वह संस्कृत साहित्य से आरंभ होती है, और प्राकृत, अपभ्रंश तथा मध्यकाल
से गुजरती हुई आज तक पहुंचती है। इस तरह ज्ञान की जो बड़ी विरासत है, वह कथा के
माध्यम से संप्रेषित हुई और सुरक्षित भी रही। कहने का आशय यह है कि हमारी कथा
परंपरा जिस तरह से विकसित हुई है, उस प्रक्रिया में आधुनिक युग तक आते-आते वह काफी
बदल गई है, उसका बेहतर विकास हुआ है। उसके कथ्य और शिल्प के साथ आधारभूत साधनों
का भी विकास हुआ, मुद्रण-प्रक्रिया विकसित होने के साथ जब प्रकाशन की सुविधाएं और
तकनीक भी विकसित हुई तो वही कथा वाचिक से लिखित रूप में सामने आ गई। कथा का एक
निश्चित पाठ बन गया, उसमें लेखक के लिए अपनी कल्पना-शक्ति और रचना-कौशल के प्रयोग
की व्यापक संभावनाएं निकल आईं। प्रेमचंद और उनके कुछ समय बाद तक उस पुरानी किस्सागोई
या बतकहीपन का निर्वाह जरूर हुआ, लेकिन धीरे-धीरे उसमें एक पक्ष और जुड़ा गया, जिसे
मैं महत्वपूर्ण परिवर्तन मानता हूं, वह पक्ष है मनुष्य के भीतर के मन को जानने
का पक्ष – उसके अंतर्द्वंद्व को, उसके भीतर की जद्दोजहद को जानने का पक्ष। ऐसे में
कथानक या घटनाएं प्रमुख नही रह जातीं, यद्यपि उनका महत्व अपनी जगह अवश्य है, वह
अंत:सूत्र की तरह कथा को बांधे तो अवश्य रखता है, लेकिन कथा के चरित्रों को
विकसित होने और प्रभावी होने का अवसर इस बदली हुई तकनीक में ही संभव हो पाता है।
हालांकि इसका नकारात्मक असर भी पड़ा है – खासकर उत्तर आधुनिकता के नाम पर जिस तरह
की कहानियां लिखी गई हैं, उसमें बहुत से अनर्गल प्रयोग भी हुए हैं। निश्चय ही
इसका पाठक वर्ग पर विपरीत प्रभाव पड़ा है और लेखक और पाठक के बीच दूरी भी बढ़ी है।
इधर जिन संजीदा कथाकारों ने अपने चरित्रों के भीतर उतर कर उनके अंतर्मन को समझने
का प्रयत्न किया है, उन मानवीय मूल्यों को नया स्वरूप देने का प्रयास किया है,
जो मनुष्य की स्वतंत्रता, समानता, सामाजिक न्याय जैसे लोकतांत्रिक मूल्यों को
महत्व देने की प्रक्रिया है, विशेष रूप से ऐसी कहानियों के माध्यम से जो सशक्त
नारी चरित्र उभर कर सामने आ रहे हैं, और
उसमें स्त्री कथाकारों की सक्रियता और भूमिका को मैं महत्वपूर्ण मानता हूं, ये
बदलाव कथा के क्षेत्र में निश्चय ही महत्वपूर्ण है।
रेवतीरमण - आपकी
कहानियों को पढ़ते हुए लगता है कि आपके जो कथा-पात्र हैं, वे बहुत जीवंत हैं, मेरी
जिज्ञासा यह है कि ये पात्र आपने अपने वास्तविक जीवन से लिये हैं याकि कथा-वस्तु
की संरचना के अनुरूप कल्पित हैं। अपने पात्रों के बारे में कुछ बताएं।
नंद - रेवती जी, मैं यह मानता हूं कि जो लेखक
का अपना जीवन अनुभव है, जिनके बीच रहकर यह अनुभव अर्जित करता है, उन्हीं के बीच
से वह पात्रों का चयन करता है, या कभी-कभी अपने स्वयं के जीवन-अनुभव भी लिखने का
आधार बनते हैं। शरच्चन्द्र को पढ़ते हैं तो लगता है कि जैसे शरत अपने को व्यक्त
कर रहे हैं, लेकिन लेखक जब लिखता है और मुक्तिबोध ने जिस प्रक्रिया की ओर इशारा
किया है, कि रचना के प्रारंभ में कोई एक चरित्र या आईडिया से बेशक आरंभ करता हो,
लेकिन ज्यों ही वह आगे बढ़ता है तो वह प्रक्रिया सामान्यीकरण की ओर बढ़ने लगती है,
सामान्यीकरण की इस प्रक्रिया में उसी अनुभव या चरित्र को गहरा बनाने वाले बहुत-से
तत्व घुलमिल जाते हैं, और एक जीवंत चरित्र का निर्माण करते हैं और इस तरह यथार्थ
और कल्पना के सहमेल से ही एक मुकम्मल रचना आकार लेती है। चरित्र बेशक किसी
रचनाकार की सृजनशील कल्पना से निर्मित हों, लेकिन हर कल्पना या आईडिया का अपना
एक यथार्थ अवश्य होता है। किसी भी लेखक के रचना-संसार में हम जितने भी चरित्र या
कथा-पात्र देखते हैं, वे आते उसी के अनुभव-जगत से ही निकलकर हैं।
रेवतीरमण - संस्थागत या राज्याधीन
पुरस्कार लेखक को अति-उत्साही बनाते हैं, इससे श्रेष्ठ साहित्य के उत्खनन में
रुकावट आती है और एक अवांछित लेखकीय प्रतिस्पर्धा और जोड़-तोड़ की राजनीति बन जाती
है। हीरा है तो अंधेरे में भी चमकता है, क्या रामविलास शर्मा हमारे सम्मानित
मार्गदर्शक नहीं बन पा रहे हैं?
नंद
- आपका सवाल मूलत: लेखकों को दिये जाने वाले पुरस्कारों,
पुरस्कार-प्रक्रिया और साहित्य जगत में उन पर होने वाली चर्चा से जुड़ा हुआ है।
इधर यह सवाल कई इतर कारणों से भी उभर आया है, इस पर लोगों की अलग-अलग राय है। मैं व्यक्तिगत
रूप से पुरस्कारों को लेकर बहुत उत्साहित नहीं हूं, लेकिन बहुत गौण या गैर-महत्वपूर्ण
भी नहीं मानता, इसलिए कि जीवन के तमाम क्षेत्रों में अच्छे काम को मान्यता देने
या बढ़ावा देने के लिए प्रतिभाओं को पुरस्कृत या सम्मानित करने की जो प्रक्रिया है,
वह इसलिए होती है कि एक अच्छे दृष्टान्त के रूप में वह सामने रहे। इसमें सब से महत्वपूर्ण
बात यही है कि यह प्रक्रिया निष्पक्ष रहे, उस पर किसी तरह का दबाव न हो, कोई उसे मैनेज
न करे, इतर कारण उसमें महत्वपूर्ण न हो जाएं और वह इतनी वस्तुपरक और पारदर्शी भी
रहे कि उस पर किसी को एतराज उठाने की गुंजाइश न रहे। गुणवत्ता को जितना महत्व
मिलेगा, और गुणवत्ता के आधार पर ही जिसे पुरस्कार देने का निर्णय होगा तो उसका
महत्व भी बना रहेगा। लेकिन दुर्भाग्य से यह प्रक्रिया इतनी साफ-सुथरी रह नहीं गई
है, इसमें निहित स्वार्थ वाले लोगों के हित जुड़ गये हैं। आर्थिक लाभ का मसला होने
के कारण कई तरह के लालच जुड़ गये है, चयन-प्रक्रिया भी अपनी विश्वसनीयता खोने लगी
है। इन आशंकाओं के बावजूद हमारी अपेक्षा यही है कि अच्छे लेखन को बढ़ावा मिलना
चाहिए। प्रक्रिया में आई कमजोरियों के कारण उसे बंद कर देना तो कोई विकल्प नहीं
है। हां, अगर पुरस्कृत करने का कोई प्रावधान ही न रखना हो तो ऐसा सिर्फ साहित्य-कला
के क्षेत्र में ही क्यों, जीवन के सारे क्षेत्रों में लागू कर दिया जाना चाहिये।
आपने मिसाल के तौर पर डॉ रामविलास शर्मा का हवाला दिया, तो उस संबंध में मेरा यही
कहना है कि रामविलास जी ने साहित्य अकादमी या उस स्तर के किसी पुरस्कार या सम्मान
के प्रति उत्साह बेशक न दिखाया हो, लेकिन उसका विरोध कभी नहीं किया। ये उनका बड़प्पन
है कि उन्होंने ऐसे पुरस्कारों से मिलने वाली राशि को साक्षरता मिशन या किसी
सार्वजनिक हित के काम में दान कर दिया। ये उनकी महानता है। वे उत्सवी आयोजनों में
जाते भी नहीं थे, उनके लिए अपना लेखन कार्य ही इतना महत्वपूर्ण था कि कहीं अनावश्यक
जाना-आना पसंद भी नहीं करते थे, वे सही मायनों में एक बड़े और सम्माननीय लेखक थे।
रेवतीरमण - नंद जी, आपको तो अनेक पुरस्कार और सम्मान मिले
हैं, लेकिन जाने क्या वजह रही कि राजस्थान के किसी हिन्दी लेखक को आज तक साहित्य
अकादमी पुरस्कार या किसी राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार-सम्मान के योग्य
नहीं समझा गया - नंद चतुर्वेदी, ॠतुराज, विजेन्द्र, हरीश भादानी, जुगमंदिर तायल,
नंदकिशोर आचार्य, डॉ नवलकिशोर आदि कितने ही हिन्दी के महत्वपूर्ण रचनाकार हमारे
प्रदेश में रहे हैं, लेकिन इनमें से किसी को कोई महत्वपूर्ण पुरस्कार नहीं मिला।
एकबार बिज्जी का नाम नोबल पुरस्कार चयन की चर्चा में जरूर सुना था, लेकिन वह
कहीं खोकर रह गया, इस पर आप क्या कहेंगे?
नंद
- आपकी यह अपेक्षा तो सही है कि राजस्थान
में हिन्दी के इतने वरिष्ठ और महत्वपूर्ण रचनाकारों के होते हुए भी उनमें से
किसी को आज तक साहित्य अकादमी पुरस्कार नहीं प्राप्त हुआ, जबकि राष्ट्रीय स्तर
के दूसरे पुरस्कार और सम्मान अनेक लेखकों को अवश्य मिले हैं, चाहे वह बिड़ला
फाउंडेशन का बिहारी पुरस्कार हो या संगीत नाटक अकादमी सम्मान। साहित्य अकादमी
पुरस्कार के बारे में मुझे ऐसा लगता है कि वह पुरस्कार उत्तर भारत के मध्यवर्ती
हिन्दी राज्यों उत्त्रप्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, दिल्ली आदि के लेखकों तक
सीमित होकर रह गया है, उसके बाहर राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल या दूसरे प्रदेशों
में काम करने वाले हिन्दी लेखक उस प्रक्रिया से बाहर अदेखे ही छूट जाते रहे हैं।
अकादमी की चयन समितियों में भी इन हाशिये के प्रदेशों का कोई महत्वपूर्ण लेखक
शायद ही शामिल रहा हो, जो इस बात की ओर ध्यान आकर्षिक करवा पाता। आमतौर पर उनको
अनदेखा कर दिया जाता है। राजस्थान बेशक हिन्दी प्रदेश के रूप में कहा जाता हो,
लेकिन वह दरअसल हिन्दी क्षेत्र से बाहर का प्रदेश है, यहां के लोगों की मूल भाषा
हिन्दी है भी नहीं और जो है उसे संवैधानिक मान्यता नहीं है। मैं इस बात के लिए
साहित्य अकादमी की अवश्य सराहना करता हूं कि उसने राजस्थानी को एक समर्थ भाषा
का दरजा दे रखा है और हर वर्ष उसमें किसी प्रतिभाशाली लेखक को साहित्य अकादमी
पुरस्कार से सम्मानित भी किया जाता है। प्रदेश के हिन्दी रचनाकारों के साथ जो
बरताव होता रहा है, उसके कारणों को समझने का प्रयास यहां के लोगों को अवश्य करना
चाहिये।
नंद -
पारिवारिक जरूरत से कहिये या जीवन-निर्वाह के लिए प्रत्येक व्यक्ति को कोई
सार्वजनिक सेवा जैसा कार्य को करना ही होता है। खासतौर से उन्हें, जिनका अपना कोई
पुश्तैनी कार्य-व्यापार पहले से विकसित नहीं होता। ऐसे में जो सार्वजनिक सेवा
में जाते हैं, उनके सामने विकल्प सीमित होते हैं, एक तो उनका स्थान-विशेष पर
लंबे समय तक बने रहना आसान नहीं होता, उनका स्थानान्तरण एक स्थान से दूसरे स्थान
पर होता रहता है। उसमें बहुत कुछ नया जुड़ता भी है और बहुत कुछ छूटता भी। एक लेखक
के रूप में जो काम हम कर रहे होते हैं, उससे भी कई बार दूरी-सी बन जाती है, या उपयुक्त
समय ही नहीं निकाल पाते। ये अनुभव तो निश्चित रूप से रेडियो या दूरदर्शन में काम
करते हुए मुझे भी हुआ। नौकरी को लेकर दूर-दराज जाना पड़ा, जिनके बीच एक लेखक के रूप
में मैं सक्रिय रहने का इच्छुक रहा हूं, उनसे दूरी होने पर असर तो पड़ता है, लेकिन
बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ता, क्योकि वहां का भी तो अपना जीवन है, उससे काम के
नये अवसर निकल आते हैं, वहां का नया परिवेश भी तो सामने होता था, तो मैं धीरे-धीरे
उसमें रुचि लेता रहा, उन को अपने लेखन का विषय भी बनाता रहा, और यह मेरी ही बात
नहीं, मीडिया में काम करने वाले सारे लेखको के साथ यह होता है। सार्वजनिक सेवा में
काम करते हुए रोज आठ-नौ घंटे उस सेवा को देने ही होते हैं, जीवन की जो बेहतरीन ऊर्जा
होती है वह तो उस काम में लगती है। मेरा अपना निजी अनुभव थोड़ा अलग भी रहा, और
मैंने उस सेवाकाल के दौरान भी अपनी रुचि के कामों के लिए खूब बेहतरीन अवसर निकाले,
कई ऐसे काम कर सका, जो उन माध्यमों में होने के कारण ही संभव हो सके। ऐसे बहुत से
रचनात्मक कार्य मैंने उस नौकरी के दौरान संपन्न भी किये, मेरे अपने लेखन कार्य
से जुड़ी किताबें बराबर प्रकाशित होती रहीं, हालांकि मैं उन लेखकों को भाग्यशाली
मानता हूं जो एक पूर्णकालिक लेखक के रूप में अपने लेखन के बल पर सर्वाइव कर पाते
हैं, मेरी निजी स्थिति निश्चय ही उनसे भिन्न रही, इसके बावजूद जो कर सका, मेरे
लिए वह कम महत्व का नहीं है।
रेवतीरमण - आपने मीडिया में तेतीस बरस काम किया है, उसके
बहुत से अच्छे और रोचक अनुभव भी होंगे, कभी किसी अप्रिय स्थिति या मन के विपरीत
काम करने से साबका पड़ा होगा, ये अनुभव आपके लेखन में भी उभरे होंगे, कृपया बेबाकी
से बताएं।
नंद - देखिये, जब मैं सन् 1975 में रेडियो में आया,
उससे पहले मैं एक लेखक और पत्रिका के संपादक के रूप में सक्रिय था, लेखन को लेकर
मेरी जो सोच और रुचियां थीं, मेरी इच्छा तो यही थी कि मैं वही काम उसी मनोयोग से
करता रहूं, लेकिन ज्यों ही मैं एक सेवाकर्मी के रूप में मीडिया में आया, मुझे
अपनी दिनचर्या को बदलना ही पड़ा। पहली बात तो यह हुई कि मेरा दिन का पूरा समय आठ-नौ
घंटे उस रेडियो की नौकरी में लगाना होता था, फिर उस सेवा की प्रकृति भी अलग तरह की
थी, उसमें कार्यक्रम आयोजना की दृष्टि से जीवन के सभी विषय और क्षेत्र महत्वपूर्ण
थे, अकेले साहित्य या कला ही नहीं, दूसरे विषय और रूप भी मेरी कार्य-प्रणाली के
अंग हो गये। कह सकते हैं कि कुछ काम रुचिकर नहीं भी होते, कभी कभी तनाव भी अनुभव
करता था, लेकिन मैंने अपने को बदला और मीडियम के अनुरूप अपने को ढाला भी। मैं
कविता कहानी तो लिखता ही था, लेकिन मीडिया में काम करते हुए मैंने रुपक विधा में,
रेडियो वार्ता, संवाद, सजीव प्रसारण, संगीत या दूसरे जीवनोपयोगी विषयों के लिए
कार्यक्रम नियोजन और निर्माण का काम भी पूरे मनोयोग से किया, उसके कारण कई बड़ी
राष्ट्रीय प्रतिभाओं या विद्वानों से संवाद करने के अवसर भी आए, उनके लिए खुद को
तैयार भी किया, ऐसे दस्तावेजी महत्व के संवादों का एक संकलन ‘संवाद निरंतर’
शीर्षक से प्रकाशित भी हुआ। सन् 1993 के बाद जब मैं रेडियो से दूरदर्शन में शिफ्ट
हुआ, तो उस माध्यम के साथ जुड़कर कार्यक्रम निर्माण के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण
परियोजनाओं को आकार देने का अवसर मिला – उस माध्यम के लिए भारतीय साहित्य की
कालजयी कथाओं की एक सीरीज मेरे संयोजन में तैयार हुई, जिसमें 14 भारतीय भाषाओं की
श्रेष्ठ आधुनिक कथाओं पर एक सीरीज तैयार करवाई, जिसके लिए मुझे दूरदर्शन
महानिदेशालय ने विशिष्ट सेवा पुरस्कार देकर सम्मानित किया, मीडिया के विभिन्न
पक्षों पर मेरे स्वतंत्र आलेखों का एक संकलन ‘संस्कृति जनसंचार और बाजार’ भी
प्रकाशित हुआ, जिस पर सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने भारतेन्दु हरिश्चंद्र पुरस्कार
प्रदान किया। दूरदर्शन सेवा के आखिरी दौर में ‘भारतायन’ जैसी वृत्त-रूपक श्रृंखला
अपनी देखरेख में तैयार करवाई, जिसका दूरदर्शन के राष्ट्रीय और अन्य चैनलों पर
प्रसारण हुआ, ये कार्य करते हुए जो भी खट्टे-मीठे अनुभव हुए, वे सीखने और कुछ
बेहतर करने की दृष्टि से मेरे लिए वाकई महत्वपूर्ण रहे।
रेवतीरमण - आपने कविता, कहानी, संवाद, अनुवाद आदि के साथ
साहित्यिक आलोचना के क्षेत्र में भी काम किया है, मैंने आपकी आलोचना कृति ‘साहित्य-परम्परा
और नया रचनाकर्म’ पढ़ी है। आलोचकों पर यह आरोप है कि वे किसी कृति को पूरा पढ़े बिना
ही उस पर लिख देते हैं, जबकि आलोचना को सकारात्मक और वस्तुपरक होना चाहिए। अच्छी
रचना के प्रति कई बार आलोचकीय दृष्टिकोण भ्रमित भी करता है, आप इस बारे में क्या
कहना चाहेंगे?
नंद - हरेक लेखक या आलोचक
एक अच्छा पाठक भी होता है, और पाठक की पहली कोशिश यह होती है कि वह जिस किसी भी
कृति को पढ़ रहा है, उसके मूल भाव को समझे, उसके माध्यम से लेखक के संवेदनात्मक
उद्देश्य को जाने कि कुल मिलाकर यह कृति कहती क्या है। पाठक के ग्रहण करने की अपनी एक प्रक्रिया है,
लेकिन वह आलोचक उससे जरा आगे बढ़कर उस कृति का विवेचन करते हुए उसके भीतर खूबियों
या सीमाओं को उद्घाटित करता है, उस प्रक्रिया में वह कृति को तटस्थ भाव से या
कहना चाहिये वस्तुपरक दृष्टिकोण से भी उसे जांचने परखने का कार्य करता है, उसी
विषय पर अन्यत्र क्या-कुछ लिखा गया है या उस विषय का जो व्यापक परिप्रेक्ष्य
है, उसमें यह कृति क्या कुछ जोड़ती है, उन सारे संदर्भों के साथ उसका मूल्यांकन
करने की जिम्मेदारी लेता है, इस तुलनात्मक विवेचन या अध्ययन के माध्यम से जो
नतीजे सामने आते हैं, वे महत्वपूर्ण तो होते ही हैं, वे उस विषय को कैसा नया
परिप्रेक्ष्य या आयाम देते हैं, यह तय कर पाना भी संभव होता है, इस दृष्टि से मैं
आलोचना को एक गंभीर दायित्वपूर्ण कार्य मानता हूं। हालांकि हर बार तुलनात्मक
दृष्टिकोण से देखने पर ही किसी कृति का सही मूल्यांकन होता हो, ऐसा मैं नहीं
कहता, पहली कोशिश तो यही होनी चाहिये कि लेखक ने अपनी कृति के माध्यम से जो कहा
है, पहले उसके मूल भाव को समझा और समझाया जाए और फिर उसमें तटस्थ भाव से अपनी राय
दे। आलोचना को कुछ हद तक सजेस्टिव और सकारात्मक भी होना चाहिये।
रेवतीरमण - इसी क्रम में मेरा एक छोटा-सा सवाल और भी है कि
आपने राजस्थान के और हिन्दी जगत के बहुत
से महत्वपूर्ण हिन्दी कवियों पर लिखा है, खासकर नंद चतुर्वेदी, हरीश भादानी,
नंदकिशोर आचार्य, भगवत रावत, ज्ञानेन्द्रपति, राजेश जोशी, लीलाधर मंडलोई, कुमार
अंबुज, एकान्त श्रीवास्तव, अनिल गंगल आदि की कविताओं पर आपकी अच्छी समीक्षाएं
पढ़ने को मिली हैं, इन सब पर लिखने के पीछे क्या नजरिया रहा ?
नंद - आप जानते हैं कि एक
कवि के रूप में कविता से मेरा गहरा रिश्ता रहा है, कविताएं तो लिखता ही रहा हूं,
अपने समय के महत्वपूर्ण कवियों को पढ़ते हुए उनकी कविताओं पर लिखना भी मुझे बहुत
उत्साहजनक लगता रहा है। इसी क्रम में मैंने अपने समकालीनों और वरिष्ठ कवियों पर
खुलकर लिखा है – नागार्जन, केदारनाथ अग्रवाल, अज्ञेय, मुक्तिबोध, धूमिल आदि बड़े
कवियों के अलावा हमारे अपने प्रदेश के नंद चतुर्वेदी, हरीश भादानी, नंद किशोर
आचार्य, अनिल गंगल, गोविन्द माथुर और हिन्दी के बहुत से कवियों पर मैं लिखता राह
हूं - आपकी कविताओं पर भी लिखा है, दरअसल इस रूप में पिछले चार दशक की कविता के
विभिन्न पक्षों पर जो कुछ लिख पाया हूं, अब उसे एक पुस्तक के रूप में तैयार करने
की मेरी योजना है, कुछ पक्ष या महत्वपूर्ण कवि रह गये हैं, जिन पर लिखना बाकी है,
उन पर मैं लगातार काम कर भी रहा हूं।
रेवतीरमण - और एक अंतिम प्रश्न मेरे अपने लिए – आपकी एक
कविता मेरे मन से बहुत भिड़ती है, मैंने अनेक बार उसे पढ़ा है, जी में आता है कि मैं
आप ही की तरह बीज क्यों न बन जाऊं, जन जन की भूख मिटाने की, क्यों न वह सामर्थ्य
हासिल कर लूं, जो वाकई मुझे कविता की असली ताकत लगती है। मेरा प्रश्न है कि आखिर आप बीज क्यों बन
जाना चाहते हैं?
नंद - आपका
इशारा मेरे नये काव्य-संग्रह ‘आदिम बस्तियों के बीच’ में प्रकाशित इसी शीर्षक
कविता की ओर है, जो इस संग्रह की अंतिम कविता है, जिसमें मैं एक कवि के रूप में
अपने मूल या कहिये कि जड़ों से जुड़े रहने के आत्मिक भाव पर बल देता हूं – ‘इससे
पहले कि अंधेरा आकर / ढांप ले फलक तक फैले / दीठ का विस्तार / मुझे पानी और मिट्टी के बीच / बीज की तरह / बने रहना है इसी जीवन की कोख में।' यह
कविता मैंने अपनी सेवा-मुक्ति के बाद लिखी थी और इसका मूल भाव यह है कि एक लंबी
यात्रा से गुजर कर जहां मैं आया हूं, और कहीं मन में एक सुप्त भाव हमेशा से रहा
है कि मैं जिस जमीन से जुड़ा रहा हूं, उससे कभी मेरा संबंध-विच्छेद न हो, मैं सदा
उससे जुड़ा रहूं, मनोवैज्ञानिक स्तर पर और
संभव हो तो भौतिक रूप से भी। हालांकि आपका जानकर आश्चर्य होगा कि ‘सांम्ही खुलतौ
मारग’ जैसा उपन्यास मैंने गुवाहाटी में बैठक्र लिखा, जबकि पूरा उपन्यास राजस्थान
की मिट्टी और अनुभव से जुड़ा उपन्यास है। कहने का तात्पर्य यह कि लेखक चाहे जहां
रहकर अपना लेखन कार्य करे, अगर वह अपनी जमीन से आत्मिक स्तर पर जुड़ा रहे तो वह
कहीं दूर-दराज या विदेश में रहकर भी अपनी मिट्टी से जुड़ा रह सकता है। जयपुर मेरी
पसंद की जगह रही है, लेकिन बाड़मेर जिले का वह गांव आज भी मेरी प्राथमिकता में कायम
है, आज भी उससे जीवंत जुड़ाव बना हुआ है और ऐसे अवसर आते रहते हैं कि अपनी जमीन और
जीवन से लगाव रखने वाले उन तमाम लोगों से मिलकर उसी रचनात्मक ऊर्जा को बरकरार रख
सकूं, कुछ और बेहतर काम कर सकूं।
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