Tuesday, September 23, 2014

कहानी - 'एक अनाम रिश्‍ता'



कहानी
एक अनाम रिश्‍ता

·         नंद भारद्वाज

          
      सवेरे आठ और नौ के बीच उससे अक्‍सर बात हो जाया करती थी। इस वक्‍त तक आलोक घर में ही होता था और फोन भी वही उठाया करता। लेकिन आज देर तक रिंग बजते रहने के बाद जब किसी स्‍त्री ने फोन उठाया तो मैं अचकचा गया। आलोक सामने होता है तो अपना परिचय देने की आवश्‍यकता  नहीं होती, हलो की पहली आवाज से ही हम एक-दूसरे को पहचान लेते हैं। यों आमतौर पर अपनी ओर से बात करते समय अमूमन मैं अपना परिचच देकर ही बात शुरू करता हूं, लेकिन आज जाने कैसे वह क्रम गड़बड़ा गया - मैंने पूछ लिया कि वे कौन बोल रही हैं तो अपना नाम बताने की बजाय उन्‍हीं ने मेरा परिचय पूछ लिया। मैंने तुरंत अपनी भूल सुधारते हुए अपना और अपने शहर का नाम बता दिया। जवाब में हल्‍के-से पॉज के साथ उन्‍होंने नमस्‍कार किया और अपने स्‍वर में विनम्रता लाते हुए बताया कि ‘आलोक तो सुबह जल्‍दी ही शिलांग के लिए गये हैं, शाम तक लौट आएंगे, मैं चाहूं तो शाम को आठ-नौ के बीच फोन करके पता कर लूं।‘ इतनी-सी बात कहकर उसने फोन रख दिया। उसके बात करने के लहजे से तो यही लगा था कि वह मुझे पहले से जानती है, शायद आलोक की पत्‍नी हो या घर की कोई और सदस्‍या। आलोक की मां तो नहीं थी, उनकी आवाज मैं पहचानता हूं। दिन भर इसी बात का बार-बार खयाल आता रहा कि आखिर वे कौन थीं, जिनकी आवाज इतनी जानी-पहचानी-सी लग रही थीं।   
      उसी रात सवा नौ के करीब मैंने फिर लैंड-लाइन पर नंबर मिलाया तो आलोक ने ही फोन उठाया था। मेरी पोस्टिंग और गुवाहाटी आने की खबर पर पहले तो खुशी ही जाहिर की, मुझे बधाई भी दी और हमारे बचपन के दिनों के साथ को याद करता रहा, लेकिन कुछ ही क्षणों में बात करते हुए लगा कि उसका उत्‍साह कुछ ठंडा-सा पड़ने लगा है। मैंने आशंका भांपते हुए तुरंत स्‍पष्‍ट कर दिया कि फलां तारीख को गुवाहाटी पहुंच जरूर रहा हूं, लेकिन मेरे रुकने को लेकर ज्‍यादा चिन्‍ता न करे। शुरू के दो-चार दिन के लिए कहीं ठहरने की व्‍यवस्‍था हो सके तो जरूर कन्‍फर्म कर दे, अन्‍यथा वहां पहुंचकर इंतजाम देख लूंगा। बचपन की दोस्‍ती के नाते यह जिम्‍मेदारी भी उसे सौंप दी कि अपने आस-पास कोई किराये का छोटा मकान हो तो वह भी पता कर ले। उसने पहले तो इस बात पर नाराजगी जाहिर की कि मैं कहीं और रुकने के बारे क्‍यों कह रहा हूं, मुझे और कहीं नहीं, उसके घर ही रुकना है। फिर मेरी चिन्‍ता दूर करते हुए बता दिया कि मकान की व्‍यवस्‍था भी कहीं हो ही जाएगी।     
      अगले दिन दिल्‍ली से राजधानी पकड़ी और तीस घंटे की यात्रा के उपरांत मैं अपने गंतव्‍य के करीब पहुंच गया। शाम पौने छह के करीब जब गाड़ी बादलों से ढंकी तर हरियाली को पार करती एक विशाल नदी पर बने पुल को पार करने लगी तो मेरी आंखें खुली की खुली रह गईं। जीवन में पहली बार  इतनी बड़ी नदी जो देख रहा था। सहयात्रियों ने बताया कि यही ब्रह्मपुत्र है। नदी क्‍या थी, जैसे समंदर ही पसरा पड़ा था। पुल के उस पार दूर नगर की रौशनियां चमक रही थीं। गाड़ी के स्‍टेशन पहुंचने तक अच्‍छा-खासा अंधेरा हो चुका था। गाड़ी प्‍लेट-फार्म पर आकर रुकी तो मैं भी अपना सामान लेकर डिब्‍बे से बाहर आ गया। आलोक थोड़ी दूरी पर खड़ा दिख गया था, मैंने सामान नीचे रख उसे हाथ उठाकर इशारा किया तो वह मुस्‍कुराता हुआ मेरी ओर बढ़ आया। उसे सामने पाकर तसल्‍ली हुई और आगे बढ़कर उत्‍साह से उसे गले लगा लिया। सामान लेकर हम ज्‍यों ही प्‍लेटफार्म से बाहर आए, तो एक सफेद मारुति हमारे पास आकर खड़ी हो गई। आलोक ने आगे बढ़कर दरवाजा खोला और मुझे पीछे बैठने का इशारा किया। अटैची और होल्‍डोल डिक्‍की में रखवाने के बाद हम पीछे की सीट पर बैठ गये। आलोक ने ड्राइवर से असमिया में कुछ बात की जिसका मैंने अनुमान लगा लिया कि उसने गाड़ी सीधी अपने घर लेने की हिदायत दी थी। मैंने उसके भाषा-ज्ञान की सराहना करते हुए कहा, वाह भाई, तुम तो थोड़े ही बरसों में अच्‍छे-खासे असमिया हो गये।"  
      थोडे़ कहां यार, पूरे आठ साल बिताए हैं यहां। जब इन्‍हीं के साथ रहना है तो इनकी बोली-बानी तो सीखनी ही होगी न। यहां धंधा जमा लिया, घर बना लिया तो फिर यहां का होने में क्‍या कसर रह गई? उसने हंसते हुए मेरी बात का जवाब दिया। मैं भी उसकी बात सुनकर मुस्‍कुरा दिया। कार अपनी रफ्‍तार से बाजार के बीच से गुजर रही थी।
      और घर में सब कैसे हैं? कैसा चल रहा है कारोबार? मैंने सहज जिज्ञासावश पूछ लिया था।
      सब ठीक है, बस बाबूजी की तबियत जरूर कुछ नर्म रहती है, मां और भाई-बहन मजे में हैं। तेरी भाभी अभी पीहर गई हुई है कोलकाता, जिसे जाकर लाना है, लेकिन दुकान के काम ने ऐसी हालत बना रखी है कि किसी बात पर अपना बस नहीं रह गया है। सुबह नौ बजे निकलता हूं घर से और रात को नौ-साढ़े-नौ तक सिर उठाने की फुरसत नहीं मिलती। गनीमत है कि तू आज रविवार को पहुंचा है तो तुझे लेने खुद आ सका हूं।" आलोक ने सार रूप में घर और अपने काम की व्‍यस्‍तता के बारे में बता दिया था।        
     मैंने भी बात को हल्‍के परिहास में रखते हुए कह दिया, अब इतना बड़ा कारोबार फैलाया है तो ये सब तो होगा ही भई। हां, पिताजी की तबियत के बारे में जानकर वाकई चिन्‍ता हुई, किसी अच्‍छे  स्‍पेशलिस्‍ट से सलाह ले लो, सब ठीक हो जायेगा।" उसकी बात का संक्षिप्‍त-सा उत्‍तर देकर मैं भी खिड़की से बाहर देखने लगा। गाड़ी अपना रास्‍ता बनाती रफ्‍तार से आगे बढ़ रही थी। आलोक मुझे रास्‍ते  में आने वाली प्रमुख जगहों की जानकारी देता जा रहा था और कोई आधे घंटे की यात्रा के बाद गाड़ी एक बंगले के पोर्च में पहुंचकर खड़ी हो गई। आलोक को अपनी तरफ से उतरते देख मैं भी दरवाजा खोलकर बाहर आ गया।
        अपने पत्र में कभी आलोक ने जिक्र किया था कि उसके पिता ने बेलटोला में किसी असमिया रईस से एक बनी-बनाई कोठी खरीद ली थी। आज उसी कोठी में दाखिल होते हुए मैं चकित था। मैं और आलोक ग्रेजुयएशन तक साथ पढे थे। कॉलेज की पढ़ाई खत्‍म होते ही आलोक के पिता उसे अपने साथ गुवाहाटी ले आए और उसे अपने व्‍यापार में जोड़ लिया। फैंसी बाजार में रेडीमेड गारमेंट्स और कपड़े का एक बड़ा शो-रूम था उनका। आलोक पिता के साथ उसी काम में रम गया।
       उसके बहन-भाइयों और परिवार के लोगों से भी मेरी अच्‍छी वाकफियत थी। लेकिन उसी घर में मौजूद उस स्‍त्री को मैं नहीं पहचान नहीं पा रहा था, जो घर में दाखिल होते समय सामने दिखती रसोई में आधा घूंघट निकाले खड़ी थी। उसे देखकर अनुमान लगया कि शायद फोन पर उसी से बात हुई थी। थोड़ी देर बाद जब वह बैठक में चाय लेकर हमारे बीच आई तो उसे देखकर मैं आश्‍चर्य-चकित रह गया। उसे पहली ही नजर में पहचान लेने में मैंने कोई ग़लती नहीं की। यह सुखदा थी, आलोक के स्‍वर्गवासी भाई गोपाल की पत्‍नी। जिसके बारे में मेरी जानकारी यही थी कि गोपाल की असामयिक मृत्‍यु के बाद वह अपनी मां के पास ही रह रही थी। यह यहां कब आ गई, इसकी जानकारी मुझे नहीं थी।   
        सुखदा को मैं बचपन से ही अपने घर में आते-जाते देखता रहा हूं। उसके पिता सुगनचंद की गिनती हमारे गांव के मौजीज में होती थी। कई साल पहले अपने कारोबार में घाटा लगने के कारण उस सदमे से वे उबर नहीं पाए और असमय ही चल बसे, लेकिन सेठानी ने धीरज और सूझ-बूझ से काम लिया। उन्‍होंने भाइयों की मदद से समय रहते अपनी दोनों बेटियों और एक बेटे को अच्‍छे खाते-पीते घरों में ब्‍याह दिया था। उन्‍हीं में से छोटी सुखदा सेठ लक्ष्‍मीचंद के बड़े बेटे गोपाल को ब्‍याही गई थी, लेकिन दुर्भाग्‍य से वह एक हादसे का शिकार होकर कच्‍ची उम्र में ही स्‍वर्ग सिधार गया। सुखदा उस समय कोई इक्‍कीस-बाईस बरस की रही होगी। उन दिनों अपनी पोस्‍ट-ग्रेजुएशन की पढ़ाई के कारण मैं गांव कम ही जा पाता था। सुखदा वहीं पढ़ी थी, जब मैंने उसे आखिरी बार देखा तब तक वह सीनियर सेकेण्‍ड्री कर चुकी थी। लेकिन तब तक शादी नहीं हुई थी। इतने बरस बाद उसे इस घर में अचानक देखकर भी पहचानने में कोई दिक्‍कत नहीं हुई।
        अगली सुबह जब वह चाय लेकर मेरे कमरे में आई तब उससे मेरी संक्षिप्‍त-सी बातचीत हुई। आलोक तब तक उठा नहीं था। उसके रंग-रूप में बदलाव के बावजूद मेरे लिए वही अपने गांव-गली की सुखदा थी, चेहरे पर वही बाल-छवि अब भी बरकारार थी, जिसकी धुंधली-सी स्‍मृति बची रह गई थी। हल्‍की आसमानी साड़ी और उसी रंग के ब्‍लाउज में निखरती उसकी काया, कलाइयों में उसी रंग की चार-चार चूड़ियां, कानों में पतले-से टॉप्‍स, गले में फकत एक पतली-सी सोने की चैन और पांवों में चांदी की पायलें – बस इतने से श्रृंगार में वह जितनी आकर्षक लग रही थी, उतनी तो कोई बनाव-श्रृंगार करने के बाद भी शायद ही लगती। इतने अन्‍तराल के बाद मिलते हुए उसकी नजर में एक स्‍वाभाविक-सी शर्म और संकोच था। चाय देते वक्‍त उससे हुई बातचीत मे बस इतना भर जान पाया कि वह पिछले चार महीनों से यहीं है। वह इस घर की बहू थी तो उसका यहां होना मुझे स्‍वाभाविक ही लगा।
     अगले दो-तीन दिनों में आलोक के घर के बाकी सदस्‍यों से भी मेरा मेलजोल सहज हो गया। आलोक की छोटी बहन उमा यों तो सुखदा से कोई दस बरस छोटी थी, लेकिन कद-काठी में उससे सवाई ही लगती थी। उमा से छोटा दीपक आठवें दर्जे में पढ़ रहा था। सुखदा का ज्‍यादातर समय घर की रसोई में ही बीतता था। आलोक की मां को जो भी काम करवाना होता, वह उसी को आवाज देती, भले उमा खाली हाथ पास ही क्‍यों न खड़ी हो। मुझे सुखदा के प्रति घर के लोगों का यह बरताव कुछ अटपटा-सा लगा, लेकिन कुछ कहने की गुंजाइश कम ही दीख रही थी। मेरी गहरी पहचान और नजदीकी फकत आलोक तक सीमित थी। मेरा रुकने का इंतजाम उसने अपने घर के गैस्‍ट-रूम में कर रखा था, जो एक तरह से अलग-सा पड़ता था।
      यों पिछले सालों में आलोक से चिट्ठियों के जरिये संपर्क तो बना ही रहा, कभी-कभी फोन पर बात भी हो जाती, लेकिन इस बीच उसके परिवार में जो कुछ घटित हुआ, उसकी जानकारी मुझे कम ही हो पाई। आलोक भी पूछने पर टाल जाता। जब तक उनका परिवार बीकानेर में रहा, उनके घर में मेरा अक्‍सर जाना-आना होता रहा, लेकिन वहां से यहां आ जाने के बाद वह संपर्क काफी कम हो गया था। सुखदा उन दिनों गांव के स्‍कूल में ही पढ़ती थी। मैं उसे गली में अक्‍सर आते-जाते देखता रहता। लड़कियों से मेरी बोल-चाल यों कम ही होती थी, लेकिन स्‍कूल आती-जाती सुखदा जाने क्‍यों मुझे अच्‍छी  लगती और वह भी मुझे देख कर मुस्‍कुरा देती। हमारा एक-दूसरे के प्रति अमूर्त-सा आकर्षण शुरू से ही रहा। एक बार मैंने उसे गली में लड़ते दो सांडों की चपेट में आने से बचा लिया और उस हादसे में मुझे हल्‍की चोट भी आई, लेकिन सुखदा को बचाकर मैंने उसके घर पहुंचा दिया। उसकी मां को जब इस घटना का पता चला तो वह कई दिनों तक मेरे प्रति कृतज्ञता प्रकट करती रही। सुखदा भी उसके बाद जब भी मिलती, उस अहसान और संकोच में डूब जाती। अफसोस भी जाहिर करती कि उसे बचाने में मैं जख्‍मी हो गया। जब मैं बीकानेर चला गया और गांव आना-जाना कम हो गया तो सुखदा से मेरा संपर्क लगभग टूट-सा गया। प्रत्‍यक्ष रूप से न मिल पाने के बावजूद वह मेरी स्‍मृति से कभी लुप्‍त नहीं हुई। 
     यहां गुवाहाटी में पिताजी की तबियत नर्म रहने के कारण इधर कारोबार की सारी जिम्‍मेदारियां आलोक पर आ गई थी। वह सुबह से रात तक उसी में लगा रहता। मैंने जब सुखदा के बारे में उससे पूछा तो उसने अनमनेपन से इतना ही बताया कि भाई के स्‍वर्गवास के बाद वह अपनी मां के पास गांव में ही रहा करती थी, छह महीने पहले जब उसकी मां भी चल बसी तो पिताजी उसे यहां अपने साथ गुवाहाटी ले आए। वह इस घर की बहू है तो और कहीं क्‍यों रहती?
      तो इसकी दूसरी शादी करवा दी होती, कितनी कम उम्र तो रही होगी उसकी? मैंने एक स्‍वाभाविक-सी जिज्ञासा व्‍यक्‍त की।  
      कैसी अजीब बात कह रहे हो, आनंद। बनियों में कहीं देखा है ऐसा रिवाज?
      तुम इतने पढ़े-लिखे हो आलोक, गुवाहाटी जैसे आधुनिक शहर में रहते हो और इतने पुराने खयाल रखते हो? फिर औरों से तो उम्‍मीद ही क्‍या की जाए? 
       सवाल मेरे पढ़े-लिखे या आधुनिक होने का नहीं है दोस्‍त, जब तक घर के बाकी लोगों और समाज की राय नहीं बदलती, ऐसे रिवाजों को उलट देना किसी एक के बूते की बात नहीं है।" आलोक की इस राय के बाद मैं भी उसे क्‍या कहता?
      मैंने बात को वहीं छोड़कर जब अपने लिए किराये के मकान के बारे में पूछा तो उसने बताया कि उसी मोहल्‍ले में उन्‍हीं के जानकार असमिया परिवार के घर में दो कमरों का हिस्‍सा खाली है। मकान के एक भाग में मकान मालिक का परिवार रहता है और आधा हिस्‍सा वे किराये पर देने को तैयार हैं, अगर पसंद आ जाए, तो बात की जा सकती है।
      मैं तो बिना देखे ही हामी भरने को तैयार बैठा था। वैसे भी इतवार का दिन था और आलोक भी इतवार को कारोबार की छुटटी रखता है। हम दोनों तुरंत तैयार होकर मकान देखने के लिए पहुंच गये। वह असमिया शैली में बना साफ-सुथरा एक मंजिला मकान था, जो बाहर से एक बंधी इकाई की तरह लगता था। किराये पर देने वाला भाग ठीक-ठाक था। बारह-बाई-दस के दो कमरे एक सीध में बने थे। पिछले कमरे के आधे हिस्‍से में अंदर खुलती छोटी-सी रसोई और उसी की बराबरी में खुलता शौचालय और बाथरूम। मुझे मकान देखते ही पसंद आ गया। शायद दो-चार दिन पहले ही खाली हुआ था, इसलिए साफ-सफाई होनी बाकी थी। दीवारों का रंग-रोगन हुए भी काफी समय हो गया था शायद। मकान मालकिन ने बताया कि दो-चार दिन में रंग-रोगन का काम पूरा हो जायेगा। इसके लिए वे सप्‍ताह भर का समय मांग रही थी, जबकि मैं तो तुरंत आने को तैयार बैठा था। मेरे कुछ कहने से पहले ही आलोक ने उनकी बात मान ली। संकोच करते हुए मैंने किराया पूछा तो आलोक ने बताया कि अभी तक दो हजार में उठा हुआ था। दूसरा कोई लेता तो मकान मालकिन ढाई हजार से कम में राजी न होती, पर मेरे लिए दो में तैयार हो गई है। मैंने तुरंत किराये की राशि अग्रिम रूप से उन्‍हें सौंप दी।
      इन सात दिनों में मैं आलोक के परिवार में काफी घुल-मिल गया। उमा और दीपक की शर्म-शंका जरूर कुछ कम हो गई, लेकिन सुखदा की चुप्‍पी अभी वैसी ही कायम थी। कई बार शाम को उमा और सुखदा के साथ किसी घरेलू काम से पास वाले बाजार में घूम भी आता, पर बाजार में बात फकत् उमा से ही होती। सुखदा को दो-चार बार कुछ पूछा भी, लेकिन वह छोटा-सा उत्‍तर देकर मौन धारण कर लेती। मुझे उसका यह अबोलापन कुछ अटपटा-सा लगता।
     सप्‍ताह पूरा होने पर मुझे किराये के मकान में रहने के लिए जाना था, उसी शाम आलोक ने घर आकर बताया कि उसे अपनी पत्‍नी और बेटे को ससुराल से लाने के लिए कोलकाता जाना होगा। मैंने तुरंत कह दिया कि इसमें चिन्‍ता की कोई बात नहीं, मैं तो कल ही किराये के मकान में शिफ्‍ट हो जाउंगा, वह निश्चिन्‍त होकर कोलकाता हो आए। आलोक को मेरी बात कुछ कम जंची। बोला, क्‍या बात करते हो आनंद, मेरे मां-बाप के लिए जैसा मैं हूं, वैसा ही तू है। पिताजी की तो यों भी तबियत नर्म है, तेरे यहां रहने से घर में कुछ मदद ही रहेगी। इसलिए मेरी वापसी के बाद आराम से शिफ्‍ट हो जाना।"  
     आलोक के पिताजी और माताजी ने जब इस बात पर जोर दिया तो मुझे उनकी बात मान लेनी पड़ी। इधर सुखदा की चुप्‍पी ने भी जाने-अनजाने अपने प्रति मेरी दिलचस्‍पी को बढ़ा दिया था। मैं लगातार इस इंतजार में था कि थोड़ा एकान्‍त मिले तो मैं इसकी वजह जानूं। वह इतनी अबोली और अनमनी क्‍यों रहती है? आलोक की मौजूदगी में इस सब पर बात कर पाना मुश्किल था। शाम को उसके घर लौट आने के बाद तो वह दिखाई देनी ही बंद हो जाती। यों सुखदा का आलोक से देवर-भाभी का जो रिश्‍ता था, मैं भी इसी नजर से उसे देखता था। भले वह उम्र में मुझसे छोटी थी, लेकिन उस घर की बड़ी बहू होने के नाते मेरे लिए भी अब बड़ी भाभी जैसी ही हो गई थी। सुखदा का संकोच कई बार मुझे दुविधा में डाल देता। उमा जितनी सहजता से मुझे भाईजी कहकर संबोधित कर लेती, सुखदा मेरे लिए कोई संबोधन तय नहीं कर सकी। वह बोलती ही इतना कम थी कि शायद उसे किसी संबोधन की जरूरत ही नहीं थी।
     पिताजी की तबियत को लेकर आलोक अक्‍सर चिन्‍ता में रहता था। दो-एक दिनों से उनकी तबियत यों भी नर्म थी। मैंने उसे तसल्‍ली देने का प्रयास किया कि वह चिन्‍ता न करे, जरूरत पड़ने पर दवाई-पानी की कमी नहीं होगी। यह बात जानता था कि आलोक के बाहर जाते ही मेरी जिम्‍मेदारी अवश्‍य बढ़ जाएगी, जबकि गुवाहाटी मेरे लिए एकदम नयी जगह थी। मेरी तसल्‍ली के बाद आलोक उसी शाम कोलकाता के लिए रवाना हो गया।
     सवेरे जब सुखदा कमरे में चाय देने आई तो मैंने कुछ जानकारियां लेने के बहाने उसे बातचीत में लगा लिया। वह खाली ट्रे हाथ में लिये मेरे सवालों के छोटे-छोटे उत्‍तर देती रही। पास में खाली पड़ी कुर्सी पर बैठने का कहने के उपरान्‍त भी वह अपने पांवों पर ही खड़ी रही। मैंने चाय पीकर कप उसे वापस कर दिया। मैं कुछ और पूछता, तभी भीतर से मांजी के बुलावे की आवाज आ गई। वह खाली कप लेकर तुरंत कमरे से बाहर निकल गई।
      अगले दिन आलोक के पिताजी की तबियत और नर्म हो गई। उनके पेट और कलेजे में जलन-सी हो रही थी। शाम को डॉक्‍टर ने जांच कर उन्‍हें दवाई दे दी और उन्‍हें नींद आ गई। रात को ग्‍यारह बजने तक मैं, सुखदा और मांजी सभी उनके पास बैठे रहे। उमा और दीपक तो दस बजे अपने कमरे में जाकर सो गये। मां अक्‍सर बच्‍चों के पास ही सोया करती थी, पर उस रात ज्‍यादा थकान के कारण बातचीत करते करते वहीं पिताजी के पास ही दूसरे पलंग पर लेट गई और उन्‍हें नींद आ गई। रात को सवा ग्‍यारह बजे मैं भी सुखदा से एक ग्‍लास पानी देने का कहकर अपने कमरे की ओर बढ़ गया।
       थोड़ी देर बाद सुखदा पानी लेकर आ गई। ग्‍लास मेरे हाथ में देकर वह वह मेरे पास रुक गई। मैंने जब उससे नर्मी से पूछा कि वह इतनी गुमसुम और उदास क्‍यों रहती है? तो वह उसी तरह बिना कुछ बोले सिर नीचा किये आंगन की ओर घूरती खड़ी रही। मैंने जब अधिक आग्रह किया तो वह संकोच करती-सी खाली कुर्सी पर बैठ गई। सुखदा अभी इसी दुविधा में थी कि वह अपने मन की पीड़ा मेरे सामने प्रकट करे या नहीं। मेरी हमदर्दी से उसके मन में थोड़ी तसल्‍ली अवश्‍य हो गई थी और उसी विश्‍वास से वह मेरे पास बैठ गई थी। मैं जानता था कि उसका यह विश्‍वास बनाये रखना बेहद जरूरी है। बरसों बाद उसके साथ एकान्‍त में बात करने का यह मेरा पहला अवसर था और वह इसका कोई गलत अर्थ न लगाए, इस बात का मुझे विशेष ध्‍यान रखना था। किसी जवान विधवा के साथ एकान्‍त में बात करना कितना मुश्किल होता है, यह बात मैं अच्‍छी तरह जानता था। मैंने जब उसे इतनी तसल्‍ली और अपनापन देकर आग्रह किया तो उसने धीरे धीरे अपनी सारी व्‍यथा और आशंकाएं खोलकर मेरे सामने रख दीं।
      सुखदा ने अपनी मां के स्‍वर्गवास और उसके बाद बीते घटनाक्रम को बयान करने के बाद सार रूप में इतना ही कहा था, आनन्‍द, आप मेरे परिवार को अच्‍छी तरह जानते हैं, मेरी मां ने जीते-जी अपनी बेटियों की आंख में आंसू नहीं आने दिया। मेरी बड़ी बहन और बड़ा भाई आज उसी के बूते सुख की जिन्‍दगी जी रहे हैं। अगर भाई-भाभी का मन कमजोर न होता, तो आज शायद मुझे यहां आने की जरूरत न होती। मैं खुद एक बेटी की मां हूं, उसकी पीड़ा और चिन्‍ताओं को करीब से जानती हूं। छह महीने पहले अपनी मां के स्‍वर्गवास के बाद मैंने आलोक को दो-तीन पत्र लिखे कि वे मां-बाबूजी को कुछ समय के लिए देश पहुंचा दें या एक बार खुद आकर यहां का घर खोल जाएं, ताकि मैं घर में अपनी बेटी के साथ रह सकूं। इतने बरस तो मैंने अपनी मां के साथ जैसे-तैसे गुजार लिये, लेकिन अब भाई-भाभी पर बोझ बने रहने की बजाय मुझे अपने घर में रहना ही उचित लगता है। आलोक से दो बार फोन पर बात भी की, लेकिन मुझे अफसोस हुआ कि उनके लिए मेरी परेशानी किसी गिनती में नहीं थी। आखिर मैंने सीधे बाबूजी से बात की और अपनी चिन्‍ता–परेशानियों से अवगत कराया। उन्‍होंने ही शायद लोकलाज के दबाव में एक करीबी रिश्‍तेदार के साथ मुझे गुवाहाटी बुलवा लिया। तय तो यही हुआ था कि मां-बाबूजी या आलोक स्‍वयं मेरे साथ वापस चलकर उस घर में मेरे रहने की व्‍यवस्‍था कर आएंगे और मां-बाबूजी को मेरे पास छोड़ जाएंगे। लेकिन पिछले चार महीनों से मैं यहां अटकी पड़ी हूं, आलोक से जब भी बात करती हूं, किसी-न-किसी बहाने से टाल देता है। मेरी बच्‍ची वहां भाई के बच्‍चों के साथ बैठी है। पता नहीं किस हाल में है।" इतना कहते हुए उसकी आंखें छलछला आईं।   
     सुखदा की पीड़ा जानकर मैं अवाक् था। सूझ नहीं रहा था कि किस तरह उसे धीरज दिलाऊं। यह भी चिन्‍ता हो रही थी कि कहीं आलोक की मां न जाग जाए, और अपनी बहू को इस तरह किसी पराये के सामने रोते देखकर कुछ गलत न सोचने लगे। मैंने किसी तरह सुखदा को धीरज से काम लेने को कहा और आश्‍वस्‍त किया कि मैं कोई रास्‍ता निकालने का प्रयत्‍न अवश्‍य करूंगा। उसका ध्‍यान बंटाने के लिए यों ही पूछ लिया, तो आप यहां अकेली क्‍यों आ गईं, बेटी को भी अपने साथ ले आतीं। वह तो अभी छोटी ही होगी न। आपको यहां रहना पड़े तो क्‍या दिक्‍कत है, ये भी आपका अपना घर है।"
       मैं तो खुद यहां आकर बंध गई हूं, आनंदजी। अब तो वाकई यहां से वापस निकलना मुश्किल हो गया है। बिटिया को इसीलिए नहीं लाई कि जब हफ्‍ते दस दिन में वापस लौटना था तो उसे क्‍यों  कष्‍ट देती, यों वो छह बरस की है, मेरे साथ रहने की ज्‍यादा जिद भी नहीं करती। वह भाई के बच्‍चों के साथ पहले से घुली-मिली थी और भाई-भाभी ने भी यही सलाह दी कि बच्‍ची को उन्‍हीं के पास छोड़ जाऊं, बस यही गलती हो गई मुझसे।"   
     लेकिन आप तो इस घर की बड़ी बहू हैं, मां-बाबूजी भी आपका मान रखते हैं, फिर एक बार ढंग से बैठकर बात क्‍यों नहीं कर लेतीं? या तो वे बच्‍ची को यहीं बुलवा लेंगे या साथ चलकर आपकी व्‍यवस्‍था  कर देंगे। ये तो बिल्‍कुल वाजिब बात है। 
     अब तो कहने भर को इस घर की बहू रह गई हूं आनंद बाबू। पति के न रहने पर ससुराल में औरत की क्‍या कद्र रह जाती है, यह इतने बरसों में अच्‍छी तरह से जान गई हूं। लगता है, वह रिश्‍ता   उन्‍हीं के साथ कहीं खो गया है। बाबूजी भी बस लोक-लिहाज के कारण थोड़ा-सा खयाल रख लेते है, वरना सासूजी और देवरजी की तरफ से तो दुआ-सलाम हुआ ही समझें।"  
     अपनी निराशा को व्‍यक्‍त करने के लिए यों तो सुखदा के ये शब्‍द पर्याप्‍त थे, फिर भी जाने क्‍यों   पूछ ही लिया, क्‍या आलोक को आपसे कोई शिकायत है? वह आपके पति का सगा भाई है, आपका इस घर में उतना ही अधिकार है, जितना उसका। फिर ऐसी तो कोई तंगी-परेशानी भी नहीं कि कोई अपनों से ऐसा बरताव करे? सब अच्‍छा खाते कमाते हैं।"  
       इसी बात का तो रोना है। बहुत खाते-पीते आसामियों में गिनती होती है। चार बेटे-बेटी हैं सेठ लक्ष्‍मीचंद के, पर सारी संपत्ति अकेले आलोक बाबू को चाहिये। मैंने तो कभी भूलकर भी अपने हिस्‍से की बात नहीं की। फकत् इतनी-सी बात कहने आई थी कि वे एक बार मां-बाबूजी को मेरे साथ बीकानेर भेज दें, जिससे मैं बरसों से बंद पड़े घर को उनके सामने खुलवा कर साफ-सफाई करवा लूं, कोई टूट-फूट हो तो उसकी मरम्‍मत हो जाए और बच्‍ची को लेकर बस रहने भर का हिस्‍सा अपने लिए ठीक कर लूं। मेरे तो अपने कपड़े और घर के बर्तन तक उसी में बंद पड़े हैं। यों तो मैं इनसे बगैर पूछे भी घर खुलवा लूं तो मुझे कौन रोकने वाला है? लेकिन बेबात की बदमगजी क्‍यों हो? इसीलिए चाहती थी कि सारी बात राजी-खुशी इनके अपने हाथ से हो जाए। मुझे किसी से कोई और हिस्‍सेदारी नहीं चाहिये। खुद बी ए बी-ऐड हूं, कोशिश करके किसी स्‍कूल में छोटी-मोटी जॉब करके भी अपना गुजारा कर लूंगी। हां इतना जरूर चाहती हूं कि अपने घर में मेरे साथ भेदभाव न किया जाए।"   
      तो इसमें आलोक का क्‍या कहना है? क्‍या वह आपको उस घर में रहने से मनाही करता है?"
      आपके मित्र आलोक बाबू बहुत होशियार सेठ बन गये हैं। वे साम-दाम-दंड-भेद की सारी नीतियां बरतना जानते हैं। अगर भाभी तैयार हो तो यहीं सारी सुख-सुविधाएं देकर रखने को तैयार हैं, बस उनकी इच्‍छाओं का खयाल रखूं। यदि उनकी बातों को विरोध करूंगी तो इस पराई धरती पर मेरे साथ कोई हादसा करवाने में भी वे शायद ही चूकें, अगर उनके व्‍यवहार की शिकायत करूं तो उल्‍टे मुझ पर आरोप लगाकर बदनाम करने में भी संकोच नहीं करेंगे। बस उन्‍हें यह बात अच्‍छी नहीं लगती‍ कि मैं परिवार में अपने हक की बात करूं या अपने हिस्‍से का अलग ढंग से उपयोग करूं। अब तो किसी से बात करते हुए भी डर-सा लगा रहता है आनंद, मैं आखिर किस पर भरोसा करूं?"   
     यह तो बहुत दुख की बात है, सुखदा। मैं तो कल्‍पना भी नहीं कर सकता कि कोई सगा भाई  अपने बड़े भाई की पत्‍नी के साथ ऐसा रवैया रख सकता है, वह भी तब, जब उसका भाई संसार में न रहा हो।" मुझे पहली बार आलोक का मेहमान बनकर उस घर में रहना बोझ-सा लगने लगा। लेकिन अब तो उससे बड़ी चिन्‍ता यह हो गई कि सुखदा को इन हालात से निकालकर किस तरह उसके ठिकाने वापस पहुंचाया जाए। खुद को लेकर यह चिन्‍ता भी होने लगी थी कि कहीं सुखदा मेरी हमदर्दी का गलत अर्थ न लगाने लगे।
     तुमने बाबूजी या मांजी से इस बारे में बात नहीं की कभी? वे क्‍या कहते हैं?
     बाबूजी की बड़ी चिन्‍ता खुद उनका कमजोर स्‍वास्‍थ्‍य है। उनके पेट में अल्‍सर है। पूछने पर यही कहते हैं कि थोड़ी तबियत सुधर जाए तो कोई हल निकालेंगे। लेकिन पिछले दो महीने से यही हाल है। मैंने खुद इसी उम्‍मीद में इतने दिन निकाल दिये। जबकि आलोक की बदनीयत सामने आने के बाद तो एक दिन भी यहां रहना भारी लगता है। उसे तो इसी बात की शिकायत है कि मैंने उसकी नीयत में साथ नहीं दिया। इस बात से परेशान रहता है कि कहीं मैं घर में उसकी चर्चा न कर दूं। मैं क्‍या करूं आनंद, मां-बाबूजी को कहने से भी क्‍या होगा, उल्‍टा घर का अकाज ही होना है, उन्‍हें दुख होगा, उनका यह एक ही बेटा है, इतना बडा़ कारोबार है, और किसके भरोसे चलाएं?" कहते हुए सुखदा गहरे सोच में डूबकर चुप हो गई। मेरे पास भी कहने को कुछ नहीं था जैसे।
     गनीमत है कि वे हमारे बचपन के रिश्‍ते को नहीं जानते, वरना आपको यहां लाने जोखिम कभी न उठाते। मैं भी यही कोशिश करती हूं कि उनके सामने आपसे कोई बात न करूं। आप मुझे बचपन से जानते हैं और इस बची हुई दोजख जिन्‍दगी में भी मैं आपके उस अहसान को मैं कभी नहीं भूली – जो इन्‍सान किसी और को बचाने में अपनी जान जोखिम में डाल सकता है, उसके अपनेपन को कैसे भूला जा सकता है? जिस दिन मुझे यह जानकारी मिली कि आप आने वाले हैं, मेरा तो जी में जी आ गया। इस पराई जमीन पर कोई तो ऐसा दीखा, जिसे अपनी तकलीफ बयान कर सकी हूं।" सुखदा के चेहरे पर पहली बार मुझे शान्ति और संतोष का भाव दिखाई दिया।
      इसे अहसान मत कहो सुखदा, अगर अपना समझती हो तो इसे अपना हक समझो। मेरा तो विचार है कि एक बार ठंडे दिमाग से आलोक से बात कर लो, उसकी कमजोरियों को दरकिनार रख किसी तरह उसे इस बात के लिए राजी कर लो कि वह मां-बाबूजी को कुछ दिनों के लिए तुम्‍हारे साथ भेजने को तैयार हो जाए। जरूरत पड़े तो उसे यह भी जता दो कि तुम किसी दबाव में आने वाली नहीं हो। मेरा खयाल है, वह टकराव में आने से जरूर बचेगा। 
      हां सोचा तो मैंने भी कुछ ऐसा ही है, लेकिन डर इसी बात का है कि अगर बाबूजी की तबियत न संभली तो मेरी परेशानी निश्‍चय ही बढ़ जानी है, तब मांजी के चलने की गुंजाइश भी खत्‍म हो जायेगी। दो दिन बाद कोलकाता से उसकी बीबी के आ जाने के बाद यों ही घर का माहौल शायद ही अनुकूल रह पाए। उसकी पत्‍नी को मेरा यहां रहना कतई रास नहीं आएगा। उस स्थिति में लगता है, मुझे अकेले ही निकलने की हिम्‍मत बटोरनी होगी।"
      उसकी चिन्‍ता करने की अब जरूरत नहीं है। अभी तो खुद मुझे किराये वाले मकान में कुछ जरूरी सामान रखवाकर एक बार बीकानेर जाना है। उस स्थिति में तुम्‍हें सुरक्षित घर पहुंचा देना अब मेरी जिम्‍मेदारी समझो।" पूरे हालात जानने के बाद मैंने सुखदा को यह तसल्‍ली देना जरूरी समझा।
      वाकई यह चिन्‍ता दूर हो जाए, तो मेरे मन से बड़ा बोझ हट जाए। भर पाई मैं यहां आने और रहने से, कोई मेरे साथ चले तो अच्‍छी बात, न चल सके तो उनकी मरजी। घर की चाबी तो बाबूजी यों भी देने को तैयार बैठे हैं, उन्‍होंने ही तो इतने दिनों से धीरज दिला रखा है, वे आलोक के रवैये को जानते हैं, बस उसकी बदनीयती वाली बात मैंने उन्‍हें नहीं बताई और न बताने की जरूरत। वैसे बाबूजी खुद आलोक पर अब नजर रखने लगे हैं, घर में अगर मेरे साथ वह अच्‍छा बरताव न करे, तो उसे टोक भी देते हैं। पर इससे मेरी समस्‍या अपनी जगह बरकरार हे। अब सोचती हूं, आपका यहां आना वाकई मेरे लिए एक बडी उम्‍मीद जैसा हो गया है, मुझे तो अपनी वापसी अब आप ही के जिम्‍मे आती दिख रही है। इस बार आपकी पत्‍नी और घर वालों से मिलना हो जाए, तो वहां मेरा भी कोई अपना कहने वाला हो जायेगा।" सुखदा प्रसन्‍न मन से अपने भावी जीवन की कल्‍पना में विभोर होने लगी थी।  
       बीबी और परिवार तो अभी घर बसाने से बनेगा, सुखदाजी। अभी तो पीछे अपनी बूढ़ी मां और दो छोटे भाई-बहन को छोड़कर आया हूं, जो पढ़ रहे हैं। बहन ने बी ए कर ली है और मां की बड़ी चिन्‍ता उसकी शादी करना रह गई है। पिछले कुछ अरसे से मेरे पीछे पड़ी हुई है, पर मैं चाहता हूं कि पहले बहन के हाथ पीले हो जाएं तो एक बड़ी जिम्‍मेदारी पूरी हो जाए। 
      मेरी बात सुनकर सुखदा आश्‍चर्य से मेरी ओर देखती रह गई। उसकी आंखों में गहरा अपनेपन का भाव था, लेकिन फिलहाल उसने उसे शब्‍दों में बयान करना टाल दिया। उसने उठते हुए बस इतना ही कहा, बहुत भाग्‍यशाली हैं आपकी मां, जिन्‍हें आप जैसा बेटा मिला। वह लड़की भी बेहद खुशनसीब होगी, जिसे आप अपना जीवनसाथी चुनेंगे। ईश्‍वर आपकी हर कामना पूरी करे।"  
     सुखदा की इन दिली दुआओं से दूर मैं जाने अतीत की किन रूमानी स्‍मृतियों और कल्‍पनाओं में खो गया था, एक अनाम रिश्‍ता जो बनने पहले ही कहीं विलग गया। अगर वह समय पर आकार ले पाता तो आज सुखदा को ये दुर्दिन शायद न देखने पड़ते। अब हमारे पास क्‍या विकल्‍प बच गये हैं, मेरे लिए उन पर बात करना आसान नहीं है। एक अव्‍यक्‍त आत्‍मीयता और अपनापन है, जिसे शब्‍दों में बयान करने की कोई सूरत नहीं सूझ रही। इस बीच अपने को समेटती-सी वह उठी और एक फीकी मुस्‍कान को साथ लिए बाहर निकल गई। उसके विदा होने के बाद मैं उसी नीम अकेलेपन में देर तक सुखदा की परेशानियों पर सोचता ही रह गया, जिनका कोई संगत निस्‍तार बेशक न दीख रहा हो, लेकिन उन संभावनाओं के प्रति आश्‍वस्‍त जरूर था, जो उसके नये इरादों में आकार लेने लगी थी।      
*** 
-          नंद भारद्वाज
71/247, मध्‍यम मार्ग
मानसरोवर, जयपुर – 302020
मोबा 09829103455

8 comments:

  1. बहुत सशक्त कहानी, अंत तक बांधे रखती है. प्रेम के एहसास की एक बहुत ही भीनी अभिव्यक्ति अंत में पाठक के मन पर छूट जाती है. आपको बहुत बहुत बधाई.

    ReplyDelete
    Replies
    1. शुक्रिया परमेश्‍वर जी। यह जानकर अच्‍छा लगा कि आपको कहानी पसंद आई।

      Delete
  2. अच्छी कहानी. कैसे प्रेम हमेशा जीवित रहता है, इसका सुन्दर उदाहरण​.

    ReplyDelete
    Replies
    1. शुक्रिया गोपाल जी, आपको कहानी अच्‍छी लगी, यह जानकर खुशी हुई ।

      Delete
  3. अपने ही परिवेश से निकली सीधी सरल सी कहानी .... मन छू गयी

    ReplyDelete
    Replies
    1. आभार मोनिका जी, जानकर अच्‍छा लगा‍ कि आपको कहानी पसंद आई।

      Delete
  4. stri ke antarman ki peeda aur aaj bhi parivaar aur samaj m use uske adhikaro k liye jaddojehad krna...aaj stri ko sashakt aur aur barabar ke adhikaro ki baat ki jati h ..pr ghar ke darvaajo ki sand me jhakne pr pta chalta h...halat jas k tas h aaj bhi apni swatantrata ki ladai vo lad rahi h....bahut sundar aur sadhe shabdo m aapne us peeda ko pathko tk pahuchaya ..

    ReplyDelete
  5. बहुत सुंदर कहानी।पाठक को बाँधे रखने में सक्षम ।

    ReplyDelete