Monday, November 5, 2018


उजाले के उत्‍सव से बदलता रिश्‍ता 

·            नन्द भारद्वाज
       
भारतीय जनमानस का सबसे बड़ा लोक-उत्सव दीपावली सदियों से लोक जीवन में उजाले के उत्सव का ही पर्याय माना गया है। यद्यपि हमारे सभी उत्सव और त्यौहार सदियों पुरानी कृषक संस्कृति की ही उपज रहे हैं और उनसे जुड़े अनुष्ठान भी उसी की ओर संकेत करते हैं, लेकिन महानगरीय सभ्यता में इन उत्सवों का अपना अलग अंदाज भी बनता-बदलता रहा है। उत्सवधर्मिता हमारे स्वभाव का आवयक अंग रही है और उसी के चलते महानगरीय जीवन में इन पारम्परिक उत्सवों को मनाने का तरीका भी उत्तरोत्तर अधिक खर्चीला, प्रदर्शनप्रिय और आडम्बरपूर्ण होता गया है। यह उसी प्रवृत्ति और प्रक्रिया का परिणाम है कि आज दे के प्रायः सभी महानगरों का जनमानस उसी आदत का अभ्यस्त हो गया है। यह उसी प्रवृत्ति का परिणाम है कि दीपावली जैसे उजाले के प्रतीक पर्व के इर्द-गिर्द आडम्बर और अज्ञानता का काला आवरण और गहरा हो गया है, बावजूद इसके कि आज हर महानगर के  बड़े बड़े व्यापारिक प्रतिष्ठान्र, ऐतिहासिक इमारतें, सार्वजनिक स्थल, सड़कें और मुख्य बाजार रंग-बिरंगी रौनियों की चकाचैंध में दमकने लगते हैं और अपने को दूसरों से इक्कीस साबित करने की होड़ में अपने भीतर के अंधेरे को लगातार अनदेखा किये रहते हैं। इन्हीं बढ़ती व्यावसायिक गतिविधियों, व्यापारिक मेलों, सजे-धजे पर्यटन स्थलों, पांचसितारा होटलों और बहुमंजिले मॉल्स ने मिल कर एक ऐसी कार्निवाल कल्चर का निर्माण कर दिया है कि उसके चलते बड़े शहरों के एक वर्ग-विशेष की आक्रामक जीवन-शैली से अपनी संस्कृति और लोक-उत्सव की परम्परा को बचा कर रखना कतई आसान नहीं रह गया है।    
      यह ठीक है कि एक सांस्कृतिक परम्परा और रिवाज से जुड़ा समाज अपनी लोक-मान्यताओं  और परम्परा के अनुसार उसी अन्तःप्रेरणा और उमंग से उन्हें स्वयं मनाता और उनसे आनंदित होता आया है। उत्सव विशेष को मनाने की प्रेरणा, उससे जुड़ी लोक-मान्यता और अनुष्ठान की प्रक्रिया भी कमोबे एक-सी रहती आई है।  अपनी आर्थिक अवस्था और अभिरुचि के अनुरूप उसे मनाने के परिमाण और मात्रा में बेक अन्तर रहा हो, उससे प्राप्त होने वाले पारिवारिक सुख, पारस्परिक सद्भाव और आत्मिक आनन्द में शायद ही कोई अन्तर रहा हो।
     राजस्थान का गुलाबी नगर जयपुर सदा से ही उजाले के उत्सव दीपावली को अपने अलग अंदाज से मनाने के लिए महूर रहा है - यहां के प्रमुख चैराहों और रास्तों पर सजने वाले रौानी के दरवाजों, रंग-बिरंगी रौनियों से सजने वाले बाजारों, ऐतिहासिक इमारतों और जगमगाती चैड़ी सड़कों पर इस उत्सव का जो रूप निखर कर आता है वह अक्सर यह भ्रम पैदा करता है कि अब इस शहर के लोक-जीवन में अंधेरे के लिए कोई स्थान नहीं रह गया है, चहुंओर शान्ति और सुख-समृद्धि का ही बोलबाला है। जबकि पुतैनी शहर की गलियों, कच्ची बस्तियों और शहर की सीमा से शुरू होने वाले देहात की वास्तविकता कुछ और ही कहानी बयान करती है। वहां आज भी अशिक्षा, असमानता, अन्धविवास, बेरोजगारी, गरीबी, जीवन की बुनियादी सुविधाओं का अभाव, आर्थिक शोषण, स्त्रियों के साथ अमानवीय बरताव और इन सभी तरह के अभावों के साये में पनपता अंधेरा इतना गहरा और विकराल है कि इस अवस्था में जीने वाले लोगों ने इसी को अपनी नियति मान लिया है। यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि बड़े शहरों की कार्निवाल कल्चर की चकाचैंध और बाजारों की रंगीनियां तो हमें आकर्षित करती हैं, लेकिन उनके साये में पलते आर्थिक अपराध, बेईमानी, भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, लूट-खसोट, गलाकाट स्पर्धा, भेदभाव आदि पर एक मिनट के लिए भी नजर नहीं टिकती। 
      जीवन की इन कड़वी सच्चाइयों के बावजूद नगरीय और देहाती लोक-जीवन में जितना मान और महत्व इस उत्सव को दिया जाता है, उतना शायद ही किसी अन्य को दिया जाता हो। देहात का तो यह सबसे बड़ा लोक-उत्सव माना जाता है, जिसकी पूरे वर्ष प्रतीक्षा रहती है। दरअसल इसकी तैयारियां दहरे के बाद से ही शुरू हो जाती हैं - घर की साफ-सफाई, रंग-रोगन, उत्सव के लिए आवयक चीजों का इन्तजाम, नये कपड़ों की खरीद, बच्चों के लिए आतिबाजी  आदि कितने ही काम हैं जिन्हें लोग पूरे मन और मनोयोग से करते हैं। देहात में जिनके घर कच्चे होते हैं, वे भी इस अवसर पर अपने घरों को विशेष रूप से सजाते हैं। वे घर की दीवारों को गोबर से लीप कर उन्हें नया रूप देते हैं, उन लीपी हुई दीवारों और आंगन पर सफेदी का आधार बना कर रंगों से नये मांडणे बनाये जाते हैं और घर को सजा कर इस तरह तैयार किया जाता है कि कम-से-कम वह दीपावली को तो नया और तरोताजा दीखे ही। त्यौहार के प्रमुख दिनों में शाम होते ही घर में मिट्टी के दीये जलाए जाते हैं, रात में देवी लक्ष्मी और भगवान गणे की पूजा की जाती है। इस अवसर पर घर में विशेष रूप से नये पकवान तैयार किये जाते हैं और परिवार के सभी सदस्य साथ बैठकर उनका सेवन करते हैं। ऐसी भी लोक-मान्यता है कि उस दिन घर का कोई सदस्य परिवार से दूर न रहे। जो लोग काम-काज के सिलसिले में घर से दूर किसी अन्य जगह पर रहते हैं, उनसे भी यही अपेक्षा की जाती है कि वे दीपावली के अवसर पर अपने घर अवय पहुंच जाएं। इसी तरह की लोक-मान्यताएं कमोबे हर समाज में अपने त्यौहारों को लेकर प्रचलित रही हैं और ये सभी त्यौहार उसी परम्परा का निर्वाह करते हुए पूरे हर्षोल्लास से आज भी मनाये जाते हैं।
    समय बदलने के साथ इन त्यौहारों को मनाने के तौर-तरीकों में बहुत से बदलाव आ रहे हैं। इन बदलावों के पीछे बहुत से कारण हैं और कुछ तो अत्यन्त चिन्ता उपजाने वाले, जिन पर अगर समय रहते ध्यान नहीं दिया जा सका तो इसके दूरगामी परिणाम शायद ही अच्छे हों। लेकिन सारे बदलाव नकारात्मक ही हों, ऐसा नहीं है। हम जानते हैं कि बदलाव की इस प्रक्रिया को रोका नहीं जा सकता और न रोका जाना चाहिए - तकनीकि विकास और जीवन-शैली में आने वाली तब्दीलियों के अनुरूप सामाजिक जीवन में परिवर्तन आना स्वाभाविक है, इससे विकास की प्रक्रिया को गति मिलती है, मनुष्य की जीवन-शैली में परिवर्तन आता है, लेकिन यही परिवर्तन यदि हमारे जीवन-मूल्यों, पारिवारिक रितों और सामाजिक सद्भाव पर विपरीत असर डालने लगे तो यह निचय ही चिन्ता की बात है और इस अर्थ में इस परिवर्तन की दिाा पर नजर रखना जरूरी हो जाता है।
      बढ़ती व्यावसायिकता के चलते एक खतरा इस बात का भी है कि यही परिवर्तन उन त्यौहारों को उनके मूल स्वरूप से इतना दूर ले जाएंगे कि इन्हें मनाने की बुनियादी भावना ही शायद नष्ट हो जाय और बाहरी व्यावसायिक आकर्षणों से जो रूप सामने आएगा उसका हमारी जातीय संस्कृति और लोक-जीवन से शायद कोई रिश्‍ता ही न रह जाय। दरअसल त्यौहार या उत्सव आज व्यावसायिक गतिविधियों के लिए सबसे बड़े आकर्षण का केन्द्र बनते जा रहे हैं - दीपावली, हरा, दुर्गापूजा, होली, ईद, क्रिसमस आज व्यावसायियों के लिए ऐसे लुभावने अवसर हो गये हैं कि हर कोई उसका तत्काल लाभ ले लेना चाहता है। हर शहर और बड़े कस्बे का बाजार इन उत्सवों को व्यावसायिक मेले की शक्ल में ढाल देने पर आमादा है। महानगरों में तो यह और भी बड़ा आकार ग्रहण करता जा रहा है। हर साल महानगर की नई कॉलोनियों में सजने वाले दहरे के मेले में रावण का आकार और कद कुछ और ऊंचा हो जाता है और उसमें आयोजित होने वाली गतिविधियों और आतिबाजी का उत्सव के मूल रूप से कोई लेना-देना नहीं रह जाता। मुंबई के फिल्मी तमाशे की तर्ज पर गुजरात का गरबा और डांडिया रास पाचात्य धुनों पर सवार होकर जयपुर-दिल्ली ही नहीं, इस कार्निवाल कल्चर की मांग पर कहीं भी डाका डाल सकता है। यह कोई नहीं पूछता कि इस अंचल या प्रदे के अपने भी कुछ लोकप्रिय कलारूप होंगे? देशों और प्रदेशों के बीच अपने कलारूपों का सांस्कृतिक विनिमय एक अच्छी और स्वस्थ परम्परा है, लेकिन वह अपनी संस्कृति और कलारूपों की उपेक्षा करके तो नहीं निभेगी।
     क्या यह चिन्ता की बात नहीं है कि आम तौर पर महानगरों में अब दीपावली जैसे पर्व को मनाने में आम नागरिक की भूमिका बहुत गौण होकर रह गई है। अब यह बाजार तय करता है कि आप अपने घर की सजावट किस तरह की रखेंगे, आप किस काट के कपड़े पहनेंगे, क्या खाएंगे और अपनी सहज जीवन-प्रक्रिया को छोड़कर किन आरोपित तौर-तरीकों को अपनाने के लिए बाध्य होंगे। व्यक्ति के विकास, उसके पारिवारिक सुख और पारस्परिक सद्भाव में वैसे भी बाजार की भला क्या दिलचस्पी हो सकती है? चिन्ता की बात यही है कि वैयक्तिक सुख और आत्मिक आनन्द से भी यदि उसे वंचित कर दिया जाए तो उत्सव का उसके निजी जीवन में क्या महत्व रह जाएगा? मुझे तो यह भी लगता है कि यदि इस पर समय रहते बाजार ने भी अपनी भूमिका पर न सोचा और अपने रुख को ठीक न किया तो स्वयं बाजार भी अपने को कितना बचा पाएगा, कहना कठिन है।
     निस्संदेह दीपावली रौनी का सबसे बड़ा लोक-उत्सव है और उस रौशनी के प्रति हर व्यक्ति के मन में आकर्षण भी स्वाभाविक है लेकिन कोई भी व्यक्ति स्वयं को उसके प्रति तत्पर, ऊर्जावान और सृजनशील तभी तक बनाए रख सकता है जब तक वह व्यापक लोकहित के साथ अपना रिश्‍ता ठीक तरह से बनाए रखे औैर रौनी के नाम पर परोसे जाने वाले आडम्बरों और छद्मों से निरन्तर सतर्क रहे। गलियों और बस्तियों में पसरे अंधेरे से भी तभी लड़ा जा सकता है जब नये ज्ञान-विज्ञान और रौनी के अपने साधन हमारे पास हों और उचित समय पर उनके सही उपयोग की समझ भी। परिवर्तन और सृजन की प्रक्रिया में नये विचारों, नयी तकनीक और नये नजरिये की अपनी अहमियत है, लेकिन अपनी सांस्कृतिक परम्परा और लोक-संवेदना से कट कर हम कुछ भी करने का प्रयास करेंगे तो वह कितना ग्राह्य और गुणकारी साबित होगा, इसका फैसला तो एक लोकतांत्रिक समाज में जागरूक लोक ही तय करेगा।
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