Tuesday, May 11, 2021

 


मुक्तिबोध का काव्य-नायक

·        नंद भारद्वाज

जानन माधव मुक्तिबोध के संपूर्ण काव्‍य-लेखन में एक अनवरत क्रियाशील व्यक्तित्व की उपस्थिति साफ दिखाई देती है - एक ऐसा व्यक्तित्व जो अपने दीखत आकार, प्रकृति और क्रियाशीलता में नितान्त सामान्य और सहज होते हुए भी अपने रचनात्मक प्रभाव में असाधारण और विशिष्‍ट है। वह किसी श्रम को छोटा और हेठा नहीं मानता। उसकी तुलना आप राह चलते किसी भी पढ़े-लिखे जागरूक व्यक्ति या उस श्रमिक से कर सकते हैं, जो अपनी निजी प्रकृति में परिश्रमी, सहज और ईमानदार है। अपने अस्तित्व और ईमान को बनाए रखने के लिए वह कोई भी कार्य करने को प्रस्तुत रहता है, जो अपने प्रति किसी और के अन्याय को सह बेशक लेता हो, अपने संज्ञान में खुद किसी के साथ अन्याय नहीं करता और न किसी अन्य के साथ होते अन्याय पर मूक दर्शक बना रहना पसंद करता है। यही वह नायक है जो मुक्तिबोध की सभी कविताओं के केन्द्र में सक्रिय और बेचैन दिखाई देता है और जो अपने समय और आत्म से संघर्ष करता हुआ इन कविताओं को नयी अर्थ-गरिमा प्रदान करता है।

 

     इस सामान्य परिचय के अतिरिक्त मुक्तिबोध के इस काव्य-नायक की कोई शास्त्रीय व्याख्या यहां अनावश्‍यक है - यहां नायक की वह बुनियादी अवधारणा ही उन शास्त्रीय अपेक्षाओं से रहित है, जो नायक को कविता या जीवन में कोई विशिष्टता प्रदान करती हो, और फिर इस काव्य-नायक के पास तो उसकी समाज-सापेक्ष जीवनचर्या में ऐसा कुछ भी विशिष्ट या विलक्षण नहीं है, जिसे शास्त्रीय दृष्टि से महत्वपूर्ण या उदात्त कहा जा सके। जो अपने को विशिष्ट और विलक्षण कहते हैं - अपनी ही दृष्टि में महत्वपूर्ण, उनसे मुक्तिबोध का यह नायक दो-टूक शब्दों में साफ कहता है - 

           मैं तुम लोगों से इतना दूर हूं

           तुम्हारी प्रेरणाओं से मेरी प्रेरणा इतनी भिन्न हैं

           कि जो तुम्हारे लिए विष है, मेरे लिए अन्न है।

                                        (चांद का मुंह टेढ़ा है, पृ. 104) 

बल्कि जब ये विशिष्टउसे छोटा और हेठा समझकर उसकी उपेक्षा करते हैं तो वह अपने पूरे आत्म-सम्मान के साथ उन्हें यह बता देना भी ज़रूरी समझता है कि - 

           मैं अपनी सार्थकता में खिन्न हूं

           निज से अप्रसन्न हूं

           इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए

           पूरी दुनिया साफ करने के लिए मेहतर चाहिए

           वह मेहतर मैं हो नहीं पाता

           पर, रोज कोई भीतर चिल्लाता है

           कि कोई काम बुरा नहीं

           बशर्ते कि आदमी खरा हो

           फिर भी मैं उस ओर अपने को ढो नहीं पाता।

                                                                 ( वही, पृ. 104-105)      

और निश्‍चय मानिये, उसका यह आत्म-स्वीकार उन विशिष्टों के मन-मस्तिष्क में एक शर्म और दहशत भी पैदा करता है, जो जानते हैं कि वे उसी के श्रम पर जिन्दा हैं और उसकी इस दुर्दशा के लिए वही जिम्मेदार भी। 

    मुक्तिबोध का यह काव्य-नायक एक खास तरह की समाज-व्यवस्था में जीता हुआ - उसका समग्र विश्‍लेषण करते हुए इस नतीजे पर पहुंचता है कि यह शोषण की सभ्यताहै और वह उस व्यवस्था के विरुद्ध वृहत्तर वर्ग के हित में लड़े जाने वाले क्रान्तिकारी संघर्ष में अपनी कारगर भूमिका तय करता है। कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी ने इस व्यक्तित्व के बारे लिखा है - ‘‘कविता के केन्द्र में एक दृढ़ व्यक्तित्व है, लेकिन वह अपने आपको मानवीय सम्पर्क से बचाता, अपनी अद्वितीयता और परमता को सुरक्षित करने में आत्म-तुष्ट व्यक्तित्व नहीं है। वह ऐसा व्यक्तित्व है जो ललकार और उत्साह में तादात्म होता है, बल्कि वह अपनी परिभाषा के लिए मनुष्य के नितान्त अकेलेपन को नहीं, उसके साहचर्य और बिरादरीपन को आधार बनाता है।’’ मुक्तिबोध का यह व्यक्तित्व चूंकि ऐसे खुले, ईमानदार और आत्म-सजग कवि का काव्य-नायक है, जिसके बारे में कवि ने कोई भी बात, कोई खासियत या खामी छुपा-बचा कर नहीं रखी है। 

    अमूमन ऐसा देखा गया है कि सभी रचनाकारों का काव्य-नायक या कथा-नायक प्रकारान्तर से उस लेखक-विशेष के जीवन-व्यवहार, उसके विश्‍वासों, सिद्धान्तों और क्रिया- कलापों का ही प्रतिरूप हुआ करता है, लेकिन यह कतई जरूरी नहीं कि उसी लेखक का यह पात्र हर बार वही एक-सरीखा हो, बल्कि कई बार लेखक की एक ही रचना में उसके सिद्धान्तों, जीवन-व्यवहार और उसकी मूल-प्रकृति से मेल खाते ऐसे अनेक पात्र भी हो सकते हैं, जो उसके व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं का प्रतिनिधित्व करते हों। इस बात को कथा-शिल्पी शरतचन्द्र चटर्जी के पात्रों की परिकल्पना से बखूबी समझा जा सकता है। किन्हीं अर्थों में यह बात मुक्तिबोध पर भी उसी रूप में लागू होती है। उनकी सभी रचनाओं में उनका काव्य-नायक अपनी तमाम खूबियों या खामियों के साथ कम ही प्रकट हुआ है, बल्कि अलग-अलग रचनाओं में रूपायित उस व्यक्तित्व के अंशों को जोड़कर ही उनके इस नायक की ठीक-सी प्रतिमा खड़ी की जा सकती है। 

      मुक्तिबोध की कविता की मूल प्रकृति आत्मसंघर्षपरक है, इसलिए उन्होंने अपनी कविताओं में इसी काव्य-नायक के आत्म-संघर्ष को उभार कर सामने रखा है। साथ ही उनकी कविताओं में जहां व्यापक जन-संघर्ष और वह भी निर्णायक दौर का संघर्ष नाटकीय धरातल पर अभिव्यक्त हुआ है, वहां उन्हें फैंटेसी या स्वप्न-कथा का सहारा लेना पड़ा है और वहां यह काव्‍य-नायक एक मुक्तिकामी स्‍वप्‍नद्रष्‍टा के रूप में सामने आता है। कोई आश्‍चर्य नहीं कि समाजवादी यथार्थवाद के कुछ अतिरिक्त आग्रही आलोचक इसी बात को लेकर उन पर अयथार्थवादी शिल्प अपनाने का आरोप लगाएं। इस तरह के आरोपों का उत्तर डॉ. नामवर सिंह उन्हें मुक्तिबोध के ही शब्दों में बखूबी दे चुके हैं कि ‘‘यथार्थवादी शिल्प और यथार्थवादी दृष्टिकोण में बुनियादी अन्तर है। यह बहुत सम्भव है कि यथार्थवादी शिल्प के विपरीत जो भाववादी शिल्प है - उस शिल्‍प के अन्तर्गत जीवन को समझने की दृष्टि यथार्थवादी रही हो।’’ प्रकारान्तर से स्वयं मुक्तिबोध भी कला के शिल्प और उसकी आत्मा में अन्तर करने पर विशेष बल देते हैं। 

     बहरहाल, ‘चांद का मुंह टेढ़ा हैऔर अंधेरे मेंजैसी लंबी कविताओं में मुक्तिबोध ने जिस व्यापक नाटकीय धरातल पर निर्णायक दौर के जन-संघर्ष को अभिव्यक्ति दी है, वह उनके काव्य-नायक की गहरी सामाजिक आस्था और उसकी वृहत्तर आकांक्षाओं की चरम परिणति का पूर्वाभास देती है। लेकिन इस परिणति तक पहुंचते हुए काव्य-नायक को एक बहुत बड़े ऊजड़ भटकाव और उलझावभरी यात्रा तय करनी पड़ती है। कई बार संघर्ष के दौरान वह थककर पस्त होने की हालत तक जा पहुंचता है - वह यह तय नहीं कर पाता कि इस अनिश्चितता और इस अनिर्णय की स्थिति से कैसे उबरा जाय। उनकी कविताओं की बजाय संकल्प-विकल्प का यह रूप मुक्तिबोध की कहानियों में अधिक मुखर होकर सामने आया है। काव्य-नायक और कथा-नायक के जीवन-संघर्ष के समानान्तर ऐसे अनेक पात्र हैं, जो न केवल टूट-बिखर जाते हैं, बल्कि कहीं-कहीं तो वे परिस्थितियों के सम्मुख हार खाते भी दीखते हैं, उनके यही पात्र समाज में विद्रूप बनकर रह जाते हैं - विद्रूपकहानी का सर्वटे और क्लॉड ईथरलीका प्रतीक पात्र ऐसे ही उदाहरण हैं, याकि कुछ भिन्न अर्थ में ब्रह्मराक्षसकविता का प्रतीक-पात्र ब्रह्मराक्षस भी! लेकिन ब्रह्मराक्षस और काव्य-नायक मैंके ऑर्गेनिक चरित्र में एक बुनियादी अन्तर है, और वह अन्तर है उनका भिन्न वर्ग-चरित्र। 

     प्रत्येक समाज-व्यवस्था में दो तरह के वर्ग होते हैं - एक बुनियादी वर्ग और दूसरा गैर-बुनियादी वर्ग। मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था में इन्हीं दो वर्गों की स्थिति को रेखांकित किया जा सकता है - इन बुनियादी वर्गों में पूंजीपति और सर्वहारा हैं, जबकि गैर-बुनियादी वर्गों में मध्य वर्ग और निम्न मध्य वर्ग, जिन्हें दूसरे शब्दों में दरम्यानी तबके भी कहा जाता है। इन दरम्यानी तबकों में पूंजीवादी विकास के साथ-साथ अन्दरूनी तौर पर कई और भिन्न स्तर उत्पन्न होते जाते हैं और उनके बीच तेजी से फैलती एक ऐसी संक्रामक स्पर्धा, जो अन्दर ही अन्दर उन्हें खोखला किये देती है। कालान्तर में वर्ग-संघर्ष की ऐतिहासिक प्रक्रिया के दौरान इस दरम्यानी तबके का अधिकांश इसी अन्दरूनी स्पर्धा में नष्ट हो जाता है और वही व्‍यापक स्‍तर पर सर्वहारा वर्ग में रूपान्‍तरित होता है। इसके विपरीत एक नगण्य-सी संख्या ही पूंजीपति वर्ग में प्रवेश कर पाती है। ब्रह्मराक्षसइसी मध्यम वर्ग का एक टिपिकल चरित्र है, जो अपने मुखर सामन्ती संस्कारों के कारण अपनी ही सीमाओं, अपने ही सीमित दायरों, आकांक्षाओं और अपने ही अन्तर्विरोधों की त्रासदी बनकर रह जाता है, जबकि अपनी निम्न-मध्यवर्गीय आकांक्षाओं, प्रवृत्तियों, लघु लालसाओं और अपने अन्तर्विरोधों से लड़ता हुआ मुक्तिकामी काव्य-नायक अपने को निरन्तर डी-क्लास करता हुआ, खुद को सर्वहारा के व्यापक संघर्ष के साथ मिलाने में कामयाब रहता है। इस काव्य-नायक और ब्रह्मराक्षस के बीच यही एक बुनियादी अन्तर्विरोध है, लेकिन यह वैमनस्यरहित अन्तर्विरोध है, जो भिन्न स्तर पर एक-दूसरे को जोड़े भी रखता है। यही वजह है कि मुक्तिबोध का यह काव्य-नायक इतिहास के प्रति सही वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाते हुए ब्रह्मराक्षस के महत्व और उसके साथ अपनी आन्तरिकता को तो स्वीकार करता ही है, भविष्य में इस साहचर्य को और सार्थक बनाने की ओर भी संकल्‍पबद्ध होता दिखाई देता है - 

            आत्मचेतस् किन्तु इस

            व्यक्तित्व में थी प्राणमय अनबन ....

            विश्वचेतस् बेबनाव !!

            महत्ता के चरण में था / विषादाकुल मन !

            मेरा उसी से उन दिनों होता मिलन यदि  

            तो व्यथा उसकी स्वयं जीकर / बताता मैं

            उसे उसका स्वयं का मूल्य / उसकी महत्ता !

            वह उस महत्ता का / हम सरीखों के लिए उपयोग

            उस आन्तरिकता का बताता मैं महत्व !!

                             (ब्रह्मराक्षस: चांद का मुंह टेढ़ा है, पृ. 16)

       मुक्तिबोध की अधिकांश कविताओं में काव्य-नायक के अतिरिक्त ब्रह्मराक्षस की आकृति सरीखे कुछ ऐसे प्रतीकात्मक आप्तवादी चरित्र और भी हैं, जो प्रकारान्तर से उसी के व्यक्तित्व का विस्तार दीखते हैं, यद्यपि अपनी प्रकृति और आचार-व्यवहार में वे उससे कुछ अलग भी हैं - ओरांगउटांग, काव्यात्मन् फणिधर, मसीहा, रक्तालोक स्नात्-पुरुष (कवि की परम अभिव्यक्ति) आदि इसी तरह के आप्तवादी चरित्र हैं। इनके अतिरिक्त गांधी, तिलक, तॉलस्तॉय आदि आधुनिक युग के ऐतिहासिक व्यक्तित्वों का भी काव्य-नायक के आदर्श चरित्र की निर्मिति में सार्थक प्रयोग हुआ है। इन आदर्श चरित्रों और काव्य-नायक का आपसी संबंध अलग-अलग कविताओं में अलग तरह से व्यक्त हुआ है। कभी काव्य-नायक इन ऐतिहासिक चरित्रों को समझता-समझाता हुआ दिखाई देता है, तो कभी ये चरित्र काव्य-नायक का दरवाजा खटखटाते दिखाई देते हैं। कभी किसी अंधेरे कोने से काव्य-नायक जब यह फटकार सुनता है - 

             अंधेरे कोने में एकान्त

             न जाने किस मास्टर की डांट पड़ रही है -

                   जितना भी किया गया

             उससे ज्यादा कर सकते थे,

             ज्यादा मर सकते थे !

 तो वह उस डांट से कतराता नहीं, न ही कोई सफाई देता है, बल्कि उसे बेहिचक कुबूल करता है और कई बार तो अपनी आत्म-भर्त्सना पर उतर आता है। वह अपनी कमियों और खामियों के लिए खुद को माफ़ नहीं करता और न अपनी परिस्थितियों या सीमाओं की एवज में कोई सुविधा या रियायत मांगता है। अंधेरे मेंकविता में उस मुक्तिकामी कलाकार की हत्या को अपने सामने घटित होते देखकर उसका मन आत्म-ग्लानि से सिहर उठता है -

            सवाल है - मैं क्या करता था अब तक,

            भागता फिरता था सब ओर ! 

और यहीं से उसे सही दिशा का बोध भी होता है -

             फिजूल है इस वक्त कोसना खुद को,

            एकदम ज़रूरी दोस्तों को खोजूं

            पाऊं मैं नये नये सहचर

            सकर्मक सत्-चित्-वेदना-भास्वर !! 

     मुक्तिबोध के इस काव्य-नायक के लिए आलोचकों ने कुछ अतिरिक्त विशेषण भी जुटाए हैं। अंधेरे मेंकविता का विश्‍लेषण करते हुए डॉ. नामवरसिंह ने लिखा है - ‘‘नाटकीय कौशल के लिए कविता का मैंदो व्यक्ति चरित्रों में विभक्त कर दिया गया है: एक है काव्य-नायक मैंऔर दूसरा उसी का प्रतिरूप वह। यह विभाजन वस्तुतः एक नाटकीय कौशल मात्र नहीं, बल्कि इसका आधार आत्म-निर्वासन’ (सैल्फ एलिएनेशन) है। अंधेरे मेंकविता का काव्य-नायक एक आत्म-निर्वासित व्यक्ति है और जिसके आत्म- निर्वासन का प्रतीक है गुहावास।’’ (कविता के नये प्रतिमान) इस बात से कोई इनकार नहीं कि मुक्तिबोध ने अपनी अनेक कविताओं की भांति इस कविता में भी नाटकीय कौशल का सहारा लिया है, तथापि कविता का वहकाव्य-नायक मैंका ही प्रतिरूप है लेकिन यहां ऐतराज काव्य-नायक के लिए लगाए जाने वाले अतिरिक्त विशेषण आत्म-निर्वासनपर खड़ा होता है, क्योंकि यह आत्म-निर्वासन काव्य-नायक ने खुद आगे बढ़कर कुबूल नहीं किया है, बल्कि इसके लिए उसे विवश किया गया है - 

              प्रश्‍न थे गंभीर, शायद खतरनाक भी,

              इसीलिए बाहर के गुंजान

              जंगलों से आती हुई हवा ने

              फूंक मार एकाएक मशाल ही बुझा दी -

              कि मुझको यों अंधेरे में पकड़कर

              मौत की सजा दी !

              किसी काले डैश की घनी काली पट्टी ही

              आंखों में बंध गयी,

              किसी खड़ी पाई की सूली पर टांग दिया गया,

              किसी शून्य बिन्दु के अंधियारे खड्डे में

              गिरा दिया गया मैं / अचेतन स्थिति में।

                           (अंधेरे में: चांद का मुंह टेढ़ा है, पृ. 247) 

इस सूरत में यह कहना कम सही प्रतीत होता है कि उस ‘‘प्रतिरूप से काव्य-नायक डरता है, कतराता रहता है और इसीलिए उसे टालता भी है कि स्वयं उसे अपनी कमजोरियों से लगाव है’’, और फिर ‘‘दोस्तॉएव्सकी के अण्डर-ग्राउंड मैनके समान ही यह व्यक्ति भी बाह्य परिस्थितियों से भय खाकर एक लंबी तिलस्मी खोह में निवास करता है।’’ जबकि वास्तविकता यह है कि अंधेरे मेंका काव्य-नायक किसी बाह्य भय से गुहावास या तिलस्मी खोह की शरण नहीं लेता, बल्कि उसे बाह्य शक्ति ने पकड़कर मौत की सजा दीहै। यह निर्वासन उसका अपना वरण नहीं और इसीलिए यह उसके लिए मौत की यंत्रणा से कम नहीं है। 

      कविताओं की शुरुआत में मुक्तिबोध अमूमन वस्तु-जगत की पेचीदा स्थितियों का भयावह खाका खींचते हैं - गहन सन्देह और अनिश्‍चय के लंबे गहराते काले डैश, चिरथिर अंधेरा, काली जिह्वानुमा सड़कें, कुहरे में उभरती हुई पहाड़ों की आकृतियां और अक्सर इन्हीं के बीच क्रियाशील या प्रश्‍नाकुल काव्य-नायक की उपस्थिति का अहसास - मुझे याद आते हैंकविता में काव्य-नायक कुछ इसी तरह की मनःस्थिति से गुजरता है - 

           अपने मस्तिष्क के पीछे अकेले में

           गहरे अकेले में

           जिन्दगी के गन्दे न-कहे-जानेवाले

           अनुभवों के ढेर का

           भयंकर विशालाकार प्रतिरूप !!

           स्याह !

           देखकर चिहुंकते हैं प्राण

           डर जाते है ं:

                                    (चांद का मुंह टेढ़ा है, पृ. 75) 

लेकिन यह डर तभी तक रहता है जब तक कि काव्य-नायक अपने ही परिवेश-दायरे में सीमित होता है, वह ज्यों ही घनी आबादी वाले भीतरी भागों - मजदूर बस्तियों या गांवों की गलियों की तरफ बढ़ता है, तो वहां जीवन के लिए संघर्ष में जुटे लोगों की कर्मठता और अपने वर्ग के प्रति गहरा लगाव देखकर एक नयी स्फूर्ति प्राप्त करता है - 

            कुछ पलों बाद -

            हिये में प्रकाश-सा होता है

            खुलती हैं दिशाएं, उजला आंचल पसारे हुए

            रास्ते पर रात होते हुए भी मन में प्रात

            नहा-सा मैं उठता किसी नव-स्फूर्ति से

            असह्य-सा स्वयं-बोध विश्‍व-चेतना-सा कुछ

                                           (चांद का मुंह टेढ़ा है, पृ. 80) 

        इस काव्य-संरचना से कोई यह अर्थ निकाल बैठे कि मुक्तिबोध खींच-तानकर अपनी कविताओं और काव्य-नायक को अंततः इस उबरी हुई स्थिति में ले आते हैं, तो यह उनके सोच की सीमा है। मुक्तिबोध की कविताओं में रचाव की सम्पूर्ण प्रक्रिया काम करती है और वही कविता अपने रचनात्मक अनुभव और चरम परिणति में आश्‍वस्त भी करती है। इसके विपरीत जिन रचनाकारों के काव्य-नायकों की परिणति शून्य या हताशा में होती है, वे कविताएं या तो अपनी भाव-भूमि पर अधूरी होती हैं, अथवा भाववादी दृष्टि का शिकार होकर किसी अमूर्तन या निहायत शाब्दिक विलास बनकर रह जाती हैं।

           

***  

मोबा  9829103455

 

 

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