कहानी :
जीवन-सार ·
अक्सर लोगों को यह कहते सुना है
कि दुनिया में कोई दो इन्सान एक-सरीखे नहीं होते, न दीखत आकार और न उनका
जीवन-सार - भले वो कोख-जाये सहोदर ही क्यों न हों ! बेशक वे एक-जैसे
दिखते हों – उनके चेहरे-मोहरे, नाक-नक्श, रंग-रूप, या हंसने-बोलने का तौर-तरीका,
उनका काम, बहुत-कुछ एक-सा हो सकता है, लेकिन एक इन्सान के रूप में उनकी अन्दरूनी
बुनावट कम ही मेल खाती है ! कई-बार तो वे समय के साथ
एक-दूसरे से इतने दूर जा छिटकते हैं कि आपस में मिलान करना ही मुश्किल। लेकिन आस-पास के लोगों को जाने क्यों अरसे तक यही भरम बना रहा कि शायद हम इसका अपवाद
हैं ! कुछ अरसे तक तो खुद हमें भी ऐसा लगता रहा, पर गुजरते
समय ने हमारे बहुत-से भरम मिटा दिये !
बात
दरअसल यों हुई कि मैं और भोजराज बचपन में एक-सरीखे ही दिखते थे। अपना लड़कपन पार करते-करते अपने ही गांव के लोगों के
लिए हम दोनों में अन्तर करना मुश्किल हो गया। दोनों की उम्र में यों सवा-डेढ़
साल का अंतर तो जरूर था, लेकिन भैया से मेरी बढ़त थोड़ी बेहतर थी, सो उम्र के अन्तर
को तो हमने सात-आठ साल की उम्र पार करने तक यों ही पाट लिया। कई बार पहली दफा हम दोनों
से एक-साथ मिलने वालों के मुंह से यह भी कहते सुना कि ‘अरे, ये तो जुड़वां हैं, शायद
!’ यानी दोनों के नाक-नक्श और दीखत आकार इतने एक-सरीखे थे कि एक-दो बार
मिले व्यक्ति के लिए तो दोनों के बीच फर्क करना ही मुश्किल हो जाता। पांच-सात
महीने बाहर रहकर लौटा कोई परिचित अक्सर मुझे भोजराज समझकर ही बतियाने लगता।
बातचीत के दौरान जब मुझे आभास होता है कि अगला मुझे ही भैया समझकर बात किये जा रहा
है, तो मैं भी कुछ देर तो इस गलतफहमी का आनंद कभी ले लेता, लेकिन जल्दी ही उसकी
गलतफहमी दूर करने के लिए मुझे कहना ही पड़ता कि ‘भैया, मैं भोजराज नहीं, भीमा हूं!’ और फिर दोनों हंस पड़ते।
असल
में कुसूर लोगों का नहीं है। आती जवानी के उन दिनों में हम दोनों भाइयों को लेकर
ऐसी गलतफहमियां इसलिए भी हो जातीं थीं कि हम डील-डौल में तब एक-सरीखे दिखते थे।
बहुत बार कपड़े भी एक-सरीखे ही पहन लिया करते। नयी पोशाक के नाम पर पिताजी अक्सर हमारे
लिए बाजार से एक ही तरह का कपड़ा ले आते, जिसमें आधी बांह की दो कमीजें आराम से बन
जाएं। दोनों थे भी एक सरीखे ही, इसलिए कपड़े भी अक्सर एक-दूसरे के अदल-बदलकर पहन
लेते। कुछ निश्चित था ही नहीं कि कौन-सा किसका है। बचपन से दोनों इतने साथ रहे कि
एक के बगैर दूसरे को चैन नहीं पड़ता था। किसना काका हमारे बाल भी अक्सर साथ जाने
पर ही काटा करते और वे काटते भी एक जैसा ही। कभी जब मैं कहीं अटक जाता और भैया
अकेला ही उनके पास पहुंच जाता तो वे उसे यह कहकर उल्टे पैरों लौटा देते कि ‘जा उस
दूसरे को भी पकड़ ला, वरना अकेला तो शायद ही आए।‘ बचपन में एक बार भैया के सिर में
कुछ फुन्सियां-सी निकल आईं, तो उसे पूरे बाल कटवाने पड़े, इसी फेर में मेरा भी
मुंडन हो गया, और किसना काका इस बात से खुश थे अब गई कई दिन की।
***
अपने मां-बाप के घर हम चार भाई और दो बहनों समेत छह
भाई-बहन हुआ करते थे। बड़े भाई सुखराम के बाद दूसरी सन्तान के रूप में जन्मे मगनराज
की बचपन में मृत्यु हो जाने के कारण हम पांच ही रह गये। बहनें गौरी और अणची भोजराज
से बड़ी थीं। सुखराम और दोनों बहनों की शादियां डेढ़ साल के अंतर पर ही हो गई थी। बहनों
की शादी के वक्त भोजराज की उम्र चौदह से कुछ कम थी और मेरी बारह से कुछ अधिक। घर
में किसी की शादी होना, उन दिनों किसी त्यौहार से भी बड़ा उत्सव माना जाता था।
सुखराम
हमारे बचपन के दिनों में ही ताऊजी के साथ बीकानेर रियासत में हमारे पैत्रिक गांव
चले गये थे और वहीं से हमारे ममेरे भाई के साथ कमाई के लिए कलकत्ता। वे साल में
एकाध बार सप्ताह दस दिन के लिए गांव जरूर आते रहे, लेकिन गांव में उनका मन कम ही लगता था। वे जल्दी ही ननिहाल और फिर कलकत्ता
लौट जाते। कुछ बड़े हो जाने पर मामा ने ही उनका रिश्ता तय करवा दिया और वहीं
पैत्रिक गांव में ताऊजी के आंगन से ही उनकी बारात चढ़ी। हम छोटे बहन-भाई तो उसमें
शरीक ही नहीं हो पाए। मां-पिताजी को भी फकत् शादी के सप्ताह भर पहले खबर भिजवा कर
बुलवा लिया था। गौरी तब सोलह साल की थी और घर में मां के काम में पूरा हाथ बंटाने
लगी थी। वह रसोई और गायों की देखभाल का काम अकेले ही संभाल लेती थी। उससे छोटी अणची
भी इस काम में उसकी खासी मददगार थी। इसलिए जब सुखराम की शादी के लिए मां-पिताजी को
बुलावा आया तो हम चारों ने इस घर की देखभाल का जिम्मा आराम से संभाल लिया। यों मां
किसना काका की अम्मा को हमारी और घर की देखरेख की फौरी भोळावण जरूर दे गई थीं,
जिन्हें हम दादी कहकर बुलाया करते थे। वे सुबह-शाम गौरी-अणची के पास आ जातीं और
थोड़ी देर पूछताछ कर वापस अपने घर लौट जातीं। वे दस दिन हमने ऐसे गुजारे जैसे हम ही
घर के मालिक हों।
पिताजी
ने खोजबीन कर पास के गांव में एक ऐसे गुणी सज्ज्न का पता लगाया जो गांव के बच्चों
को अक्षर-ज्ञान करवाते थे, नाम था उनका देवीशंकर दूबे और उनका घर दूबे की पोसाळ।
पिताजी चाहते थे कि हम दोनों भाई इस पौसाळ में कुछ पढ़ना-लिखना सीख लें, इसीलिए वे
हम दोनों का नाम वहां लिखवा आए। पिताजी के कहने पर भोजराज तो नियमित रूप से पोसाळ
जाने लगे, लेकिन मेरा दो-चार में ही वहां से जी उचट गया। मुझे पूरे दिन किसी एक ही
जगह पर नीची धुन किये कुछ करते रहना बहुत ऊबाऊ लगता था, फिर घर में गायों की
देखभाल करने वाला दूसरा कोई नहीं था, सो मां ने ही मना करवा दिया कि हम दोनों से
कोई एक ही पोसाळ जा सकेगा। और इस तरह मुझे सहज ही पढ़ाई से निजात मिल गई।
चौमासे
में खेती का ज्यादातर काम पिताजी और भोजराज ही देखते थे, जबकि घर में गायों की
देखभाल, कुएं से पानी की पखाल लाना और घर में मेहनत मशक्कत के दूसरे छोटे-मोटे
काम मेरे ही जिम्मे रहते थे। शादी के तुरंत बाद सुखराम हमारे पैत्रिक गांव में ही
रस-बस गये, जहां पिताजी ने अपने भाइयों की मदद से एक बना-बनाया घर खरीदकर उन्हें वहीं
बसा दिया था। सुखराम ने भी साल भर बाद कलकत्ता का काम छोड़कर उसी गांव में परिवार
की कुछ पुश्तैनी जमीन पर खेती को अपनी जीविका का आधार बना लिया था। सुखराम को
वहां बसाना इसलिए भी जरूरी हो गया था कि आगे साल भर बाद बहनों की शादियां होनी
थीं, हमारे घर-परिवार और बिरादरी के ज्यादातर लोग उसी हलके में बसे हुए हैं।
मालाणी के इस छोटे-से गांव में तो हमारे परदादा जजमानों के आग्रह पर आकर बस गये
थे, जहां खेती और जजमानी के बूते पर गुजारा भर करने की गुंजाइश थी। घर-परिवार में
शादी-ब्याह और औसर-मौसर जैसे सारे काम तो मूल गांव में भाइयों के बीच जाकर ही संपन्न
करने होते थे।
भोजराज
और मुझमें एक अंतर यह भी था कि वह थोड़े संजीदा स्वभाव के युवक थे और मैं एकदम
मुंहफट। वे बोलते भी कम थे, जबकि गांव के लड़कों को मुझसे बतियाने में कुछ ज्यादा
ही मजा आता। उसका एक कारण यह भी था कि मैं उनके बीच अधिक समय तक रहता था और हर कोई
मुझसे चुहलबाजियां करता रहता। शाम को गांव भर के लड़के जब चौगान में इकट्ठा होकर दो
धड़ो में बंटकर कोई खेल खेलते, तो हर धड़ा अपने भीड़ू के रूप में मुझे ही लेना पसंद
करता, क्योंकि कद-काठी में औरों से मैं इक्कीस ही पड़ता था।
भोजराज
पूरे चौमासे में खेत की ढांणी में ही रहते थे, जो गांव से कोई दो-ढाई कोस की दूरी
पर थी। चौमासे के बाद घर लौटने पर वे पिताजी के साथ पंडिताई और जजमानी का काम
संभाल लेते। घर में गायों के लिए चारा-पानी
लाने और खेत-खलिहान से अनाज आदि ढोकर लाने के लिए जो सांढ (ऊंटनी) थी, वह मेरी
देखरेख में रहने के कारण मुझसे खूब हिली-मिली रहती थी। भाई जब भी उसे अकेले अपने
साथ खेत ले जाते, कुछ ज्यादा ही बोझ लादकर लौटते थे, इसलिए वह हमेशा उनसे
डरी-सहमी-सी रहती थी। वे जब भी उसकी मोहरी पकड़कर नकेल खींचते, वह पहले ही
बिलबिलाने लगती, जबकि मेरे साथ हमेशा शान्त और निश्चिन्त-सी रहती। उसे नकेल
खींचे जाने का कोई भय नहीं होता।
***
बहनों
की शादी के साल भर बाद पिताजी और भैया को फिर किसी काम से अपने पैत्रिक गांव जाना
पड़ा था। और जब वे स्प्ताह भर तक वापस नहीं लौटे तो एक दिन सुबह-सवेरे मां ने
मुझे यह कहकर पड़ौस में ताईजी के घर भेजा था कि मैं यात्रा पर गये पिताजी और भोजराज
की वापसी के समाचार उनसे पूछ आऊं। ताईजी भी उनसे कुछ दिन पहले बेटे के साथ अपने पीहर गई थीं, जो हमारे पैत्रिक गांव के पास ही
पड़ता है। वे एक दिन पहले ही वहां से लौटकर आई थीं। जब उनके घर पहुंचा तो पता चला
कि वे तो पड़ोस में कहीं गई हुई थीं, लेकिन घर में मौजूद बड़ी भाभी ने मेरी अगवानी
करते हुए हंसी-मजाक में जब मुझ से मुंह मीठा कराने की बात कही तो लगा कि वे शायद
मेरे चाचा बनने की खुशी में ऐसा कह रही हैं। वे कुछ ही अरसा पहले एक बेटी की मां
बनी थीं, सो मैंने भी खुशी जाहिर करते हुए कह दिया – “हां भाभी, आपका मुंह मीठा तो
कराना ही होगा, हमें चाचा बनने की इतनी बड़ी खुशी जो दी है आपने !”
“- अरे
नहीं लाल जी, वो खुशी तो अपनी जगह है, मैं तो उससे भी बड़ी खुशी की बात कर रही हूं।
वह तो ढोल-ताशे बजाकर ,खुशी और बधाई बांटने की सी बात है ! बधाई में पूरा वेश लूंगी मैं, चाचीजी से।"
“- अच्छा
! फिर तो हमें भी बताएं, शायद हमें भी दो-चार लड्डू हासिल हो जाएं !”
“- आप
ही की हासिल पर तो सारा दारोमदार है, देवर जी !” कहते हुए वे
लगातार मुस्कुरा रही थीं और मैं असमंजस में।
“ – वाह
भाभी जी, जिसे कुछ हासिल होना है, उसे तो खबर ही नहीं और आपने तो अपनी बधाई भी तय
कर ली ! हमें भी कुछ तो सुराग दें ताकि हम मांजी से आपकी बधाई के लिए सिफारिश कर सकें !”
“ – अजी
वाह, फिर तो हमारी बधाई पक्की समझो !” कहते हुए भाभी
ने आसरे में बैठी अपनी बेटी विमला को आवाज
दी – “विमला बेटी, तिलक वाली थाली लाइयो, जरा अपने होनेवाले छोटे जीजा का हम भी
तिलक तो कर ही दें !” यह कहते हुए वे खिलखिला उठी।
भाभी की
इस रहस्यमय घोषणा ने मुझे एकाएक अचंभे में डाल दिया। संकेत को आधा-अधूरा समझते
हुए हल्की-सी झेंप के साथ मैंने फिर पूछ लिया – “भाभी, आप ये क्या पहेलियां बूझ रही
हैं, ठीक से बताइये न, मुझे तो मां ने ताईजी से भैया और पिताजी का समाचार जानने के
लिए भेजा है ! पर आप तो कुछ और ही बात कर रही हैं ?”
“- भीम
जी, हमें जो जरूरी बात कहनी है, वही कह रही हैं ! सासूजी
बता रही थीं कि वे अपने मायके में आपकी और आपके भैया भोजराज की उन्हीं के परिवार
में सगाई तय करके आ रही हैं। आपके पिताश्री और भैया जी इसी काम के लिए तो गए थे, वे
भी दो-चार दिन में आने ही वाले होंगे। मुझे तो खुशी इस बात की है कि आपकी होने
वाली दुल्हन मेरी मौसेरी बहन है, तो इस नाते आप हमारे जीजा होने जा रहे हैं !”
भाभी से
मिली इस जानकारी के बाद मैं तो उनके मुंह की तरफ देखता ही रह गया, समझ ही नहीं पा
रहा था कि इसका क्या जवाब दूं? वे विमला की लाई थाली से टीका लगाने की तजवीज करतीं,
उससे पहले ही मैं तो तुरंत वहां से भाग छूटा और सीधा घर आकर ही सांस ली। भाभी पीछे
आवाज लगाती ही रह गई – “अरे सुनो तो …. !”
घर
पहुंचने पर मां ने जब पिताजी और भाई के बारे में पूछा तो मैंने कह दिया कि ‘ताईजी अभी घर पर नहीं हैं, तुम्हीं जाकर पूरे
समाचार पूछ आना।' और यह बताकर थोड़ी देर रुकने के बाद मैं घर से बाहर निकल गया।
दिन में
किसी वक्त ताईजी ने घर आकर मां को पूरी जानकारी दे दी थी और वे खुश थीं। शाम को
किसना काका की अम्मा से बात करते हुए वह जो बता रही थी, उसे मैं गढ़साळ की चौकी पर
बैठे सुन रहा था। वे कह रही थीं कि “जिठानी जी की इस संबंध में भोज के पिताजी से
पहले ही बात कर चुकी थीं और इसी काम के लिए उनके भाइयों ने उन्हें बुलाया था। जिठानी
जी का पीहर हमारे पैत्रिक गांव से ढाई-तीन कोस की दूरी पर ही तो है। तयशुदा बात के
मुताबिक भोज और उसके पिता जिठानी जी के मायके पहुंच गए, जहां वे और उनके दोनों भाई
प्रतीक्षा में ही थे। रिश्तेदारी में जब पहले से सब एक दूसरे को जानते हों तो ज्यादा
ब्यौरे में जाकर बात करने की गुंजाइश कम ही रहती है।"
“ –
नहीं चाचीजी, अब बार-बार का आना-जाना किसके लिए संभव होगा और वह भी सौ कोस दूर बसे
इन गांवों के बीच? जिठानी जी तौ बता रही थी कि भोजराज का टीका होने के बाद उसी
पाटे पर छोटे भाई के टीके की रस्म भी उन्होंने भोजराज के हाथ में रुपया-नारियल
और वेश देकर उसी वक्त संपन्न कर ली। हमारे यहां तो यही रस्म-रीत है। ब्याह के
वक्त दोनों बेटे दूल्हा बनकर उनकी तोरण बांन लेंगे और चार फेरे लेकर दुल्हनें
अपने घर पहुंच जाएंगी। बेटी का बाप और हम दोनों निश्चिन्त।" मां ने इस तरह
हंसते हुए बात को सहेज लिया।
इस तरह
मां के मुंह से सारी बातें जान लेने के उपरान्त मेरे मन में एक तसल्ली-सी हो गई।
मुझे भी लगा कि इस रिश्ते में जब खुद ताईजी ने इतनी रुचि ली है तो किसी के मन में
शंका की कोई गुंजाइश नहीं रह गई होगी, लेकिन उस समय मंगेतर रामी की मेरे बारे में क्या
राय बनी होगी, यह बात तो मैं कभी जान ही नहीं पाया।
***
सगाई होने के बाद आनेवाली आखातीज के अबूझ सावे पर
हम दोनों भाइयों का एकसाथ ब्याह सम्पन्न हो गया। शादी के लिए बारात चूंकि हमारे
पैत्रिक गांव में सुखराम के घर से ही चढ़ी थी, इसलिए बहुएं पहली बार उसी घर में आई
थीं और वहीं पहली बार मैंने रामी को भर-नजर देखा था। भोजराज को तो भाभी ने सगाई के
वक्त ही देख लिया था, लेकिन रामी के लिए तो वही पहली मुलाकात थी। उसकी किसी सहेली
ने मेरे बारे में शायद कुछ ऐसा बढ़ा-चढ़ाकर बता दिया था कि वह थोड़ी आशंकित-सी थी।
लेकिन जब चंवरी में उसने पहली बार मुझे अपने करीब बैठे देखा तो वह आश्वस्त हो गई
। उसे कुछ भी असामान्य जैसी बात नहीं दिखी मुझमें। यह बात शादी के कई दिन बाद यों ही एक दिन हंसते
हुए मुझे बताई थी। उसने यही कहा कि हम दोनों भाई एक-से दिखते जरूर हैं, पर हैं
नहीं। यों कद-काठी में थोड़ा फर्क था ही, रंग-रूप में भी मैं भाई से थोड़ा-सा गोरा
और गठीला था, जो उसे अच्छा लगा। भाई सुखराम के घर में पहली बार रामी को देखकर तो
मैं ठगा-सा रह गया था, वह जितनी नाक-नक्श से सुंदर थी, देह की गठन और गमक उससे भी
सवाई। सुखराम के घर में ज्यादातर ओरे पक्की ईंटों से बने थे, हमारे गांव की तरह
वहां कच्चे आसरे कम ही बनाते थे। उस ओरे में दीये के उजास में जब मैंने उसका
घूंघट उठाया तो आंखें उसके सलोने मुख पर टिकी रह गईं। नजरें एक-दूसरे से मिलीं और
सम्मोहित से हम एक-दूसरे को देखते रह गए। जब मैंने उसकी ओढ़नी को हटाना चाहा, तो
वह बेतरह लजा गई और ओढ़नी को कसकर पकड़
लिया। उसने आंख से इशारा किया कि पहले दीये को बुझा दूं। मैंने उसकी बात का मान
रखा और उठकर ताखे में रखे दोनों दीये बुझा दिये। दीये बुझ जाने के बाद भी
खिड़की-दरवाजों की दरारों से बाहर आंगन मे जल रही गैस-बत्तियों की हल्की रोशनी
छनकर भीतर आ रही थी, जिससे इतना उजाला जरूर था कि हम एक-दूसरे को देख सकें। दीये
बुझाने के बाद ज्योंही उसके करीब आकर मैंने अपनी बाहें खोलीं, वह सेज से उतरकर
सहज भाव से मेरी बाहों में समा गई।
विवाह
के बाद की जरूरी रस्में पूरी कर हमारा पूरा परिवार दस दिन बाद वापस अपने गांव आ
गया। दोनों बहुएं हमारे साथ ही आईं थीं और घर में आकर उन्होंने अपनी जिम्मेदारियां
संभाल ली। शादी के बाद दो-ढाई साल तो हर्ष-आनंद में ऐसे बीत गए कि किसी को और कुछ
सोचने-करने की फुरसत ही नहीं मिली। जिस तरह घर का काम चलता आया था, सब उसी में
उलझे रहे, लेकिन तीसरे बरस जब आषाढ़ उतरने तक बुवाई लायक बरसात के कोई आसार बनते
नहीं दीखे तो घर में गाय-पशुओं के लिए घास-चारे की परेशानी गहरी चिन्ता का कारण
बन गई थी। आस-पास के गांवों में न कहीं चारे-पानी का इंतजाम था और न किसी बाहरी
सहायता की कोई उम्मीद। सावन सूखा गुजरने के साथ ही चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई।
लोगों ने उस बरस खेती की तो उम्मीद ही छोड़ दी। अधिकतर किसान अपने जीव-जानवरों को
लेकर मेवाड़ और मालवा की ओर निकल गए और कई अपने दूर-दराज के उन रिश्तेदारों की ओर
जिनके हलके में चारे-पानी के कुछ आसार बचे हुए थे। मालाणी हलके में विक्रम संवत्
छियानवे का यह अकाल आने वाले कई सालों तक लोगों को भयभीत करता रहा। उस साल चौमासे
के सूखे दिनों में मां-पिताजी और भाई-भाभी तो गांव में ही रहे, लेकिन रामी को सावन
उतरते ही उसके भाई आकर मायके ले गए और मैं भी कुछ मेहनत-मजदूरी के लिए गांव के
दूसरे युवकों के साथ सिंध की ओर निकल गया। छियानवे की होली के बाद जब गांव से मां
के बीमार होने का समाचार आया तो मुझे खड़-खड़े ही गांव वापसी के लिए निकलना पड़ा। उन
दिनों मीरपुर खास से हमारे गांव के करीबी स्टेशन तक एक सवारी गाड़ी आया-जाया करती
थी, जो सवेरे मीरपुर से रवाना होती और शाम होने तक मेरे गांव के करीबी ठिकाने तक
पहुंचा देती।
शाम को
उसी गाड़ी से जब मैं पहुंचा तो गांव और अपने घर की दशा देखकर गहरे सोच में पड़ गया।
घर में प्रवेश करते ही आंगन के आगे की जो बाखर पहले गायों-बछड़ों से भरी रहती थी,
वह सूनी पड़ी थी। सिर्फ एक दुधारू कजरी गाय और उसी की बड़ी बछड़ी एक ही ठांण में मुंह
नीचा किए कुछ खा रही थी, लेकिन शायद भरपेट चारा न मिलने के कारण दोनों की हालत अच्छी
नहीं थी। आंगन पार कर जब मां से मिलने के लिए उसके ओरे में दाखिल हुआ तो ताखे में
जलते दीपक के हल्के उजास में वह आंखें बंद किये अपने पलंग पर लेटी थी। भाभी उसी
के पास हाथ-पंखी से हवा करते हुए बैठी थी। भाभी ने मां के हाथ का स्पर्श करते हुए
उसे एक धीमी-सी आवाज लगाई तो उसने अपनी आंखें खोल ली। मुझे सामने खड़ा देखकर उसके
चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान आ गई। मैं उसके पांव छूकर पास ही पलंग की ईस के सहारे
बैठ गया और उसकी तबियत को लेकर कुछ पूछने लगा। वह अपनी काया की कमजोरी के बावजूद
तबियत के बारे में धीरे-धीरे बता रही थी, लेकिन इतनी कमजोर हो चुकी थी कि उसे बिना
बोले आराम करने देना ही बेहतर लगा। फिर भी बोलना बंद करने से पहले उसने अपनी यह
इच्छा जरूर बता दी कि मैं तुरंत ससुराल जाकर उसकी बहू को ले आऊं। मैंने उसे आश्वस्त
किया, तब तक भोजराज भी मां के पास आ चुके थे। भाभी पहले ही उठकर रसोई में में चली
गई थी, कुछ देर हम दोनों भाई चुपचाप मां के पास बैठे रहे।
मां का
आखिरी वक्त नजदीक जानकर पिताजी और भाई ने अगले दिन सवेरे की गाड़ी से मुझे रामी का
लाने भेज दिया। मैं शाम तक बीकानेर पहुंच गया। गाड़ी शाम को देर से बीकानेर पहुंची
थी और उसके बाद ससुराल जाने के लिए उस वक्त और कोई साधन नहीं था, इसलिए वह रात
वहीं एक धर्मशाला में गुजारी और अगली सुबह की गाड़ी से दोपहर तक अपने ससुराल पहुंच
गया। वहां पहुंचने के उपरान्त मैंने ससुर जी को मां की बीमारी और उसकी अंतिम इच्छा
के बारे में बताया तो उन्होंने अगले ही दिन रामी को सीख देकर मेरे साथ रवाना कर
दिया। हम दोनों दूसरे दिन वहां से रवाना होकर अगले दिन सुबह तक अपने गांव पहुंच
गए। परिवार के सभी लोग जैसे हमारा इंतजार ही कर रहे थे। घर में दाखिल होते ही रामी
औ मैं सीधे मां के ओरे में प्रवेश कर गए। वह अब भी उसी तरह आंखें बंद किये लेटी थी
और उसके पलंग के पास ही गांव की कई स्त्रियां पहले से मौजूद थीं। रामी ने मां के
पांव छूकर उनके मुंह के पास जाकर हल्के से आवाज दी। मां जैसे उस आवाज की ही
प्रतीक्षा में थी, उसने तुरंत अपनी आंखें खोल दी और बहू को सामने पाकर उसके चेहरे
पर हल्की रौनक-सी लौट आई। उसने अपना कमजोर सा हाथ उठाकर रामी के सिर पर रखा और
उसे अपने पास ही बिठा लिया। वह उसे अपने पलंग पर ही बिठा लेना चाहती थी, लेकिन
रामी पलंग की ईस पकड़कर उनके पास ही आंगन पर बैठ गई। मैं पास ही खड़ा सास-बहू का यह
मिलन देखता रहा। मैंने जब मां के पांव स्पर्श किए तो उसने हाथ उठाकर आशीष दिया और
वापस बहू की ओर रुख कर लिया। सास-बहू के बीच धीमे स्वर में होती बातचीत के दौरान
ही मैं वहां से निकल कर बाहर चौकी पर आ गया, जहां गांव के और लोग पहले से जमा थे।
वह दिन तो मां ने किसी तरह निकाल लिया, लेकिन अगले सवेरे सूर्य उगने के कुछ ही देर
बाद उसने हम सबसे अंतिम विदाई ले ली। लेकिन जाने से एक घड़ी पहले तक वह अपनी बहुओं
से बात कर रही थी और फिर एकाएक चुप हो गई। मां की यह छवि बरसों तक मेरी चेतना में
बनी रही।
***
भाभी
उन दिनों गर्भवती थी। शायद पांचवां या छठा महीना रहा होगा। मां के मौसर पर घर-परिवार और रिश्तेदारी के सभी लोग आए थे -
हमारे पैत्रिक गांव से ताऊजी, भाई सुखराम का परिवार, हमारी दोनों बहनें, जीजा और
हमारे ससुराल से दोनों ससुर, साले और उनके गांव के कुछ और लोग। मौसर के चार दिन
बाद भाभी के बड़े भाई वापस लौटते समय उन्हें पहले प्रसव के लिए अपने साथ पीहर ले
गये थे। तब से लेकर अगले पांच महीने तक रामी को अकेले ही घर की जिम्मेदारी
संभालनी थी। उसने वह जिम्मेदारी तो सही, लेकिन उसी दौरान उसके मन में घर-संपत्ति
के बंटवारे को लेकर कुछ अलग तरह की सोच भी बनने लगी थी, जिसे शायद मैं ठीक तरह से
नहीं समझ पाया।
तीन
महीने बाद हमारे ससुराल से यह खबर भी आ गई कि भैया एक बेटे के बाप बन गये हैं और
उसके दो महीने बाद वे खुद ससुराल जाकर भाभी और बेटे को वापस घर ले आए। पहली संतान की खुशी में दो-तीन दिन घर में खूब
चहल-पहल रही और पूरे गांव में गुड़ बांटा गया। यह खुशी तब और दुगुनी हो गई, जब भाभी
को यह बात पता लगी कि उसकी छोटी बहन भी मां बनने के रास्ते पर है। वह खूब उत्साह
से उसे हिदायतें देतीं और घर में मेहनत-मशक्कत का कोई काम उसे न करने देती।
बस ऐसे
ही हंसी-खुशी में दिन गुजर रहे थे। कुछ महीने बाद रामी को उसके भाई आकर पीहर ले गए
और इससे रामी की परिवार से अलग राह पर जाने की सोच को थोड़ा विराम भी लगा, लेकिन
अपने पीहर में भाई-भाभी के साथ बातचीत में उस सोच ने शायद कुछ नया रूप लेना भी
शुरू कर दिया था, जो उसे अपने मां बनने की खुशी से कहीं ज्यादा अहम लग रहा था।
इसका अहसास मुझे कुछ अरसे बाद ही हो पाया। खैर वह जो भी रहा हो, लेकिन दो महीने
बाद आखिर वह अच्छी खबर आ ही गई कि मैं एक बेटी का बाप बन गया हूं। मुझे लगा कि
भाई की तरह अब मेरी भी जिम्मेदारियां बढ़ गई हैं। गांव में हमउम्र लड़के जब कभी ‘अरे
बेटी के बाप’ कहकर मुझसे हंसी-मजाक करते तो अच्छा लगता और पलट कर कहने की इच्छा
होती कि अब मैं तुम्हारी तरह बेलगाम घोड़ा नहीं हूं। लेकिन नहीं कहता। यह सोचकर न
बोलना ही ठीक लगता कि कहीं वे मेरी बात को लेकर फिर चुहलबाजी पर न उतर आएं। उनकी
तो जुबानें ऐसी चलती थीं जैसी किसना काका की कैंची। हां किसना काका के नाम से याद
आया कि अब वे बाल काटने के लिए मुझे और भैया को साथ बुलाने की जिद नहीं करते थे और
अब तो बाल काटने के तौर-तरीके में भी काफी फर्क आ गया था।
किसना
की मां, हम दोनों से बेहद लगाव रखती थीं। हमारी पत्नियां भी उन्हें सगी सास जैसा
आदर देती थीं। किसना के बापू का नाम मेरे नाम से मिलता-जुलता-सा था, इसलिए दादी मुझे
भीमा की बजाय ‘पाण्डु’ कहकर पुकारती थी। संयोग से हम दोनों भाइयों के नाम का पहला
अक्षर भी एक ही था। दादी मुझे मेरे भोलेपन को लेकर कई बार यह समझाने का प्रयत्न करती
कि मैं भी भोजराज की तरह अपनी गृहस्थी की जिम्मेदारियों को ठीक से समझूं। कल को
मेरे और बच्चे होंगे। मां-बाप का साया सदा के लिए नहीं होता, वक्त आने पर हरेक
व्यक्ति को अपनी गृहस्थी खुद संभालनी होती है, इसलिए बाकी दोनों भाइयों की तरह
मैं भी अपने घर-बार की चिन्ता स्वयं करूं। और यहीं आकर मेरा जी उचाट खा जाता…… मुझे जाने क्यों ऐसा लगने लगता कि दादी हम दोनों भाइयों में भेद करती है,
शायद वो मुझे भैया से कमतर और कम जिम्मेदार समझती है।
पिताजी
तब काफी बूढ़े हो चुके थे। खेत और जजमानी का ज्यादातर काम भोजराज ही देखने लगे थे।
किसी बच्चे का नामकरण करना हो, नये घर की नींव का अनुष्ठान हो, घर में हवन या
पूजा-पाठ करवाना हो, विवाह में चंवरी करवाने का काम हो या किसी के गुजर जाने पर
हवन करवाना हो, भाई बारहों महीने ऐसे ही कामों में व्यस्त रहने लगे थे। कभी-कभार
जब दो जगहों पर एक साथ ऐसा कोई काम आ जाता, तो भोजराज के कहने पर किसी एक काम का
जिम्मा मुझे सौंप दिया जाता, लेकिन मुझे उसमें भी एक तरह की हिचक ही रहती कि कहीं
कोई त्रुटि न हो जाए और कुछ यह आशंका भी कि कोई मुझे भोला और कम जानकार समझ कर
हंसी-मजाक न करने लगे। यह बात तो मैं भी बिना किसी संकोच के मानता हूं कि मेरा
पंडिताई का ज्ञान बहुत गहरा नहीं था, मामूली साक्षर होने के नाते पंचांग जरूर बांच
लेता और बता देता कि उस दिन का ग्रह-जोग कैसा है। यह अक्षरज्ञान भी भैया की ही
मेहनत का सुफल था, ……जो कुछ सीखा, उन्हीं से सीखा था। उसी
के बूते अटका हुआ काम निकाल आता। लिखने के नाम पर तो आज भी मेरी अंगुलियों में
बांयटे आने लगते हैं।
पत्नी
कभी-कभार अपनी बहन के रूखे बरताव और घर-परिवार की ऐसी शिकायतें लेकर बैठ जाती,
जिनका मेरे पास कोई हल नहीं होता, उल्टे मैं उसी को अपना व्यवहार ठीक रखने की
सलाह दे बैठता, जिस पर अक्सर वह दो-चार दिन रूठी-सी रहती। मेरी नजर में भाभी बहुत
शान्त स्वभाव की औरत थी। इन आठ-दस सालों में मैंने कभी उसे किसी से आवाज ऊंची
करके बात करते नहीं सुना और न कभी पीठ-पीछे किसी की बुराई करते। मुझसे जितना बन
पड़ता, मैं रामी को समझाने की कोशिश करता, पर न वो मानने को तैयार होती और न मैं
उससे सहमत हो पाता। थक-हार कर वह अपने भाग्य को कोसने बैठ जाती और मैं उठकर अपने
और काम में लग जाता।
***
घर में पहली बार जब बंटवारे की बात उठी तो हम दोनों
भाइयों के लिए यह तय करना मुश्किल हो गया कि घर में रहने और बच्चों के पालन-पोषण
में जो साधन-सुविधाएं बनी हैं, उन्हें कैसे अलग बांटा जा सकता है। हरेक के पहनने
के कपड़े जूते बेशक अपने हों, लेकिन ओढ़ने-बिछाने, खाने-पीने और रहने की सुविधाएं तो
सब के लिए साझे में ही रही हैं, उनमें बंटवारा करना क्या कोई आसान काम है? दोनों
भाइयों के बढ़ते परिवार को देखते हुए इस बात का अहसास तो मुझे था कि देर-सबेर हमें
एक-दूसरे से अलग तो होना हो शायद, लेकिन पिताजी के साथ रहते हमें इस पर विचार करने
की जरूरत कम ही लगती थी। दो परिवारों के हिसाब से कुछ अतिरिक्त साधन जुटाने की
सोच किसी की रही भी नहीं। जबकि अलग होने के लिए रामी का दबाव बराबर बढ़ता जा रहा था। हालांकि दोनों बहनों के डेढ़-दो
साल के अंतर से एक के बाद दूसरा बच्चा होने की प्रक्रिया से दोनो परिवारों के अलग
होने की प्रक्रिया को थोड़ा विराम भी लगा, लेकिन जिस तरह रामी के व्यवहार में जिस
तरह अधैर्य बढ़ता जा रहा था, उसका असर बच्चों पर भी पड़ने लगा था।
घर
में दोनों भाइयों के कुल सात बच्चे थे – भोजराज के तीन बेटे और एक बेटी, जबकि
मेरी दो बेटियां और एक बेटा। भैया के दो बड़े लड़के बारह-तेरह की उम्र पार करते ही
रोजगार के लिए ताऊ जी के लड़कों के साथ कलकत्ता चले गए थे, जबकि मेरे तीनों बच्चे
परिवार के साथ ही थे। घर के बीच आंगन के चारों ओर गोबर की दीवारों से से लिपे-पुते
तीन आसरे (झौंपड़े), एक तिकोनी छतवाला ओरा, एक बुखारी, एक अनाज की कोठी और आंगन में
प्रवेश करने के अंदरूनी द्वार के दोनों ओर सीने की ऊंचाई जितनी दो भींत थी, जिन पर
सफेदी से मांडणे बने हुए थे। यह दरवाजा लकड़ी की पट्टियों वाली एक किवाड़ी से बंद
रहता, जिससे कोई गाय या जानवर सीधे आंगन में न घुस जाए। आसरों और ओरे की छत
लकड़ियों और पुआल से छजी हुआ करती थी। बाद के बरसों में ओरे पर तो टीन की छत बन गई
लेकिन आसरों पर वही छाजन वाली छत बनी रही। जिससे गर्मी में आसरे खूब ठंडे रहते थे।
घर के पूर्वी भाग में एक छोटा पानी का कुंड और उसी के पास छप्पर डालकर पानी का
परिंडा बनाया गया था, जिसमें आठ-दस घड़े और मटकियां भरी रहती थीं। मैं जब भी कुएं
से पानी की पखाल लेकर आता, इसी कुंड में खाली कर दिया जाता, जिसे जरूरत के मुताबिक
घड़ों और मटकियों में पानी निकालकर रख लिया जाता।
दोनों
परिवार रहते बेशक एक ही आंगन में हों, लेकिन मां ने दोनों बहनों को एक-एक आसरा
शुरू में ही बांट दिया था। तिकोनी छत वाला ओरा खुद मां के पास था, जिसमें घर का जरूरी
सामान, ओढ़ने-बिछाने के गद्दे-रजाइयां-कंबल, बड़े बर्तन, बाजोट, चटाइयां, तिरपाल और रोजमर्रा
के उपयोग की बहुत-सी छोटी-मोटी चीजें रखी रहती थीं। मां के गुजरने के बाद इस साज-सामान
को संभालने की जिम्मेदारी भाभी पर आ गई थी। मां के बाद यही ओरा भैया-भाभी का
शयनकक्ष हो गया, जबकि मैं और रामी अपने आसरे में ही सोते थे। ओरा भाभी के पास आ
जाने से उनका आसरा घर की तीनों लड़कियों के पास आ गया। वे उसी में हिलमिलकर रहती
थीं। और इस तरह कुछ बंटवारा तो अनौपचारिक रूप से पहले ही हो चुका था। हालांकि
सामान के उपयोग को लेकर किसी पर कोई पाबंदी नहीं थी, लेकिन किसी नयी चीज के लिए पूछकर
काम में लेना रामी को कम ही रास आता था। बुखारी और अनाज की कोठी के बीच आंगन के
दक्षिणी छोर पर बना जो बड़ा-सा आसरा था, वह घर की रसोई के रूप में काम आता था। उसी में
एक तरफ आटा पीसने की चक्की थी, जिस पर दोनों बहुएं और लड़कियां घर की जरूरत का आटा
पीस लेतीं। उसी में खाने-पीने का सामान रखने की ओबरी और एक ओर चूल्हा-चौका था। यह
चूल्हा सवेरे से दोपहर तक और फिर शाम से रात तक जलता रहता, जिस पर दिन भर
कुछ-न-कुछ बनता-पकता रहता। घर के मुख्य द्वार के पास ही बैठक का बड़ा आसरा था,
जिसे हम गढसाळ कहते हैं। उसी के आगे एक हाथ ऊंची बड़ी-सी चौकी है, जो त्यौहारों और
विशेष अवसरों पर गांव के लोगों की सामूहिक बैठक या रियाण के लिए काम आती है। सर्दी
के दिनों में तीनों लड़कियां अक्सर रसोई के आसरे में ही सोना पसंद करती थीं, जो
अपेक्षाकृत गरम रहता था। भाई का छोटा बेटा चंदू और मेरा छुटकू केशव दादा के लाड़ले
पोते होने के कारण अमूमन उन्हीं के पास रहते थे। घर में अनायास और अनौपचारिक रूप
से बनी यह व्यवस्था मुझे इतनी अच्छी और अनुकूल लगती थी कि इसके चलते अलग घर
बनाने की बात कभी मेरे खयाल में ही आई ही नहीं।
घर के
उत्तरी भाग में मुख्य द्वार के एक खंदे से शुरू होकर घर के चारों ओर जो कांटेदार
बाड़ है, वह पीढ़ियों की कमाई की तरह इस घर को एक इकाई में बांधे रही है। घर को
चारों ओर से गोलाई में घेरे हुए यह बाड़ उत्तर दिशा में एक जगह पर दो मजबूत मोढ़ों पर
आकर खत्म होती है, जहां हमारे बचपन में कांटेदार झाड़ियों को आड़ी बाती में
गूंथ-बांधकर बनाया गया बड़ा-सा फलसा होता था, जो एक मोढ़े से स्थाई रूप से बंधा
होता और दूसरी तरफ से खुलता था। बाद के वर्षों में इस फलसे को हटाकर लोहे की पत्तियों
और एंगिल से बनी एक खिड़क लगवा ली थी, जो खोलने बंद करने के लिहाज से आरामदायक थी।
तब के मोढ़ो की जगह अब ईंटों से बने दो खंदों ने ले ली है, जिनमें से एक खंदे में हुक
वाले एंगिल चुनवाकर खिड़क के फ्रेम को उन पर टिका दिया गया है।
हम दोनों भाइयों की शादी के बाद के इन वर्षों
में दोनों बहनों के बीच छोटी-छोटी घरेलू बातों को लेकर मन-मुटाव और कहा-सुनी इस
कदर बढ़ गई थी कि उनका साथ रहना और साझे में निर्वाह करना कठिन होता जा रहा था। मां
के गुजर जाने के बाद तो कोई बड़ी-बूढ़ी रही भी नहीं, जो उनके बीच तालमेल बनाए रख
पाती। जब दोनों बहनों के बीच का विवाद घर के बाहर गांव की औरतों के बीच चर्चा का
विषय बनने लगा तो गांव की बड़ी-बूढ़ियों ने पिताजी को यही राय दी कि अब दोनों बेटों
को अलग-अलग बसा देने में ही सार है।
कठिनाई
यह थी कि इस एकल घेरे में बंधे घर को दो हिस्सों में बांटना पड़े तो किसके हिस्से
में क्या और कितना दिया जाए कि कोई विवाद न हो। आंगन के चारों ओर बने आसरे और बाकी
सुविधाएं बेशक बांट ली जाएं, लेकिन पिताजी अपनी बैठक समेत थे शेष जीवन इसी आंगन
में पूरा करना चाहते थे। खेती के लिए जो जमीन थी, उसे दो साल पहले ही अनौपचारिक
रूप से दोनों भाइयों ने आपस में आधी आधी बांट ली थी और वह पिताजी के ही नाम थी। घर
में भी जो आसरे जिसके पास थे, वे यथावत बने रहे। बस चूल्हा-चौका अब तक शामिल था,
जिसे अलग होना था और कुछ घरेलू सामान, ताकि दोनों के लिए बुनियादी सुविधाओं का
इंतजाम हो सके। गांव के बड़-बुजुर्गों ने काफी नाप-जोख के बाद यही सुझाव दिया कि जब
तक एक भाई के लिए दूसरा नया घर तैयार हो, तब तक दोनों इसी बाड़ के घेरे में बने घर
को आधा-आधा बांटकर गुजारा कर सकते हैं। बस घर की शोभा को बचाए रखने के लिए आंगन के
बीच कोई दीवार न खड़ी की जाए। घर में मौजूदा आसरे बांटकर दोनों परिवार एक ही आंगन
पर रह सकें, तो इसी में घर की शान बची रहेगी। चार आसरों में से पूर्वोत्तर भाग
वाला एक आसरा, ओरा और बुखारी भैया के परिवार के लिए तय की गई और दक्षिण-पश्चिम
वाले दो आसरे और अनाज की कोठी मेरे हिस्से में। इसी तरह खेती की जमीन और चार
दुधारू गायों में आधी-आधी बांटने के बाद घर की बैठक और बाखळ फिलहाल साझे में ही
रखी गई। खेत जोतने और कुएं से पानी लाने के लिए एक ही सांढ थी, उसे बांटना संभव
नहीं था, लेकिन खेत जोतने के लिए भूरी गाय का बछड़ा, जो अब पूरा बैल बन गया था और पिछले
दो साल से हल जोतने में काम देने लगा था, उसे मैंने सहर्ष कुबूल कर लिया।
ये सब
बातें अनौपचारिक रूप से तय करने के बाद गांव के मुखिया मंगलाराम ने आंगन के बीच दो
बराबर हिस्सों में बंटे घरेलू साज-सामान की ओर इशारा करते हुए बंटवारे में छोटे
का हक पहले मानते हुए मुझसे ही पूछा था – “हां बेटा भीमराज, तुम घर के छोटे और
लाड़ले बेटे हो, सो बंटे हुए सामान में से अपना हिस्सा चुनने का पहला हक तुम्हारा
ही बनता है, तुम अच्छी तरह देख-समझकर अपना हिस्सा चुन लो।"
इस ऐलान
के साथ ही आंगन में एकबारगी चुप्पी–सी छा गई। मुखिया जी की इस घोषणा के बावजूद
मेरी नजर सामान के किसी हिस्से की तरफ नहीं गई, बल्कि जमीन में और गहरी गड़ गई।
सभी लोग मेरे बोलने का इंतजार कर रहे थे, लेकिन मेरे लिए बोलना तो दूर, सिर सीधा
कर सांस लेना भी दूभर हो रहा था। कुछ देर तक मैं समझ ही नहीं सका कि कौन-क्या कह
रहा है और मुझे क्या करना है ?
“- हां
बोलो भीमराज, इसमें संकोच कैसा?” आंगन में बैठे बाकी लोगों में से कोई बोला था –शायद
हम दोनों भाइयों का हितैषी और हमदर्द काका किसनाराम। पहली बार गांव और परिवार के
लोगों के बीच मुझे इस तरह की दुविधापूर्ण स्थिति का सामना करना पड़ रहा था। मेरी
पत्नी रामी और भाभी गांव की औरतों के बीच कहीं खो सी गई थी। चाचा रघुनाथराम ने
मेरा कंधा हिलाते हुए फिर मुझसे बोलने का आग्रह किया। आग्रह करते हुए जब उन्होंने
मेरी ठुड्डी पकड़ कर सिर सीधा किया, तो वे अचंभे में मेरा चेहरा देखते ही रह गये।
बड़ा होने के बाद पहली बार मैं अपना दुख छिपाकर नहीं रख सका था और वह आंखों से बाहर
निकल ही आया। वे हक्के-बक्के से मेरा मुंह देखते रह गये।
“- अरे
बावले, इसमें जी छोटा करने की कौन-सी बात है? जब दो भाइयों का परिवार बढ़ता है, तो
घर का बंटवारा तो हुआ ही करता है।" उन्होंने मेरी पीठ सहलाते हुए सांत्वना
देने का प्रयत्न किया।
कंधे
पर रखे अंगोछे से अपनी आंखें पौंछते हुए एकबारगी मेरी नजर सबके बीच बैठे भाई और
पिताजी पर गई। वे सिर नीचा किये गुमसुम-से बैठे थे। उनकी यह दशा देखकर मैं अंदर-ही-अंदर
सिहर गया और एकाएक अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ। आंगन में बैठे लोग कुछ समझ-बोल पाते,
उससे पहले ही मैं आंगन को पार करता हुआ बाहर बैठक की तरफ निकल आया। किसना और
दो-तीन जने मुझे आवाज लगाते हुए पीछे आ गए थे। वे बार-बार वापस आंगन में चलने के
लिए आग्रह करते रहे, लेकिन मैं उसी मनोदशा में दुबारा सब के बीच जाने की हिम्मत
नहीं जुटा पाया। मैंने किसी तरह किसना को थोड़ी देर आराम करने के लिए अपने को अकेला
छोड़ देने का आग्रह किया और उन्हें वापस भेज दिया। गांव के लोग आंगन में देर तक आर्द्र
स्वर में हम दोनों भाइयों के आपसी लगाव की बातें करते रहे, लेकिन जब काफी समय
गुजर जाने के बाद भी मैं आंगन में नहीं लौटा तो मुखिया और बड़े-बुजुर्गों ने भोजराज
को ही इस बात के लिए राजी किया कि वही दो हिस्सों में से एक अपने लिए चुन ले।
भोजराज लोगों का आग्रह टाल तो नहीं सके, लेकिन जब वे अपना हिस्सा चुनने के लिए
उठे तो एक हिस्से में से कुछ बड़े बर्तन और रजाई-कंबलें निकालकर दूसरे हिस्से में
रख दीं और अपने लिए वही छोटा हिस्सा चुन लिया था। गांव के लोग बार-बार कहते रहे
कि दोनों हिस्सों को एक-समान रहने दे, वे किसी के साथ नाइंसाफी नहीं करना चाहते,
लेकिन भाई ने वही किया जो उन्हें जरूरी लगा और सबके सामने हाथ जोड़कर बिना कुछ
बोले अपनी जगह बैठ गए। और इस तरह मेरी नजर में जो नहीं होना था, वह हो गया।
***
यह बात समझ पाना बहुत मुश्किल है कि उस दिन घर में
जो कुछ बँटा, उसमें किसे क्या हासिल हुआ और किसने क्या गंवा दिया, इसका सही-सटीक
लेखा-निवेड़ा भला कौन-क्या कर सकता है ?!
बँटवारे के बावजूद उस दिन के बाद रामी कभी उस घर
में चैन से नहीं रह पाई। वह बात-बात में कभी भाभी से या कभी बच्चों से उलझ जाती।
आये दिन के बढ़ते तनाव को देखते हुए भोजराज ने एक दिन घर के पूर्वी हिस्से वाले
बाड़े से पशुओं का घास-चारा हटाकर उसे साफ करवा लिया और उसमें नया आसरा बनाने का
काम शुरू करवा दिया। कुछ ही दिनों में उस बाड़े की जमीन पर एक आसरे, ओरे, बुखारी और
उनके आगे खुले आंगन का खाका उभर आया। गोबर से बनती ओरे-आसरे की दीवारें कुछ ही
दिनों ऊंची उठती हुई मेरे सिर की ऊंचाई तक पहुंच गई और दीवारों के सूखने के साथ ही
गोबर की पतली परत से उन्हें लीपकर आगे का काम भोजराज के जिम्मे कर दिया गया।
दीवारें तैयार होने तक भाभी और घर की लड़कियां जी-जान से इस काम में जुटी रहीं,
लेकिन रामी इस काम के प्रति उदासीन ही बनी रही। नये घर के इस निर्माण में काम आने
वाली चिकनी मिट्टी, दीवारों की सफेदी के लिए जिप्सम, छत के लिए बल्लियां, लकड़ी,
रस्सी-डोरिये और पानी के इंतजाम में दोनों भाई और भाई का बड़ा बेटा और छोटा चंदू बराबर
साथ लगे रहे। दीवारें तैयार होने के बाद पिताजी भी छाजन और लकड़ी का काम करनेवाले
कारीगरों के साथ खड़े रहे। पिताजी की सलाह पर हमने घर के उत्तरी भाग में बाहरी
दरवाजे के पास बैठक के लिए एक छांद भी तैयार करवा ली । यह काम उस बरस की होली के
तुरंत बाद शुरू हुआ था और अगले चार-पांच महीनों में यह नया घर बनकर तैयार हो गया।
घर
तैयार होने के दौरान एक रात जब मैंने रामी से यह पूछा कि अगर इस नये घर को भाई की
बजाय हम लोग अपना निवास बना लें तो क्या उसे यह अच्छा लगेगा? मेरी इस राय के
पीछे खास वजह यही थी कि पिताजी भोजराज के साथ रहने के इच्छुक थे और इस उम्र में उन्हें
अपनी बैठक से अलग करना उचित नहीं था। भाई का परिवार यों भी मेरे परिवार से बड़ा था
और खास अवसरों पर होने वाली गांव की बैठकें भी हमारी चौकी पर ही होती थीं, ऐसे में
भोजराज के परिवार का उसी घर में बने रहना अधिक सुविधाजनक और पूरे परिवार के हित
में था। रामी शुरू में तो इस बात के लिए राजी नहीं हुई और मैंने भी उसके कान में
बात डालकर उसे विचार करने के लिए एक-दो दिन का समय दे देना बेहतर समझा। अपनी बात
कहने के साथ अंत में मैंने यह भी जोड़ दिया कि अगर हम ऐसा कर लेंगे तो भाई-पिताजी
को तो अच्छा लगेगा ही, गांव में हमारी इज्जत भी बढ़ेगी। पति-पत्नी के रूप में
साथ रहते हुए मैंने पहली बार इतना सोच-विचार कर रामी से यह सलाह मांगी थी और यह बात
उसे अच्छा भी लगी। उसने सोच-विचार कर तीसरी रात मेरी राय के अनुरूप अपना फैसला
सुना दिया। रामी के तैयार होते ही, सारी बातें सहजता से सुलझ गईं। मैंने जब भाई और
पिताजी को हम दोनों की राय से अवगत कराया तो उन्हें बहुत अच्छा लगा। भाभी और बच्चे
भी हमारी राय से सहमत थे।
रामी जब
इस बात से सहमत हो गई कि नये घर में उसी के परिवार को जाना है, उस दिन से ही उसने नये
घर को अपने ढंग से बनाने और उसे अंतिम रूप देने का काम शुरू कर दिया था। घर का
सारा काम पूरा होते होते उस मौसम की बरसात के दिन शुरू हो गए थे और तब घर से ज्यादा
जरूरी खेत की बुवाई और चौमासे के दूसरे काम हो गए हो गये, इसलिए नये घर में प्रवेश
का काम आसोज में नौरात्रा स्थापना तक टल गया था। इस दौरान रामी को भी उसमें अपनी
जरूरत के हिसाब से कुछ बदलाव करने का समय मिल गया और आखिर नौरात्रा आरंभ होने के
साथ ही मेरे परिवार ने नये घर में विधिवत प्रवेश कर लिया।
हमारे
नये घर में निवास के साल भर बाद ही पिताजी की बीमार हो गए और कई दिनों तक उपचार
लेते रहने के बावजूद उनका स्वास्थ्य दिनों-दिन गिरता ही चला गया। आखिर एक दिन
वे सदा के लिए हमें छोड़कर चले गये। पिताजी के देहान्त के बाद हम दोनों भाइयों ने
अपनी अपनी गृहस्थी की जिम्मेदारियां अपने बूते पर संभाल ली थी, लेकिन दोनों की
पारिवारिक स्थितियों और जीवन-शैली में समय के साथ यह अंतर बढ़ता जा रहा था, जिस पर
मेरा कोई वश नहीं था।
इस नये
घर में आने के बाद अगले पांच सालों में भाई भाभी के सहयोग से दोनों बेटियों के
विवाह की जिम्मेदारी तो जरूर पूरी हो गई, लेकिन इसी बीच रामी को अंदर-ही-अंदर
जाने क्या घुन खाये जा रहा था कि उसकी तबियत दिनो-दिन बिगड़ती ही गई। कमजोर भी
बहुत हो गई थी। आखिरी बार जब उसे बुखार आया, तब किसी ने सोचा भी नहीं था कि वह उसी
के साथ सदा के लिए विदा हो जाएगी। दोनों बड़ी लड़कियां उन दिनों ससुराल में ही थीं।
इस नये घर में आने के बाद हमारी एक बेटी और हुई थी, जो उस वक्त महज तीन साल की थी
और बेटा केशव तेरह का। केशव था भी इतने भोले मन का कि कोई उसे बहला-फुसलाकर चाहे
जहां हांक ले जाए। ऐसे कठिन समय में रामी का साथ छोड़ जाना वाकई मेरे उस घर-संसार
के लिए ऐसा आघात था, जिसका सर्वग्रासी असर इन्हीं आने वाले सालों में घटित होना
था।
रामी की गैर-मौजूदगी में इन छोटे और अपरिपक्व बच्चों
की परवरिश वाकई मेरे लिए आसान नहीं थी। भाभी अपने बच्चों के साथ इन दोनों की रोटी-पानी
का ध्यान तो रख लेतीं, लेकिन छोटी बच्ची की देखरेख सिर्फ रोटी-पानी तक सीमित
नहीं थी। रामी के गुजरने के कुछ अरसे बाद एक दिन बच्चों के ननिहाल से उनके मामा-मामी
मिलने आ गए और उन्होंने जब केशव और छोटी बेटी को अपने साथ ले जाने की बात कही तो
पहली नजर में मुझे वह इन छोटे बच्चों के हित में ही लगी। इन छोटे बच्चों को अपने
साथ ले जाने के पीछे उनकी क्या मनो-वांछा रही, यह मैं नहीं जान सका और न कभी उन
पर संदेह ही किया। वे यही तो कहकर गए थे कि बीच-बीच में बच्चों को लेकर आते
रहेंगे, लेकिन अगले तीन साल बीत जाने के बाद भी जब बच्चे वापस लौटकर नहीं आए, तो
मुझे थोड़ी चिन्ता-शंका-सी होने लगी। कई समाचार भिजवाए, लेकिन उन्होंने उनकी कोई
गिनार नहीं की। लोगों के कहे अनुसार मुझे भी कुछ ऐसा ही लगने लगा कि इसके पीछे बच्चों
के मामा-मामी का अपना कोई स्वार्थ जरूर पनप रहा है। लेकिन मेरे पास कोई विकल्प
नहीं था। मैंने दो-तीन बार भोजराज के सामने अपनी चिन्ता जाहिर भी की, लेकिन वे भी
अफसोस जताकर रह गए। वे अमूमन ऐसे मसलों को आनेवाले समय पर छोड़ देते, जो कभी नहीं
आता। बच्चों के मामा-मामी के साथ भाभी के रिश्ते इन सालों में और भी कड़वे हो गये
थे, क्योंकि वे भोजराज की तरह बात को टालती नहीं थी, वह खुलकर बात करना चाहती थी,
लेकिन मेरे साले, जो भाभी के चचेरे भाई थे, अपनी इस बहन से सीधे बात करने से
कतराते थे। बच्चों के उनके पास चले जाने के बाद मेरे पास अलग घर जैसा कुछ बचा भी
नहीं था। भाभी ने मुझे सीधे तो कभी कुछ नहीं कहा, लेकिन वह घर में अपने बेटों से जरूर
कहती थी कि ‘उन लोगों की नज़र इन बच्चों के हिस्से की पुश्तैनी जमीन पर टिकी
है, न वे केशव को कभी लौटकर आने देंगे और न उसे इसका कोई उपयोग करने देंगे। जिस
दिन मेरे इस भोले देवर की आंख बंद होगी, उसकी इस विरासत को वे बाहर की बाहर ही बेच
खाएंगे !’ आज यही चिन्ता और आशंका मेरे सामने एक सवाल बनकर खड़ी है और मुझे इससे
बचने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा। अपने बिछड़े बच्चों को लेकर मन में बस यही एक मलाल
रह गया है कि मैंने उन्हें इस तरह क्यों किसी का बंधक क्यों बन जाने दिया, मैं
समय पर चेता क्यों नहीं ? क्यों यह जीवन-सार खुद मेरे लिए ही अकारथ-सा हो गया
है?
***
-
नंद भारद्वाज
71/247, मध्यम मार्ग,
मानसरोवर,
जयपुर – 302020
Good
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeleteबेहतरीन कहानी
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