मातृ-दिवस पर मां को याद करते हुए -
बीत गये बरसों के उलझे कोलाहल में
अक्सर उसके बुलावों की याद आती है
याद आता है उसका भीगा हुआ आंचल
जो बादलों की तरह छाया रहता था कड़ी धूप में
रेतीले मार्गों और अधूरी उड़ानों के बीच
अब याद ही तो बची रह गई है उस ठंडी छांव की
बचपन के बेतरतीब दिनों में
अक्सर पीछा करती थी उसकी आवाज
और आंसुओं में भीगा उदास चेहरा –
अपने को बात-बात में कोसते रहने की
उसकी बरसों पुरानी बान –
वह बचाए रखती थी हमें
उन बुरे दिनों की अदीठ मार से
कि जमाने की रफ्तार में छूट न जाए कहीं साथ
उसकी धुंधली पड़ती दीठ से बाहर
दहलीज के पार
हम नहीं रह पाए उसकी आंख में
गुजारे की तलाश में भटकते रहे यहां से वहां
और बरसों बाद जब कभी
पा जाते उसका आंचल
सराबोर रहते थे उसकी छांव में
वह अनाम वत्सल छवि
अक्सर दीखती थी उदास
बाद के
बरसों में,
कहने को जैसे कुछ नहीं था उसके पास
न कोई शिकवा-शिकायत
न उम्मीद ही बकाया
फकत् देखती भर रहती थी
अपलक
हमारे बेचैन चेहरों पर आते उतरते रंग -
हम कहां तक उलझाते
उसे अपनी
दुश्वारियों के संग?
*
maa ke jagha koi nahi le sakta bahut sunder kavita
ReplyDelete